Saturday, December 24, 2016

नाम में क्या रक्खा है, नाम में सब रक्खा है!


saifपंकज शर्मा — जिस मुल्क़ में लोग विपदा के वक़्त अपने भाई को छोड़ कर शत्रु प्रभु राम की शरण में चले गए विभीषण के नाम पर अपने बच्चे का नामकरण करने तक का सकारात्मक साहस नहीं दिखाते; वहां मिर्ज़ा ग़ालिब, रवींद्रनाथ टैगोर और पृथ्वीराज कपूर की रक्त-परंपरा से जुड़े सैफ़ अली खान और करीना कपूर ने अपने नवजात का नाम चौदहवीं सदी के क्रूर और निष्ठुर शासक के नाम पर तैमूर रख कर सबको सन्ना दिया। पिछले पांच दिनों से नोट-बंदी के बाद सबसे ज़्यादा फ़िक्र इस बात की हो रही है कि नाम में क्या रक्खा है, कि नाम में ही सब रक्खा है।
कौन जाने, जब तुरगाई बरलस ने अपने नवजात का नाम 680 साल पहले तैमूर रखा था तो यह सोच कर रखा था कि तुर्की के इस शब्द का अर्थ लोहा होता है या वह अपने बेटे को आगे चल कर सचमुच आततायी बनाना चाहता था? यहां-वहां अपनी क्रूरता के गहरे निशान छोड़ने के बाद 1398 में तैमूर लंग समरकंद से भारत के लिए रवाना हुआ और सिंधु, रावी और झेलम को पार कर सितंबर के महीने में मुल्तान के पास पहुंचा।
अगले तीन महीने मार-काट और खून-खराबे से भरे थे और दिसंबर में जब वह दिल्ली पहुंचा तो कहते हैं कि उसने एक लाख से ज़्यादा लोगों की गर्दनें बेरहमी से काट फैंकीं। ज़ाहिर है कि भारतीय मानस में तैमूर बतौर वहशी स्थापित है और इसीलिए बावजूद इसके कि अपने बच्चे का नाम रखना किसी का भी बेहद निजी मसला है, सैफ़-करीना की संतान का नाम-चयन लोगों को खटका।
सैफ़ के पिता मंसूर अली खान पटौदी के अब्बाजान इफ़्तिखार अली, मुहम्मद इब्राहीम अली की संतान थे। इब्राहीम अली की पत्नी सहर बानू लोहारू के नवाब की पुत्री थीं और इस नाते मिर्ज़ा असदुल्लाह बेग़ ख़ान यानी चचा ग़ालिब उनके रिश्ते में हुए। सैफ़ की मां शर्मिला टैगोर के पिता गीतींद्रनाथ, रवींद्रनाथ टैगोर के दूर के रिश्ते में थे। शर्मिला की मां लतिका बरुआ रवींद्रनाथ के भाई द्विजेंद्रनाथ की पोती थीं। शर्मिला की फिल्में देख कर तो हम जैसे कई लोग बड़े हुए हैं, लेकिन उनकी ज़हीनियत की मिसालें मैं ने नज़दीक से तब देखीं, जब वे फिल्म सेंसर बोर्ड की अध्यक्ष थीं और मैं बोर्ड का सदस्य। करीना रंगमंच और फिल्मी परदे के महानायक पृथ्वीराज कपूर की वंश श्रंखला से जुड़ी हैं। इसलिए सैफ़-करीना का ज़हीन-अतीत अगर लोगों की इस भावुक प्रतिक्रिया को उजागर कर रहा है कि अपनी संतान को तैमूर नाम देकर उन्होंने भारतीय-मानस के साथ ज़रा ज़्यादती कर दी है तो इसे शिरोधार्य करने में मुझे भी कोई हिचक नहीं है।
अरबी के शब्द ओसामा का मतलब होता है शेर। ओसामा-बिन-लादेन की नियति के पीछे कुछ भी कारण रहे हों लेकिन अगर आज कोई ताल ठोक कर अपने बेटे का नाम ओसामा रखे तो कितने लोग अपने मुंह का ज़ायका ठीक रख पाएंगे? रावण के ख़लिफ़ा राम के जिस युद्व को हम असत्य पर सत्य की विजय मानते हैं, उसमें रावण के भाई विभीषण को सत्य का साथ देने पर भी बच्चों के नामकरण में ऐसा अस्पृश्य क्यों माना जाता है? कन्नौज साम्राज्य के जयचंद के पराक्रमी होने पर क्या किसी को शक़ है और उसने मुहम्मद गौरी को पृथ्वीराज चौहान पर आक्रमण करने के लिए बुलाया था या नहीं, इस पर संदेहों की कमी नहीं है, मगर अपने बच्चे का नाम जयचंद रखने से पहले आज भी सब इतना क्यों सोचते हैं? जिस भरत के नाम पर देश का नाम भारत पड़ा, उस भरत की मां और केकेया सामा्रज्य के राजा अश्वपति की पुत्री कैकेयी का नाम कितने लोग अपनी बेटियों को देने के लिए तैयार होंगे? सैफ़-करीना के तैमूर की हिफ़ाजत में अपने-अपने छाते निकाले बैठे लोगों में से कितने अपनी संतान को कैकेयी की दासी मंथरा के नाम से पुकारने को तैयार हैं?
तो अगर नाम में कुछ नहीं रक्खा तो इन नामों पर ऐतराज़ क्यों? लेकिन जब नाम के पीछे कर्मों का इतिहास जुड जाता है तो फिर नाम में ही सब रक्खा होता है। नाम जब कर्मों का पर्याय बन जाते हैं तो यह सोच लेने की ज़िम्मेदारी निभा लेने में कोई बुराई नहीं है कि अपनी संतान को क्या नाम दिया जाए। रखने को सैफ़-करीना अपने दुलारे का नाम चंगेज़ से लेकर पोल पोट तक, हिटलर से लेकर इदी अमीन तक और तैमूर से ले कर ओसामा तक कुछ भी रखने को स्वतंत्र हैं और अगर कोई बजरंगदली उनकी इस आज़ादी को छीनना चाहता है तो मेरे जैसे हज़ारों-लाखों देशप्रेमी सैफ़-करीना का सुरक्षा-कवच बन कर संस्कारों के स्वयंभुओं को खदेड़ बिना नहीं मानेंगे, लेकिन अगर सैफ़-करीना अपनी वंश-बेल की नाम-पंरपरा को ले कर संवेदनशीलता दिखाते तो कम-से-कम नवजात तो आते ही नाहक के विवाद में न पड़ता!
जो होना था, सो, तो अब हो चुका। हमारे पास यह मानने का भी कोई कारण नहीं है कि सैफ़-करीना ने जानबूझ कर किसी को चिढ़ाने की गरज से हिंदुस्तान को ‘तैमूर’ दिया है। करीना सैफ़ की दूसरी बीवी हैं और तैमूर करीना की पहली संतान होंगे, मगर सैफ़ की तीसरी औलाद हैं। बावजूद इसके न सैफ़ इतने अलपरवाह रहे होंगे कि बिना सोचे-समझे अपनी संतान को कोई नाम दे दें और न करीना इतनी लापरवाह होंगी कि नाम पर गौ़र न करें। शर्मिला भी क्या इतनी बेपरवाह हो सकती हैं कि बरसों बाद आई ख़ुशी के माथे पर यूं ही कुछ भी लिख जाने दें?
इसलिए पूरे परिवार के सर्वसम्मत फ़ैसले का सभी को सम्मान करना चाहिए। न तो संस्कृति के ठेकेदार यह तय कर सकते हैं कि किसकी संतान का क्या नाम होगा और न क़ानून की कोई क़िताब यह तय करने का हक़ रखती है कि कौन किस नाम से पुकारा जाएगा। यह तो हम खुद ही तय करेंगे कि हमारे बच्चे किस नाम से बुलाए जाएं। कल को अगर कोई युगल अपने बच्चे को किसी गाली का नाम दे दे तो आप कौन? बड़ा होकर वह बच्चा ही अगर अपने मां-बाप की प्रयोगधर्मिता को चुनौती दे डाले तो बात अलग है। आपने देखा ही होगा कि किस तरह अपने नामों के पुरानेपन से कुंठित लोग अपने माता-पिता को कोसते हुए बाद में पूरे नाम की जगह प्रथमाक्षरों का इस्तेमाल करने लगते हैं।

घनघोर वास्तविकता से पीड़ित जिस समाज में हम आजकल जी रहे हैं, वह आक्रामकता सिखाता है। ऐसे दौर में संवेदना की झील लगातार उथली होती जा रही है। दूसरों से हमें कोई लेना-देना नहीं रह गया है। यह भावनाओं के पारस्परिक आदर का नहीं, अनादर का युग है। हमारे सामाजिक-राजनीतिक रहनुमाओं में वह नैतिक ताक़त नहीं है, जो आचार-व्यवहार के नाजु़क तंतुओं को जोड़े रखने में भूमिका अदा करती है। अब तो सबसे बड़ा खतरा ही उन लोगों के भोथरेपन का है, जो अलग-अलग क्षेत्रों पर काबिज़ हो गए हैं। भारत को जिस पुनराविष्कार की ज़रूरत है, वह तो किसी की भी चिंताओं में दूर-दूर तक शामिल नहीं है। हमारे सियासी, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक नेतृत्व का पूरा ध्यान तो एक ऐसा संसार बनाने में लगा हुआ है, जिसमें बाकी सब तो होगा; मानवीय संवेदनाओं, भावनाओं और सरोकारों की कोई जगह नहीं होगी। और, आप हैं कि अब भी एक नाम पर पिले हैं! (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)

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