tag:blogger.com,1999:blog-52419102650907199262024-02-08T02:15:43.457-08:00पंकज शर्माPankaj Sharmahttp://www.blogger.com/profile/13850757662593978128noreply@blogger.comBlogger434125tag:blogger.com,1999:blog-5241910265090719926.post-61398122335418851572021-08-21T04:28:00.007-07:002021-08-21T04:28:33.120-07:00राहुल गांधी का ‘ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः’ क्षण<header class="entry-header alignwide" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif; margin: auto; max-width: 100%; padding: 0px 15px;"><h1 class="entry-title" style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 40px; line-height: 60px; margin: 0px; padding: 0px;"><img alt="" class="avatar avatar-96 photo lazyloaded" data-ll-status="loaded" height="96" loading="lazy" sizes="(max-width: 96px) 100vw, 96px" src="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg" srcset="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg 96w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-150x150.jpg 150w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-250x250.jpg 250w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-100x100.jpg 100w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-24x24.jpg 24w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-48x48.jpg 48w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-300x300.jpg 300w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma.jpg 400w" style="border-radius: 50px; border-style: none; box-sizing: border-box; display: block; font-size: 13px; height: 30px; max-width: 96px; width: 30px;" width="96" /></h1><div class="article-info" style="align-items: center; border-bottom: 1px dotted rgb(0, 0, 0); box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: row wrap; font-size: 13px; margin-bottom: 10px; padding: 20px 0px; place-content: center space-between;"><div class="article_inner" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex;"><div class="post-autor-sr" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; margin-right: 35px; position: relative;"><span style="box-sizing: border-box;"><a href="https://www.nayaindia.com/author/pankaj" style="box-sizing: border-box; color: black; text-decoration-line: none; text-transform: capitalize;">By पंकज शर्मा</a></span></div><div class="post-date-sr" style="box-sizing: border-box; margin-right: 35px; position: relative;">August 21,2021</div><div class="post-count-sr" style="box-sizing: border-box; margin-right: 35px; position: relative;"><br /></div></div></div></header><div class="entry-content" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif;"><div class="news_two_block" style="box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; justify-content: space-between;"><div class="news" id="news" style="align-items: baseline; box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: column nowrap; max-width: 1230px; padding-left: 15px; padding-right: 15px; place-content: stretch flex-start; width: 861px;"><div class="news_main_container" style="box-sizing: border-box; max-width: 100%; text-align: justify;"><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;"><span style="box-sizing: border-box; font-weight: 700;">यह अश्वमेध यज्ञ का नहीं, </span><span style="box-sizing: border-box; font-weight: 700;">राजसूय यज्ञ का समय है। यह बहेलियों के जाल को तार-तार करने का वक़्त है। ‘</span><span style="box-sizing: border-box; font-weight: 700;">नाभिषेको न संस्कारः सिंहस्य क्रियते वने । विक्रमार्जितसत्त्वस्य स्वयमेव मृगेंद्रता ।।’ </span><span style="box-sizing: border-box; font-weight: 700;">शेर को जंगल का राजा नियुक्त करने के लिए न तो कोई राज्याभिषेक किया जाता है और न कोई पूजा-पाठी संस्कार। राहुल मुझ नाचीज़ की सुनें तो ठीक, </span><span style="box-sizing: border-box; font-weight: 700;">न सुनें तो ठीक। अपनी बात कहना अपना काम है।</span></p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">कल राजीव गांधी का जन्म दिन था और अगर त्रासद हादसे ने उन्हें न छीना होता तो आज वे ज़रूर हमारे साथ होते और 77 बरस के होते। आजकल 77 की उम्र होती ही क्या है? मोतीलाल वोरा शरीर से भले ही थोड़े थक गए थे, मगर दिमाग़ी तौर पर 92 की उम्र तक चुस्त रहे और कांग्रेस मुख्यालय में नियमित बैठ कर काम करते रहे। लालकृष्ण आडवाणी 93 के हैं और हर लिहाज़ से चुस्त-दुरुस्त हैं। डॉ. कर्ण सिंह 90 के हैं और कई नौजवानों से बेहतर सेहत है उनकी। मुरली मनोहर जोशी 87 के हैं और खूब स्वस्थ हैं। शिवराज पाटिल 85 के हैं और वैसे-के-वैसे हैं। राज्यसभा में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे 79 के हैं और रोज़ ताल ठोकते हैं।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">लोकसभा के मौजूदा सदस्य शफ़ीकुर्रहमान बर्क 91 के हैं। फ़ारूक अब्दुल्ला और चौधरी मोहन जटुआ 83 के हैं। मुहम्मद सादिक 82 के हैं। मुलायम सिंह यादव 81 के हैं। टी. आर. बालू, अबू हसीम खान चौधरी, श्रीनिवास दादासाहब पाटिल और सिद्दप्पा बसवराज 80 के हैं। राज्यसभा में दोनों पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और एच.डी. देवेगौड़ा 88 साल के हैं। सुखदेव सिंह ढींडसा 85 के हैं। के. केशवराव और एस.आर. बालासुब्रह्मण्यम 82 के हैं। सुब्रह्मण्यन स्वामी, महेंद्र प्रसाद, एम. षण्मुगम और लक्ष्मीकांत राव 81 के हैं। शरद पवार, ऑस्कर फर्नांडिस और हरनाथ सिंह यादव 80 के हैं।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">तो राजीव गांधी तो आज की लोकसभा में 79 के शिशिर अधिकारी और राज्यसभा में 78 साल की अंबिका सोनी से भी छोटे होते। सोचिए कि अगर वे होते तो आज की संसद कैसी होती? अंदाज़ लगाइए कि अगर वे होते तो आज की कांग्रेस कैसी होती? अगर वे होते तो आज की भारतीय जनता पार्टी कैसी होती? वे होते तो क्या नरेंद्र भाई मोदी आज अपने को हिंदुओं का हृदय-सम्राट घोषित कर प्रधानमंत्री बने बैठे होते? अगर राजीव गांधी आज होते तो देश की अर्थव्यवस्था ऐसी बदहाल होती? अगर वे होते तो किसी भी महामारी के वक़्त क्या मोर से खेल रहे होते? वे होते तो क्या राजनय के संसार में भारत की ऐसी फ़ज़ीहत हो रही होती?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">राजीव गांधी होते तो वे पामुलपर्ति वेंकट नरसिंहराव प्रधानमंत्री नहीं होते, जिनके राज में भारत का सामाजिक जीवन दो-फाड़ होने पर बाक़ायदा मुहर लगी। जिनके राज में देश के आर्थिक-भाखड़ा के सारे दरवाज़े ऐसे खुले कि भरभरा कर आई उदारीकरण की बाढ़ में बहुत कुछ बह कर इधर-उधर चला गया। राजीव होते तो अटल बिहारी वाजपेयी भी शायद प्रधानमंत्री नहीं बन पाते। वाजपेयी भले ही बहुत भले थे, लेकिन उनके जमाने में ही सरकारी अंगने में आमोद-प्रमोद और रंजन-मनोरंजन को संस्थागत स्वरूप मिला। अटल जी के आंख-कान-नाक प्रमोद महाजन और दत्तक दामाद रंजन भट्टाचार्य के बोए बीजों ने राजनीति और कारोबार की दुनिया को ऐसी सतरंगी फ़सल से नवाज़ा कि क्या कहूं?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">राजीव गांधी होते तो देश का साबका हरदनहल्ली देवेगौड़ा और इंदर कुमार गुजराल से भी नहीं पड़ता। सत्ता के दलालों की प्रधानमंत्री कार्यालय में जैसी आवभगत देवेगौड़ा के वक़्त में हुई, भूतो न भविष्यति थी। विजय माल्या को भूमिपुत्र मानने वाले देवेगौड़ा ने उनके लिए दो बार राज्यसभा का दरवाज़ा खोला था। उनके सियासी नृत्यांगन का परदा इतना झीना था कि ऐसों-ऐसों ने ताकझांक कर ली, जो कभी अपने घर से बाहर भी नहीं निकले थे। इंदर कुमार गुजराल ने तो प्रधानमंत्री बन कर वह किया कि कोई मूढ़ भी न करता। उनके ‘गुजराल-सिद्धांत’ का नतीजा देश को बहुत भुगतना पड़ा। प्रधानमंत्री बनने के बाद गुजराल ने रॉ की पाकिस्तान-डेस्क को ही पोटली में बांध कर रख दिया। करगिल इसी निर्णय की देन था। नेपाल का कालापानी विवाद भी गुजराल के सौजन्य से ही भारत के गले पड़ा। 1997 की गर्मियों में जब वे नेपाल गए तो वहां की सरकार ने पहली बार बाकायदा यह मसला उनके सामने उठाया और प्रतिकार करने के बजाय गुजराल सिले होंठ लिए लौट आए।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">इसलिए जिन्हें आज लग रहा है कि 56 इंच के किसी सीने से चिपक कर उनका जीवन धन्य हो गया है, मैं उन्हें बताना चाहता हूं कि अगर महज़ 46 साल की उम्र में राजीव गांधी को विश्व-शक्तियों ने अपने रास्ते से न हटाया होता तो भारत आज उस रास्ते पर चल रहा होता कि दुनिया उसके पीछे होती। हम विश्व-गुरु बनने के थोथे दावे नहीं कर होते। हम सचमुच विश्व-गुरु होते। इसलिए कि राजीव गांधी होते तो कांग्रेस वैसी नहीं होती, जैसी हो गई है। और, कांग्रेस ऐसी न हो गई होती तो नरेंद्र भाई सात जनम भी भारत के प्रधानमंत्री नहीं बन सकते थे।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">यह तो भला हो सोनिया गांधी का कि उन्होंने सीताराम केसरी के समय अंधे कुएं में डूब रही कांग्रेस को खींच कर बाहर निकाल लिया और दो दशक से ज़्यादा हो गए हैं कि उसकी देखभाल में अपने दिन-रात एक कर रही हैं। दो साल से अपने क्षोभ-भवन में बैठे राहुल गांधी की तकनीकी अनुपस्थिति में भी सोनिया की वज़ह से ही कांग्रेस संतुलन-बांस के सहारे सियासत की रस्सी पर एक-एक कदम आगे बढ़ा पा रही है। सोचिए कि अगर तमाम दबावों, मजबूरियों और घुसपैठियों की कुचालों का बावजूद सोनिया की विवेकवान अगुआई कांग्रेस के भाग्य में न होती तो उसके कितने परखच्चे बिखर चुके होते? विपक्षी-दादुरों के लिए एक मर्तबान में ठोस ज़गह बनाने के लिए भी उन्होंने इसीलिए राजीव गांधी के जन्म का दिन चुना कि अपनी अलविदाई के तीन दशक बाद भी राजीव भलमनसाहत और वचनबद्धता के सबसे बड़े प्रतीक हैं।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">दो साल पहले राहुल गांधी ने जब कांग्रेस का अध्यक्ष पद छोड़ा, तब भी उनका फ़ैसला मेरी समझ से बाहर था। अब दो बरस से उन्हें सारी मान-मनुहार की अनदेखी करते देख तो मैं ने अपनी अक़ल को घास चरने के लिए छोड़ दिया है। कौन-सा ऐसा राजनीतिक दल दुनिया में होगा, जिसके सदस्य किसी की दहलीज़ पर इतनी बार अपने सिर पटक-पटक कर रोते होंगे? और, किस राजनीतिक दल में ऐसा कोई होगा कि आंसुओं की इतनी निष्ठुर अनदेखी करता होगा? राहुल के अगलिए-बगलिए अगर उन्हें यह समझा रहे हैं कि इन सब को अभी और रोने दो तो कोई उन्हें समझाए कि एक दिन आता है कि आंसू भी सूख जाते हैं। वह दिन भी आता है कि आंसू अंगारे बन जाते हैं। ईश्वर करे कि वह दिन न आए। आया तो सबसे पहले, सूरजमुखी के जिन फूलों की बेतरतीब फ़सल छह साल से लहलहा रही है, वह भस्म होगी। गिरिधर-मुद्रा में पसर कर मोहिनीयट्टम कर रहे चिरकुटों की बांसुरियां स्वाहा होंगी।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">मैं तो अपने पिता के जन्म दिन पर अगले साल के लिए संकल्प धारण करता हूं। मैं राजीव गांधी के जन्म दिन पर भी एक संकल्प लेता हूं। मुझे नहीं मालूम कि राहुल गांधी ने अपने पिता के जन्म दिन पर इस बार क्या संकल्प लिया है। मुझसे पूछते तो मैं उनसे कहता कि आप पर अपने पिता का जो कर्ज़ है, ‘ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः’ बोल कर इस साल उससे मुक्ति का संकल्प लीजिए। भेड़ियों, सियारों, लोमड़ियों और गिरगिटों को परे ठेलिए। राजसूय यज्ञ की तैयारियां कीजिए। यह अश्वमेध यज्ञ का नहीं, राजसूय यज्ञ का समय है। यह बहेलियों के जाल को तार-तार करने का वक़्त है। ‘नाभिषेको न संस्कारः सिंहस्य क्रियते वने । विक्रमार्जितसत्त्वस्य स्वयमेव मृगेंद्रता ।।’ शेर को जंगल का राजा नियुक्त करने के लिए न तो कोई राज्याभिषेक किया जाता है और न कोई पूजा-पाठी संस्कार। राहुल मुझ नाचीज़ की सुनें तो ठीक, न सुनें तो ठीक। अपनी बात कहना अपना काम है।(लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)</p></div></div></div></div>Pankaj Sharmahttp://www.blogger.com/profile/13850757662593978128noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5241910265090719926.post-54038304785480235902021-08-21T04:26:00.005-07:002021-08-21T04:26:29.234-07:00अंगद-आसन और भरवां खिलौना-भालू<header class="entry-header alignwide" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif; margin: auto; max-width: 100%; padding: 0px 15px;"><h1 class="entry-title" style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 40px; line-height: 60px; margin: 0px; padding: 0px;"><img alt="" class="avatar avatar-96 photo lazyloaded" data-ll-status="loaded" height="96" loading="lazy" sizes="(max-width: 96px) 100vw, 96px" src="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg" srcset="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg 96w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-150x150.jpg 150w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-250x250.jpg 250w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-100x100.jpg 100w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-24x24.jpg 24w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-48x48.jpg 48w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-300x300.jpg 300w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma.jpg 400w" style="border-radius: 50px; border-style: none; box-sizing: border-box; display: block; font-size: 13px; height: 30px; max-width: 96px; width: 30px;" width="96" /></h1><div class="article-info" style="align-items: center; border-bottom: 1px dotted rgb(0, 0, 0); box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: row wrap; font-size: 13px; margin-bottom: 10px; padding: 20px 0px; place-content: center space-between;"><div class="article_inner" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex;"><div class="post-autor-sr" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; margin-right: 35px; position: relative;"><span style="box-sizing: border-box;"><a href="https://www.nayaindia.com/author/pankaj" style="box-sizing: border-box; color: black; text-decoration-line: none; text-transform: capitalize;">By पंकज शर्मा</a></span></div><div class="post-date-sr" style="box-sizing: border-box; margin-right: 35px; position: relative;">August 14,2021</div><div class="post-count-sr" style="box-sizing: border-box; margin-right: 35px; position: relative;"><br /></div></div></div></header><div class="entry-content" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif;"><div class="news_two_block" style="box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; justify-content: space-between;"><div class="news" id="news" style="align-items: baseline; box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: column nowrap; max-width: 1230px; padding-left: 15px; padding-right: 15px; place-content: stretch flex-start; width: 861px;"><div class="news_main_container" style="box-sizing: border-box; max-width: 100%; text-align: justify;"><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;"><span style="box-sizing: border-box; font-weight: 700;">लोक-दबाव अगले दो साल में ऐसे हालात बनाएगा-ही-बनाएगा कि विपक्ष की बिखरी डालियां जटाधारी बरगद की शक़्ल लें। इस बरगद का तना कितना मज़बूत होगा</span><span style="box-sizing: border-box; font-weight: 700;">, </span><span style="box-sizing: border-box; font-weight: 700;">कितना नहीं</span><span style="box-sizing: border-box; font-weight: 700;">, </span><span style="box-sizing: border-box; font-weight: 700;">यह मायने नहीं रखता। मायने सिर्फ़ यह बात रखेगी कि एक एकजुट विपक्षी झुरमुट सियासत के बियाबान में अंततः उग आया है और नरेंद्र भाई को उसके बीच से गुज़र कर जाना है। इतना भर भी हो गया तो आसमान का रंग बदल जाएगा। इतना भर भी हो गया तो एक बार तो धरती करवट ले ही लेगी।</span></p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;"><span style="box-sizing: border-box; font-weight: 700;"> </span><span style="box-sizing: border-box; color: var(--global--color-primary); font-family: var(--global--font-secondary); font-size: var(--global--font-size-base);">कल भारत को अंग्रेज़ों से आज़ाद हुए जब 74 साल पूरे हो जाएंगे तो 75 वें प्रवेश के मौक़े पर हमारे मौजूदा प्रधानमंत्री लालकिले से, ज़ाहिर है कि, कोई नई हुंकार भरे बिना मानेंगे नहीं। इस हुंकार में आने वाले दिनों के लिए वादों का गुलाबी गुब्बारा होगा, अब तक किए-कराए का स्वयं-शाबासी ठहाका होगा और इस पारंपरिक झींक का धूसर किस्सा होगा कि कैसे उन 60 बरस में देश में कुछ नहीं हुआ, जब जनसंघ-भारतीय जनता पार्टी केंद्र की सरकारों में नहीं थी और जो हुआ, तब-तब ही हुआ, जब-जब गुरु गोलवलकर और दीनदयाल उपाध्याय के रणबांकुरों ने सत्ता संभाली, उसमें भागीदारी की या उसे बाहर से समर्थन दिया।</span></p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">74 साल में क़रीब सवा पंद्रह साल हिंदू-रक्षक केंद्र की सत्ता के भागीदार रहे हैं। अपूर्ण क्रांति को संपूर्ण क्रांति बता कर 1977 से 1979 के बीच केंद्र की सरकार में आए राजनीतिक दलों में भारतीय जनता पार्टी का पूर्वज-दल भारतीय जनसंघ शामिल था। फिर 1989-90 के बीच बनी विश्वनाथ प्रताप सिंह की 343 दिन चली सरकार की कुर्सी के पायों को एक तरफ़ से भाजपा और दूसरी तरफ़ से वाम-दलों ने बाहर से संभाल रखा था। इसके बाद मई 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी की 16 दिनों वाली ऐतिहासिक सरकार बनी। दो साल बाद 1998 में वाजपेयी फिर प्रधानमंत्री बने और कोई सवा छह साल टिके रहे। और, अब 2014 से नरेंद्र भाई मोदी अंगद-आसन जमाए हुए हैं। सवा सात साल हो गए हैं। कोई कुछ कहे, पौने तीन साल तो उन्हें अभी अपनी गोद में धमाचौकड़ी मचाने से ख़ुद भारतमाता भी नहीं रोक सकती हैं।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">तो 2024 के चुनाव जब आएंगे, तब तक हिंदू हृदय सम्राटों को मुल्क़ की हुक़ूमत चलाते 18 साल हो जाएंगे। जिन्होंने अब तक के सवा पंद्रह साल तो छोड़िए, सिर्फ़ इन सवा सात साल में हमें इतना दे दिया, कि बाकी सब मिल कर 60 साल में नहीं दे पाए, सोचिए कि अगर कहीं उनके पैर चौबीस के बाद भी जमे रहे तो हम कहां-से-कहां पहुंच जाएंगे? लालकिले से नरेंद्र भाई कभी यह खुल कर नहीं बताएंगे कि दरअसल वे हमें कहां ले जाना चाहते हैं। मगर वे पूरी मुस्तैदी से अपने असली काम में दिन-रात लगे हैं। आधा रास्ता उन्होंने तय कर लिया है। सो, अभी हम अधमरे हैं। जिस दिन पूरा रास्ता तय हो जाएगा, भारत स्वर्ग बन जाएगा।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">नरेंद्र भाई चूंकि सकारात्मकता के पुजारी हैं, इसलिए उन्होंने आज तक, लालकिले से तो भूल जाइए, वैसे भी कभी, नोटबंदी से उपजे नकारात्मक प्रभावों का ज़िक्र नहीं किया। इसीलिए उन्होंने जीएसटी की शंखघ्वनि से आधी रात निकली तरंगों की चपेट में आ कर बिलबिला रही कारोबारी व्यवस्था का ज़िक्र नहीं किया। सकारात्मकता की यही गहन प्रेरणा उन्हें पीठ पर मां को लादे सैकड़ों मील पैदल जाते प्रवासी मज़दूरों की पीड़ा का ज़िक्र करने से रोके रही। और, इसीलिए इस बार भी वे प्राणवायु के एक-एक कतरे के इंतज़ार में तरसती आंखों के साथ हमारे संसार को छोड़ कर चले गए हज़ारों बेगु़नाहों का लालकिले से कोई ज़िक्र नहीं करेंगे। वे ‘संसार मिथ्या है और आत्मा अमर है’ के दर्शन में यक़ीन रखते हैं। वे आत्मा के चोला बदलने में विश्वास करते हैं। इसलिए वे हमारे दुःख-दर्द से परे हैं। ऐसे ऋषि-स्वभाव का प्रधानमंत्री पा कर भी जिन्हें तसल्ली नहीं है, उनका कोई क्या करे!</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">विपक्ष के पास लालकिला नहीं है। लेकिन उसके पास लाल बजरी का मैदान तो है। पर इस मैदान में अपने अश्व इकट्ठे करना शुरू करने में भी उसे सात साल लग गए। ‘देर आयद, दुरुस्त आयद’। मैं तो बहुत ख़ुश हूं कि शुभारंभ तो हुआ। अगर इस अश्वमेध का मंत्रोच्चार दसों दिशाओं में देर-सबेर गूंजने लगा तो इंद्रासन हिलेगा तो ज़रूर। और, सिंहासन अगर हिलता दिखाई देने लगा तो फिर ले मशालें चल पड़ेंगे लोग मेरे गांव के; तब अंधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गांव के। बेतरह उकताए हुए देशवासी जिस प्रतीक्षालय में बैठे हैं, उसमें जनतांत्रिक करवट की अंगड़ाई आकार ले चुकी है। प्रतीक्षालय बस एक नायक के इंतज़ार में है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">वह नायक राहुल गांधी हो सकते थे। वह नायक राहुल गांधी शायद आज भी हो सकते हैं। उन्हें विपक्ष की एकजुटता का रोड़ा बताने वालों से मैं बेहद ख़ाकसारी के साथ कहना चाहता हूं कि राहुल विपक्ष की मुसीबत नहीं हैं। कांग्रेस की भी मुसीबत वे नहीं हैं। वे तो कांग्रेस की मूल-शक्ति हैं और विपक्ष की भी बुनियादी ताक़त बन सकते हैं। मुसीबत असल में कुछ और है। लोगों को राहुल की क्षमता, कुशलता, विवेक और निडरता पर रत्ती भर भी संदेह नहीं है। मगर उन्हें राहुल के अगलियों-बगलियों की मंशा, मंसूबों, सामर्थ्य और पराक्रम पर भरोसा नहीं है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">मैं शुरू से मानता हूं कि कांग्रेस में हमेशा से ऐसे तिकड़मबाज़ मौजूद रहे हैं, जिन्होंने राजीव-सोनिया-राहुल-प्रियंका की भलमनसाहत का बेज़ा फ़ायदा उठा कर ख़ुद को हरा-भरा बनाए रखने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। दुर्भाग्य से आज भी बोलबाला तो ऐसों का ही है। बाकी तो अपना वक़्त काट रहे हैं। राहुल के साथ मुसीबत यह है कि वे इतने भले हैं कि बरसों से उन्हें यह अहसास ही नहीं हो पा रहा है कि अपने अखाड़े के जिन तरुण हमजोलियों को वे मसाहिको किमूरा, ब्रूस ली, चेंग पेईपेई और मिशेल यो समझते हैं, उनमें से ज़्यादातर दरअसल प्लास्टिक के हवा भरे अतिमानव हैं। ‘हिट मी’ पुतले हैं। वे स्टार वॉर्स के कृत्रिम एक्शन फ़िगर्स हैं। वे भरवां खिलौना भालू हैं – टेडी बेअर हैं। राहुल की मुसीबत यह है कि इन ढपोरशंखियों पर उनकी अगाध श्रद्धा कम होने का नाम ही नहीं ले रही है। वे जिन्हें युद्ध के मैदान का दीया समझे बैठे हैं, पता नहीं, उनमें बाती है भी या नहीं? वे जिन मुरलीवादकों पर रीझे हुए हैं, कहीं उनकी बांसुरी से निकल रही बेसुरी ध्वनि कांग्रेस के भीतर की सुर-ताल तो भंग नहीं कर रही? जिस दिन राहुल इत्ती-सी निगरानी करने लगेंगे, उस दिन से देवता उन पर फूल बरसाने आरंभ कर देंगे। लेकिन अगर वे तिकड़मी छद्म आंकड़ेबाज़ों के कंधों पर सिर रख कर झपकी लेने से नहीं बच पाएंगे तो नरेंद्र भाई की राह में और लाल गलीचे बिछाएंगे।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">जो हो, पौने तीन साल बाद नरेंद्र भाई की राजनीतिक विदाई की पटकथा लोग किसी की अगुआई में तो लिखेंगे ही। इस ज़द्दोज़हद के मुहाने पर शरद पवार भी खड़े नज़र आ सकते हैं और ममता बनर्जी भी। हाशिए से उठ कर पूरे पन्ने पर छा जाने वाला कोई चेहरा भी एकाएक सामने आ सकता है। राहुल का अनमनापन 2024 की दहलीज़ सामने आने पर कांग्रेस को प्रियंका गांधी के आंचल में भी डाल सकता है। सो, मौजूदा हुकूमत से निज़ात पाने के लिए कुछ भी हो सकता है। लोक-दबाव अगले दो साल में ऐसे हालात बनाएगा-ही-बनाएगा कि विपक्ष की बिखरी डालियां जटाधारी बरगद की शक़्ल लें। इस बरगद का तना कितना मज़बूत होगा, कितना नहीं, यह मायने नहीं रखता। मायने सिर्फ़ यह बात रखेगी कि एक एकजुट विपक्षी झुरमुट सियासत के बियाबान में अंततः उग आया है और नरेंद्र भाई को उसके बीच से गुज़र कर जाना है। इतना भर भी हो गया तो आसमान का रंग बदल जाएगा। इतना भर भी हो गया तो एक बार तो धरती करवट ले ही लेगी। इसलिए आइए, यही मनौती मांगें कि देश की पंचकोशी यात्रा का समापन शुभ और कल्याणकारी हो! (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)</p></div></div></div></div>Pankaj Sharmahttp://www.blogger.com/profile/13850757662593978128noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5241910265090719926.post-67892676894583249582021-08-21T04:24:00.000-07:002021-08-21T04:24:01.618-07:00 नरेंद्र भाई और छद्म-गैयाओं के बीच हम<header class="entry-header alignwide" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif; margin: auto; max-width: 100%; padding: 0px 15px;"><div class="article-info" style="align-items: center; border-bottom: 1px dotted rgb(0, 0, 0); box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: row wrap; font-size: 13px; margin-bottom: 10px; padding: 20px 0px; place-content: center space-between;"><div class="article_inner" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex;"><div class="post-autor-sr" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; margin-right: 35px; position: relative;"><span class="author-img" style="box-sizing: border-box; padding-right: 10px;"><img alt="" class="avatar avatar-96 photo lazyloaded" data-ll-status="loaded" height="96" loading="lazy" sizes="(max-width: 96px) 100vw, 96px" src="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg" srcset="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg 96w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-150x150.jpg 150w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-250x250.jpg 250w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-100x100.jpg 100w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-24x24.jpg 24w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-48x48.jpg 48w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-300x300.jpg 300w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma.jpg 400w" style="border-radius: 50px; border-style: none; box-sizing: border-box; display: block; height: 30px; max-width: 96px; width: 30px;" width="96" /></span><span style="box-sizing: border-box;"><a href="https://www.nayaindia.com/author/pankaj" style="box-sizing: border-box; color: black; text-decoration-line: none; text-transform: capitalize;">By पंकज शर्मा</a></span></div><div class="post-date-sr" style="box-sizing: border-box; margin-right: 35px; position: relative;">August 7,2021</div><div class="post-count-sr" style="box-sizing: border-box; margin-right: 35px; position: relative;"><br /></div></div></div></header><div class="entry-content" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif;"><div class="news_two_block" style="box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; justify-content: space-between;"><div class="news" id="news" style="align-items: baseline; box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: column nowrap; max-width: 1230px; padding-left: 15px; padding-right: 15px; place-content: stretch flex-start; width: 861px;"><div class="news_main_container" style="box-sizing: border-box; max-width: 100%; text-align: justify;"><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">नरेंद्र भाई मोदी राजकाज के हर कूचे में बेआबरू हैं। वे आर्थिक बहीखाते के हर पन्ने के खलनायक हैं। वे देश की सुरक्षा के बाहरी-भीतरी मोर्चों पर लड़खड़ाए हुए हैं। वे राजनय के हर अंतःपुर में अवांछित-से हो गए हैं। वे देश की सामाजिक फुलवारियों के कंटक हैं। वे सवा साल से अर्रा रहे महामारी के भैंसे को उसके सींगों से पकड़ कर पटकनी देने के बजाय उसकी पीठ पर बैठे नज़र आते रहे हैं। उनकी हृदय-सम्राटी तेज़ी से भुरभुरी हो रही है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">विपक्ष कमर कसता दिखाई देने लगा है। वह करवट ले रहा है। एकजुटता की ख़्वाहिश अपनी बूंदें बरसाने लगी है। अभी यह बारिश मूसलाधार भले न हो, मगर उसकी रिमझिम शुरू हो चुकी है। राहुल गांधी सोशल मीडिया मंचों की झालर तोड़ कर सड़कों पर कूदने की मुद्रा में आ गए हैं। ममता बनर्जी बंगाल की सरहदों को लांघ रही हैं। शरद पवार के तज़ुर्बों की घनघनाहट सब के कानों में बज रही है। अखिलेश यादव के सेनानी लाल टोपियां पहन कर निकल गए हैं। तेजस्वी यादव की मुट्ठियां और तन गई हैं।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">ये सब सुखद संकेत हैं। ये सब सकारात्मक लक्षण हैं। संघ-कुनबे और भारतीय जनता पार्टी के भीतर से बाहर आ रही ख़बरें कहती हैं कि उनकी अकुलाहट बढ़ती जा रही है। नरेंद्र भाई मोदी की हरदिलअज़ीज़ी के परत-दर-परत फ़ना होने का अहसास संघ-भाजपा के भीतर गहराता जा रहा है। नरेंद्र भाई के चीर-चीर होते जा रहे तिरंगे अंगवस्त्रम की रफ़ूगीरी के उपाय खोजे जा रहे हैं। इस चक्कर में बड़े-बड़े विज्ञापन और सूचनापट्टों को तो छोड़िए, राशन के थैलों, बच्चों के बस्तों और टीके के प्रमाणपत्रों तक पर नरेंद्र भाई का मुखड़ा चेप दिया गया है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">कोई जन-मन में बसा हो तो कौन यह सब छिछोरपंथी करता है? ये सारे बाह्य उपादान तब अपनी जगह बनाते-बढ़ाते हैं, जब कोई अंतर्मन से उतरने लगता है। इसीलिए रायसीना की छाती पर चढ़ने के पहले हमें नरेंद्र भाई के त्रिविम-दर्शन की नई तकनीक से महीनों लुभाया गया था। क्योंकि वे ‘मान-न-मान, मैं तेरा मेहमान’ थे। पिछले सवा सात साल में हम सिर्फ़ ‘मैं, मैं और मैं’ का महामंत्र सुनने के अलावा कुछ नहीं सुन पा रहे तो इसकी एक पृष्ठभूमि है। अगले पौने तीन साल में यह मंत्र-ध्वनि 185 डेसिबल का दायरा पार कर 200 का अंक छूने वाली है। सो, अपने कान के परदों की नहीं, अपने आत्मिक प्राणों की परवाह कीजिए।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">अपनी ही धुन में आंय-बांय-शांय नरेंद्र भाई को जन-मन में थोपे चले जाने की कोशिश में लगे मूढ़ यह जानते ही नहीं कि इससे जन-मानस में उनके प्रति कितनी गूढ़ चिढ़ जड़ें जमाने लगी है। लेकिन वे भी करें क्या? पहले दिन से वे नरेंद्र भाई के आत्मकेंद्रित और आत्ममुग्ध स्वभाव को जानते हैं। नरेंद्र भाई को कभी नहीं दिखा, लेकिन उनके अनुचर ख़ुद अपने प्रति दीवानगी से भरे नरेंद्र भाई को कोई आज से तो देख नहीं रहे हैं। उन्हें मालूम है कि ‘राजा नंगा है’ कहने का नतीजा क्या होता है? इसलिए वे नरेंद्र भाई को अजीब तरह के रंग-बिरंगे परिधानों से, नकली स्वर्णपरत वाले आभूषणों से और ढपोरशंखी जुमलों से सजाते रहते हैं। अगर नरेंद्र भाई में कहीं कोई ‘स्व’ कभी रहा भी होगा तो भांड-मंडली के ठुमकों में वे सब भूल गए हैं। नायकत्व की ललक में यह रोग आमतौर पर सब को लग ही जाता है। यह ऐसा रोग है कि सिंहासन के साथ ही जाता है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">सो, हिंदोस्तां बोल रहा है कि सिंहासन डोल रहा है। लेकिन अभी महज़ डोल रहा है। इसे जाना मत समझिए। बावजूद तमाम उलटबांसियों के, 2024 में नरेंद्र भाई की विदाई आसान नहीं है। अभी तो अपने को श्वेत बताने वाली बहुत-सी भेड़ें रेवड़ को दूर-दूर से ही निहार रही हैं। फिर रेवड़ के भीतर भी काली भेड़ों का टोटा नहीं है। अगले दो बरस में विपक्ष की गोद में कितनी सफ़ेद ऊन इकट्ठी होती है और कितनी काली ऊन अपना असली रंग दिखाती है, नरेंद्र भाई की डोली जाना-न-जाना बहुत-कुछ इस पर निर्भर करेगा। वे ‘डोली रख दो कहारों’ गीत गुनगुनाना भी जानते हैं और न मानने पर कहारों से निपटना भी।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">मायावती हैं। नवीन पटनायक हैं। जगन मोहन रेड्डी हैं। के. चंद्रशेखर राव हैं। महबूबा मुफ़्ती हैं। चिराग पासवान हैं। और, इन सभी के ‘टेढ़ो-टेढ़ो जाए‘ सहोदर अरविंद केजरीवाल हैं। फिर असदुद्दीन ओवैसी जैसे छुपे रुस्तम हैं। आपको क्या लगता है, इन सब के होते विपक्ष की राह मखमली है? इन सब के होते क्या नरेंद्र भाई की राह इतनी ऊबड़-खाबड़ हो जाएगी कि दचकों में उनका सिंहासन जाता रहे? नियंता भले न हों, नियंत्रक तो वे बन ही गए हैं। सियासी गलियारों में ऐसा कौन-सा अड्डा है, जो उनका विशेष विक्रय अधिकार पत्र हासिल किए बिना अपना कारोबार चला ले?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">जब-जब धर्म की हानि होती है, तब-तब न्याय की स्थापना के लिए अवतार जन्म लेते हैं। सो, अब तो धर्म क्षेत्र उनका। न्याय क्षेत्र उनका। अर्थ-क्षेत्र उनका। संसदीय चौपाल उनकी। कार्यपालिका-चबूतरा उनका। चौथा स्तंभ उनका। सैन्य शक्ति उनकी। अर्द्ध-सैन्य शक्ति उनकी। देशभक्ति उनकी। राष्ट्रवाद उनका। ज्ञान उनका। विज्ञान उनका। साहित्य उनका। संस्कृति उनकी। इतिहास उनका। परंपराएं उनकी। विकास उनका। निर्माण उनका। आपका है क्या? आप कौन-से समरथ हैं? सो, आपका केवल दोष है। आपकी हैसियत ही क्या है? सो, आपका सिर्फ़ कुसूर है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">इसलिए भूल जाइए कि क्रांति को नरेंद्र भाई इतनी आसानी से नज़दीक आ जाने देंगे। भूल जाइए कि वे देश को इतने आराम से अपने खि़लाफ़ उठ कर खड़ा हो जाने देंगे। भूल जाइए कि हम, जो अपने तईं ख़ुद, बग़ावत में मशगूल हैं, किसी मंगल पांडे के वंशजों के आज हमजोली हैं। आपका आप जानें! मुझे तो नहीं मालूम कि मैं जिस विचार का अनुगामी हूं, उस विचार के नायक नज़र आ रहे चेहरे, सचमुच उस विचार का नेतृत्व करने लायक हैं भी कि नहीं! लेकिन मेरे लिए विचार महत्वपूर्ण है, नायक नहीं। मेरे लिए विचार की अहमियत है, उसके प्रतिनिधि-संगठन की नहीं।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">संगठन और नायक तो सौ-डेढ़ सौ साल में पनपे हैं। भारत का मूल विचार तो शाश्वत है, चिरंतन है। हज़ारों साल से है। हज़ारों साल रहेगा। जब से भारत-भूमि है, हम सर्वसमावेशी हैं, समरसता में पगे हैं, अपना-तेरी से दूर हैं, करुणा-दया के संस्कारों के पुजारी हैं। यह क्या 136 साल पहले बनी कांग्रेस ने हमें सिखाया है? यह क्या बीस दिन बाद 96 बरस का हो रहा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हम से छीन सकता है? इसलिए भारतवासी जैसे हैं, हैं। वे ऐसे ही रहेंगे। समाज में विचलन के दौर आते हैं, आते रहेंगे। लेकिन वे जाते भी रहे हैं, जाते भी रहेंगे। यह इस मुल्क़ की बुनियादी तासीर है कि वह तमाम झंझावातों से बाहर आ जाता है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">जिन्हें लगता है कि वे हैं तो सब-कुछ है, पौने तीन साल बाद हम उनका हाल देखेंगे। जिन्हें लगता है कि अगर वे न होंगे तो भारत का पुष्पक विमान आज के काले आसमान को पार ही नहीं कर पाएगा, उनकी भी नेकनीयती और पराक्रम हम 2024 में देखेंगे। एक बात मैं आपको बता दूं? जिन छद्म-गैयाओं की पूंछ पकड़ कर हम यह सियासी-वैतरिणी पार करने का सोच रहे हैं, उनकी पूंछ पर नहीं, अपने हाथों पर भरोसा रखने का यह वक़्त है। इन्हें जो करना है, करने दीजिए, और, नरेंद्र भाई तो अपना हर जलवा दिखाएंगे ही; इसलिए ठान लीजिए कि हमें भी हर हाल में अपना ज़िम्मा निभाना है। निभाया तो मोक्ष मिलेगा। नहीं निभा पाए तो नर्क मिलेगा। सो, तय कीजिए। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)</p></div></div></div></div>Pankaj Sharmahttp://www.blogger.com/profile/13850757662593978128noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5241910265090719926.post-46911700565407786712021-08-21T04:22:00.003-07:002021-08-21T04:22:14.139-07:00 543 से 888 नहीं, 148 कर देने का वक़्त<p> </p><header class="entry-header alignwide" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif; margin: auto; max-width: 100%; padding: 0px 15px;"><div class="article-info" style="align-items: center; border-bottom: 1px dotted rgb(0, 0, 0); box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: row wrap; font-size: 13px; margin-bottom: 10px; padding: 20px 0px; place-content: center space-between;"><div class="article_inner" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex;"><div class="post-autor-sr" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; margin-right: 35px; position: relative;"><span class="author-img" style="box-sizing: border-box; padding-right: 10px;"><img alt="" class="avatar avatar-96 photo lazyloaded" data-ll-status="loaded" height="96" loading="lazy" sizes="(max-width: 96px) 100vw, 96px" src="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg" srcset="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg 96w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-150x150.jpg 150w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-250x250.jpg 250w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-100x100.jpg 100w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-24x24.jpg 24w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-48x48.jpg 48w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-300x300.jpg 300w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma.jpg 400w" style="border-radius: 50px; border-style: none; box-sizing: border-box; display: block; height: 30px; max-width: 96px; width: 30px;" width="96" /></span><span style="box-sizing: border-box;"><a href="https://www.nayaindia.com/author/pankaj" style="box-sizing: border-box; color: black; text-decoration-line: none; text-transform: capitalize;">By पंकज शर्मा</a></span></div><div class="post-date-sr" style="box-sizing: border-box; margin-right: 35px; position: relative;">July 31,2021</div><div class="post-count-sr" style="box-sizing: border-box; margin-right: 35px; position: relative;"><br /></div></div></div></header><div class="entry-content" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif;"><div class="news_two_block" style="box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; justify-content: space-between;"><div class="news" id="news" style="align-items: baseline; box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: column nowrap; max-width: 1230px; padding-left: 15px; padding-right: 15px; place-content: stretch flex-start; width: 861px;"><div class="news_main_container" style="box-sizing: border-box; max-width: 100%; text-align: justify;"><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;"><span style="box-sizing: border-box; font-weight: 700;">अगर कोई राज्यों में विधायकों की संख्या बढ़ाने की बात करे तो समझ में भी आए। सांसदों की संख्या बढ़ाने की बात से मुझे या तो मूर्खता की गंध आती है या फिर किसी साज़िश की बू। इससे किसी के प्रधानमंत्री बनने या बने रहने की राह भले ही हरी-भरी हो जाए, </span><span style="box-sizing: border-box; font-weight: 700;">देश और देश की जनता को तो कुछ मिलने वाला है नहीं। सो, </span><span style="box-sizing: border-box; font-weight: 700;">विचार करना है तो इस पर करें कि लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या घटा कर 148 कैसे की जाए!</span></p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">क्या नरेंद्र भाई मोदी तीसरी बार फिर प्रधानमंत्री बनने का अपना मंसूबा पूरा करने की खा़तिर 2024 के चुनावों में लोकसभा की सीटों की तादाद 543 से बढ़ा कर एक हज़ार या बारह सौ कर देंगे? वैसे अटल बिहारी वाजपेयी के समय 24 अगस्त 2001 को देश के संविधान में किए गए 91वें संशोधन के मुताबिक लोकसभा की सीटों में कोई भी बदलाव 2026 के पहले हो तो नहीं सकता है, मगर नरेंद्र भाई अपनी टोपी से कब कौन-सा खरगोश निकाल कर हमारे-आपके सामने रख दें, कौन जानता है?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">हालांकि स्थूल बुद्धि का इस्तेमाल करने वाला हर कोई यही कह रहा है कि चूंकि लोकसभा की मौजूदा सीटों की संख्या 1971 की जनगणना के हिसाब से तय हुई थी, इसलिए अब पचास साल बाद उन्हें बढ़ाया तो जाना ही चाहिए। और-तो-और, 2019 के दिसंबर में अटल बिहारी वाजपेयी स्मृति व्याख्यान देते हुए विवेक-बुद्धि से भरपूर पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी तक ने कह दिया कि पौने 57 करोड़ की आबादी के आधार पर निश्चित की गई लोकसभा की सीटों का निर्धारण अब 135-140 करोड़ जनसंख्या के हिसाब से करना ज़रूरी है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">लेकिन मेरा मानना है कि दरअसल लोकसभा की सीटें घटा कर एक चौथाई नहीं तो कम-से-कम आधी तो कर ही देनी चाहिए। चौंकिए मत। अभी औसतन क़रीब पौने आठ लाख मतदाताओं पर एक लोकसभा सदस्य चुना जाता है। नई संसद में लोकसभा-सदन में 888 सदस्यों के बैठने का इंतज़ाम फ़िलहाल किया जा रहा है। 2019 के चुनाव में 91 करोड़ 20 लाख मतदाता थे। यानी तक़रीबन दस-ग्यारह लाख मतदाताओं पर एक सदस्य चुनने की सोच पर शायद काम हो रहा है। अगर अभी के पौने आठ लाख मतदाताओं पर एक सदस्य चुनने की बात तय हो तब तो लोकसभा में 1200 सांसद हो जाएंगे।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">मगर ऐसा हुआ तो कई राज्यों को सिर्फ़ इसलिए फ़ायदा हो जाएगा कि उनकी आबादी इस बीच अच्छी-ख़ासी बढ़ गई है और उन राज्यों को नुकसान होगा, जो बेचारे जनसंख्या नियंत्रण के उपायों को ईमानदारी से लागू करने में लगे रहे। ऐसे में उत्तर प्रदेश में लोकसभा सीटें 80 से बढ़ कर 193, महाराष्ट्र में 48 से बढ़ कर 117, बिहार में 40 से बढ़ कर 94 और पश्चिम बंगाल में 42 से बढ़ कर 92 हो जाएंगी। लेकिन दूसरी तरफ़ तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, ओडिसा और केरल जैसे राज्यों में सीटें इस अनुपात में नहीं बढ़ेंगी। यह एक ऐसा झमेला है, जिसे सुलझाना आसान नहीं है। पर, मतदाताओं की संख्या के हिसाब से सीटों की संख्या तय न करें तो क्या करें? और, इस हिसाब से करें तो किसी को सु-शासन का नुकसान क्यों हो?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">लेकिन इससे भी बड़ा सवाल मेरे हिसाब से तो यह है कि लोकसभा में 543 सीटें भी क्यों हों? बावजूद इसके कि कहां कितने मतदाता हैं, 28 राज्यों से सिर्फ़ पांच-पांच सांसद ही चुन कर क्यों न आएं? 8 केंद्रशासित क्षेत्रों से महज़ एक-एक सदस्य ही लोकसभा में क्यों न भेजा जाए? 543 सांसद ऐसा क्या पहाड़़ ढोते हैं, जो ये 148 सदस्य अपनी कन्नी उंगली पर नहीं उठा पाएंगे? ये सब बेकार की बातें हैं कि अमेरिका में 7 लाख की आबादी पर एक सांसद है, कनाडा में 97 हज़ार की आबादी पर एक और ब्रिटेन में 72 हज़ार पर एक तो भारत में भी आबादी ही पैमाना हो। मुझे लगता है कि यह मूढ़मति-तर्क है। इसलिए कि हमारी निर्वाचित लोकतांत्रिक संस्थाओं की व्यापकता इतनी लंबी-चौड़ी है कि दरअसल भारत में तो प्रति साढ़े तीन सौ-चार सौ की आबादी पर जनता से परोक्ष-अपरोक्ष निर्वाचित कोई-न-कोई प्रतिनिधि बैठा हुआ है। न अमेरिका में ऐसा है, न कनाडा में और न ब्रिटेन सहित यूरोप के किसी भी देश में।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">इसे इस तरह समझिए। लोकसभा में 543 सदस्य चुन कर आते हैं और दो मनोनीत होते हैं। राज्यसभा में 238 सदस्य निर्वाचन के ज़रिए आते हैं और 12 नामज़द होते हैं। देश भर की विधानसभाओं में 4123 सदस्य चुने जाते हैं। छह राज्यों में विधान परिषदें हैं। उनमें 426 सदस्य निर्वाचित होते हैं। क़रीब सवा सौ महानगरपालिकाएं और नगर निगम हैं। तक़रीबन डेढ़ हज़ार नगरपालिकाएं हैं। उनमें कोई एक लाख पार्षदों को मतदाता सीधे चुनते हैं। 630 ज़िला पंचायतें हैं। 2100 नगर पंचायतें हैं। उनमें भी हज़ारों लोग चुन कर भेजे जाते हैं। 6634 मध्यवर्ती पंचायतें हैं और 2 लाख 53 हज़ार 268 ग्राम पंचायतें। राजीव गांधी द्वारा लागू किए गए पंचायती राज की इन संस्थाओं में 31 लाख से ज़्यादा पंच-सरपंच निर्वाचित होते हैं। इन सब के अलावा 6630 कृषि उपज मंडिया हैं। इनमें भी हज़ारों लोग चुन कर भेजे जाते हैं। 1650 शहरी सहकारी बैंक हैं। साढ़े 96 हज़ार ग्रामीण सहकारी बैंक हैं। इनके भी पदाधिकारियों का चुनाव होता है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">तो मेरे हिसाब से हमारे देश की विभिन्न लोकतांत्रिक संस्थाओं में कम-से-कम 35 लाख लोग निर्वाचन के ज़रिए पहुंचते हैं। किस अमेरिका, कनाडा या ब्रिटेन में लोकतंत्र का इतना व्यापक ज़मीनी आधार है? वहां पंचायती राज व्यवस्था नाम की तो कोई चीज़ ही नहीं है। निर्वाचित लोकतांत्रिक संस्थाओं का संजाल वहां राज्य-स्तर से नीचे आमतौर पर है ही नहीं। बड़े शहरों की परिषदों को छोड़ दें तो पूरे-के-पूरे मैदान में जनतांत्रिक निर्वाचन का सन्नाटा पसरा हुआ है। चूंकि सारा काम वहां मूलतः देश की संसद करती हैं, सो, उन्हें लगता है कि इतनी आबादी पर उनका एक प्रतिनिधि वहां होना चाहिए।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">लेकिन भारत की संसद में ऐसा क्यों हो? यह क्या दलील हुई कि एक सांसद 10 पंदह लाख, बीस लाख या पच्चीस लाख की आबादी का ख़्याल कैसे रख सकता है? मुझे बताइए, उसे लोकसभा सदस्य के नाते अपने क्षेत्र के लोगों का ख़्याल रखना ही क्या है? शहरों और कस्बों की पानी, बिजली, खड़ंजे के लिए निर्वाचित पार्षद, नगर पालिका अध्यक्ष और मेयर हैं। बाकी प्रशासनिक मसलों और सिंचाई, शिक्षा, स्वास्थ्य और दूसरी विकास योजनाओं की देखभाल के लिए विधायक, मंत्री और मुख्यमंत्री हैं। किसानों की उपज, खाद, बीज, वगै़रह के इंतजाम के लिए कृषि मंडिया हैं। ऋण वग़ैरह की सहूलियतें देने के लिए छोटे-बड़े सहकारी बैंक हैं। यह सारा ज़िम्मा निभाने वाले लोग निर्वाचित होते हैं। प्रशासनिक अमले की निगरानी भी उन्हीं का काम है। जितने धरती-पकड़ वे सब हैं, कौन-सा लोकसभा सदस्य हो सकता है?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">इसलिए मेरे मत में तो लोकसभा की सदस्यता फालतू की चौधराहट है। हां, लेकिन लोकसभा इसलिए होनी चाहिए कि उसे समूचे देश के लिए संवैधानिक क़ानून बनाने होते हैं; सुरक्षा, अंतरराष्ट्रीय संबंध और वित्त-व्यवस्था जैसी राष्ट्रीय नीतियां रचनी होती हैं; और, संघीय गणराज्य को एक सूत्र में पिरोए रखने की भूमिका निभानी होती है। लेकिन लोकसभा में प्रतिनिधित्व का किसी राज्य की आबादी और वहां मतदाताओं की तादाद से क्या अंतःसंबंध है? जब केंद्र और राज्य के विषय स्पष्टतौर पर बंटे हुए हैं तो स्थानीय आबादी का तालमेल सांसद से होना चाहिए या विधायक, पार्षद, सरपंच आदि से? अगर कोई राज्यों में विधायकों की संख्या बढ़ाने की बात करे तो समझ में भी आए। सांसदों की संख्या बढ़ाने की बात से मुझे या तो मूर्खता की गंध आती है या फिर किसी साज़िश की बू। इससे किसी के प्रधानमंत्री बनने या बने रहने की राह भले ही हरी-भरी हो जाए, देश और देश की जनता को तो कुछ मिलने वाला है नहीं। सो, विचार करना है तो इस पर करें कि लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या घटा कर 148 कैसे की जाए! (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)</p></div></div></div></div>Pankaj Sharmahttp://www.blogger.com/profile/13850757662593978128noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5241910265090719926.post-72213179297579731332021-08-21T04:20:00.005-07:002021-08-21T04:20:28.199-07:00पंजाब की त्रिशंकु-गोद का राजनीति शास्त्र<header class="entry-header alignwide" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif; margin: auto; max-width: 100%; padding: 0px 15px;"><div class="article-info" style="align-items: center; border-bottom: 1px dotted rgb(0, 0, 0); box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: row wrap; font-size: 13px; margin-bottom: 10px; padding: 20px 0px; place-content: center space-between;"><div class="article_inner" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex;"><div class="post-autor-sr" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; margin-right: 35px; position: relative;"><span class="author-img" style="box-sizing: border-box; padding-right: 10px;"><img alt="" class="avatar avatar-96 photo lazyloaded" data-ll-status="loaded" height="96" loading="lazy" sizes="(max-width: 96px) 100vw, 96px" src="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg" srcset="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg 96w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-150x150.jpg 150w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-250x250.jpg 250w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-100x100.jpg 100w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-24x24.jpg 24w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-48x48.jpg 48w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-300x300.jpg 300w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma.jpg 400w" style="border-radius: 50px; border-style: none; box-sizing: border-box; display: block; height: 30px; max-width: 96px; width: 30px;" width="96" /></span><span style="box-sizing: border-box;"><a href="https://www.nayaindia.com/author/pankaj" style="box-sizing: border-box; color: black; text-decoration-line: none; text-transform: capitalize;">By पंकज शर्मा</a></span></div><div class="post-date-sr" style="box-sizing: border-box; margin-right: 35px; position: relative;">July 23,2021</div><div class="post-count-sr" style="box-sizing: border-box; margin-right: 35px; position: relative;"><br /></div></div></div></header><div class="entry-content" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif;"><div class="news_two_block" style="box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; justify-content: space-between;"><div class="news" id="news" style="align-items: baseline; box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: column nowrap; max-width: 1230px; padding-left: 15px; padding-right: 15px; place-content: stretch flex-start; width: 861px;"><figure class="post-thumbnail" style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; margin: 20px 0px 25px; padding: 0px; text-align: center; width: 831px;"><span style="box-sizing: border-box; font-size: 18px; font-weight: 700; text-align: justify;">राजनीति शास्त्र का यह पन्ना कहता है कि किसान आंदोलन से उपजी ऊर्जा का पंजाब में सही इस्तेमाल करने के लिए सोनिया गांधी और राहुल-प्रियंका को अभी और बहुत पापड़ बेलने हैं। बुजु़र्ग जाएं। युवा आएं। लेकिन कौन-से बुज़ुर्ग जा रहे हैं और कौन-से युवा आ रहे हैं</span><span style="box-sizing: border-box; font-size: 18px; font-weight: 700; text-align: justify;">? किसी भी राजनीतिक दल को उसके पदाधिकारियों की संख्या चुनाव नहीं जिताती है। चुनाव तो मतदाताओं और कार्यकर्ताओं के भाव-पक्ष की देखभाल से जीता जाता है। ज़रूरत तो दरअसल इस शून्य को भरने की है।</span></figure><div class="news_main_container" style="box-sizing: border-box; max-width: 100%; text-align: justify;"><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">सवाल कैप्टन अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू का नहीं है। सवाल सियासत की परंपराओं, आचरण संहिता और नियमों का है। ख़ासकर इसलिए कि मसला कांग्रेस का है। उस कांग्रेस का, जो 136 बरस से ख़ुद के गंगाजली होने पर फ़ख़्र करती रही है। उस कांग्रेस का, जिसका शिखर नेतृत्व अपने को क्षुद्र उठापटक से निर्लिप्त दिखाता है। उस कांग्रेस का, जिस पर अब भी लोगों का यह विश्वास क़ायम है कि एक दिन वह देश को मौजूदा जंजाल से मुक्ति दिलाने की हैसियत रखती है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">सो, पंजाब-प्रसंग के कुछ आयामों को राजनीति नहीं, राजनीति-शास्त्र के नज़रिए से समझना ज़रूरी है। इस कथानक के एक नायक चौधरी फूलसिंह के राजवंश से ताल्लुक रखने वाले पटियाला के पूर्व महाराज अमरिंदर सिंह हैं। वे तीन बार कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष रहे हैं और दूसरी बार मुख्यमंत्री हैं। महाराज हैं तो ज़ाहिर है कि करोड़पति-अरबपति भी होंगे ही। फ़ौज में रहे हैं, सो, उन राजाओं में नहीं हैं, जिनकी देहभाषा से रंगीला रतन भाव टपकता हो। संजीदा हैं। ख़ुद्दार भी हैं। राजनीति की उठापटक, ख़ुद की जीत-हार और सियासी मसलों की टप्पेबाज़ी ने उन्हें गहरा अनुभव भी दे दिया है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">कांग्रेस से अमरिंदर का सार्वजनिक जीवन शुरू हुआ। राजीव गांधी उन्हें राजनीति में लाए थे। 1980 में वे लोकसभा के सदस्य बने। मगर कुछ बरस बाद, 1984 में, अमृतसर के स्वर्णमंदिर के क्षतिग्रस्त गुबंद ने उन की भावनाओं को आहत किया और वे कांग्रेस छोड़ कर शिरोमणि अकाली दल में चले गए। लेकिन अपनी साफ़ग़ोई के चलते वहां उन्हें कसमसाहट होने लगी और अलग हो कर उन्होंने अकाली दल पंथिक का गठन कर लिया। उनकी यह पार्टी विधानसभा चुनाव बुरी तरह हार गई और ख़ुद अमरिंदर को सिर्फ़ 856 वोट मिले। 23 साल पहले जब सोनिया गांधी कांग्रेस की अध्यक्ष बनीं तो अमरिंदर ने अपने अकाली दल का कांग्रेस में विलय कर दिया। तब से वे पंजाब में कांग्रेस का प्रथम चेहरा हैं। इसी मार्च में 79 के हो कर उन्होंने उम्र के 80 वें साल में प्रवेश किया है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">इस कथानक के सह-नायक नवजोत सिंह सिद्धू हैं। वे मशहूर क्रिकेट खिलाड़ी भगवान सिंह के बेटे हैं, सो, राजनीति में आने से पहले उन्होंने भी 19 साल प्रथम श्रेणी क्रिकेट खेला। 51 टेस्ट मैच खेले। 136 एकदिवसीय अंतरराष्ट्रीय मैच खेले। 34 साल पहले हुए विश्व-कप में चार अर्द्धशतक बनाने का कमाल दिखाया। उनके छक्के आज भी लोगों को याद हैं। फिर वे क्रिकेट की कमेंटरी करने लगे। उनकी कमेंटरी शैली को भी लोग चुटीली ज़ुमलेबाज़ियों की वज़ह से याद करते हैं। अपने इसी अंदाज़ ने उन्हें टेलीविजन के लॉफ्टर चैलेंज, बिग बॉस और कपिल शर्मा शो के ज़रिए खिलंदड़ी पहचान दी।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">सिद्धू के राजनीतिक जीवन की शुरुआत 17 साल पहले भारतीय जनता पार्टी से हुई। भाजपा और क्रिकेट दोनों की सियासत में गहरी पैठ रखने वाले अरुण जेटली सिद्धू को राजनीति में लाए। वे अमृतसर से तीन बार लोकसभा का चुनाव जीते। लेकिन जब 2014 में भाजपा ने उन्हें उम्मीदवार नहीं बनाया तो वे आम आदमी पार्टी में जाने की तैयारी करने लगे। 2017 में पंजाब के विधानसभा चुनाव होने वाले थे। सो, सिद्धू को थामे रखने के लिए भाजपा ने एक साल पहले उन्हें राज्यसभा में भेज दिया। लेकिन ढाई महीने में ही सिद्धू ने इस्तीफ़ा दे कर अपना अलग मंच ‘आवाज़-ए-पंजाब’ गठित कर लिया। उसके तीन महीने बाद उन्होंने यह बोरिया-बिस्तर समेट लिया और कांग्रेस में शामिल हो गए। विधानसभा का चुनाव लड़े। जीते और अमरिंदर-सरकार में पहली खेप में बने नौ मंत्रियों में से एक हो गए। दो साल बाद उन्होंने मुख्यमंत्री से मतभेद के चलते मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा दे दिया। फिर उन्होंने पंजाब सरकार के ख़िलाफ़ दो साल तक मूसलाधार बयानबाज़ी करने में कोई कोताही नहीं बरती और अब अमरिंदर की घनघोर असहमति के बावजूद पंजाब-कांग्रेस के अध्यक्ष बन गए। तीन महीने बाद वे उम्र के 58 साल पूरे कर लेंगे।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">यह सही है कि ऐसा क्यों हो कि कोई पूर्व-महाराज अपने को पंजाब जैसे सूबे में कांग्रेस का एकछत्र अधिपति समझने लगे? ऐसा क्यों हो कि एक मुख्यमंत्री अपने को पार्टी-आलाकमान से भी ऊपर मानने की ख़ामख़्याली पाले? ऐसा भी क्यों हो कि सब-कुछ किसी एक के भरोसे ही छोड़ दिया जाए? क्या नेतृत्व की दूसरी कतार तैयार नहीं होनी चाहिए? जिन्हें मालूम है, वे जानते हैं कि अमरिंदर ने साढ़े चार साल कैसी सरकार चलाई है? तन-मन से वे जितने प्रशासनिक लगते हैं, क्या पंजाब का प्रशासन वैसा चल पाया? हाव-भाव से वे जितने साफ़-सुथरे लगते हैं, क्या पंजाब का कामकाज उतने ही साफ़-सुथरे तरीके से चला?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">मगर विधानसभा के अगले चुनाव से सिर्फ़ छह महीने पहले नींद से जागने वालों से क्या यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि साढ़े चार साल तक पंजाब की केंद्रीय निगरानी करने वाले क्या कर रहे थे? अगर सिद्धू, प्रताप सिंह बाजवा और शमशेर सिंह ढुल्लो की बातों में दम था तो एक-डेढ़ साल से दिल्ली के कुएं में ऐसी कौन-सी भांग पड़ी थी, जिसने सब की आंखें अधमुंदी कर रखी थीं? क्या अमरिंदर की कार्यशैली एकाएक गड़बड़ हो गई? क्या उनकी चौकड़ी के सदस्य अचानक धमाचौकड़ी मचाने लगे? तो अब तक उनकी पतंग को यह लंबी डोर क्यों मुहैया होती रही?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">चलिए, देर आयद, दुरुस्त आयद! मगर क्या अमरिंदर के पंख कतरने के लिए सिद्धू को कैंची बनाना बुद्धिमत्ता है? सो भी इस वक़्त? क्या पूरे प्रसंग से यह संदेश नहीं गया कि सिद्धू को प्रदेश-अध्यक्ष पद मिला नहीं, उन्होंने इसे छीना है। क्या इससे यह संदेश नहीं गया कि कांग्रेस के जिस शिखर नेतृत्व ने अमरिंदर की इच्छाओं के सामने समर्पण नहीं किया, उसने सिद्धू के भयादोहन के चलते घुटने टेक दिए? आख़िर सिद्धू आख़ीर-आख़ीर तक आम आदमी पार्टी की तरफ़ पेंग बढ़ाने के संकेत देने में कोई कसर तो रख नहीं रहे थे। तो अगर पंजाब के चुनाव में सिर्फ़ छह महीने की देर न होती तो क्या सिद्धू को आलाकमान बावजूद इसके प्रदेश अध्यक्ष बनाता कि अमरिंदर भी जाट-सिख हैं और वे भी, दोनों की उपजाति भी एक है और दोनों ही पटियाला के बाशिंदे हैं?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">इसलिए जिन्हें इस पूरे प्रसंग में कांग्रेस आलाकमान की दुंदुभि बजती सुनाई दे रही है, वे उसे सुन कर भांगड़ा करने को स्वतंत्र हैं। मैं तो इतना जानता हूं कि अगर अमरिंदर और सिद्धू के बीच की खरखराहट शांत नहीं हुई और बाजवा सरीखे आधा दर्जन पर्दानशीनों ने अपने घूंघट की ओट से नैनमटक्का करने का करतब दिखाया तो अगले बरस की वसंत पंचमी पर पंजाब हमें त्रिशंकु-गोद में पड़ा मिलेगा। पंजाब में कांग्रेस की वापसी न अकेले अमरिंदर के बस की है और न अकेले सिद्धू के बस की। सिद्धू अपने चेहरे के बूते चुनावी सभाओं में भीड़ जुटाने का माद्दा रखते होंगे, लेकिन उनका चेहरा अगले मुख्यमंत्री का चेहरा बनने की कूवत अभी तो नहीं रखता है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">इसलिए राजनीति शास्त्र का यह पन्ना कहता है कि किसान आंदोलन से उपजी ऊर्जा का पंजाब में सही इस्तेमाल करने के लिए सोनिया गांधी और राहुल-प्रियंका को अभी और बहुत पापड़ बेलने हैं। बुजु़र्ग जाएं। युवा आएं। लेकिन कौन-से बुज़ुर्ग जा रहे हैं और कौन-से युवा आ रहे हैं? किसी भी राजनीतिक दल को उसके पदाधिकारियों की संख्या चुनाव नहीं जिताती है। चुनाव तो मतदाताओं और कार्यकर्ताओं के भाव-पक्ष की देखभाल से जीता जाता है। ज़रूरत तो दरअसल इस शून्य को भरने की है। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;"> </p></div></div></div></div>Pankaj Sharmahttp://www.blogger.com/profile/13850757662593978128noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5241910265090719926.post-63783647505787440012021-08-21T04:18:00.004-07:002021-08-21T04:18:15.045-07:00कर्तव्य-विमुखता के दो बरस पूरे होने पर<header class="entry-header alignwide" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif; margin: auto; max-width: 100%; padding: 0px 15px;"><div class="article-info" style="align-items: center; border-bottom: 1px dotted rgb(0, 0, 0); box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: row wrap; font-size: 13px; margin-bottom: 10px; padding: 20px 0px; place-content: center space-between;"><div class="article_inner" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex;"><div class="post-autor-sr" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; margin-right: 35px; position: relative;"><span class="author-img" style="box-sizing: border-box; padding-right: 10px;"><img alt="" class="avatar avatar-96 photo lazyloaded" data-ll-status="loaded" height="96" loading="lazy" sizes="(max-width: 96px) 100vw, 96px" src="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg" srcset="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg 96w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-150x150.jpg 150w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-250x250.jpg 250w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-100x100.jpg 100w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-24x24.jpg 24w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-48x48.jpg 48w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-300x300.jpg 300w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma.jpg 400w" style="border-radius: 50px; border-style: none; box-sizing: border-box; display: block; height: 30px; max-width: 96px; width: 30px;" width="96" /></span><span style="box-sizing: border-box;"><a href="https://www.nayaindia.com/author/pankaj" style="box-sizing: border-box; color: black; text-decoration-line: none; text-transform: capitalize;">By पंकज शर्मा</a></span></div><div class="post-date-sr" style="box-sizing: border-box; margin-right: 35px; position: relative;">July 3,2021</div><div class="post-count-sr" style="box-sizing: border-box; margin-right: 35px; position: relative;"><br /></div></div></div></header><div class="entry-content" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif;"><div class="news_two_block" style="box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; justify-content: space-between;"><div class="news" id="news" style="align-items: baseline; box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: column nowrap; max-width: 1230px; padding-left: 15px; padding-right: 15px; place-content: stretch flex-start; width: 861px;"><div class="news_main_container" style="box-sizing: border-box; max-width: 100%; text-align: justify;"><h3 style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;"><span style="box-sizing: border-box; color: red;"><span style="box-sizing: border-box;">आपकी अनुपस्थिति कांग्रेस को तक़रीबन एक यतीमखाने में तब्दील कर चुकी है। मुझे तो नहीं मालूम, </span><span style="box-sizing: border-box;">मगर आपको बेहतर पता होगा कि साढ़े आठ साल पहले जो सोच कर आप चले थे, </span><span style="box-sizing: border-box;">वह बीच में कहां और क्यों बिखर गया? </span><span style="box-sizing: border-box;">लेकिन इतना ज़रूर मैं जानता हूं कि अगर अब भी आप अपने कोप-भवन में ही बैठे रहे तो न तो कांग्रेस के पितरों की आत्मा से न्याय करेंगे और न आने वाली नस्लों से इंसाफ़। इतने कर्तव्य-विमुख तो आप कभी लगते नहीं थे! अपने चिरंतन कर्तव्य-बोध की पुकार सुनिए, </span><span style="box-sizing: border-box;">राहुल जी! माफ़ कीजिए, </span><span style="box-sizing: border-box;">वरना इतिहास आपको माफ़ नहीं करेगा।</span></span></h3><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;"><span style="box-sizing: border-box; font-weight: 700;">आदरणीय राहुल गांधी जी,</span></p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">आज आपको कांग्रेस-अध्यक्ष पद छोड़े दो साल पूरे हो रहे हैं, सो, अपने दिलो-दिमाग़ में पछुआ बयार की तरह तैर रहे महज़ आठ साल पांच महीने पुराने दृश्यों का आप से ज़िक्र किए बिना मुझ से रहा नहीं जा रहा। उस दिन 2013 की सर्दियों का रविवार था। तारीख़ थी 20 जनवरी। मैं जयपुर के कांग्रेस अधिवेशन में पार्टी के राष्ट्रीय सचिव के नाते उस मंच पर मौजूद था, जिस पर आप ने उपाध्यक्ष का पद संभाला था। उसके फ़ौरन बाद अपने भाषण में कही गई आपकी बातें मेरे मन को अब तक झंकृत किए हुए हैं। आपने कहा था:</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">‘‘…हम लीडरशिप डेवलपमेंट पर फ़ोकस नहीं करते। आज से 5-6 साल बाद ऐसी बात होनी चाहिए कि अगर किसी स्टेट में हमें चीफ़ मिनिस्टर की ज़रुरत हो तो जैसे पहले फ़ोटो हुआ करती थी कांग्रेस पार्टी की, उन में नेहरु जी, पटेल, आजाद, जैसे जायंट्स हुआ करते थे, उनमे से कोई भी देश का प्रधानमंत्री बन सकता था। यह बात हमें करनी है। हमें 40-50 नेता तैयार करने हैं, जो देश को चला सकें। सिर्फ़ प्रदेश को नहीं, देश को चला सकें। 40-50 नेता ऐसे तैयार करने हैं हर प्रदेश से। हमारे पास 5-6-7-10 ऐसे नेता हों जो चीफ़ मिनिस्टर बन सकें। और हर डिस्ट्रिक्ट में यह बात हो, हर ब्लॉक में यह बात हो। और अगर हमसे कोई पूछे की कांग्रेस पार्टी क्या करती है? कांग्रेस पार्टी हिन्दुस्तान के भविष्य के लिए नेता तैयार करती है। कांग्रेस पार्टी सेक्यूलर नेता, ऐसे नेता जो गहराई से हिन्दुस्तान को समझते हैं, जो जनता से जुड़े हुए हैं, वैसे नेता तैयार करती है। ऐसे नेता तैयार करती है, जिनको हिन्दुस्तान के सब लोग देख कर कहते हैं भैया हम इनके पीछे खड़े होना चाहते हैं।’’</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">‘‘तो लीडरशिप डेवलपमेंट की ज़रुरत है और इसके लिए ढांचे की ज़रुरत है, सिस्टम की ज़रुरत है, इनफ़ार्मेशन की ज़रुरत है, क्योंकि यहां पर जो नहीं होता है, इसलिए नहीं कि कोई चाहता नहीं है। इसलिए नहीं होता है कि कोई सिस्टम नहीं है। और सिस्टम बनाया जा सकता है। और इस सिस्टम को आप लोग बनाओगे और आप लोग चलाओगे।’’</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">‘‘हम टिकट की बात करते हैं। ज़मीन पर हमारा कार्यकर्ता काम करता है। यहां हमारे डिस्ट्रिक्ट प्रेसिडेंट बैठे हैं, ब्लॉक प्रेसिडेंट्स हैं ब्लॉक कमेटीज़ हैं, डिस्ट्रिक्ट कमेटीज़ हैं। उनसे पूछा नहीं जाता है। टिकट के समय डिस्ट्रिक्ट प्रेसिडेंट से नहीं पूछा जाता, संगठन से नहीं पूछा जाता, ऊपर से डिसीजन लिया जाता है। होता क्या है कि दूसरे दलों के लोग आ जाते हैं, चुनाव के पहले आ जाते हैं, चुनाव हार जाते हैं और फिर चले जाते हैं। और हमारा कार्यकर्ता कहता है भैया ये क्या? वो ऊपर देखता है, चुनाव से पहले ऊपर देखता है, ऊपर से पैराशूट गिरता है-धड़ाक! नेता आता है, दूसरी पार्टी से आता है, चुनाव लड़ता है, फिर हवाई जहाज में उड़ के चला जाता है।’’</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">‘‘तो सबसे पहले कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ता की इज्ज़त होनी चाहिए और सिर्फ कार्यकर्ता की इज्ज़त नहीं, नेताओं की इज्ज़त भी होनी चाहिए। नेताओं की इज्ज़त का मतलब क्या है? कि अगर नेता ने अच्छा काम किया है, अगर नेता जनता के लिये काम कर रहा है, चाहे वह जूनियर नेता हो या सीनियर नेता हो, जितना भी छोटा हो, जितना भी बड़ा हो, अगर वो काम कर रहा है तो उसे आगे बढ़ाना चाहिए। अगर वो काम नहीं कर रहा है तो उसको कहना चाहिए, भैया, आप काम नहीं कर रहे हो और अगर दो-तीन बार कहने के बाद भी काम नहीं करता है तो फिर दूसरे को चांस देना चाहिए।’’</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">‘‘और अंत में जो हमारे ही लोग हमारे खि़लाफ़ खड़े हो जाते हैं, चुनाव के समय इंडिपेंडेंट खड़े हो जाते हैं, जो इंडिपेंडेंट को खड़ा कर देते हैं, उनके खि़लाफ़ एक्शन लेने की ज़रुरत है। आप सब ये चीजें जानते हैं। मैं भी जानता हूं। सब लोग जानते हैं। कमी इंप्लिमेंटेशन में है। और हम इंप्लिमेंटेशन अगर मिल के करेंगे, यहां पे ज्ञान है, जानकारी है, हम ये काम कर सकते हैं और जिस दिन हमने ये काम कर दिया, हमारे सामने कोई नहीं खड़ा रह पाएगा। जिस दिन जनता की आवाज़ कांग्रेस पार्टी के अंदर गूंजने लगी – आज गूंजती है, बाकियों से ज्यादा गूंजती है – मगर जिस दिन गहराई से गूंजने लगेगी, जिस दिन पंचायत, वार्ड के लोग यहां आ के बैठ जाएं, उस दिन हमें कोई नहीं हरा पाएगा। और होगा क्या कि जो आज हमारे अंदर कभी-कभी गुस्सा आता है, दुःख होता है, फ्रस्टेªशन आती है, वो कम हो जाएगा, मुस्कुराहटें आ जाएंगी। लोग कहेंगे, भैया मज़ा आ रहा है, विपक्षी पार्टियों को हराते हैं, मजे़ से लड़ेंगे, मज़े से जीतेंगे।’’</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">‘‘मैं पिछले 8 साल से यह काम कर रहा हूँ और मैंने आपसे कहा कि आपने मुझे सिखाया है। सीनियर नेता बैठे हैं। कल मैंने ओला जी का भाषण सुना कितनी गहरी बात बोली उन्होंने, और युवा भी थे, उन्होंने ने भी गहरी बात बोली। चिदंबरम जी थे और उन्होंने भी गहरी बात बोली, एंटोनी जी थे उन्होंने ने गहरी बात बोली। यहाँ पर कैपेबिलिटी की कोई कमी नहीं है, गहराई की कोई कमी नहीं है और जिस प्रकार यह पार्टी सोचती है, जितनी डेप्थ इस पार्टी में है और कहीं नहीं है। पार्लियामेंट में देखते हैं, सब जगह देखते हैं।’’</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">‘‘और मैं आपको यह बताना चाहता हूं कि मैं सब कुछ नहीं जानता हूं। दुनिया में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं, जो सब कुछ जानता हो। कांग्रेस पार्टी में करोडों लोग हैं। कहीं न कहीं जानकारी ज़रूर है। मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि मैं उस जानकारी को ढूंढूंगा। सीनियर नेताओं से पूछूंगा, शीला जी यहां बैठी हैं, गहलोत जी बैठे हैं, सब बैठे हैं, उन सब से पूछूंगा और आपसे सीखूंगा, क्योंकि इस पार्टी का इतिहास आपके अंदर है, इस पार्टी की सोच आपके अंदर है और मैं सिर्फ़ आपकी आवाज़ को आगे बढ़ाऊंगा। जो सुनाई देगा, उसे आगे बढ़ाऊंगा। और फ़ेयरनेस की बात होती है, कल मैंने मीटिंग में कहा कि कचहरी में दो लोग होते हैं। एक लॉयर होता है, दूसरा जज होता है। मैं जज का काम करूंगा, वकील का काम नहीं करूंगा।…’’</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;"><span style="box-sizing: border-box; font-weight: 700;">राहुल जी!</span> उपाध्यक्ष बनने के पांच साल बाद 16 दिसंबर 2017 को आप कांग्रेस-अध्यक्ष बन गए। फिर डेढ़ साल बाद 3 जुलाई 2019 को आपने पार्टी-अध्यक्ष पद छोड़ने की ट्वीट-घोषणा कर दी। सोनिया जी दो बरस से अंतरिम कामकाज संभाले हुए हैं। उनकी सहालियत तो बेजोड़ है, मगर आपकी अनुपस्थिति कांग्रेस को तक़रीबन एक यतीमखाने में तब्दील कर चुकी है। मुझे तो नहीं मालूम, मगर आपको बेहतर पता होगा कि साढ़े आठ साल पहले जो सोच कर आप चले थे, वह बीच में कहां और क्यों बिखर गया? लेकिन इतना ज़रूर मैं जानता हूं कि अगर अब भी आप अपने कोप-भवन में ही बैठे रहे तो न तो कांग्रेस के पितरों की आत्मा से न्याय करेंगे और न आने वाली नस्लों से इंसाफ़। इतने कर्तव्य-विमुख तो आप कभी लगते नहीं थे! अपने चिरंतन कर्तव्य-बोध की पुकार सुनिए, राहुल जी! माफ़ कीजिए, वरना इतिहास आपको माफ़ नहीं करेगा। (लेखक न्यूज-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)</p></div></div></div></div>Pankaj Sharmahttp://www.blogger.com/profile/13850757662593978128noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5241910265090719926.post-1194035273844522172021-08-21T04:15:00.002-07:002021-08-21T04:15:13.027-07:00वे काले दिन बनाम ये अच्छे दिन<p> </p><header class="entry-header alignwide" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif; margin: auto; max-width: 100%; padding: 0px 15px;"><div class="article-info" style="align-items: center; border-bottom: 1px dotted rgb(0, 0, 0); box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: row wrap; font-size: 13px; margin-bottom: 10px; padding: 20px 0px; place-content: center space-between;"><div class="article_inner" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex;"><div class="post-autor-sr" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; margin-right: 35px; position: relative;"><span class="author-img" style="box-sizing: border-box; padding-right: 10px;"><img alt="" class="avatar avatar-96 photo lazyloaded" data-ll-status="loaded" height="96" loading="lazy" sizes="(max-width: 96px) 100vw, 96px" src="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg" srcset="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg 96w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-150x150.jpg 150w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-250x250.jpg 250w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-100x100.jpg 100w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-24x24.jpg 24w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-48x48.jpg 48w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-300x300.jpg 300w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma.jpg 400w" style="border-radius: 50px; border-style: none; box-sizing: border-box; display: block; height: 30px; max-width: 96px; width: 30px;" width="96" /></span><span style="box-sizing: border-box;"><a href="https://www.nayaindia.com/author/pankaj" style="box-sizing: border-box; color: black; text-decoration-line: none; text-transform: capitalize;">By पंकज शर्मा</a></span></div><div class="post-date-sr" style="box-sizing: border-box; margin-right: 35px; position: relative;">June 25,2021</div><div class="post-count-sr" style="box-sizing: border-box; margin-right: 35px; position: relative;"><br /></div></div></div></header><div class="entry-content" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif;"><div class="news_two_block" style="box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; justify-content: space-between;"><div class="news" id="news" style="align-items: baseline; box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: column nowrap; max-width: 1230px; padding-left: 15px; padding-right: 15px; place-content: stretch flex-start; width: 861px;"><div class="news_main_container" style="box-sizing: border-box; max-width: 100%; text-align: justify;"><h3 style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;"><span style="box-sizing: border-box; color: red;">जनतंत्र को अपने ठेंगे पर रखे घूम रहे लठैतों के इस दौर में इंदिरा जी का कद तो और भी सौ गुना बढ़ जाता है। इसलिए 46 साल पहले के आपातकाल के 633 दिनों पर खूब हायतौबा मचाइए, मगर पिछले 2555 दिनों से भारतमाता की छाती पर चलाई जा रही अघोषित आपातकाल की चक्की के पाटों को नज़रअंदाज़ मत करिए। दिल पर हाथ रखकर बताइए कि आज आप के कितने मौलिक अधिकार सचमुच शेष रह गए हैं? गंगा जल हाथ में ले कर पूरी ईमानदारी से बताइए कि वे दिन तो चलिए काले थे, लेकिन ये ‘अच्छे दिन’ कैसे हैं?</span></h3><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;"><span style="box-sizing: border-box; font-weight: 700;">Indira Gandhi Emergency :</span> हर साल आपातकाल की सालगिरह पर चूंकि उन ‘काले दिनों’ पर हाय-हाय करने का दस्तूर है, इसलिए इस बार जब 46 साल पूरे हो गए हैं, मैं भी आप से कुछ गुज़ारिश करना चाहता हूं। इसलिए कि इन साढ़े चार दशकों में यह धारणा बनाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी गई है कि जनतंत्र से इंदिरा गांधी का कोई लेना-देना था ही नहीं। 1975 के बाद जन्म लेने वाली पीढ़ी को तो यह सिखाने में कोई कसर छोड़ी ही नहीं गई है कि इंदिरा जी लोकतंत्र-विरोधी थीं और एक तरह से तानाशाह ही थीं। हम अपने बच्चों को लगातार यह बता रहे हैं कि इंदिरा जी ने जनता के मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए थे, विपक्ष के सभी बड़े नेताओं को जेल भेज दिया था और उन ‘काले दिनों’ में जैसी ज़्यादतियां हुईं, कभी नहीं हुईं।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">इंदिरा जी ने आपातकाल क्यों लगाया था, इस पर लंबी चर्चा हो सकती है। उन्होंने विपक्षी नेताओं को क्यों जेल भेजा था, इस पर भी काफी बहस की गुंज़ाइश है। और, आपातकाल में सचमुच कितनी ज़्यादती हुई या नहीं हुई और की तो किसने की, किसके इषारे पर की, इस पर तो पूरा ग्रंथ लिखा जा सकता है। लेकिन चूंकि ऐसा करने में अलोकप्रिय होने की पूरा जोख़िम मौजूद है, इसलिए आज तक यह काम किसी ने नहीं किया।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">मैं भी मानता हूं कि इंदिरा जी ने आपातकाल लगा कर के अपने जीवन की सबसे बड़ी ग़लती की थी। लेकिन यह भी तो एक तथ्य है कि उन्होंने अपनी ग़लती मान ली थी। खुद इसके लिए माफ़ी मांगी थी। उनके बाद राजीव गांधी ने भी इसके लिए माफ़ी मांगी। सोनिया गांधी की कांग्रेस भी आपातकाल की भूल स्वीकार कर चुकी है। आज के दौर में जब अपनी ग़लती मानने के बजाय अर्राने का रिवाज़ है, आपको नहीं लगता कि इंदिरा जी और कुछ भी थीं, तानाशाह नहीं थीं?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">25 जून 1975 की आधी रात आपातकाल लगा था। 21 मार्च 1977 को इंदिरा जी ने आपातकाल हटाने का ऐलान कर दिया था। मैं नहीं कहता कि इंदिरा जी के इन 633 दिनों को कोई भूले। जिन्हें याद रखना है, वे ज़रूर याद रखें, लेकिन इतना निवेदन मैं ज़रूर करना चाहता हूं कि सिर्फ़ इन 633 दिनों के आधार पर इंदिरा जी के ज़िंदगी के पूरे 67 वर्षों पर अपनी पसंद का रंग पोत देना ठीक नहीं है। मुझे तो लगता है कि जितना गहरा जनतांत्रिक दायित्वबोध इंदिरा जी में था, बहुत कम राजनीतिकों में होता है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">भले ही इंदिरा जी के दामन पर आपातकाल लगाने के दाग़ हैं, लेकिन उनके जैसा जनतांत्रिक होने के लिए भी कई जन्म के पुण्य लगते हैं। एक लड़की, जिसके पिता स्वाधीनता आंदोलन की मसरूफ़ियत के चलते कभी-कभार ही घर रह पाते हों; एक लड़की, जिसके बचपन का ज़्यादातर हिस्सा इसलिए अकेलेपन में गुज़रा हो कि पिता कुल मिला कर 11 साल अंग्रेज़ों की जेलों में रहे; एक लड़की, जिसका पूरा बचपन अपनी बीमार मां की देखभाल और फिर उसे खो देने की निजी त्रासदी के बीच गुज़रा हो; एक लड़की, जो ख़ुद अपनी नरम सेहत से परेशान रहते हुए भी आज़ादी की लड़ाई में अपनी भूमिका अदा करती रही हो; वह लड़की, जब अपने देश की प्रधानमंत्री हो जाए तो मैं नहीं मानता कि इतनी संवेदनशून्य हो सकती है कि तानाशाह बनने का सोच ले।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">इंदिरा जी की परवरिश तरह-तरह के अभावों में हुई थी। अगर मैं कहूंगा कि इनमें आर्थिक अभाव भी शामिल था तो आपको ताज्जुब हो सकता है। लेकिन सच्चाई यह भी है कि इंदिरा जी की मां का इलाज़ कराने तक के पैसे उनके पिता जवाहरलाल नेहरू के पास एक वक़्त नहीं थे। नेहरू की शादी कमला से 8 फरवरी 1916 को हुई थी। उस दिन वसंत पंचमी थी। कमला के पिता का नाम था अटल कौल। कमला 16 साल की थीं। शादी के समय नेहरू 27 साल के थे। इंदिरा जी को जन्म देने के बाद से ही कमला नेहरू बीमार रहने लगी थीं। इंदिरा जी के जन्म के 7 साल बाद 1924 में उन्होंने एक बेटे को भी जन्म दिया था। वह कुछ ही दिन जीवित रहा। नेहरू तब जेल में थे। 7 साल की इंदिरा गांधी पर अपने छोटे भाई की मौत के हादसे ने असर नहीं डाला होगा?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">कमला को टीबी हो गई थी। वे महीनों लखनऊ के अस्पताल में भर्ती रहीं। इंदिरा जी इलाहाबाद से लखनऊ के बीच आती-जाती रहती थीं। डॉक्टरों ने उन्हें इलाज़़ के लिए स्विट्ज़रलैंड ले जाने की सलाह दी। यह 1926 की बात है। जवाहरलाल के पास इतने पैसे नहीं थे कि यह खर्च उठा पाते। शादीशुदा थे। बेटी भी हो गई थी। इसलिए उन्हें अपने पिता मोतीलाल जी से खर्च के लिए पैसे लेना अच्छा नहीं लगता था। मोतीलाल जी को कहां कोई कमी थी? लेकिन जवाहरलाल के पास खुद के पैसे नहीं थे। उन्होंने नौकरी तलाशनी षुरू की। पिता को पता चला तो वे बहुत नाराज़ हुए। उनका मानना था कि भारत में राजनीतिक काम करने वाले को संन्यासी की तरह रहना होता है। वह आजीविका कमाने के लिए नौकरी-धंधा नहीं कर सकता। वरना लोग उसे नेता नहीं मानेंगे। मोतीलाल ने जवाहरलाल से कहा कि जितना तुम एक साल में कमाओगे, उतनी तो मेरी एक हफ़्ते की कमाई है। लेकिन बेटे की खुद्दारी का मान रखने के लिए मोतीलाल ने जवाहरलाल को अपने कुछ मुकदमों की याचिकाएं तैयार करने का काम दिया और बदले में दस हज़ार रुपए का मेहनताना दिया। तब नेहरू अपनी पत्नी को ले कर मार्च के महीने में इलाज़ के लिए परदेस गए।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">स्वाधीनता आंदोलन के दिनों में इंदिरा जी को अपने पिता से जो संस्कार मिले थे, वे उन्हें ज़िंदगी भर अपने पल्लू से बांधे रहीं। लोकतंत्र में नेहरू की गहरी आस्था थी। इंदिरा जी के संस्कार भी स्वाधीनता आंदोलन की आंच में न पगे होते तो बात अलग होती। यही कारण है कि हमने देखा कि अगर संजय गांधी की मां ने भारत को आपातकाल के हवाले कर दिया था तो नेहरू की बेटी ने भारत को आपाकाल की अंधेरी कोठरी से मुक्त कर फिर लोकतंत्र की बगिया में खेलने भेज दिया। कितने लोग हैं, जो अपनी भूल-सुधार का माद्दा रखते हैं? कितने लोग हैं, जो ऐसा प्रायश्चित कर सकते हैं? जनतंत्र के प्रति यह दायित्वबोध ही इंदिरा जी को दूसरों से अलग बनाता है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">हम ने पढ़ा है कि इंदिरा गांधी को आपातकाल लगाने की सलाह देने वालों में सिद्धार्थ शंकर राय प्रमुख थे। लेकिन 25 जून की आधी रात आपातकाल लगने के वक़्त का एक वाक़या और है। राजेंद्र कुमार धवन राष्ट्रपति फ़खरुद्दीन अली अहमद से अध्यादेश पर दस्तख़त करा लाए थे। इंदिरा जी 26 जून की सुबह देश को संबोधित करने के लिए अपना भाषण तैयार कर रही थीं। देवकांत बरुआ और राय इसमें उनकी मदद कर रहे थे। गृह मंत्री तो ब्रह्मानंद रेड्डी थे, लेकिन गृह राज्य मंत्री ओम मेहता संजय गांधी के चहेते थे। दिल्ली के उपराज्यपाल किषनचंद और ओम मेहता संजय के ताबेदार थे।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">Indira Gandhi Emergency Story : रात को तीन बजे इंदिरा जी सोने चली गईं। ओम मेहता ने बरामदे में आ कर निर्देष दिए कि अख़बारों की बिजली काट दी जाए ताकि सुबह कोई अख़बार न आए। राय ने यह भी सुना कि इंतजाम किए गए हैं कि कल सुबह कोई अदालत नहीं खुलेगी। उन्होंने एतराज़ किया। लेकिन ओम मेहता अड़े रहे तो राय ने इंदिरा जी के सहायकों से उन्हें जगाने को कहा। इंदिरा जी को जगाया गया। वे बाहर आईं तो राय ने उन्हें सारी बात बताई। कहा कि बिजली काटना ठीक नहीं है और अदालतों को बंद रखना तो हद ही है। इंदिरा जी भीतर गईं। बीस मिनट बाद लौटीं। राय समेत सबको बुलाया और कहा कि बिजली नहीं कटेगी। अदालतें भी खुली रहेंगी। सुबह अदालतें तो खुली रहीं, लेकिन ज़्यादातर अख़बारों की बिजली गा़यब रही। कुछ अख़बार ही निकल पाए। यानी इंदिरा जी को अंधरे में रख कर काम करने की शुरुआत आपातकाल के पहले दिन से ही हो गई थी।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">इंद्रकुमार गुजराल सूचना-प्रसारण राज्य मंत्री थे। रात को दो बजे कैबिनेट सेक्रेटरी ने उन्हें फ़ोन कर उठाया और कहा कि 6 बजे कैबिनेट की बैठक है। जब बैठक में इंदिरा जी ने ऐलान किया कि आपातकाल लागू कर दिया गया है और जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई और बाकी बड़े नेता गिरफ्तार कर लिए गए हैं तो रक्षा मंत्री स्वर्ण सिंह ने कुछ सवाल उठाए। बैठक से सब बाहर निकल रहे थे तो संजय बाहर खड़े थे। उन्होंने गुजराल से कहा कि सारे न्यूज़ बुलेटिन प्रसारित होने से पहले उनके पास भेजे जाएं। गुजराल ने कहा कि जब तक प्रसारित नहीं होते, न्यूज़ बुलेटिन गोपनीय होते हैं। इसलिए उन्हें नहीं भेजे जा सकते।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">इंदिरा जी भी बगल में ही थोड़ी दूर थीं। उन्होंने संजय और गुजराल के बीच हो रही किचकिच सुनी तो पूछा कि क्या मामला है? गुजराल ने बता दिया। गुजराल घर लौटे और अपना इस्तीफ़ा तैयार करने लगे। तभी उन्हें प्रधानमंत्री निवास वापस बुला लिया गया। वहां इंदिरा जी नहीं थीं। वे दफ्तर चली गई थीं। संजय थे। उन्होंने गुजराल से कड़क आवाज़ में पूछा कि प्रधानमंत्री का संदेश सुबह आकाषवाणी के सभी वेव-लेंग्थ पर प्रसारित क्यों नहीं हुआ? गुजराल ने संजय से कहा कि अगर आपको मुझसे बात करनी है तो पहले शिष्टाचार सीखना होगा। आप मेरे बेटे से भी छोटे हैं और मैं आपको किसी भी बात का जवाब देने के लिए बाध्य नहीं हूं। इंदिरा जी को पता चला कि गुजराल इस्तीफ़ा दे रहे हैं तो उन्होंने उनसे लंबी बातचीत की। गुजराल ने कहा कि मैं सूचना-प्रसारण नहीं संभालूंगा।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">चिंतक-दार्शनिक जड्डू कृष्णमूर्ति आपातकाल ( Indira Gandhi Emergency ) लगने से नाराज़ थे। जब 24 अक्टूबर 1976 को वे विदेश से दिल्ली आए तो इंदिरा जी उनसे मिलने गईं। बातचीत में बताया कि हिंदू पंचांग के हिसाब से आज मेरा जन्म दिन है तो 80 साल के कृष्णमूर्ति ने इंदिरा जी का हाथ अपने हाथ में लिया और दोनों काफी देर ख़ामोष बैठे रहे। कृष्णमूर्ति ने पूछा कि आप भीतर से इतनी परेशान क्यों हैं? इंदिरा जी ने कहा कि हां, हूं। फिर बताने की कोशिश की कि पिछले सवा साल में देश में क्या-क्या हुआ? कृष्णमूर्ति कुछ नहीं बोले। बेचैन इंदिरा जी लौट गईं। महीने भर बाद 28 नवंबर को सुबह 11 बजे अचानक वे फिर कृष्णमूर्ति के पास पहुंचीं। सुरक्षाकर्मी भी साथ नहीं थे। एक घंटे वे संत कृष्णमूर्ति के पास रहीं। तब वहां मौजूद एक चश्मदीद ने लिखा है कि इंदिरा जी बाहर आईं तो आंसू उनके गाल पर लुढ़क रहे थे। कृष्णमूर्ति ने भी इस मुलाक़ात के बारे में किसी को ज़्यादा नहीं बताया। इंदिरा जी ने बहुत बाद में अपनी एक बेहद पुरानी सहेली को बताया कि कृष्णमूर्ति से उस मुलाक़ात में वे इतना रोईं, इतना रोईं कि उन्हें पता ही नहीं कि कितना रोईं। सहेली से उन्होंने कहा कि मैं अरसे से रोई नहीं थी। इस रोने से मेरा जी कितना हलका हो गया, मैं बता नहीं सकती।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">24 अक्टूबर को कृष्णमूर्ति से मिलने के चार दिन बाद इंदिरा जी ने क़रीब-क़रीब तय कर लिया था कि वे आपातकाल हटाने और चुनाव कराने का ऐलान कर देंगी। लेकिन चौकड़ी ने ऐसा खेल खेला कि 5 नवंबर को लोकसभा का कार्यकाल बिना चुनाव के ही एक साल के लिए बढ़ा दिया गया। 28 नवंबर को कृष्णमूर्ति से मिल कर लौटने के बाद इंदिरा जी का यह फ़ैसला और दृढ़ हो गया कि वे चुनाव कराएंगी। अपने विष्वस्त लोगों से उन्होंने ज़िक्र किया तो सबने विरोध किया। संजय गांधी ने, बंसीलाल ने, सब ने।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">रॉ के आर.एन. काव ने देश भर की राजनीतिक स्थिति का अध्ययन करने के लिए समय मांगा। कुछ हफ़्तों बाद उन्होंने इंदिरा जी से कहा कि चुनाव होंगे तो कांग्रेस बुरी तरह हार जाएगी। इसके बाद संजय ने जा कर इंदिरा जी से कहा कि चुनाव करा कर आप अपने जीवन की सबसे बड़ी ग़लती कर रही हैं। मुख्यमंत्रियों से पूछा तो उन्होंने भी तरह-तरह की आशंकाएं गिनाईं। लेकिन इंदिरा जी को कोई नहीं रोक पाया। 18 जनवरी 1977 को उन्होंने ऐलान कर दिया कि चुनाव होंगे। उसी दिन सभी विपक्ष नेता भी जेलों से रिहा कर दिए गए। किसी को यक़ीन ही नहीं हो रहा था। जयप्रकाश नारायण ने तब कहा था कि इंदिरा जी ने जो हिम्मत दिखाई है, बिरले ही दिखा सकते हैं। नेहरू की बेटी की अंर्तआत्मा ने संजय की मां के दिल पर जो जीत हासिल की, वह बेमिसाल है। इंदिरा जी में फ़ासीवादी गुण-सूत्र थे ही नहीं, इसलिए वे यह कर पाईं।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">आज यह कह देना तो बड़ा आसान है कि जवाहरलाल ने अपनी बेटी को विरासत सौंप दी, लेकिन कितने लोग यह जानते हैं कि एक पिता ने जेल के एकाकी जीवन में रह कर अपनी बेटी को चिट्ठियों के ज़रिए लोकतंत्र के कैसे ठोस संस्कार दिए थे? आज हिंदू-संस्कारों के स्वयंभू रक्षक हर महीने अपने ‘मन की बात’ सुना-सुना कर जो संस्कार देश को दे रहे हैं, आप देख नहीं रहे? जनतंत्र को अपने ठेंगे पर रखे घूम रहे लठैतों के इस दौर में इंदिरा जी का कद तो और भी सौ गुना बढ़ जाता है। इसलिए 46 साल पहले के आपातकाल के 633 दिनों पर खूब हायतौबा मचाइए, मगर पिछले 2555 दिनों से भारतमाता की छाती पर चलाई जा रही अघोषित आपातकाल की चक्की के पाटों को नज़रअंदाज़ मत करिए। दिल पर हाथ रखकर बताइए कि आज आप के कितने मौलिक अधिकार सचमुच शेष रह गए हैं? काशी की गंगा का जल आज जैसा भी कर दिया गया हो, लेकिन है तो गंगा का, सो, यह जल हाथ में ले कर पूरी ईमानदारी से बताइए कि वे दिन तो चलिए काले थे, लेकिन ये ‘अच्छे दिन’ कैसे हैं? (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।) <span style="box-sizing: border-box; color: white;">Indira Gandhi Emergency Indira Gandhi Emergency Indira Gandhi Emergency Indira Gandhi Emergency Indira Gandhi Emergency</span></p></div></div></div></div>Pankaj Sharmahttp://www.blogger.com/profile/13850757662593978128noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5241910265090719926.post-63877948633895873742021-08-21T04:12:00.006-07:002021-08-21T04:12:41.532-07:00लुच्चों, टुच्चों, नुच्चों, कच्चों का धमाचौकड़ी दौर<p> </p><header class="entry-header alignwide" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif; margin: auto; max-width: 100%; padding: 0px 15px;"><div class="article-info" style="align-items: center; border-bottom: 1px dotted rgb(0, 0, 0); box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: row wrap; font-size: 13px; margin-bottom: 10px; padding: 20px 0px; place-content: center space-between;"><div class="article_inner" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex;"><div class="post-autor-sr" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; margin-right: 35px; position: relative;"><span class="author-img" style="box-sizing: border-box; padding-right: 10px;"><img alt="" class="avatar avatar-96 photo lazyloaded" data-ll-status="loaded" height="96" loading="lazy" sizes="(max-width: 96px) 100vw, 96px" src="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg" srcset="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg 96w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-150x150.jpg 150w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-250x250.jpg 250w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-100x100.jpg 100w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-24x24.jpg 24w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-48x48.jpg 48w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-300x300.jpg 300w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma.jpg 400w" style="border-radius: 50px; border-style: none; box-sizing: border-box; display: block; height: 30px; max-width: 96px; width: 30px;" width="96" /></span><span style="box-sizing: border-box;"><a href="https://www.nayaindia.com/author/pankaj" style="box-sizing: border-box; color: black; text-decoration-line: none; text-transform: capitalize;">By पंकज शर्मा</a></span></div><div class="post-date-sr" style="box-sizing: border-box; margin-right: 35px; position: relative;">June 19,2021</div><div class="post-count-sr" style="box-sizing: border-box; margin-right: 35px; position: relative;"><br /></div></div></div></header><div class="entry-content" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif;"><div class="news_two_block" style="box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; justify-content: space-between;"><div class="news" id="news" style="align-items: baseline; box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: column nowrap; max-width: 1230px; padding-left: 15px; padding-right: 15px; place-content: stretch flex-start; width: 861px;"><div class="news_main_container" style="box-sizing: border-box; max-width: 100%; text-align: justify;"><h3 style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;"><span style="box-sizing: border-box; color: red;"><span style="box-sizing: border-box;">क्या कभी आप ने सोचा कि प्रेमचंद, </span><span style="box-sizing: border-box;">अमृता प्रीतम, </span><span style="box-sizing: border-box;">कमलेश्वर और खुशवंत सिंह ने जन्म लेना क्यों बंद कर दिया? </span><span style="box-sizing: border-box;">कबीर-रहीम तो छोड़िए; </span><span style="box-sizing: border-box;">रवींद्र नाथ टैगोर, </span><span style="box-sizing: border-box;">महादेवी वर्मा, </span><span style="box-sizing: border-box;">जयशंकर प्रसाद और रामधारी सिंह दिनकर भी अब क्यों पैदा नहीं होते? </span><span style="box-sizing: border-box;">मीर और ग़ालिब को जाने दीजिए; </span><span style="box-sizing: border-box;">फ़िराक़ गोरखपुरी, </span><span style="box-sizing: border-box;">साहिर लुधियानवी और बशीर बद्र तक अब जन्म क्यों नहीं लेते? </span><span style="box-sizing: border-box;">कुमार गंधर्व, </span><span style="box-sizing: border-box;">भीमसेन जोशी, </span><span style="box-sizing: border-box;">पंडित रविशंकर और एम. एस. सुब्बुलक्ष्मी के गुण-सूत्र अब क्यों दिखाई नहीं देते? </span><span style="box-sizing: border-box;">होमी जहांगीर भाभा और हरगोविंद खुराना के बाद हमारे विज्ञान-जगत की गर्भधारण क्षमता को क्या हो गया है?</span></span></h3><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">क्या आप ने कभी सोचा कि सियासत रेगिस्तानी क्यों होती जा रही है? छोटे हों या बड़े, जो राजनीतिक दल पहले हरे-भरे गुलमोहर हुआ करते थे, अब वे बबूल के ठूंठों में तब्दील क्यों होते जा रहे हैं? तमाम उठापटक के बावजूद अंतःसंबंधों का जो झरना राजनीतिक संगठनों के भीतर और बाहर बहता था, उसकी फुहारें सूखती क्यों जा रही हैं? परिवार और कुनबा-भाव आपसी छीना-झपटी की हवस से सराबोर क्यों होता जा रहा है? वैचारिक सिद्धांतों पर आधारित पारस्परिक जुड़ाव की ओस-बूंदें मतलबपरस्ती के अंगारों में क्यों बदलती जा रही हैं? आंखों का परिस्थितिजन्य तिरछापन नफ़रत के लाल डोरों को आकार क्यों देने लगा है?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">यह किसी एक राजनीतिक दल का हाल नहीं है। हमारी समूची राजनीति का यही स्थायी भाव बनता जा रहा है। सियासी संगठनों में भीतर ही किसी को एक-दूसरे से कोई लेना-देना नहीं है तो समान विचारों वाले दूसरे राजनीतिक संगठनों के विवेकवान लोगों से तालमेल की तो चिंता कौन करे? ऐसे में अपने प्रतिपक्ष से तो सीधे मुंह बात करने का सवाल ही कहां उठता है? सो, यह ख़ुद को सुल्तान समझ कर अपनी-अपनी मीनारों में बैठे रहने का युग है। यह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ और दूसरों को हेय समझने का दौर है। यह अपने अलावा बाकी सब को तुच्छ मान कर नाक-भौं सिकोड़ने का वक़्त है। इसलिए हमारे समय की सियासत रेतीली होती जा रही है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">जब सियासी संसार की कोपलें बर्छियों में तब्दील होती हैं तो सामाजिक संसार की हरियाली से भी लपटें निकलने लगती हैं। जब समाज की संवेदनाएं भोथरी होने लगती है तो संस्कृति और साहित्य के संस्कार भी उथले होने लगते हैं। बौनापन और क्षुद्रता जब पैर पसारते हैं तो वे हर आंगन में धमाचौकड़ी मचाते हैं। बड़ों का और बड़प्पन का दौर छीजते-छीजते आज उस पायदान पर आ गया है, जहां शकुनियों का अड्डा है। अब हर शिखर की शुरुआत इस सब से निचले पायदान से होती है। यही हमारी सियासत, समाज, साहित्य और संस्कृति का सर्वोच्च कंगूरा है। अब सारा बहाव इससे भी नीचे की तरफ़ जा रहा है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">ऐसा इसलिए हुआ कि हम ने अपनी जीवन-सत्ता की सारी डोरियां ना-लायकों के हवाले कर दीं। एक से बढ़ कर एक बदशक़्ल नायक-नायिकाएं चुन-चुन कर हम ने अपने सिर पर बैठा लिए। राजनीति को जाने दीजिए भाड़ में! गांधी-नेहरू-पटेल तो छोड़िए, अटल बिहारी वाजपेयी तक की अनुपस्थिति पर विलाप करने का भी यह समय नहीं है। मगर क्या कभी आप ने सोचा कि प्रेमचंद, अमृता प्रीतम, कमलेश्वर और खुशवंत सिंह ने जन्म लेना क्यों बंद कर दिया? कबीर-रहीम तो छोड़िए; रवींद्र नाथ टैगोर, महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद और रामधारी सिंह दिनकर भी अब क्यों पैदा नहीं होते? मीर और ग़ालिब को जाने दीजिए; फ़िराक़ गोरखपुरी, साहिर लुधियानवी और बशीर बद्र तक अब जन्म क्यों नहीं लेते? कुमार गंधर्व, भीमसेन जोशी, पंडित रविशंकर और एम. एस. सुब्बुलक्ष्मी के गुण-सूत्र अब क्यों दिखाई नहीं देते? होमी जहांगीर भाभा और हरगोविंद खुराना के बाद हमारे विज्ञान-जगत की गर्भधारण क्षमता को क्या हो गया है?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">यह सूची बहुत लंबी हो सकती है। यह सूची बहुत लंबी है भी। लेकिन इसकी अनवरतता अब भंग-सी हो गई लगती है। गायन की दुनिया में, वादन की दुनिया में, नृत्य की दुनिया में, अभिनय की दुनिया में, अध्यापन की दुनिया में, खेलकूद की दुनिया में, हमारी पूरी दुनिया में जिन सितारों के भरोसे हम ने यहां तक का सफ़र तय किया, अब वैसे सितारे हमारी आकाशगंगा से अगर गायब होते जा रहे हैं तो क्या हमें चिंतित नहीं होना चाहिए? सो, सौ बरस बाद आई एक महामारी के इस दौर में थोड़ा वक़्त निकाल कर इस महामारी के बारे में भी सोचिए। मानव-शरीरों को चाट रही महामारी से तो हम निपट लेंगे, लेकिन भारतीय जीवन-तत्व को लील रही इस महामारी की भी कोई वैक्सीन बनाने का हम कभी सोचेंगे?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">मैं जानता हूं कि मेरे इस प्रलाप का कोई अर्थ नहीं है। राष्ट्र-निर्माण का अर्थ अब सवा तीन किलोमीटर लंबी केंद्रीय वीथी और 597 फुट ऊंची मूर्तियों के निर्माण तक सिमट गया है। तमाशा-प्रबंधन के इस युग में मानव-जीवन के बुनियादी आयामों के क्षरण की फ़िक़्र करने वालों को मूर्ख नहीं तो क्या कहेंगे? राजनीति लुच्चों के चंगुल में जाए तो जाए, समाज को टुच्चों की ठेकेदारी भाए तो भाए, धर्म-अध्यात्म नुच्चों के गले की कंठी-माला बने तो बने, साहित्य-संस्कृति कच्चों की बाहों में समाए तो समाए। हमें क्या? यही तटस्थता-भाव हमें देवत्व तक पहुंचाएगा, क्योंकि पक्षधरता के तो अपने खतरे हैं। हमारे आसपास का पानी इसलिए सूख रहा है कि हम तटस्थ हैं। हमारे चारों तरफ़ की ज़मीन इसलिए बंजर हो रही है कि हम तटस्थ हैं।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">हमें किसी की परवाह नहीं है। जो पराए हैं, उनकी तो परवाह करें ही क्यों, हम ने तो अपनों की भी परवाह करना छोड़ दिया है। हम यह मानते ही नहीं हैं कि संसार के सारे बड़े काम एक-दूसरे का ख़्याल रखने से होते हैं। हम ने यह बात अपने दिमाग़ से निकाल कर बाहर फेंक दी है कि जो अपनों की परवाह नहीं करते, उनकी भी फिर कोई परवाह नहीं करता है। बेपरवाही को अपना जीवन-मंत्र बना लेने की इस सोच का नतीजा है कि हमारी सियासत रेगिस्तानी होती जा रही है। सहयोगियों को कठपुतलों में तब्दील करने का जो कारखाना हम ने अपने सियासी संसार के चप्पे-चप्पे पर लगाया है, उसी ने आज हमें इस दशा में पहुंचाया है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">यह शुष्कता एक दिन सब-कुछ ले बैठेगी। किसी भी देश की धमनियों में लोकतंत्र की धारा संसद और केंद्रीय वीथी की वैभवशाली इमारतों से नहीं बहती है। यह बहाव तो संवेदनाओं, हमजोलीपन और पारस्परिक सम्मान-भाव से ही त्वरा पाता है। शहाबुद्दीन मुहम्मद ख़ुर्रम को भले ही हम लालकिला और ताजमहल बनवाने वाले शाहजहां की तरह जानने लगे, मगर मीराबाई ने ऐसा क्या बनवाया था कि बच्चा-बच्चा उन्हें जानता है? लोग हाथी और ख़ुद की सैकड़ों मूर्तियां बनवाने वाले को याद रखते हैं या काशी के बाज़ार में परिवार सहित स्वयं को बेच डालने वाले सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र को?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">गांधी ने कौन-से अचल-निर्माण कराए थे कि उनकी प्रतिमाएं दुनिया भर में लगी हुई हैं? बुद्ध को क्या हम किसी शाक्य राजा के तौर पर याद करते हैं? उनकी बनाई किसी इमारत का नाम आप जानते हैं? महावीर को क्या हम कुंडलपुर के क्षत्रिय राजा की तरह जानते हैं? उनके बनाए किसी भवन-वीथी की याद है आपको? दुनिया के सबसे बड़े मानव-निर्मित अचल निर्माण चीन की दीवार के सूत्रधार क्विन शी हुआंग को कोई जानता भी है? दुनिया की सबसे ऊंची इमारत बुर्ज़ ख़लीफ़ा बनाने वाले मुहम्मद अलाब्बार को जानते हैं आप? शंघाई टॉवर किसने बनवाया, कुछ पता है आपको?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">सो, जिन्हें लगता है कि ईंट-गारे की सात तल्ली इमारतें बनवा कर वे इतिहास में अमर हो जाएंगे, उन्हें मूर्खों के स्वर्ग में निवास करने दीजिए। देश जिस ईंट-गारे से बनते हैं, वह कहां मिलता है, ये बेचारे जानते ही नहीं। इसका मतलब यह नहीं है कि कल को जो आएंगे, वे असली ईंट-गारे की विशेषज्ञता से पगे होंगे। मुझे तो लगता है कि वह मिट्टी ही ख़त्म हो रही है, जो ईंट-गारे की पहचान करने वालों का निर्माण करती थी। इसलिए पहली ज़रूरत तो उस मिट्टी को बचाने की है। वह मिट्टी इन में से किसी के भरोसे नहीं बचेगी। वह तो तब बचेगी, जब हम सब भीतर से बचे रहें।( लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।)</p></div></div></div></div>Pankaj Sharmahttp://www.blogger.com/profile/13850757662593978128noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5241910265090719926.post-10046654395772575382021-08-21T04:10:00.006-07:002021-08-21T04:10:31.474-07:00 अनफ़ॉलो तो राहुल गांधी ने मुझे भी कर दिया!<header class="entry-header alignwide" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif; margin: auto; max-width: 100%; padding: 0px 15px;"><div class="article-info" style="align-items: center; border-bottom: 1px dotted rgb(0, 0, 0); box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: row wrap; font-size: 13px; margin-bottom: 10px; padding: 20px 0px; place-content: center space-between;"><div class="article_inner" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex;"><div class="post-autor-sr" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; margin-right: 35px; position: relative;"><span class="author-img" style="box-sizing: border-box; padding-right: 10px;"><img alt="" class="avatar avatar-96 photo lazyloaded" data-ll-status="loaded" height="96" loading="lazy" sizes="(max-width: 96px) 100vw, 96px" src="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg" srcset="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg 96w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-150x150.jpg 150w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-250x250.jpg 250w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-100x100.jpg 100w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-24x24.jpg 24w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-48x48.jpg 48w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-300x300.jpg 300w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma.jpg 400w" style="border-radius: 50px; border-style: none; box-sizing: border-box; display: block; height: 30px; max-width: 96px; width: 30px;" width="96" /></span><span style="box-sizing: border-box;"><a href="https://www.nayaindia.com/author/pankaj" style="box-sizing: border-box; color: black; text-decoration-line: none; text-transform: capitalize;">By पंकज शर्मा</a></span></div><div class="post-date-sr" style="box-sizing: border-box; margin-right: 35px; position: relative;">June 5,2021</div><div class="post-count-sr" style="box-sizing: border-box; margin-right: 35px; position: relative;"><br /></div></div></div></header><div class="entry-content" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif;"><div class="news_two_block" style="box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; justify-content: space-between;"><div class="news" id="news" style="align-items: baseline; box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: column nowrap; max-width: 1230px; padding-left: 15px; padding-right: 15px; place-content: stretch flex-start; width: 861px;"><div class="news_main_container" style="box-sizing: border-box; max-width: 100%; text-align: justify;"><h3 style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;"><span style="box-sizing: border-box; color: red;"><span style="box-sizing: border-box;">राहुल गांधी को मैं पहले भी फॉलो करता था, </span><span style="box-sizing: border-box;">अब भी करता हूं और जब तक हूं, </span><span style="box-sizing: border-box;">करता रहूंगा। क्योंकि उन में दम है। मैं उनकी ज़्यादातर बातों से सहमत हूं, </span><span style="box-sizing: border-box;">लेकिन बहुत-सी बातों से नहीं। मैं उनके कर्मकांड के ज़्यादातर आयामों से सहमत हूं, </span><span style="box-sizing: border-box;">लेकिन हर पहलू से नहीं। मुझे लगता है कि उन्हें स्वयं में, </span><span style="box-sizing: border-box;">अपने आसपास की संरचना में और कांग्रेस के सांगठनिक ढांचे में कई संशोधन करने की ज़रूरत है। लेकिन उन्हें फ़ॉलो करने में मुझे तो इस से कोई विरोधाभास नहीं लगता। फॉलो करने का मतलब दंडवत-सहमति कहां से हो गया?</span></span></h3><h3 style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;"><span style="box-sizing: border-box; color: red;"><span style="box-sizing: border-box;">कांग्रेस को ट्विटरमयी होने की ज़रूरत तो है, </span><span style="box-sizing: border-box;">लेकिन ट्विटर के आगे जहॉ और भी हैं। पिछले तीन-चार दिनों से राहुल की अनुगमन-सूची राष्ट्रीय मीडिया के विमर्श का मसला जिस तरह बनी हुई है, </span><span style="box-sizing: border-box;">वह मौजूदा मीडिया के बौद्धिक स्तर की प्रतिच्छाया है। लेकिन यह आभासी-जगत पर इस कदर आश्रित हो गए राजनीतिक दलों पर भी तो निरावृत्त टिप्पणी है। सोचिए ज़रा!</span></span></h3><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">मैं भी उन तक़रीबन चार दर्जन लोगों में हूं, जिन्हें दोबारा कांग्रेस-अध्यक्ष बनने में हीले-हवाली कर रहे पूर्व कांग्रेस-अध्यक्ष राहुल गांधी, बुधवार की शाम सूर्यास्त होने से पहले तक ट्विटर पर फ़ॉलो किया करते थे, और अब अनफ़ॉलो कर दिया है। 1 करोड़ 88 लाख 91 हज़ार 301 की फ़ॉलोअर-संख्या वाले राहुल ख़ुद देश-दुनिया के कोई पौने तीन सौ लोगों को ही फ़ॉलो करते थे, जो अब 219 ही रह गए हैं; सो, जब उन्होंने मुझे फ़ॉलो करना शुरू किया था तो ज़ाहिर है कि मुझे इस से ख़ुशी हुई। मगर अब जब उन्होंने बाक़ियों के साथ मुझे अनफ़ॉलो कर दिया है तो इस से मैं कई दूसरों की तरह कोई ग़म के सागर में नहीं डूब गया हूं।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">मैं भी सिर्फ़ 414 लोगों को ही फॉलो करता हूं। मेरे फ़ॉलोअर भी बित्ते भर हैं-महज़ 10 हज़ार 883। उन में बहुत नामी-गिरामी लोग भी नहीं हैं। चार-छह होंगे। अब एक कम हो गया। मगर इतना ज़रूर है कि जो मुझे फ़ॉलो करते हैं, उनमें दम है। वे आंकड़ा भर नहीं हैं। मैं भी जिन्हें फॉलो करता हूं, वे भी दमदार हैं। वे भी महज़ गिनती ही नहीं हैं। राहुल गांधी को मैं पहले भी फॉलो करता था, अब भी करता हूं और जब तक हूं, करता रहूंगा। क्योंकि उन में दम है। मैं उनकी ज़्यादातर बातों से सहमत हूं, लेकिन बहुत-सी बातों से नहीं। मैं उनके कर्मकांड के ज़्यादातर आयामों से सहमत हूं, लेकिन हर पहलू से नहीं। मुझे लगता है कि उन्हें स्वयं में, अपने आसपास की संरचना में और कांग्रेस के सांगठनिक ढांचे में कई संशोधन करने की ज़रूरत है। लेकिन उन्हें फ़ॉलो करने में मुझे तो इस से कोई विरोधाभास नहीं लगता। फॉलो करने का मतलब दंडवत-सहमति कहां से हो गया?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">ऐसे फ़ॉलो तो मैं, सात बरस से पूरे देश को पाषाण-युग में ले जाने की जी-तोड़ कोशिश कर रहे, नरेंद्र भाई मोदी को भी करता हूं। उनके अश्वेत साए अमित भाई शाह को भी मैं फ़ॉलो करता हूं। क्या इसका मतलब यह है कि मैं उनका अनुगामी हूं? उनका अनुचर हूं? तो किसी को फ़ॉलो करने का अर्थ उसका समर्थक होना तो है नहीं। इसलिए जब मैं ने देखा कि राहुल ने क़रीब पचास लोगों को अनफ़ॉलो कर दिया है तो मुझे समझ ही नहीं आया कि हंसूं कि रोऊं? जब राहुल ने इन लोगों को फ़ॉलो किया था तो क्या सोच कर किया था? जब उन्हें अनफ़ॉलो कर दिया तो इसके पीछे कौन-सी समझ काम कर रही है? सो, यह जानते हुए भी कि सारा खेल ही सोच-समझ का है, इस क़दम के पीछे किस की कौन-सी रणनीतिक सोच या अकादमिक समझ काम कर रही है, मैं तो समझ नहीं पा रहा।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">बावजूद इसके, जैसे मेरे ट्विटर हैंडल पर मेरी मर्ज़ी है कि मैं जिसे जब चाहूं फॉलो करूं और जब चाहूं अनफ़ॉलो कर दूं, वैसे ही इसी स्वतंत्रता का हक़ राहुल को क्यों न हो? अब अगर उन्होंने बरखा दत्त, निधि राज़दान, राजदीप सरदेसाई, हर्षमंदर, हंसराज मीना, प्रतीक सिन्हा, संयुक्ता बसु, निखिल अल्वा, कुणाल कामरा, कौशल विद्यार्थी, अलंकार सवाई, बायजू, वग़ैरह को अनफ़ॉलो कर दिया तो इस पर इतना बवाल क्यों होना चाहिए? इसमें किसी को इतना अपमानित महसूस करने की क्या जरूरत है कि कहने लगे कि चूंकि मैं आलोचना करता/करती हूं, इसलिए मुझे अनफ़ॉलो किया है और इस से ही अंदाज़ लगा लो कि मीडिया से कांग्रेस के संबंधों में क्या बुनियादी ख़ामियां हैं और राजनीति के वृहद क्षितिज पर भी पार्टी की हालत ऐसी क्यों है? अरे, यह क्या बात हुई कि राहुल अगर ट्विटर पर मुझे फ़ॉलो करें तब तो मैं उन्हें नरेंद्र भाई का विकल्प मानूंगा और अगर अनफ़ॉलो कर देंगे तो वे विपक्ष की अगुआई के अयोग्य हो जाएंगे?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">अपने को बहुत चुस्त-चौकन्ना समझने वाले मीन-मेखिए राहुल के ट्विटर-खाते के प्रबंधन पर यह सवाल ज़रूर उठा सकते हैं कि हैं अब भी जिन लोगों को फ़ॉलो किया जा रहा है, उनमें पिछले साल के नवंबर में स्वर्गवासी हुए अहमद पटेल और तरुण गोगोई के नाम क्यों हैं, दिसंबर में अलविदा हुए मोतीलाल वोरा क्यों मौजूद हैं, इसी साल मई के तीसरे हफ़्ते में हमारे बीच से हमेशा के लिए चले गए युवा सांसद राजीव सातव का नाम कैसे है और पिछले बरस अप्रैल में जन्नतनशीं हुए युवा अभिनेता इरफ़ान तक को भी राहुल एक साल बाद तक भी क्यों फ़ॉलो कर रहे हैं? लेकिन मेरा सवाल है कि अगर कोई अपनी संवेदनाओं के चलते स्वर्गवासियों को भी ट्विटर-सूची में बने रहने देना चाहता हो तो आप को क्या है?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">अब क्या यह भी हम-आप तय करेंगे कि जब राहुल गांधी कांग्रेस के बड़े-बड़े दिग्गजों तक को अपने ट्विटर का फॉलो-अमृत वितरित नहीं करते हैं तो बिहार के चुनाव में कांग्रेस की भद्द पीट देने वाले शक्तिसिंह गोहिल को यह सुख क्यों प्राप्त है? असम में चुनावी रणनीति की ख़ामियों के लिए जिन जितेंद्र सिंह अलवर पर 10 मई को हुई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में तीखी बौछार हुई, राहुल उन्हें फ़ॉलो क्यों करते हैं? पुदुचेरी में कांग्रेस का भट्ठा बैठा देने वाले वी. नारायणसामी में ऐसे क्या लाल टंके हैं कि वे उनकी फ़ॉलो-सूची से बाहर नहीं हो रहे हैं? पंजाब में कांग्रेस की सरकार के लिए कांटे बिछाने का मूल-कर्म करने वाले प्रताप सिंह बाजवा को राहुल का अनुगमन-अलंकरण कैसे मिला हुआ है?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">अगर राहुल यह सोचते हैं कि अपने ही सचिवालय के सहयोगियों को भी क्या ट्विटर पर फ़ॉलो करना, तो मुझे उनकी इस सोच में कोई बुराई नज़र नहीं आती है। मगर अगर कौशल विद्यार्थी जैसे ज़हीन कवि-छायाकार और अंतरराष्ट्रीय बैंकिंग व्यवस्था की बारीकियों के जानकारी अलंकार सवाई इस नीति का शिकार हुए हैं तो पार्टी के मीडिया विभाग के पार्श्व-कक्ष में लघु-सहयोगी की भूमिका में बैठे दो चेहरों को फॉलो करते रहने की राहुल में इतनी ललक क्यों है? इनमें से एक ने पार्टी की तरफ़ से पिछले 8 साल में औसतन हर रोज़ सिर्फ़ दो ट्वीट किए हैं और दूसरे ने पांच।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">राहुल अपने ट्विटर पर किसी का भी अनुगमन करें-न-करें, यह किसी भी बहस का मुद्दा नहीं हो सकता। हां, इतना ज़रूर है कि राहुल चूंकि एक बड़ी राजनीतिक हस्ती हैं, वे कांग्रेस के अध्यक्ष थे और उन्हें कांग्रेस के भावी-अध्यक्ष के तौर पर अब भी देखा जाता है, इसलिए ट्विटर जैसे सार्वजनिक माध्यम पर उन्हें अपनी अनुगमन-सूची तैयार करते वक़्त ज़िम्मेदारी और सावधानी से काम लेना चाहिए। इसलिए, अब जब इतने लोगों को राहुल ने अपने ट्विटर-बरामदे से विदा कर ही दिया है तो उनकी मौजूदा सूची की शोभा बढ़ाने का काम अगर दो नाम और न करें तो इस से कांग्रेस को पुण्य ही मिलेगा। एक, केशवचंद्र यादव और दूसरा फ़ैरोज़ ख़ान। सब जानते हैं कि 2019 की जुलाई में यादव को युवा कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा क्यों देना पड़ा था और 2018 के अक्टूबर में ख़ान को एनएसयूआई के अध्यक्ष पद से क्यों हटाया गया था। सो, उन्हें दो-दो ढाई-ढाई साल बाद अब तक फ़ॉलो करते रहने में कोई तुक मुझे तो समझ नहीं आती।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">कांग्रेस को ट्विटरमयी होने की ज़रूरत तो है, लेकिन ट्विटर के आगे जहॉ और भी हैं। पिछले तीन-चार दिनों से राहुल की अनुगमन-सूची राष्ट्रीय मीडिया के विमर्श का मसला जिस तरह बनी हुई है, वह मौजूदा मीडिया के बौद्धिक स्तर की प्रतिच्छाया है। लेकिन यह आभासी-जगत पर इस कदर आश्रित हो गए राजनीतिक दलों पर भी तो निरावृत्त टिप्पणी है। सोचिए ज़रा! (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।</p></div></div></div></div>Pankaj Sharmahttp://www.blogger.com/profile/13850757662593978128noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5241910265090719926.post-25678613857885610522021-08-21T04:08:00.003-07:002021-08-21T04:08:23.614-07:00 सिंहासन-सप्तपदी के सात बरस बाद<header class="entry-header alignwide" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif; margin: auto; max-width: 100%; padding: 0px 15px;"><div class="article-info" style="align-items: center; border-bottom: 1px dotted rgb(0, 0, 0); box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: row wrap; font-size: 13px; margin-bottom: 10px; padding: 20px 0px; place-content: center space-between;"><div class="article_inner" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex;"><div class="post-autor-sr" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; margin-right: 35px; position: relative;"><span class="author-img" style="box-sizing: border-box; padding-right: 10px;"><img alt="" class="avatar avatar-96 photo lazyloaded" data-ll-status="loaded" height="96" loading="lazy" sizes="(max-width: 96px) 100vw, 96px" src="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg" srcset="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg 96w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-150x150.jpg 150w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-250x250.jpg 250w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-100x100.jpg 100w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-24x24.jpg 24w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-48x48.jpg 48w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-300x300.jpg 300w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma.jpg 400w" style="border-radius: 50px; border-style: none; box-sizing: border-box; display: block; height: 30px; max-width: 96px; width: 30px;" width="96" /></span><span style="box-sizing: border-box;"><a href="https://www.nayaindia.com/author/pankaj" style="box-sizing: border-box; color: black; text-decoration-line: none; text-transform: capitalize;">By पंकज शर्मा</a></span></div><div class="post-date-sr" style="box-sizing: border-box; margin-right: 35px; position: relative;">May 29,2021</div><div class="post-count-sr" style="box-sizing: border-box; margin-right: 35px; position: relative;"><br /></div></div></div></header><div class="entry-content" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif;"><div class="news_two_block" style="box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; justify-content: space-between;"><div class="news" id="news" style="align-items: baseline; box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: column nowrap; max-width: 1230px; padding-left: 15px; padding-right: 15px; place-content: stretch flex-start; width: 861px;"><div class="news_main_container" style="box-sizing: border-box; max-width: 100%; text-align: justify;"><h3 style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;"><span style="box-sizing: border-box; color: red;"><span style="box-sizing: border-box;">जिन्हें इतिहास की समझ है</span><span style="box-sizing: border-box;">, </span><span style="box-sizing: border-box;">वे जानते हैं कि हुक़्मरान जब-जब कलंदरी पर उतारू होते हैं</span><span style="box-sizing: border-box;">, </span><span style="box-sizing: border-box;">जनता भी तब-तब चीमटा बजाने लगती है। जिन्हें समझ कर भी यह इतिहास नहीं समझना</span><span style="box-sizing: border-box;">, </span><span style="box-sizing: border-box;">उनकी समझ को नमन कीजिए। लेकिन एक बात अच्छी तरह समझ लीजिए। जनता जब अपनी पर आती है तो वह किसी गांधी-वांधी</span><span style="box-sizing: border-box;">, </span><span style="box-sizing: border-box;">पवार-फवार</span><span style="box-sizing: border-box;">, </span><span style="box-sizing: border-box;">अण्णा-केजरी की मोहताज़ नहीं होती। वह अपने नायक स्वयं निर्मित कर लेती है।</span></span></h3><h3 style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;"><span style="box-sizing: border-box; color: red;"><span style="box-sizing: border-box;">मैं ने पहले भी कहा है और दोबारा कह रहा हूं कि इस साल की दीवाली गुज़रने दीजिए</span><span style="box-sizing: border-box;">, </span><span style="box-sizing: border-box;">उसके बाद सियासी हालात का ऊंट इतनी तेज़ी से करवट लेगा कि उसकी कुलांचें देख कर अच्छे-अच्छों की घिग्घी बंध जाएगी। जिन्हें लगता है कि नरेंद्र भाई ने अपनी मातृ-संस्था के प्रमुख मोहन भागवत के नीचे की कालीन इस तरह अपनी मुट्ठी में कर ली है कि जिस सुबह चाहेंगे</span><span style="box-sizing: border-box;">, </span><span style="box-sizing: border-box;">सरका देंगे</span><span style="box-sizing: border-box;">, </span><span style="box-sizing: border-box;">उनकी खुशफ़हमी अगली वसंत पंचमी आते-आते काफ़ूर हो चुकी होगी</span></span></h3><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">कल नरेंद्र भाई मोदी को दोबारा भारत माता के माथे पर सवार हुए सात साल पूरे हो जाएंगे। अपने हर काम को करतब में तब्दील करने की ललक से सराबोर नरेंद्र भाई ने 2014 में दक्षेस देशों के शासन-प्रमुखों की मौजूदगी में भारत के पंद्रहवें प्रधानमंत्री के तौर पर सिंहासन-सप्तपदी की थी और 2019 में जब वे सोलहवें प्रधानमंत्री पद के लिए फेरे ले रहे थे तो उनके सामने बिमस्टेक देशों के राष्ट्र-प्रमुख बैठे हुए थे।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">भारत के अलावा दक्षेस के बाकी सदस्य-देश हैं पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका, भूटान, मालदीव और अफ़गानिस्तान। 2014 की गर्मियों में सरकारी दिशाओं से बहने वाली लू में यह संदेश था कि गोया दुनिया की आबादी के 21 प्रतिशत लोग, वैश्विक अर्थव्यवस्था में से 30 खरब रुपए का हिस्सा और पृथ्वी की 3 फ़ीसदी भूमि नरेंद्र भाई के सीधे समर्थन में खड़ी है। वैसे तो ऐसा था नहीं, मगर अगर था भी तो इतनी पिद्दी-सी बात पर भारत के प्रधानमंत्री को इतना इतराने की कोई दरकार नहीं थी।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">2019 की गर्मियों में संदेश देने की कोशिश हुई कि बंगाल की खाड़ी से उठने वाली लहरों की बहुक्षेत्रीय तकनीकी-आर्थिक पहलकदमी के नायक भी हमारे हिंदू हृदय सम्राट नरेंद्र भाई ही हैं। बिमस्टेक के सदस्य-देशों में भारत के अलावा बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, म्यांमार, श्रीलंका और थाइलैंड हैं। क्या आप को लगता है कि उनके राष्ट्र-प्रमुखों की शपथ समारोह में उपस्थिति से भी भारत के प्रधानमंत्री को इतना गदगद हो कर तान छड़ने की ज़रूरत थी?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">लेकिन अब सात बरस बाद कोई तो यह सोचे कि अमेरिका, चीन, रूस, ऑस्ट्रेलिया, ब्राज़ील, वगै़रह-वगै़रह के मन में नरेंद्र भाई के लिए उछालें मार रही स्नेह-फुहारों की तो बात ही मत कीजिए और पाकिस्तान को तो जाने दीजिए चूल्हे में; मगर बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, म्यांमार, श्रीलंका, मालदीव, अफ़गानिस्तान और थाइलैंड से भी आज नरेंद्र भाई के संबंध सचमुच कैसे हैं? शेख मुज़ीबुर्रहमान की बेटी होने के नाते बांग्लादेश की शेख हसीना के भारत से जुड़े भाव-बंधन को छोड़ दें तो क्या कोई और आप को हमारे प्रधानमंत्री से आज सीधे मुंह बात करता दिखाई दे रहा है?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">नेपाल के के. पी. शर्मा ओली, भूटान के जिग्मे वांग्चुक, श्रीलंका के गोतबाया राजपक्ष, मालदीव के इब्राहीम मुहम्मद सोलिह, अफ़गानिस्तान के अशरफ़ घानी और थाइलैंड के महा वजीरलोंग्कोर्न में से किस की धड़कनों में नरेंद्र भाई बसे हुए हैं? एक वक़्त जाफ़ना की मुश्क़िलों से निपटने के लिए भारतीय शांति सेना बुलाने वाला श्रीलंका इन दिनों चीन को ’प्रांत’ बसाने के लिए ज़मीन दे रहा है। म्यांमार में तीन महीने पहले काबिज़ हुए सैन्य-प्रमुख मिन आंग ह्लाइंग को भारत से भले प्रेम न हो, मगर जब आंग सान सू भी थीं तो भारत से दशकों पुराने स्नेह-बंधन के बावजूद नरेंद्र भाई से छिटक क्यों गई थीं?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">इस बात पर हम भले ही ताली बजा लें कि चीन के शी जिन पिंग के साथ साबरमती किनारे झूला झूलने वाले नरेंद्र भाई अब शायद ही कभी उन्हें अपने साथ हिंडोले पर बिठाएंगे, मगर इस बात पर हम थाली कैसे बजाएं कि अमेरिका के जो बाइडन शायद ही अपने कार्यकाल में हमारे मौजूदा प्रधानमंत्री के साथ झूला झूलने को तैयार होंगे! रूस के व्लादिमिर पुतिन से नरेंद्र भाई की वैचारिक जड़ें भले ही उलट हों, मगर पलटनवाद के मूल-विचार के तो दोनों ही हामी हैं। इसके चलते पुतिन भारत में रूस के कारोबारी अवसरों की ज़मीन थोड़ी व्यापक बनाने की कोशिश करते ज़रूर दिखाई देते हैं, लेकिन नरेंद्र भाई से रहते तो वे बुनियादी तौर पर खिंचे-खिंचे ही हैं।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">ऑस्ट्रेलिया के स्कॉट मॉरिसन और ब्राज़ील के जायर बोल्सोनारो को आप ने पिछली बार कब भारत के प्रधानमंत्री की तरफ़ मुस्करा कर देखते देखा था? भारत से ऐतिहासिक ताने-बाने के बावजूद आप दक्षिण अफ्रीका के सिरिल राम्फोसा से ले कर अफ़़्रीकी मुल्क़ों के किस शासनाध्यक्ष को हमारे प्रधानमंत्री से गलबिहयां करते पाते हैं? तमाम गले-पड़ू तस्वीरों के बावजूद क्या आपको यह लगता है कि सऊदी अरब के सलमान बिन अब्दुल अज़ीज़ से ले कर संयुक्त अरब अमीरात के ख़लीफ़ा बिन ज़ायेद हमारे नरेद्र भाई की मन-ही-मन बलैयां लेते होंगे? फ़लस्तीन के महमूद अब्बास को नरेंद्र भाई के भारत से मुहब्बत हो-न-हो, इज़राइल के बेंजामिन नेतन्याहू भी तो अब डगमग-डगमग चलने लगे हैं। उनका क्या?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">2020 में ज़रूर नरेंद्र भाई परदेस नहीं जा पाए, वरना विश्व-गुरु बनने के चक्कर में वे पहले कार्यकाल में 49 बार विदेश यात्राएं कर आए थे और दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने धड़ाधड़ 7 विदेश यात्राएं और कर डाली थीं। इस साल पश्चिम बंगाल में मतदान के आख़िरी दिन 26 मार्च को वे बांग्लादेश जा पहुंचे। इन 60 यात्राओं में से 51 के विमान भाड़े पर ही 5 अरब 88 करोड़ 62 लाख 88 हज़ार 763 रुपए खर्च हो चुके हैं। 8 यात्राएं वायुसेना के विमान से हुईं, इसलिए उनका अलग से भाड़ा नहीं देना पड़ा और बांग्लादेश की यात्रा भाड़े का बिल अभी सरकार को मिला नहीं है। सात साल में एक साल कोरोना ने हमारे प्रधानमंत्री को विदेश नहीं जाने दिया, मगर बाकी के छह साल में वे सात महीने विदेशों में ही रहे। बाकी खर्चों का पता नहीं, विमान भाड़े पर ही इस हिसाब से औसतन हर रोज़ पौने तीन करोड़ रुपए से ज़्यादा खर्च हुए। लेकिन सतही घुमक्कड़ी से ही अंतरराष्ट्रीय संबंधों में मिठास घुल पाती तो फिर बात ही क्या थी?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">सात साल पहले नरेंद्र भाई का आराधक-आधार, जैसे भी हुआ था, बेहद मजबूत था। सात बरस बाद उनके अकेले के किए-धरे से वह इतना पिलपिला हो गया है कि, देश तो देश, पूरी भारतीय जनता पार्टी और संघ-कुनबा भी माथा पीट रहे हैं। भाजपा के 300 मौजूदा चेहरों में तीन चौथाई ऐसे हैं, जो अगला कोई भी चुनाव ख़ुद के बूते पर जीतने की कूवत नहीं रखते हैं और जानते हैं कि नरेंद्र भाई का मुखौटा अगर उन्होंने लगाया तो गत और भी बुरी हो जाएगी। तिस पर आधों से ज़्यादा को अगले लोकसभा चुनाव में अपनी उम्मीदवारी पर अमित शाह का खंज़र लटका अभी से दिखाई दे रहा है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">सो, भाजपा-संघ के अंतःपुर में यह नरेंद्र भाई के नेतृत्व पर सब से मोटे सवालिया निशान का दौर है। मोशा-धमक मगर अभी भी इतनी गई-बीती नहीं हुई है कि आप तनी मुट्ठियां खुल कर देख पाएं। इसलिए दिखने को ज़्यादातर सिर झुके दिखाई दे रहे हैं। लेकिन जो सिर उठने लगे हैं, वे ऐसे नहीं है, देख कर भी जिनकी अनदेखी की जा सके। मैं ने पहले भी कहा है और दोबारा कह रहा हूं कि इस साल की दीवाली गुज़रने दीजिए, उसके बाद सियासी हालात का ऊंट इतनी तेज़ी से करवट लेगा कि उसकी कुलांचें देख कर अच्छे-अच्छों की घिग्घी बंध जाएगी। जिन्हें लगता है कि नरेंद्र भाई ने अपनी मातृ-संस्था के प्रमुख मोहन भागवत के नीचे की कालीन इस तरह अपनी मुट्ठी में कर ली है कि जिस सुबह चाहेंगे, सरका देंगे, उनकी खुशफ़हमी अगली वसंत पंचमी आते-आते काफ़ूर हो चुकी होगी।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">जिन्हें इतिहास की समझ है, वे जानते हैं कि हुक़्मरान जब-जब कलंदरी पर उतारू होते हैं, जनता भी तब-तब चीमटा बजाने लगती है। जिन्हें समझ कर भी यह इतिहास नहीं समझना, उनकी समझ को नमन कीजिए। लेकिन एक बात अच्छी तरह समझ लीजिए। जनता जब अपनी पर आती है तो वह किसी गांधी-वांधी, पवार-फवार, अण्णा-केजरी की मोहताज़ नहीं होती। वह अपने नायक स्वयं निर्मित कर लेती है। और, कोई ज़रूरी नहीं कि छप्पन इंच की छाती वाले या चिकने-चुपड़े चेहरे वाले ही लोक-नायक बनते हों। <span style="box-sizing: border-box; font-weight: 700;">(लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।)</span></p></div></div></div></div>Pankaj Sharmahttp://www.blogger.com/profile/13850757662593978128noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5241910265090719926.post-6125178247463708322021-08-21T04:06:00.005-07:002021-08-21T04:06:46.395-07:00 राहुल गांधी होते कौन हैं मना करने वाले?<p> </p><header class="entry-header alignwide" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif; margin: auto; max-width: 100%; padding: 0px 15px;"><div class="article-info" style="align-items: center; border-bottom: 1px dotted rgb(0, 0, 0); box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: row wrap; font-size: 13px; margin-bottom: 10px; padding: 20px 0px; place-content: center space-between;"><div class="article_inner" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex;"><div class="post-autor-sr" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; margin-right: 35px; position: relative;"><span class="author-img" style="box-sizing: border-box; padding-right: 10px;"><img alt="" class="avatar avatar-96 photo lazyloaded" data-ll-status="loaded" height="96" loading="lazy" sizes="(max-width: 96px) 100vw, 96px" src="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg" srcset="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg 96w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-150x150.jpg 150w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-250x250.jpg 250w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-100x100.jpg 100w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-24x24.jpg 24w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-48x48.jpg 48w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-300x300.jpg 300w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma.jpg 400w" style="border-radius: 50px; 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width: 861px;"><div class="news_main_container" style="box-sizing: border-box; max-width: 100%; text-align: justify;"><h3 style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;"><span style="box-sizing: border-box; color: red;"><span style="box-sizing: border-box;">कांग्रेस का अध्यक्ष पद संभालने की लियाक़त रखने वाले कई चेहरे हैं। प्रियंका गांधी हैं। कमलनाथ हैं। पी. चिदंबरम हैं। मल्लिकार्जुन खड़गे हैं। दिग्विजय सिंह हैं। अशोक गहलोत हैं। उम्र पर न जाएं तो शिवराज पाटिल हैं</span><span style="box-sizing: border-box;">, सुशील कुमार शिंदे हैं और आप को नागवार न गुज़रें तो आनंद शर्मा, मुकुल वासनिक, शशि थरूर भी हैं। राहुल-सोनिया जिसके लिए इशारा कर देंगे, वह मुखिया हो जाएगा। लेकिन अगर मोशा-भाजपा को वनवास देना है तो अंततः राहुल को ही आगे आना होगा। नरेंद्र भाई का विकल्प राहुल और प्रियंका में से ही कोई हो सकता है।</span></span></h3><h3 style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;"><span style="box-sizing: border-box; color: red;"><span style="box-sizing: border-box;">राहुल को यह समझना होगा कि कांग्रेस का अध्यक्ष पद छोड़ कर उन्होंने पार्टी का कितना बड़ा नुक़सान किया है</span><span style="box-sizing: border-box;">? उन्हें यह भी समझना होगा कि यह ज़िम्मेदारी संभालने में देरी कर के अब वे पूरे विपक्ष का कितना बड़ा नुक़सान कर रहे हैं? आज अगर समूचे विपक्ष की कोई सकल-शक़्ल नहीं बन पा रही है तो इसलिए कि कांग्रेस अंतरिम-नेतृत्व के सहारे चल रही है।</span></span></h3><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">कल राजीव गांधी की शहादत के तीस साल पूरे हो गए और मैं सोचता रहा कि आज अगर वे होते तो, भले ही अब 77 साल के होते, मगर उनके होते, और कुछ भी होता, कांग्रेस का यह हाल तो नहीं होता। इसलिए कि पहले तो ऐसे हालात ही नहीं बनते कि अहमदाबाद से कोई यूं धड़धड़ाता हुआ आता और दो-दो बार रायसीना की पहाड़ी इस तरह चढ़ जाता और अगर पहली बार के बाद दूसरी बार भी उसके रथ के घर्घर नाद का स्वर कम नहीं होता तो भी राजीव गांधी अपनी पार्टी का सिंहासन खाली छोड़ कर कहीं जाते नहीं। न तो वे ख़ुद को अकेला महसूस करते और न दूसरों को अकेलेपन का अहसास होने देते। वे डटे रहते।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">डटे तो राहुल गांधी भी हुए हैं, लेकिन उनके डटने-हटने-डटने की भूलभुलैया में कांग्रेस हिचकोलों के हिंडोले से उतर नहीं पा रही है। ढाई साल में राहुल और उनकी कांग्रेस के सत्कर्मों की सूची बेहद ज़मीनी है, ठोस है और ख़ासी लंबी है। 2019 के चुनाव अभियान में राहुल ने नरेंद्र भाई मोदी को पदा-पदा डाला था। राहुल की कांग्रेस हार भले गई हो, लेकिन मोशा-रहस्यलोक ने भारतीय जनता पार्टी को कैसे जिताया, कौन नहीं जानता! दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने के दिन से ही नरेंद्र भाई को राहुल अनवरत ताताथैया करा रहे हैं। महामारी के इस दौर में पीड़ितों को राहत पहुंचाने का जैसा काम कांग्रेस ने किया और कर रही है, उसे संघ-अनुचर तो कभी स्वीकार करेंगे नहीं, मगर इतिहास के पन्नों पर वह रेखांकित हो चुका है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">राहुल की एक ग़लती लेकिन इस सब पर भारी पड़ रही है। वह यह कि एक तो दुःखी हो कर वे कांग्रेस-अध्यक्ष का पद छोड़ कर चले गए और फिर अब दोबारा पार्टी की कमान संभालने में देरी ही करते जा रहे हैं। इस चक्कर में कांग्रेस की ताजा पुण्याई नाहक नष्ट हो रही है। सात बरस से नरेंद्र भाई को अपने माथे पर बिठा कर नाच रहे लोगों का तर्क यही तो है कि उनका कोई विकल्प ही कहां है? कांग्रेस की शिखर-आसंदी पर राहुल की अनुपस्थिति इस तर्क को और मज़बूत कर रही है। घनघोर उकताहट के इस मौसम में भी अगर नरेंद्र भाई ही भारत के भाग्य-विधाता समझे जाएंगे तो हम सब का इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या होगा? तो अपने को इस बदक़िस्मती की गुफ़ा में ठेलने की तोहमत हम राहुल पर क्यों नहीं लगाएं? आख़िर वे इतने एकलखुरे कैसे हो सकते हैं कि अपनी सामुदायिक ज़िम्मेदारी से किनारा कर के बैठे रहें?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">डेढ़ साल से जैसी अनिश्चितता का माहौल देश-दुनिया में एक विषाणु ने बना रखा है, पौने दो साल से वैसी ही अनिश्चितता का माहौल कांग्रेस में राहुल के निर्णय ने बना रखा है। दिन कब सामान्य होंगे, यह फ़िक़्र देश को भी खाए जा रही है और कांग्रेस को भी। दोनों की मायूसी में, दोनों के अवसाद में और दोनों की छटपटाहट में क्या आप को कहीं कोई फ़र्क दिखाई देता है? वायरस की अर्थी जाए तो देश के चेहरे पर लाली आए और राहुल की डोली आए तो कांग्रेस के गाल गुलाबी हों। दोनों ही अनिश्चितताओं का दौर अब इतना लंबा खिंच गया है कि सब के तन-मन टूटने लगे हैं।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">राहुल को यह समझना होगा कि कांग्रेस का अध्यक्ष पद छोड़ कर उन्होंने पार्टी का कितना बड़ा नुक़सान किया है? उन्हें यह भी समझना होगा कि यह ज़िम्मेदारी संभालने में देरी कर के अब वे पूरे विपक्ष का कितना बड़ा नुक़सान कर रहे हैं? आज अगर समूचे विपक्ष की कोई सकल-शक़्ल नहीं बन पा रही है तो इसलिए कि कांग्रेस अंतरिम-नेतृत्व के सहारे चल रही है। भले ही आज संसद में कांग्रेस के सांसदों की संख्या जितनी कम है, इतिहास में कभी नहीं थी, लेकिन कांग्रेस अब भी सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है और उसका अखिल भारतीय वर्चस्व सबसे व्यापक है। इसलिए राहुल को यह भी समझना होगा कि कोप-भवन में उनका बैठे रहना नरेंद्र मोदी को एक ऐसे दौर में भी भुरभुर हो कर गिरने नहीं दे रहा है, जब मौजूदा बदतर हालात और बदइंतज़ामी के लिए पत्ता-पत्ता-बूटा-बूटा सिर्फ़ उन्हें और उन्हें ही जवाबदेह मान रहा है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">मुझ से पूछो तो सच्ची बात यह है कि महामारी के चलते कांग्रेस-अध्यक्ष के चुनाव को दो-तीन महीने और टाल देने की कोई ज़रूरत नहीं थी। दरअसल, समय यह सोचने का नहीं है कि लोग क्या कहेंगे? कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना। समय तो यह सोचने का है कि कांग्रेस को क्या करना है? यह समय त्रिशंकु-मुद्रा में बैठे रहने का नहीं है। यह समय सियासी-अपंगता को झटक कर उठ खड़े होने का है। कांग्रेस के लोक-सेवक स्वरूप की पूरे देश में सराहना हो रही है। ग्लानि तो उन्हें हो, जो हुकू़मत में रहते हुए भी बीमारों को सांसें मुहैया नहीं करा पा रहे, जिनके राज में गंगा शव-वाहिनी बन गई, जिनके होते दवाओं से ले कर अंतिम-संस्कार सामग्री तक की कालाबाज़ारी पर काबू नहीं पाया जा रहा।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">सो, पुनर्निवाचन की ज़रूरत तो प्रधानमंत्री के लिए है। कांग्रेस-अध्यक्ष के लिए तो चुनाव की कोई ज़रूरत ही नहीं है – न तकनीकी लिहाज़ से, न व्यावहारिक लिहाज़ से। कांग्रेस की जिस कार्यसमिति ने चुनाव दो-तीन महीने टाले, उस में यह हिम्मत होनी चाहिए कि वह एक सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित कर राहुल को पार्टी-अध्यक्ष नियुक्त कर दे। आख़िर राहुल होते कौन हैं मना करने वाले? उनकी सहमति-असहमति का सम्मान तब करिए, जब शांति-काल हो। यह तो संघर्ष-काल है। रण-क्षेत्र में किस की सहमति, किस की असहमति? आपद्-धर्म का पालन करने से मना करने का अधिकार राहुल को है ही नहीं।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">अगर वे राजनीति से ही विदा लेने का इरादा रखते हों तो कोई क्या कर लेगा? लेकिन अगर उन्हें राजनीति में रहना है तो कांग्रेस में ही रहेंगे और वे यह नहीं कर सकते कि कांग्रेस में रहते हुए कार्यसमिति के फ़ैसले को मानने से इनकार कर दें। क्या मैं ऐसा कर सकता हूं कि कांग्रेस-अध्यक्ष ने मुझे जो ज़िम्मेदारी दे रखी है, चूंकि वह मुझे पसंद नहीं है, इसलिए मैं उसे संभालने से मना करने की चिट्ठी उन्हें भेज दूं? क्या इसके लिए मुझ पर अनुशासनहीनता की कार्रवाई नहीं होगी? तो फिर पार्टी के एक सदस्य के नाते राहुल को ही कोई विशेषाधिकार क्यों हो? पार्टी की सर्वोच्च नीति निर्धारण समिति का निर्णय उन पर बाध्यकारी क्यों न हो?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">कांग्रेस का अध्यक्ष पद संभालने की लियाक़त रखने वाले कई चेहरे हैं। प्रियंका गांधी हैं। कमलनाथ हैं। पी. चिदंबरम हैं। मल्लिकार्जुन खड़गे हैं। दिग्विजय सिंह हैं। अशोक गहलोत हैं। उम्र पर न जाएं तो शिवराज पाटिल हैं, सुशील कुमार शिंदे हैं और आप को नागवार न गुज़रें तो आनंद शर्मा, मुकुल वासनिक, शशि थरूर भी हैं। राहुल-सोनिया जिसके लिए इशारा कर देंगे, वह मुखिया हो जाएगा। लेकिन अगर मोशा-भाजपा को वनवास देना है तो अंततः राहुल को ही आगे आना होगा। नरेंद्र भाई का विकल्प राहुल और प्रियंका में से ही कोई हो सकता है। जो कहते हैं कि राहुल-प्रियंका विकल्प होंगे तो नरेंद्र भाई और दीर्घजीवी होते जाएंगे, वे कांग्रेस को अल्पजीवी बनाने की साज़िश में शामिल हैं। यह तर्क मोशा-कारखाने में गढ़ा गया है। नरेंद्र भाई जानते हैं कि सिर्फ़ राहुल-प्रियंका ही उनके विकल्प हो सकते हैं। इसलिए उनके गोयबल्स दिन-रात यह माला जप रहे हैं। इसी जाल से तो बचने की ज़रूरत है। <span style="box-sizing: border-box; font-weight: 700;">(लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।)</span></p></div></div></div></div>Pankaj Sharmahttp://www.blogger.com/profile/13850757662593978128noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5241910265090719926.post-52942998616830678492021-08-21T04:04:00.007-07:002021-08-21T04:04:45.531-07:00 हिमयुग के द्वार खड़ी नरेंद्र भाई की भाजपा<header class="entry-header alignwide" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif; margin: auto; max-width: 100%; padding: 0px 15px;"><div class="article-info" style="align-items: center; border-bottom: 1px dotted rgb(0, 0, 0); box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: row wrap; font-size: 13px; margin-bottom: 10px; padding: 20px 0px; place-content: center space-between;"><div class="article_inner" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex;"><div class="post-autor-sr" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; margin-right: 35px; position: relative;"><span class="author-img" style="box-sizing: border-box; padding-right: 10px;"><img alt="" class="avatar avatar-96 photo lazyloaded" data-ll-status="loaded" height="96" loading="lazy" sizes="(max-width: 96px) 100vw, 96px" src="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg" srcset="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg 96w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-150x150.jpg 150w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-250x250.jpg 250w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-100x100.jpg 100w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-24x24.jpg 24w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-48x48.jpg 48w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-300x300.jpg 300w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma.jpg 400w" style="border-radius: 50px; border-style: none; box-sizing: border-box; display: block; height: 30px; max-width: 96px; width: 30px;" width="96" /></span><span style="box-sizing: border-box;"><a href="https://www.nayaindia.com/author/pankaj" style="box-sizing: border-box; color: black; text-decoration-line: none; text-transform: capitalize;">By पंकज शर्मा</a></span></div><div class="post-date-sr" style="box-sizing: border-box; margin-right: 35px; position: relative;">May 15,2021</div><div class="post-count-sr" style="box-sizing: border-box; margin-right: 35px; position: relative;"><br /></div></div></div></header><div class="entry-content" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif;"><div class="news_two_block" style="box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; justify-content: space-between;"><div class="news" id="news" style="align-items: baseline; box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: column nowrap; max-width: 1230px; padding-left: 15px; padding-right: 15px; place-content: stretch flex-start; width: 861px;"><div class="news_main_container" style="box-sizing: border-box; max-width: 100%; text-align: justify;"><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">सियासी-भेड़ों का ऐसा रेवड़ भारत की राजनीति में पहले कभी नहीं देखा गया। सत्तासीन राजनीतिक दल के मुखियाओं की दादागिरी के दौर पहले भी आए, लेकिन सन्नाटे का ऐसा दौर पहले कभी नहीं आया था। सत्तारूढ़ दल की अगुआई कर रही शक़्लों की सनक पहले भी कुलांचे भरती रही है, मगर बेकाबू होती टांगों को मरोड़ने वाली मुट्ठियां भी कहीं-न-कहीं से उग आया करती थीं। यह पहली बार हो रहा है कि रायसीना-पहाड़ी पर बैठे एक बेहृदय-सम्राट की मनमानी को पूरा सत्तारूढ़ दल इस तरह टुकुर-टुकुर देख रहा है। इस बेतरह सहमे हुए समूह का इतना भी साहस नहीं हो रहा है कि कम-से-कम मिमियाने ही लगे।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">आज़ादी के बाद क़रीब सत्रह साल प्रधानमंत्री रहे जवाहरलाल नेहरू के बारे में, और आप कुछ भी कह लें, उन्हें ग़ैर-लोकतांत्रिक कोई नहीं कह सकता। सो, देश में और उस दौर के सत्तासीन दल कांग्रेस के भीतर असहमित के स्वरों के प्रति सम्मान का शायद वह स्वर्ण-काल था। सब जानते हैं कि नेहरू को प्रधानमंत्री बनाने के लिए सर्वसम्मति नहीं थी। भारत को आज़ादी मिलने के आसार 1946 आते-आते पूरी तरह साफ़ हो गए थे। यह भी तय था कि आज़ाद भारत की पहली सरकार बनाने के लिए कांग्रेस के अध्यक्ष को आमंत्रित किया जाएगा। सो, 1946 में कांग्रेस-अध्यक्ष का चुनाव ख़ासा महत्वपूर्ण हो गया था। मौलाना अबुल क़लाम आज़ाद 1940 के रामगढ़ अधिवेशन में कांग्रेस-अध्यक्ष चुने गए थे और तमाम सियासी हालत के चलते छह बरस से अपने पद पर बने हुए थे। 1946 के चुनाव में वे फिर उम्मीदवार बनना चाहते थे।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">महात्मा गांधी चाहते थे कि नेहरू अध्यक्ष बनें। बाक़ी बहुत-से लोग सरदार वल्लभ भाई पटेल को अध्यक्ष बनाने के पक्ष में थे। 24 अप्रैल कांग्रेस-अध्यक्ष पद, और एक तरह से कहें कि भारत का पहला प्रधानमंत्री बनने के लिए, नामांकन दाख़िल करने की अंतिम तारीख़ थी। उस वक़्त प्रदेश कांग्रेस समितियों पार्टी-अध्यक्ष के लिए किसी को नामित किया करती थीं। 15 में से 12 प्रदेश समितियों ने पटेल को नामित किया। बाक़ी 3 ने अपने को नामांकन की प्रक्रिया से अलग रखा। यानी पटेल कांग्रेस के अध्यक्ष बन ही गए थे, लेकिन गांधी जी के हस्तक्षेप के बाद उन्होंने अपने को दौड़ से अलग कर लिया और नेहरू अध्यक्ष बने। अब ऐसे में सामान्य तौर पर होता तो यह कि अपनी राह में रोड़ा बनने वालों का नेहरू वही हाल करते जो नरेंद्र भाई मोदी ने 2014 की उनकी राह में अड़ंगा डालने वाले लालकृष्ण आडवाणी, इत्यादि का किया। मगर नेहरू एक तो ख़ुद राजनीतिक-आततायी नहीं थे और फिर वे कांग्रेस की भीतरी तासीर से भी अच्छी तरह वाक़िफ़ थे। जानते थे कि कांग्रेसी इतने भी गऊ नहीं हैं। नेहरू पर अंकुश लगाने की हैसियत रखने वाले महात्मा गांधी आज़ादी के एक बरस बाद ही नहीं रहे और पटेल भी आज़ादी के तीन साल बाद ही चल बसे। ऐसे में नेहरू निरंकुश हो सकते थे, लेकिन यह तत्व उनकी जन्मघुट्टी में था ही नहीं।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">इंदिरा गांधी दो चरणों में क़रीब 16 साल प्रधानमंत्री रहीं। बीच में क़रीब सवा दो साल मोरारजी देसाई ने यह कुर्सी संभाली। दोनों अपनी-अपनी तरह के अकड़ू माने जाते रहे हैं। इंदिरा जी को तो आपातकाल की वज़ह से लोकतंत्र को कुचलने वाला, तानाशाह, वग़ैरह-वग़ैरह कहने में किसी ने कभी कोई कसर नहीं रखी और उनके बेटे संजय के सच्चे-झूठे चंगेज़ी क़िस्सों से तो सियासी चंडूखाना सराबोर रहा है। मगर ऐसी मर्दाना इंदिरा गांधी को भी चुनौती देने वाले चंद्रशेखर और मोहन धारिया जैसे युवा तुर्कों की कांग्रेस के भीतर कभी कमी नहीं थी। आपातकाल में विपक्ष ही नहीं, कांग्रेस के भी हज़ारों लोगों को मीसा-क़ानून में जेल भेजा गया था। यानी इंदिरा जी से खुलेआम असहमत लोग कांग्रेस के भीतर थे और अपनी आवाज़ बुलंद करते थे। उच्छ्रंखल हो रहे संजय की लगाम कसने के लिए तब इंद्रकुमार गुजराल जैसे कई लोगों ने पार्टी और सरकार के भीतर क्या-क्या जोख़िम नहीं उठाए थे?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">ज़िद्दी मोराजी देसाई की नकेल उनके प्रधानमंत्री-काल में ढीली नहीं छोड़ने के लिए जनता पार्टी के भीतर चरण सिंह, राजनारायण, मधु लिमये, कृष्णकांत और जॉर्ज फर्नांडिस जैसे नेताओं की कमी नहीं थी। लोकसभा में सवा चार सौ सीटों के बहुमत पर सवार हो कर पहंुचे राजीव गांधी तक के पांवों में अगर कोई लचक आई तो कांग्रेस के भीतर कमलापति त्रिपाठी, प्रणव मुखर्जी और आरिफ़ मुहम्मद ख़ान से ले कर विश्वनाथ प्रताप सिंह तक कइयों ने बिगुल बजाने में कोई कोताही नहीं की। मुझे वे दिन भी याद हैं, जब अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री-दौर में ब्रजेश मिश्रा, एन. के. सिंह और रंजन भट्टाचार्य की तिकड़ी से परेशान लालकष्ण आडवाणी, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज और नरेंद्र भाई मोदी अटल जी के खि़लाफ़ खुल कर अपनी असहमति ज़ाहिर किया करते थे। सरकार और कांग्रेस के भीतर प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिंहराव की नाक में दम करने का काम अर्जुन सिंह, पी़ राममूर्ति, शीला दीक्षित, माधवराव सिंधिया और नारायण दत्त तिवारी से ले कर राजेश पायलट और कल्पनाथ राय तक ने किस तरह किया, यह कौन नहीं जानता? मनमोहन सिंह को तो उनके प्रधानमंत्री-दौर में प्रणव मुखर्जी और अर्जुन सिंह के अलावा ख़ुद राहुल गांधी किस तरह गरियाते रहे, सब ने देखा ही है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">इन सभी प्रधानमंत्रियों के शासन-काल में उठे असहमति के घनघोर स्वरों को कोई किसी भी तरह ले, मैं इन्हें सियासत की खूसट ज़मीन पर जनतांत्रिक पंखुड़ियों की बारिश मानता हूं। बरसात की ये फुहारें पिछले सात बरस से सूखी हुई हैं। उन्हें सुखाने के लिए होने वाले प्रपंच आपने देखे हैं। लेकिन ऐसे प्रपंच क्या पहले नहीं होते होंगे? इतनी बेमुरव्वती से न सही, होते तो ज़रूर होंगे। मगर तब दस-बीस बूंदें तो फिर भी आसमान में आकार ले ही लेती थीं। तो क्या आजकल वह वाष्प ही उठनी बंद हो गई है, जिससे इस बारिश की बूंदों का जन्म होता है? अगर ऐसा है तो देश तो अपने सबसे दुर्भाग्यपूर्ण दौर से गुज़र ही रहा है, सत्तासीन भारतीय जनता पार्टी भी अपने को सौभाग्यवती न समझे। अगर कोई भी आंच अब उसकी देगची को खदकाने लायक नहीं बची है तो समझ लीजिए कि भाजपा उस हिमयुग के मुहाने पर खड़ी है, जिसमें प्रवेश करते ही उसका जीवित बदन मृत मोमियाई ममी में तब्दील हो जाएगा। जब भीतर का स्पंदन इतनी चुप्पी साध लेता है कि किसी भी क्रंदन का उस पर कोई असर होना बंद होने लगे तो समझ लीजिए कि बैकुंठधाम की यात्रा आरंभ हो गई है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">नरेंद्र भाई के राज में भाजपा और सरकार के भीतर पसरा पड़ा सन्नाटा अशुभ लक्षण है। जब पूरा मुल्क़ ख़दक रहा है, तब संघ-घराने के जो क्षेत्रपाल असलियत से जानबूझ कर नज़रें चुरा रहे हैं, वे न राष्ट्रवादी हैं न संस्कारवान। वे अपने मूल-संस्कारों से दूर हो गए हैं। भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वे अर्थवान पुरोधा, जिन्होंने चीज़ें हद से बाहर हो जाने पर भी असहमत होना बंद कर दिया है; देश का तो जो कर रहे हैं, कर ही रहे हैं; भाजपा को भी क़ब्रग़ाह की तरफ़ तेज़ी से ठेल रहे हैं। आज आपको मेरी बात में तरह-तरह की बू आएगी, लेकिन मेरी यह बात कहीं लिख कर रख लीजिए कि भाजपा की झील के जल का उबलना जिन्हें न देखना हो, न देखें, मगर ऐसा ही चलता रहा तो इस साल की दीवाली के बाद सूनामी आने वाली है। <span style="box-sizing: border-box; font-weight: 700;">(लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।)</span></p></div></div></div></div>Pankaj Sharmahttp://www.blogger.com/profile/13850757662593978128noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5241910265090719926.post-27143829904988181012021-08-21T04:03:00.006-07:002021-08-21T04:03:42.475-07:00 रास्ता बन गया है, आगे की फि़क्र कीजिए<p><br /></p><header class="entry-header alignwide" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif; margin: auto; max-width: 100%; padding: 0px 15px;"><div class="article-info" style="align-items: center; border-bottom: 1px dotted rgb(0, 0, 0); box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: row wrap; font-size: 13px; margin-bottom: 10px; padding: 20px 0px; place-content: center space-between;"><div class="article_inner" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex;"><div class="post-autor-sr" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; margin-right: 35px; position: relative;"><span class="author-img" style="box-sizing: border-box; padding-right: 10px;"><img alt="" class="avatar avatar-96 photo lazyloaded" data-ll-status="loaded" height="96" loading="lazy" sizes="(max-width: 96px) 100vw, 96px" src="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg" srcset="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg 96w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-150x150.jpg 150w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-250x250.jpg 250w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-100x100.jpg 100w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-24x24.jpg 24w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-48x48.jpg 48w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-300x300.jpg 300w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma.jpg 400w" style="border-radius: 50px; border-style: none; box-sizing: border-box; display: block; height: 30px; max-width: 96px; width: 30px;" width="96" /></span><span style="box-sizing: border-box;"><a href="https://www.nayaindia.com/author/pankaj" style="box-sizing: border-box; color: black; text-decoration-line: none; text-transform: capitalize;">By पंकज शर्मा</a></span></div><div class="post-date-sr" style="box-sizing: border-box; margin-right: 35px; position: relative;">May 8,2021</div><div class="post-count-sr" style="box-sizing: border-box; margin-right: 35px; position: relative;"><br /></div></div></div></header><div class="entry-content" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif;"><div class="news_two_block" style="box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; justify-content: space-between;"><div class="news" id="news" style="align-items: baseline; box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: column nowrap; max-width: 1230px; padding-left: 15px; padding-right: 15px; place-content: stretch flex-start; width: 861px;"><div class="news_main_container" style="box-sizing: border-box; max-width: 100%; text-align: justify;"><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">मैं आप को वह कहानी याद दिलाना चाहता हूं, जिसमें एक सोते व्यक्ति की तोंद पर से चूहा दौड़ कर निकल गया था और आधी रात उसने ऐसी हाय-तौबा मचाई कि परिवार-तो-परिवार, पूरे मुहल्ले को जगा कर इकट्ठा कर लिया। जब लोगों को मालूम हुआ कि माज़रा इतना पिद्दा है तो सब ने उसे कोसा कि ज़रा-सी बात पर वह इतना शोर क्यों मचा रहा है? व्यक्ति का जवाब था, मुद्दा यह नहीं है कि अभी सब ठीक है, मुद्दा यह है कि चूहे के लिए रास्ता बन गया है। मुझे चिंता आगे की हो रही है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">सो, पांच राज्यों में से चार के चुनाव नतीजों के अपनी तोंद पर से गुज़र जाने के बाद जो प्रसन्न-बदन घूम रहे हैं, मैं उन से कहना चाहता हूं कि भारतीय जनता पार्टी ने चाहे किसी भी तरह के साम-दाम-दंड-भेद के ज़रिए अपने लिए रास्ता बनाया हो, लेकिन अब रास्ता उस ने देख लिया है। भाजपा उन में से नहीं है, जिन्हें दो-चार घर आगे के किसी ओटले पर सुस्ता लेने से संतोष हो जाता हो। नरेंद्र भाई मोदी और अमित भाई शाह की भाजपा बुलडोज़री-अश्व पर सवार है। आठ साल पहले, 2013 के सितंबर महीने के दूसरे शुक्रवार को जिस वक़्त नरेंद्र भाई की प्रधानमंत्री-उम्मीदवारी का ऐलान अंततः हो ही गया था, उसके छह महीने पहले से भाजपा-संघ के आसमान में आकार ले रहे सायों की शक़्ल ने आगत के आसार तय कर दिए थे।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">भाजपाइयों की अनुचर-वृत्ति, संघ की लट्ठ-प्रवृत्ति और ‘मोशा’ जुगल-जोड़ी के एकाधिकारी अंतःमानस की जिन्हें ज़रा-सी भी समझ थी, वे समझ गए थे कि भावी सियासत की सांय-सांय कैसी रहने वाली है। रायसीना पहाड़ी पर 2014 में जितनी मजबूती से नरेंद्र भाई ने अपने पैर रखे थे, उसके बाद वे सब-कुछ अपने उन पैरों तले न रौंदते तो अपने वैचारिक डिऑक्सीराइबोन्यूक्लिक अम्ल से विश्वासघात करते। सो, हर कीमत चुका कर अपनी विजय पताका फहराने का काम वे सात बरस से अनथक कर रहे हैं। इस रास्ते पर चलने में देश का नव-निर्माण होने के बजाय उसका सर्वनाश होता हो तो हो। उन्हें इसकी कोई फ़िक्र नहीं है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">पांच राज्यों के नतीजों में भाजपा का मौजूदा स्थिति का इसलिए ग़ौर से आकलन करना ज़रूरी है कि उनमें से चार ऐसे थे, जिनमें अब तक भाजपा इतनी बेशक़्ल थी कि उसकी सूरत संवरने के दूर-दूर तक कोई आसार नहीं थे। मगर अब जब चुनाव नतीजे सामने हैं तो भाजपा के प्रदर्शन पर एक-दूसरे की पीठ थपथपाने का नरेंद्र भाई और अमित भाई को पूरा-पूरा हक़ है। यह हक़ हासिल करने के लिए वे किस हद तक नीचे उतरे, इसकी चीर-फाड़ का आज कोई मतलब नहीं है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">असम में भाजपा की सरकार थी। फिर भी वहां उसका लौटना हैरत की बात है। पांच साल पहले भी भाजपा ने 126 में से 60 सीटें जीती थीं और इस बार भी वह उतनी ही संख्या ले गई। जबकि माहौल देखने वाले कह रहे थे कि उसे पहले से आधी सीटें भी मिल जाएं तो बहुत है। उसके वोट भी पौने चार प्रतिशत बढ़ कर 33.21 फ़ीसदी हो गए। लग रहा था कि असम में कांग्रेस की सरकार बन जाएगी, मगर पिछली बार के मुकाबले उसे तीन ही सीटें ज़्यादा मिलीं। 29 सीटों के साथ उसके वोट तो सवा प्रतिशत कम हो गए। असम गण परिषद 14 से 9 सीटों पर आ गई। लिबरल पार्टी शून्य से 6 पर पहुंच गई। बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट 12 से 4 पर आ गया।, मार्क्सवादी शून्य से एक पर आ गए। कांग्रेस के वोटों में इस बार क़़रीब पौने पांच लाख की बढ़ोतरी हुई है। लेकिन पिछली बार की तुलना में भाजपा को क़रीब 14 लाख वोट ज़्यादा मिले हैं।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को पिछली बार से दो सीटें ज़्यादा मिली हैं और उसका वोट भी तीन प्रतिशत बढ़ा है। लेकिन 292 की विधानसभा में 213 सीटें हासिल करने के बावजूद ममता का ख़ुद हार जाना बड़ा प्रतीकात्मक झटका है। ममता को उनके सियासी सफ़र के इस अंधे मोड़ तक लाने के लिए किस को कितनी अंधेरग़र्दी करनी पड़ी होगी, यह अलग बात है, मगर हक़ीक़त के हर्फ़ तो वे ही माने जाएंगे, जो निर्वाचन आयोग की घोषणा में लिखे हैं। तृणमूल को इस बार पौने बयालीस लाख वोट ज़्यादा मिले हैं। मगर इस तथ्य से आंखें कैसे मूंदें कि भाजपा अपने पल्लू में पिछली बार से क़रीब पौने दो करोड़ वोट अधिक बटोर कर ले गई है, उसकी सीटें 3 से 77 हो गई हैं और वोट में क़रीब 28 प्रतिशत का इज़ाफ़ा हुआ है। जैसे भी हुआ है, यह हुआ है। कांग्रेस और वाम दलों ने इस बार का चुनाव ख़ुद को नहीं, ममता को जिताने के लिए लड़ा था। सो, कांग्रेस ने पिछली बार के मुकाबले साढ़े 50 लाख वोट गंवा दिए। उसकी सीटें भी 44 से घट कर शून्य पर पहुंच गई। वाम दलों ने भी तक़रीबन एक करोड़ वोट का नुक़सान उठाया और उन्हें भी एक भी सीट नहीं मिली। पिछली बार सब मिला कर उन्हें 32 सीटें मिली थीं।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">केरल में भाजपा को पिछली बार सिर्फ़ एक सीट मिली थी और उसे भी मतदाताओं ने इस बार छीन लिया। लेकिन इस बार उसके वोटों में सवा दो लाख का इज़ाफ़ा हुआ है। पिछली बार उसे सवा 21 लाख वोट मिले थे। उसके वोट में पौन प्रतिशत की बढ़ोतरी भी हुई है। 140 सीटों में से पिछली बार वाम मोर्चे को 91 मिली थीं। इस बार दो कम हुई हैं। उसे पांच प्रतिशत वोट का भी नुक़सान हुआ है। केरल के पिछले चुनाव में कांग्रेस को 22 सीटें मिली थीं। इस बार 21 मिली हैं। कांग्रेस की अगुआई वाले संयुक्त मोर्चे के वोट प्रतिशत में सवा पांच की गिरावट आई है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">तमिलनाडु में नरेंद्र भाई घुमा-फिरा कर अपनी जाजम बिछाने में डेढ़-दो साल से ही कोई कसर बाकी नहीं रख रहे थे। मगर कावेरी के पानी में काली उड़द नहीं गली। द्रमुक को पांच बरस पहले के चुनाव में 234 में से 89 सीटें मिली थीं। वे इस बार बढ़ कर 133 हो गईं। अन्नाद्रमुक को 136 मिली थीं, टूट-दर-टूट के बाद इस बार 66 ही मिल पाईं। द्रमुक को पहले से 38 लाख वोट ज़्यादा मिले। उसका वोट प्रतिशत साढ़े छह बढ़ गया। अन्नाद्रमुक को पिछली बार से सवा 24 लाख वोट कम मिले। उसका वोट प्रतिशत साढ़े सात कम हो गया। कांग्रेस की सीटें पिछली बार की तुलना में 8 से बढ़ कर 18 ज़रूर हो गईं, मगर उसे 8 लाख वोट कम मिले। प्रतिशत में भी सवा दो की गिरावट आई। जिस भाजपा को पिछली बार एक भी सीट नहीं मिली थी, उसे ऐसे मौसम में भी इस बार 4 मिल गईं। वोट भी उसे सिर्फ़ 22 हज़ार ही कम मिले और वोट-प्रतिशत भी मामूली-सा ही घटा।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">पुदुचेरी की तरफ़ देख कर भाजपा अपने दीदे कभी से मटका रही थी। अपने मायाजाल के बूते इस बार वह 6 सीटें लपक ही ले गई। जब कि पिछली बार सभी 30 सीटें लड़ने के बाद भी वह शून्य पर थी और उसे पूरे राज्य में महज़ 19 हज़ार वोट मिले थे। मगर इस बार भाजपा को 1 लाख 14 हज़ार वोट मिले हैं। कांग्रेस को पिछली बार 15 सीटें और 2 लाख 45 हज़ार वोट मिले थे। इस बार उसे सिर्फ़ दो सीटें मिली हैं और एक लाख 13 हज़ार कम वोट मिले हैं। कांग्रेस का वोट प्रतिशत पुदुचेरी में साढ़े 30 से घट कर आधा रह गया है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">इसलिए कह रहा हूं कि ग़ैर-भाजपा दलों के लिए यह ज़श्न मनाने का नहीं, अपने घोड़ों की जीन कसने का समय है। याद रखिए, गफ़लत में बड़े-बड़े सफ़ीने गर्त हो जाते हैं। <span style="box-sizing: border-box; font-weight: 700;">लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।</span></p></div></div></div></div>Pankaj Sharmahttp://www.blogger.com/profile/13850757662593978128noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5241910265090719926.post-33704324501789230582021-08-21T04:02:00.004-07:002021-08-21T04:02:26.324-07:00विनत राष्ट्रपति और संप्रभु प्रधानमंत्री का देश<p> </p><header class="entry-header alignwide" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif; margin: auto; max-width: 100%; padding: 0px 15px;"><div class="article-info" style="align-items: center; border-bottom: 1px dotted rgb(0, 0, 0); box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: row wrap; font-size: 13px; margin-bottom: 10px; padding: 20px 0px; place-content: center space-between;"><div class="article_inner" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex;"><div class="post-autor-sr" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; margin-right: 35px; position: relative;"><span class="author-img" style="box-sizing: border-box; padding-right: 10px;"><img alt="" class="avatar avatar-96 photo lazyloaded" data-ll-status="loaded" height="96" loading="lazy" sizes="(max-width: 96px) 100vw, 96px" src="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg" srcset="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg 96w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-150x150.jpg 150w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-250x250.jpg 250w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-100x100.jpg 100w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-24x24.jpg 24w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-48x48.jpg 48w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-300x300.jpg 300w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma.jpg 400w" style="border-radius: 50px; border-style: none; box-sizing: border-box; display: block; height: 30px; max-width: 96px; width: 30px;" width="96" /></span><span style="box-sizing: border-box;"><a href="https://www.nayaindia.com/author/pankaj" style="box-sizing: border-box; color: black; text-decoration-line: none; text-transform: capitalize;">By पंकज शर्मा</a></span></div><div class="post-date-sr" style="box-sizing: border-box; margin-right: 35px; position: relative;">April 24,2021</div><div class="post-count-sr" style="box-sizing: border-box; margin-right: 35px; position: relative;"><br /></div></div></div></header><div class="entry-content" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif;"><div class="news_two_block" style="box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; justify-content: space-between;"><div class="news" id="news" style="align-items: baseline; box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: column nowrap; max-width: 1230px; padding-left: 15px; padding-right: 15px; place-content: stretch flex-start; width: 861px;"><div class="news_main_container" style="box-sizing: border-box; max-width: 100%; text-align: justify;"><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बने आज 1365 दिन हो गए हैं और न जाने क्यों मेरे मन में यह सवाल उठ रहा है कि हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी इस बीच कितनी बार अपनी सरकार के कामकाज की जानकारी देने के लिए उन से मिलने गए हैं? नियम हो-न-हो, यह प्रथा हमेशा रही है कि सरकार के अहम फ़ैसलों और कामकाज की जानकारी देने के लिए प्रधानमंत्री एक नियमित अंतराल के बीच राष्ट्रपति के पास जाते हैं। विदेश यात्राओं से लौटने के बाद भी प्रधानमंत्री अपने दौरे में हुई बातचीत का ब्यौरा देने राष्ट्रपति से मिलने जाते हैं। राष्ट्रपति को सूचना-सामयिक बनाए रखने की परंपरा है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">क्या नरेंद्र भाई यह परंपरा निभा रहे हैं? अगर मैं ग़लत नहीं हूं तो पिछले नौ महीने से तो वे इस तरह की किसी आचारिक-मुलाकात के लिए राष्ट्रपति के पास गए नहीं हैं। प्रधानमंत्री की राष्ट्रपति से पिछली प्रथागत भेंट पिछले साल 5 जुलाई को हुई थी। उसके बीस दिन पहले, 15 जून को, चीनी सरहद पर तक़रीबन दो दर्जन भारतीय जवान शहीद हो गए थे। इस पर देश भर में मचे शोर के बीच सेना का मनोबल ऊंचा बनाए रखने के मक़सद से नरेंद्र भाई ने 3 जुलाई को लेह जा कर सैनिकों के सामने एक ज़ोशीला भाषण दिया और लौट कर हालात की जानकारी देने के लिए राष्ट्रपति कोविंद से जा कर मिले थे।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">देश में नागरिकता क़ानून पर बवाल हुआ। हाथरस से पालघर तक की कलंक-कथाएं सामने आईं। संसद में किसान क़ानून हबड़-तबड़ पारित हुआ। महीनों से किसान राजधानी की सरहद पर बैठे हैं और गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में उनकी समानांतर परेड हुई। लेकिन क्या ये ऐसी बातें हैं कि नरेंद्र भाई जा कर राष्ट्रपति को यह बताते कि उनकी सरकार इन मसलों पर क्या कर रही है?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बने आज 1365 दिन हो गए हैं और न जाने क्यों मेरे मन में यह सवाल उठ रहा है कि हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी इस बीच कितनी बार अपनी सरकार के कामकाज की जानकारी देने के लिए उन से मिलने गए हैं? नियम हो-न-हो, यह प्रथा हमेशा रही है कि सरकार के अहम फ़ैसलों और कामकाज की जानकारी देने के लिए प्रधानमंत्री एक नियमित अंतराल के बीच राष्ट्रपति के पास जाते हैं। आप ही बताइए, विधानसभा चुनावों की सभाओं से थके-मांदे लौटे प्रधानमंत्री पहले महामारी से निपटने के इंतज़ाम करें, सरकार की तैयारियों का प्रारूप सर्वोच्च न्यायालय के हवाले करें या राष्ट्रपति को हालात से अवगत कराने जाएं?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">चाहें तो राष्ट्रपति ख़ुद भी महामारी-कुप्रबंधन, कृषि-क़ानून और किसान-आंदोलन जैसे मसलों पर प्रधानमंत्री को तलब कर जानकारी ले सकते हैं। मगर कोविंद नफ़ासत और शराफ़त से सराबोर व्यक्तित्व के धनी हैं। उन्होंने अपना पैतृक मकान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को दान कर दिया था। 1977 में आपातकाल हटने के बाद वे दिल्ली हाइकोर्ट में केंद्र सरकार के वकील नियुक्त हो गए थे। वे प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के निजी सचिव भी रहे। दो बार विधानसभा का चुनाव हारने के बाद वे राज्यसभा में पहुंचे और बारह बरस सदन में रहे। मगर फिर नौ साल उन्होंने तब तक राजनीतिक वनवास भोगा, जब तक कि नरेंद्र भाई प्रधानमंत्री नहीं बन गए और उन्होंने कोविंद को अगस्त 2015 में बिहार का राज्यपाल नहीं बना दिया। फिर जुलाई 2017 में राष्ट्रपति भी उन्हें नरेंद्र भाई ने ही बनाया।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">सो, स्वभावगत विनम्र कोविंद से आप 75 बरस की उम्र में अगर यह उम्मीद रखते हैं कि वे अपनी सरकार के प्रधानमंत्री को राष्ट्रपति भवन बुला कर किसी भी किस्म की राष्ट्रीय आपदा पर कोई सवाल करेंगे तो यह उनके विनत-भाव के प्रति ज़्यादती होगी। उन्हें अपनी सरकार के कर्तव्य-बोध पर संपूर्ण विश्वास रखने का हक़ है। आख़िर ऐसा कोई कारण तो हो कि वे सरकार के मुखिया से कुछ पूछें-पाछें। क्या किसान-क़ानून पर दस्तख़त करने के पहले उन्होंने कोई सवाल किया? क्या जब नवंबर 2019 की 24 तारीख़ को महाराष्ट्र से राष्ट्रपति शासन हटाने का फ़रमान एकदम तड़के कोविंद के हाथ में थमा दिया गया तो उन्होंने प्रधानमंत्री से पूछा कि इसके लिए मंत्रिमंडल की बैठक क्यों नहीं बुलाई गई? सो, नरेंद्र भाई के कामकाज में मीन-मेख निकालना कोविंद का काम है ही नहीं।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">इस पृष्ठ-पटल पर मुझे 34 बरस पुराने दृश्य नज़र आ रहे हैं। मैं नवभारत टाइम्स, दिल्ली में विशेष संवाददाता था। 1987 के शुरुआती दिनों की बात है। राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे और ज्ञानी जैल सिंह राष्ट्रपति। दोनों के बीच गहन तनातनी चल रही थी। तब अख़बार के पहले पन्ने पर एक रविवार मेरा दिया मुख्य-समाचार छपा, जिसमें संकेत था कि प्रधानमंत्री कार्यालय को ऐसी जानकारियां मिली हैं कि खालिस्तान आंदोलन से जुड़े कुछ लोगों का राष्ट्रपति भवन में आना-जाना-ठहरना होता रहता है। तरलोचन सिंह राष्ट्रपति के प्रेस सलाहकार थे। उन्होंने नवभारत टाइम्स के दफ़्तर आ कर बहुत हंगामा किया और खुल कर कहा कि यह ख़बर राजीव गांधी ने ‘प्लांट’ की है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">तो राजीव और जैल सिंह के बीच संबंधों का समीकरण तक़रीबन शत्रुवत था। राजीव ने जैल सिंह से प्रथागत-मुलाकातें भी बंद कर दी थीं। वे विदेश से लौट कर राष्ट्रपति से मिलने नहीं जाते थे। जैल सिंह ने समय-समय पर बाक़ायदा पत्र भेज कर इस पर एतराज़ किया और उन्हें बुलाया, लेकिन राजीव नहीं गए। अपनी एक ऐसी चिट्ठी जैल सिंह ने ‘लीक’ भी कर दी। राष्ट्रपति की बगल-मंडली उन्हें भड़काती रही और राजीव की उन्हें। दोनों के बीच ऐसी ठन गई कि जैल सिंह अख़बारों में इस आशय की ख़बरें रोपित कराने लगे कि वे प्रधानमंत्री को बरख़ास्त भी कर सकते हैं। इस सियासी-अंधड़ के बीच कुछ मध्यस्थों ने दोनों को महीनों समझाया।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">आखि़रकार 15 अप्रैल 1987 को दोपहर सवा बारह बजे राजीव और जैल सिंह की मुलाकात का वक़्त तय हुआ। राजीव राष्ट्रपति भवन पहुंचे। भूतल पर बने अध्ययन कक्ष में दोनों की पूरे 130 मिनट बातचीत हुई। जैल सिंह भी पूरी तैयारी से थे और राजीव भी। जैल सिंह ने संविधान में राष्ट्रपति को दिए गए अधिकारों का विस्तार से ज़िक्र किया। कहा कि उन्हें संवैधानिक हक़ है कि वे सरकार से कोई भी सूचना मांग सकें और सरकार को वह जानकारी देनी होगी। राजीव ने कहा कि सरकार की तरफ़ से भेजी जाने वाली सूचनाएं राष्ट्रपति भवन से ‘लीक’ हो रही हैं, इसलिए सरकार को सोचना होगा कि कौन-सी सूचना दे और कौन-सी नहीं। बहरहाल, बर्फ़ थोड़ी-सी पिघली, मगर शीत-युद्ध पूरी तरह ख़त्म नहीं हुआ।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">उसी शाम राष्ट्रपति भवन में पद्म-सम्मान समारोह था। उसके बाद अनौपचारिक चाय-पान में राजीव और जैल सिंह साथ-साथ खड़े थे। पत्रकारों ने पूछा कि क्या अब भी आप एक-दूसरे को पत्र लिखेंगे? जैल सिंह ने हंस कर जवाब दिया कि जब तक हम दोनों जीवित हैं, एक-दूसरे को ख़त लिखते रहेंगे। फिर बोले कि हमारे ये पत्र 80 साल बाद प्रकाशित होंगे, तब उन्हें पढ़ना। राजीव ने तपाक से कहा, 80 नहीं, 50 साल बाद। जैल सिंह ने गेंद लपकी और कहा कि कब प्रकाशित होंगे, इसका कोई महत्व नहीं है, मगर एक बात तय है कि तब न ये प्रधानमंत्री रहेंगे, न मैं राष्ट्रपति। फिर एक आंख हलकी-सी दबा कर बोले, लेकिन राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री नाम की संस्थाएं तब भी मौजूद रहेंगी।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">सो, मसला कोविंद की लिहाज़दारी और नरेंद्र भाई की ख़ुदमुख़्तारी का नहीं, संस्थाओं के बीच की आचार-संहिता का है। क्या आपको लगता है कि दोनों अपने-अपने कर्तव्यों का पालन कर रहे हैं? (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।)</p></div></div></div></div>Pankaj Sharmahttp://www.blogger.com/profile/13850757662593978128noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5241910265090719926.post-32566059617276755552021-08-21T04:01:00.001-07:002021-08-21T04:01:06.881-07:00भारत के सिंहकर्मा नमो और रोम का चूं-चूं नीरो<p> </p><header class="entry-header alignwide" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif; margin: auto; max-width: 100%; padding: 0px 15px;"><div class="article-info" style="align-items: center; border-bottom: 1px dotted rgb(0, 0, 0); box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: row wrap; font-size: 13px; margin-bottom: 10px; padding: 20px 0px; place-content: center space-between;"><div class="article_inner" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex;"><div class="post-autor-sr" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; margin-right: 35px; position: relative;"><span class="author-img" style="box-sizing: border-box; padding-right: 10px;"><img alt="" class="avatar avatar-96 photo lazyloaded" data-ll-status="loaded" height="96" loading="lazy" sizes="(max-width: 96px) 100vw, 96px" src="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg" srcset="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg 96w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-150x150.jpg 150w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-250x250.jpg 250w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-100x100.jpg 100w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-24x24.jpg 24w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-48x48.jpg 48w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-300x300.jpg 300w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma.jpg 400w" style="border-radius: 50px; border-style: none; box-sizing: border-box; display: block; height: 30px; max-width: 96px; width: 30px;" width="96" /></span><span style="box-sizing: border-box;"><a href="https://www.nayaindia.com/author/pankaj" style="box-sizing: border-box; color: black; text-decoration-line: none; text-transform: capitalize;">By पंकज शर्मा</a></span></div><div class="post-date-sr" style="box-sizing: border-box; margin-right: 35px; position: relative;">April 17,2021</div><div class="post-count-sr" style="box-sizing: border-box; margin-right: 35px; position: relative;"><br /></div></div></div></header><div class="entry-content" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif;"><div class="news_two_block" style="box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; justify-content: space-between;"><div class="news" id="news" style="align-items: baseline; box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: column nowrap; max-width: 1230px; padding-left: 15px; padding-right: 15px; place-content: stretch flex-start; width: 861px;"><div class="news_main_container" style="box-sizing: border-box; max-width: 100%; text-align: justify;"><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">पिछले सात बरस में राजधर्म का एक नया व्याकरण रच-बस रहा है। हम देख रहे हैं कि सत्तासीन होने और सिंहासन पर बने रहने के लिए अनसुनी-योग का जो जितना गहन अभ्यास कर लेगा, वह अपनी कामयाबी का उतना ही ऊंचा परचम लहराएगा। साढ़े चार साल से भारत में आर्थिक-हाहाकार हो रहा है। पिछले एक साल से महामारी-त्राहिमाम मचा हुआ है। लेकिन हमारे नीरो का मन झूले पर झूलने को मचल रहा है। उनका मन मोर से खेलने को फुदक रहा है। उनका मन ‘ओए, ओए’ की तान लगाने को ललक रहा है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">बढ़ती बेरोज़गारी से हमारे नीरो की पेशानी पर सिलवटें नहीं पड़ीं। बढ़ती महंगाई से हमारे नीरो ने अपनी ठोड़ी नहीं खुजलाई। सरहदी आपदाओं को हमारा नीरो अवसर में बदलने की नाकाम जुगत भिड़ाता रहा। विश्व-राजनय में भारत के मखौल को वह लाल कालीन के नीचे खिसकाता रहा। कोरोना महामारी के पहले चरण में हमारे नीरो ने देष के के गले में ताली-थाली-दीये-मोमबत्ती की माला डाल दी। महामारी के दूसरे चरण में वे हम से श्मशान में उत्सव मनाने को कह रहे हैं। सरकार ने हमें हमारे हाल पर छोड़ दिया है। और, हमारा धैर्य धन्य है कि हम ने ख़ुद को अपने नसीब पर छोड़ दिया है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">सरकारी आंकड़ों को ही मान लें, हालांकि वे बहुत कम कर के बताए जा रहे हैं, तो भी भारत में कोरोना की दूसरी लहर आने के बाद से, चंद रोज़ में ही, बीस लाख से ज़्यादा मामले सामने आ चुके हैं। 11 हज़ार लोगों की मौत हो चुकी है। पिछले चौबीस घंटों में ही सवा दो लाख लोग कोरोनाग्रस्त हुए हैं। रोज़ एक हज़ार से ज़्यादा मौतें इस वज़ह से हो रही हैं। लेकिन क्या आपने ‘हृदय सम्राट’ के हृदय की कोई धड़कन इस बीच सुनी? वे तो बंगाल में आज हो रहे चौथे चरण की शतरंज बिछाने में मग्न हैं। वे अब चुनाव के बाकी बचे तीन और चरणों के ‘लाठी-मार्च’ में मशगूल रहेंगे। उन्हें आपकी नहीं, ख़ुद की फ़िक़्र है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">हमारे नीरो के बांसुरी-वादन में इससे कोई ख़लल नहीं पड़ रहा कि आप अपने मरीज़ के लिए अस्पतालों में एक-एक बिस्तर के लिए भटक रहे हैं, कि आप रेमडेसिविर के एक-एक इंजेक्शन के लिए कहां-कहां हाथ-पैर मार रहे हैं, कि आप ऑक्सीजन के एक-एक क़तरे के लिए किस क़दर तरस रहे हैं, कि आप एक-एक वेंटिलेटर के लिए किस-किस से गुहार कर रहे हैं और आप अपने प्रियजन के अंतिम संस्कार तक के लिए कितने-कितने घंटे कतारों में खड़े हैं। अपने रहनुमा की संवेदनहीनता की यह पराकाष्ठा भी अगर आपको नहीं झकझोर रही तो मैं आपके संतत्व को प्रणाम करने के बजाय उसे धिक्कारता हूं। हद हो जाने पर भी जो संत श्राप न दे, वह सह-अपराधी है। जो सज़ा अपराधी की है, वही सज़ा उसकी है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">इक्कीसवीं सदी की इस महामारी के दौर में भी नोच-खसोट में लगी व्यवस्थाओं ने अगर आपकी आंखों के जाले साफ़ नहीं किए हैं तो आप जानें! अगर इस दौर ने भी आपको अच्छे-बुरे का फ़र्क़ करना नहीं सिखाया है तो आपकी बदक़िस्मती पर दूसरे आंसू क्यों बहाएं? इतने पर भी अगर आप तटस्थ-भाव से सराबोर हैं तो समय का कर्तव्य है कि अपने बहीखाते में आपका यह अपराध मोटे-मोटे अक्षरों में दर्ज़ करे। आप अपने कर्तव्य से मुंह मोड़ते रहें, समय अपने कर्तव्य से मुंह क्यों मोड़े? सो, अगर आपको इस बीहड़ समय में भी निरपेक्ष बने रहना है तो बने रहिए, लेकिन अपने बच्चों को बता जाइए कि उन्हें एक दिन आपके इस उधार का चुकारा करना है। उन बेचारों को गफ़लत में छोड़ कर मत चले जाइएगा। अपने ख़ामोश पापों का पुलिंदा उनके हवाले करिए और उनसे पूछिए कि वे यह वसीयतनामा स्वीकार करने को तैयार हैं या नहीं?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">हम आज तक रोम के नीरो का नाम जप रहे हैं, लेकिन भारत के नमो के सामने वह तो चूं-चूं का मुरब्बा तक नहीं है। कहां हमारे नमो, कहां रोम का नीरो? कोई तुलना है? भारत को दुनिया में हर तरह की मिसाल कायम करनी है। नीरो को पछाड़ने का काम भी हमने कर दिखाया है। महामारी-प्रबंधन के नाम पर करदाताओं के लाखों करोड़, खरबों-खरब, रुपए हमारी सरकार ने किन के हवाले कर दिए, किसे मालूम? अगर चिकित्सा-माफ़िया से केंद्र और राज्यों की सरकारें मिली हुई नहीं हैं तो कोरोना के बहाने निजी अस्पतालों, परीक्षण केंद्रों और दवा-वैक्सीन निर्माताओं को किए गए सरकारी भुगतान पर श्वेत पत्र जारी क्यों नहीं हो रहा? स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े निजी क्षेत्र की पिछले एक बरस की कमाई के आंकड़े सार्वजनिक करने के कदम केंद्र की सरकार क्यों नहीं उठा रही?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">डेढ़ अरब की आबादी का आंकड़ा छू रहे भारत में सिर्फ़ 70 हज़ार अस्पताल हैं। इनमें से 44 हज़ार निजी हैं। उनमें 12 लाख बिस्तर हैं, 59 हज़ार आईसीयू इकाइयां हैं और 30 हज़ार वेंटिलेटर हैं। सरकारी अस्पतालों की संख्या क़रीब 26 हज़ार है। उनमें साढ़े सात लाख बिस्तर हैं, 35 हज़ार आईसीयू इकाइयां हैं और 18 हज़ार वेंटिलेटर हैं। देश भर के सरकारी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में से 60 प्रतिशत में सिर्फ़ एक डॉक्टर है। भारत में साढ़े बारह लाख एलोपैथी डॉक्टर हैं और आठ लाख डॉक्टर आयुर्वेद, होम्योपैथी और यूनानी पद्धति से इलाज़ करते हैं। इन बीस लाख के आसपास डॉक्टरों में से तक़रीबन 16 लाख ही सक्रिय हैं। यानी तकनीकी तौर पर डेढ़ हज़ार की आबादी के लिए एक डॉक्टर है और पौने बीस हज़ार की आबादी पर एक अस्पतालनुमा इकाई। आठ सौ की आबादी पर एक बिस्तर है और 29 हज़ार के लिए एक वेंटिलेटर। अब यह मत कहिए कि 67 बरस में क्या हुआ? क्योंकि इसका 99 फ़ीसदी 67 साल में ही हुआ है। इन सात साल के तो आंकड़े अगर बताऊंगा तो आप छाती पीट-पीट कर प्राण दे देंगे।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">नरेंद्र भाई मोदी देश को यह क्यों नहीं बताते कि उन्होंने ढोल-मजीरे बजा कर विश्व की जिस सबसे बड़ी आयुष्मान-भारत योजना का ऐलान ‘मोदी केयर’ कह कर किया था, उसका क्या हाल है? वे हमें बताएं कि निजी अस्पताल इसे क्यों नहीं लागू कर रहे हैं? मैक्स, फोर्टिस और मेदांता जैसी निजी स्वास्थ्य सेवा श्रंखलाओं से इस पर अमल कराने के लिए सरकार ने क्या किया? अब तक सिर्फ़ 23 हज़ार अस्पतालों ने ही अपने को आयुष्मान में क्यों पंजीकृत किया है? इनमें से भी आधे से ज़्यादा तो सरकारी हैं। दो हज़ार से ज़्यादा निजी मल्टीस्पेशलिटी अस्पतालों में से सिर्फ़ बीस ही इसमें क्यों हिस्सा ले रहे हैं, सो भी अनमने होकर। 85 प्रतिशत भारतीय तो अब भी अपने इलाज़ का खर्च निजी तौर पर उठाते हैं। सरकार उनके लिए है ही कहां?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">निजी अस्पताल तो मेडिकल टूरिज़्म के धंधे में लगे हैं। यह अकेला ही साढ़े चार अरब रुपए सालाना का कारोबार है। एशिया, खाड़ी और अफ़्रीका के धनाढ्य मरीज़ों से ये अस्पताल भरे रहते हैं। ख़ास-ख़ास अस्पतालों को सिर्फ़ मशहूर हस्तियों का इलाज़ करना पसंद है। मनचाहे पैसे और अस्पताल को शोहरत अलग से। कोरोना की वज़ह से इस धंधे पर जो चोट लगी है, उसकी भरपाई महामारी से त्रस्त मरीज़ों की लूट से हो रही है। मोशा-दल के अलावा किसे नहीं मालूम कि निजी मेडिकल-माफ़िया किस तरह के गिद्ध-कर्म में लगा हुआ है? इस सबसे भी जो प्रधानमंत्री आंखें फेर ले, उसे जिन्हें देवता मानना हो मानें। मैं तो मनुष्य होने का परिभाषा भी शब्दकोष में दोबारा ढूंढ रहा हूं।<span style="box-sizing: border-box; font-weight: 700;"> (लेखक न्यूज़-व्यूज इंडिया के संपादक हैं।)</span></p></div></div></div></div>Pankaj Sharmahttp://www.blogger.com/profile/13850757662593978128noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5241910265090719926.post-58006744396815829682021-08-21T03:59:00.007-07:002021-08-21T03:59:38.374-07:00 नकचढ़े विपक्ष की भुरभुरी मूरत<p><br /></p><header class="entry-header alignwide" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif; margin: auto; max-width: 100%; padding: 0px 15px;"><div class="article-info" style="align-items: center; border-bottom: 1px dotted rgb(0, 0, 0); box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: row wrap; font-size: 13px; margin-bottom: 10px; padding: 20px 0px; place-content: center space-between;"><div class="article_inner" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex;"><div class="post-autor-sr" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; margin-right: 35px; position: relative;"><span class="author-img" style="box-sizing: border-box; padding-right: 10px;"><img alt="" class="avatar avatar-96 photo lazyloaded" data-ll-status="loaded" height="96" loading="lazy" sizes="(max-width: 96px) 100vw, 96px" src="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg" srcset="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg 96w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-150x150.jpg 150w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-250x250.jpg 250w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-100x100.jpg 100w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-24x24.jpg 24w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-48x48.jpg 48w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-300x300.jpg 300w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma.jpg 400w" style="border-radius: 50px; border-style: none; box-sizing: border-box; display: block; height: 30px; max-width: 96px; width: 30px;" width="96" /></span><span style="box-sizing: border-box;"><a href="https://www.nayaindia.com/author/pankaj" style="box-sizing: border-box; color: black; text-decoration-line: none; text-transform: capitalize;">By पंकज शर्मा</a></span></div><div class="post-date-sr" style="box-sizing: border-box; margin-right: 35px; position: relative;">April 10,2021</div><div class="post-count-sr" style="box-sizing: border-box; margin-right: 35px; position: relative;"><br /></div></div></div></header><div class="entry-content" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif;"><div class="news_two_block" style="box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; justify-content: space-between;"><div class="news" id="news" style="align-items: baseline; box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: column nowrap; max-width: 1230px; padding-left: 15px; padding-right: 15px; place-content: stretch flex-start; width: 861px;"><div class="news_main_container" style="box-sizing: border-box; max-width: 100%; text-align: justify;"><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">पांच राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव नतीजे अगर भारतीय जनता पार्टी के लिए खराब रहे भी, जो कि, अन्य सभी स्थितियां सामान्य रहने की दशा में, रहेंगे ही; तो भी हो क्या जाएगा? कांग्रेसियों के मनोबल में चंद रोज़ के लिए थोड़ा-सा उफ़ान आ जाएगा, ममता बनर्जी की उमंगों को थोडा़-सा सहारा मिल जाएगा और द्रमुक के नैया फिर लहरों पर उछलने लगेगी। मगर क्या इससे विपक्ष इस क़ाबिल हो जाएगा कि 2024 की गर्मियों में नरेंद्र भाई मोदी को लोक कल्याण मार्ग के राजमहल से निकाल कर साबरमती किनारे झुग्गी बसाने पर मजबूर कर दे?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">इन चुनावों के नतीजे दृश्य बदलेंगे, लेकिन दृश्य तो तब बदलेगा, जब विपक्षी राहगीर अपनी राह बदलेंगे। पहले तो वे राह बदलेंगे नहीं। फिर उन्हें नरेंद्र भाई का जालबट्टा राह बदलने देगा भी नहीं। तो जब अपनी-अपनी पोटली बगल में दबाए वे सब आज की ही राह पर अगले तीन साल भी यूं ही चलते रहेंगे तो नरेंद्र भाई को क्या खा कर पानी पिला पाएंगे? इसलिए मैं भी नरेंद्र भाई की ही तरह आश्वस्त हूं कि कुछ नहीं होने वाला और मेरा मन भी कदम्ब की डाल पर बैठे-बैठे उन्हीं की तरह चैन की अपनी बांसुरी बजाते रहने को हो रहा है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">मगर नरेंद्र भाई जैसा सुकू़न मुझे कहां नसीब? जानता हूं कि, दूसरों को तो छोड़िए, हर-हर मोदी का नारा लगाने वालों के मुंह से भी अब बद्दुआएं निकल रही हैं, जानता हूं कि घर-घर मोदी का नारा लगाने वाले भी अपने ही घर में बिलबिलाने लगे हैं, लेकिन यह भी जानता हूं कि नरेंद्र भाई की एकदम पोली हो गई ज़मीन पर उनका एक न्यारा बंगला फिर बनने की संभावनाएं विपक्ष के भुरभुरेपन की वज़ह से अब भी बाकी हैं। सो, यह चिंता मन में लिए घूम रहे किसी की भी बंसी से कैसे कोई सुरीली धुन निकले?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">नरेंद्र भाई बौने थे, उनका दिल बौना था, उनका दिमाग़ बौना था, उनकी सोच बौनी थी, उनकी पहुंच बौनी थी, उनकी देशज समझ बौनी थी, उनकी वैश्विक दृष्टि बौनी थी। फिर भी बाकी तो सब बौना रह गया, मगर नरेंद्र भाई कद्दावर हो गए। सात साल में नरेंद्र भाई महाकाय होते गए। और, विपक्ष के कद्दावरों का इस बीच क्या हुआ? लालू प्रसाद और मुलायम सिंह यादव अपने-अपने कर्मों की राजनीतिक गति को प्राप्त हो गए। उनके बेटे तेजस्वी और अखिलेश की छलांगें नरेंद्र भाई की तिकड़मों की बावड़ी में समा गईं। शरद पवार बेटी के भविष्य की ख़ातिर छद्मवेशी हो गए। मायावती के पैर भी लक्ष्मी-आरती की धुन में स्थिरता खो बैठे। चंद्राबाबू नायडू, जगन मोहन रेड्डी और के. चंद्रशेखर राव का मुलम्मा अन्यान्य कारणों से उतर गया। वैकल्पिक सियासत की नई परिभाषा गढ़ रहे अरविंद केजरीवाल ‘गुप्ताओं’ को राज्यसभा में भेजने की पायदान तक लुढ़क गए। प्रकाश करात, सीताराम येचुरी और दोराईसामी राजा के बाबावाद की वज़ह से वाम राजनीति का हंसिया भोथरा हो गया।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">सो, सात बरस में एक तो बचे राहुल गांधी और दूसरी बचीं ममता बनर्जी। दोनों अब भी काफी-कुछ बचे हुए हैं और ज़ोरशोर से डटे हुए हैं। मगर जो मुसीबत विपक्ष की बाकी नटखट-मंडली के साथ है, वही इन दोनों रुस्तम-ए-हिंद की बाहों पर भी बंधी हुई है। राहुल ममता के नेता नहीं हैं, ममता राहुल की नेता नहीं हैं। जैसे नरेंद्र भाई अपने 303 सेवकों के मान-न-मान मुखिया हैं, वैसे ही ममता और राहुल भी अपने-अपने ख़ादिमों के तो जबरन सर्वमान्य अधिपति हैं, मगर एक-दूसरे के पीछे चलने को उनका मन नहीं मानता। विपक्ष में सर्वसमावेशिता की इस भावना का अभाव नरेंद्र भाई की असली पूंजी है, वरना तो वे अगले ही क्षण ठन-ठन गोपाल हो जाएं।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">विपक्ष की इस भोली-भाली अमूर्त सूरत को नरेंद्र भाई की नज़र नहीं लगेगी तो क्या मेरी-आपकी लगेगी? शक़्लविहीन विपक्ष का चेहरा गढ़ने का काम भी क्या अब नरेंद्र भाई करें? विपक्ष का मुखमंडल रचने का प्रस्ताव ले कर केजरीवाल घर से निकल कर राहुल के पास क्यों नहीं जाते? पवार इसकी पहलक़दमी क्यों नहीं करते? ममता अब भले ही गुहार लगा रही हों, पर पहले उन्हें चिट्ठी लिखने से किसने रोका था? अखिलेश, तेजस्वी, वग़ैरह को इस सामान्य-बोध के अहसास से कौन रोक रहा है कि विपक्ष को अखिल भारतीय उत्पाद बनाना ज़रूरी है? वाम दलों को उनके दर्शनशास्त्र के पन्ने क्या यह भी नहीं सिखा पाए कि बड़ा वर्ग-शत्रु कौन है?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">मगर राहुल ही कौन-से सब के घर-घर जा कर विपक्षी एकजुटता की पहल कर रहे हैं? चलिए, वे नेहरू जी के पड़नाती हैं, इंदिरा जी के नाती हैं, राजीव जी के बेटे हैं और स्वाधीनता आंदोलन से जन्मी एक पार्टी के, आज अध्यक्ष भले न हों, शिखर-पुरुष हैं, तो वे किसी के यहां ख़ुद चल कर क्यों जाएं? मगर क्या उन्होंने कभी अपने दो-एक राजदूतों को ऐसी समन्वय-यात्रा करने भेजा? तो एक ऐसी विपक्षी मूरत जिसमें वे आंखें ही नहीं हैं कि कुछ देख सकें, वे कान ही नहीं हैं कि कुछ सुन सकें, वे होंठ ही नहीं हैं कि कुछ बोल सकें, उसका कोई करे तो क्या करे? विपक्षी सूरमाओं के सपाट चेहरे पर सिर्फ़ उनकी नाक है। ऐसी नाक, जो कुछ भी हो जाए, आपस में कटनी नहीं चाहिए। नरेंद्र भाई के सामने नकटा घूमना पड़े तो घूमेंगे, लेकिन अपने गांव में अपनी नाक ऊंची रहनी चाहिए।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">अब राहुल को कौन बताए कि चालीस साल पहले उनकी नानी ने अपने बेटे संजय गांधी को कैसे एक रात तब के अपने बेहद महत्वपूर्ण सियासी दुश्मन हेमवतीनंदन बहुगुणा को मनाने उनके घर भेजा था, कैसे संजय ने ‘मामा जी’ कह कर बहुगुणा के पांव छुए थे और कैसे बहुगुणा कांग्रेस में शामिल हो गए थे! राहुल को यह भी कौन बताए कि 22 साल पहले सोनिया गांधी कैसे 1999 के लोकसभा चुनाव से पहले अपनी घनघोर विरोधी मायावती के जन्म दिन पर ख़ुद ग़ुलदस्ता ले कर उनके घर पहुंच गई थीं और कैसे 2003 में उन्होंने एक सार्वजनिक जनसभा में मायावती को आग़ोश में ले कर दुलारा था!</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">यह 18 साल पहले की बात है। मौसम-विज्ञानी माने जाने वाले रामविलास पासवान 2003 की सर्दियां शुरू होते-होते मुझ से बातचीत में सोनिया गांधी की तारीफ़ों के पुल बांधने लगे थे। वे दस-जनपथ के बग़ल वाले बंगले में ही रहते थे। उस साल निजी कार्यक्रम में 31 दिसंबर की शाम सोनिया उनके घर चली गईं। मैं तब नवभारत टाइम्स का राजनीतिक संवाददाता था। मैं भी वहां मौजूद था। 2004 के लोकसभा चुनावों की आधार-भूमि का यह आगा़ज़ था। दस साल बाद, 2013 के अक्टूबर महीने के दूसरे सप्ताह में तक़रीबन ऐसा ही दृश्य मैं ने फिर मंचित होते देखा, जब पाासवान अपने बेटे चिराग को ले कर एक सुबह सोनिया से मिलने दस-जनपथ पहुंच गए। हालांकि 2014 में पासवान के मौसम दिशा-सूचक यंत्र की सुइयां कहीं और मुड़ गईं, मगर मुद्दा यह है कि समान विचारों वाले राजनीतिक दलों से तालमेल बनाए रखने में सोनिया ने कभी अपनी नाक आड़े नहीं आने दी।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">इसलिए जब तक विपक्ष के अलग-अलग नेता अपनी-अपनी नाक की खूंटी पर लटके रहेंगे, नरेंद्र भाई की ही नाक ऊंची रहेगी। ऐसे में उनका मूंग-दलन कार्यक्रम तब तक नहीं थमेगा, जब तक देश की जनता ख़ुद ही ‘बहुत हुआ, अब और नहीं’ को अपनी नाक का प्रश्न नहीं बना ले कि ऐसे लुंज-पुंज मरघिल्ले विपक्ष तक को ठेलठाल कर विकल्प बना डाले। विपक्षी नेताओं को भले ही अपनी इस करम-गति पर लाज नहीं आ रही हो, मगर अगर तब भी मैं ‘नरेंद्र भाई, हाय-हाय’ नहीं बोलूंगा तो लाज से डूब मरूंगा।<span style="box-sizing: border-box; font-weight: 700;"> (लेखक न्यूज़-व्यूज इंडिया के संपादक हैं।)</span></p></div></div></div></div>Pankaj Sharmahttp://www.blogger.com/profile/13850757662593978128noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5241910265090719926.post-26469484861141877992021-08-21T03:57:00.006-07:002021-08-21T03:57:57.430-07:00विपक्ष की पूजन विधि का मुख्य पुरोहित<p> </p><header class="entry-header alignwide" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif; margin: auto; max-width: 100%; padding: 0px 15px;"><div class="article-info" style="align-items: center; border-bottom: 1px dotted rgb(0, 0, 0); box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: row wrap; font-size: 13px; margin-bottom: 10px; padding: 20px 0px; place-content: center space-between;"><div class="article_inner" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex;"><div class="post-autor-sr" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; margin-right: 35px; position: relative;"><span class="author-img" style="box-sizing: border-box; padding-right: 10px;"><img alt="" class="avatar avatar-96 photo lazyloaded" data-ll-status="loaded" height="96" loading="lazy" sizes="(max-width: 96px) 100vw, 96px" src="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg" srcset="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg 96w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-150x150.jpg 150w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-250x250.jpg 250w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-100x100.jpg 100w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-24x24.jpg 24w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-48x48.jpg 48w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-300x300.jpg 300w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma.jpg 400w" style="border-radius: 50px; border-style: none; box-sizing: border-box; display: block; height: 30px; max-width: 96px; width: 30px;" width="96" /></span><span style="box-sizing: border-box;"><a href="https://www.nayaindia.com/author/pankaj" style="box-sizing: border-box; color: black; text-decoration-line: none; text-transform: capitalize;">By पंकज शर्मा</a></span></div><div class="post-date-sr" style="box-sizing: border-box; margin-right: 35px; position: relative;">April 3,2021</div><div class="post-count-sr" style="box-sizing: border-box; margin-right: 35px; position: relative;"><br /></div></div></div></header><div class="entry-content" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif;"><div class="news_two_block" style="box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; justify-content: space-between;"><div class="news" id="news" style="align-items: baseline; box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: column nowrap; max-width: 1230px; padding-left: 15px; padding-right: 15px; place-content: stretch flex-start; width: 861px;"><figure class="post-thumbnail" style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; margin: 20px 0px 25px; padding: 0px; text-align: center; width: 831px;"><br /></figure><div class="news_main_container" style="box-sizing: border-box; max-width: 100%; text-align: justify;"><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">जब राहुल गांधी सात-आठ साल से चिल्ला रहे थे कि भारत की सियासत ने दो विचारधाराओं के संघर्ष के सबसे भीषण दौर में प्रवेश कर लिया है, तब दूसरे-तो-दूसरे, कांग्रेस की स्वयंभू विद्वत-परिषद के लोग भी उनकी बातों को पप्पूगिरी बता कर मुंह बिचका देते थे। लेकिन अब विपक्ष के सूरमाओं को भी अहसास होने लगा है कि राहुल की बात में कितना दम था और अगर चलाचली की इस वेला में भी वे एकजुटता की राह के हमसफ़र बनने को तैयार नहीं हुए तो विपक्ष की समाधि पर इन जंगावरों के नाम का पत्थर समझो लगने ही वाला है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">बंगाल का चुनाव जीतने के लिए नरेंद्र भाई मोदी और अमित भाई शाह की भारतीय जनता पार्टी जिस क़दर भिड़ी हुई है, उससे ममता बनर्जी की आंखें फटी गई हैं। वे बीच चुनाव चिट्ठी लिख कर समान विचारों वालों से एक होने की गुहार लगा रही हैं। दीदी समेत तमाम विपक्षी दिग्गजों के नेत्र अगर पिछले पांच बरस में अलग-अलग प्रदेशों में मंचित हुआ मोशा-डिस्को देख कर खुल जाते तो हमारा जनतंत्र आज ऐसा लुटा-पिटा पड़ा न होता। लेकिन विपक्षी मठाधीश इतने रूपगर्विता थे कि उन्हें ग़ुमान हो गया था कि उनके राज्यों के मतदाता स्वयंवर की माला उनके ही गले में डालने को बेताब घूम रहे हैं। उन्हें अंदाज़ ही नहीं था कि स्वयंवर के नियम इस बीच पूरी तरह बदल गए हैं और भाजपा जयमाला छीन-छीन कर ख़ुद के गले में डाल लेने का हुनर सीख गई है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">इन पांच-सात सालों में देश के हर राज्य में विधानसभा चुनाव हुए। 2014 के बाद 2019 में लोकसभा का चुनाव भी हुआ। इनमें क्या-क्या नहीं हुआ? हमारी आंखों ने क्या-क्या नहीं देखा? लोकतंत्र के उपादानों के घालमेल से जन्मी सरकारें देखीं। निर्वाचित सरकारों पर डाका डाल कर उनका रद्दोबदल देखा। तब विपक्ष के ज़्यादातर नायक-नायिकाएं बाहें चढ़ाने के बजाय ठुमके लगाते रहे। नैनमटक्का करते रहे। पींगें बढ़ाते रहे। झूला झूलते रहे। ठट्ठा लगाते रहे। माफ़ कीजिए, तब सब, यानी सब, कांग्रेस को किनारे करने की जुगत भिड़ाते रहे। क्षेत्रीय दलों के क्षत्रपों को कांग्रेस के पिंडदान में ही स्वयं के कायाकल्प का बीज-मंत्र सुनाई दे रहा था। वे भूल गए थे कि उनका मुकाबला जिस आसुरी शक्ति से है, उसे परास्त करने लायक देव-भुजाओं का निर्माण करने वाली व्यायामशाला उनके पास है ही नहीं।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">भाजपा से लड़ने के बजाय विपक्षी रुस्तम कांग्रेस से लड़ते रहे। मुद्दा यह बना रहा कि विपक्ष का नेतृत्व करने की कूवत राहुल गांधी में है कि नहीं? सब को लगता रहा कि राहुल से ज़्यादा योग्य तो मैं ख़ुद हूं। कांग्रेस के भीतर भी लार टपकाती ज़ुबानों की कमी नहीं थी। वे भी अपने हिस्से की खीर चाटने को लपलपा रही थीं। उन्हें भी राहुल की असफलता में अपनी सफलता के अंकुर दिखाई देते थे। घर के इन भेदियों ने समान विचारों वाले राजनीतिक दल तो छोड़िए, मोशा-भाजपा तक के साथ कंचे खेलने में भी हुज्ज़त नहीं की। नतीजा सब के सामने है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">आज राहुल के अलावा बाकी सारे विपक्षी नेता नरेंद्र भाई के तीरों से ज़ख़्मी हो कर ‘हाय-हाय मर गया’ कर रहे हैं। मोशा-करतूतों के ख़िलाफ़ अकेले राहुल मैदान में डटे हुए हैं। वह वक़्त गया, जब नरेंद्र भाई का कार्टून बनाने का ‘पाप’ करने वाले को अनुचर-टोली जीवन भर याद रहने वाला सबक सिखाने निकल पड़ती थी। कार्टून की दुनिया में आज राहुल नहीं, नरेंद्र भाई सबसे ऊपर हैं। पौने दो बरस में यह फ़र्क़ आया है। यह फ़र्क़ राहुल की अनवरतता की वज़ह से आया है। यह फ़र्क़ इसलिए आया है कि, और कोई भले ही हुआ हो, मगर राहुल अपने मार्ग से विचलित नहीं हुए।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">मैं शुरू से कह रहा हूं कि मोशा-युग का संहार राहुल के ही हाथों लिखा है। क्योंकि वे ही हैं, जिन्होंने वैचारिक संघर्ष के मौजूदा दौर की आहट बहुत पहले से सुन ली थी और अपना रुख तय कर लिया था। इसलिए बावजूद इसके कि विपक्षी पहलवानों की कतार में बहुत-से मज़बूत चेहरे हैं, राहुल सरीखी अखिल भारतीय अर्थवत्ता किसी में नहीं है। शेष सभी की अपनी सीमाएं हैं। कोई जाति-बिरादरी का नेता है तो कोई इलाकाई सूबेदार। आम लोगों के बीच न तो राहुल जैसी अखिल भारतीय स्वीकार्यता किसी की है और न उन जैसी वैश्विक उपस्थिति की कलगी किसी के सिर पर दीखती है। कांग्रेस को छोड़ कर विपक्ष का कौन-सा ऐसा राजनीतिक दल है, जिसका जम्बू द्वीप तो दूर, भारत-खंड के आकाश पर भी अपना सकल-प्रभाव हो?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">सो, कांग्रेस भले ही लोकसभा में फ़िलहाल दीन-हीन स्थिति में है, भले ही सिर्फ़ तीन ही राज्यों में फ़िलवक़्त उसकी समूची सरकारें हैं, कांग्रेस को सारथी-भूमिका दिए बिना विपक्ष का रथ मोशा-महाभारत जीतने का ख़्वाब देख ही नहीं सकता। कांग्रेस यानी राहुल के पीछे चलने का अनमनापन विपक्षी नेताओं के मन से जितनी जल्दी विदा होता जाएगा, दिल्ली उतनी ही पास आती जाएगी। नरेंद्र भाई तो शुरू से जानते थे कि उनका असली मुकाबला सिर्फ़ राहुल गांधी से है, इसीलिए वे सात-आठ साल से एक ही काम में लगे हुए हैं कि राहुल के चेहरे पर ऐसे-ऐसे रंग पोत दें कि विपक्ष में बाकियों के चेहरे उनसे चमकीले नज़र आएं। लेकिन नरेंद्र भाई अंततः हांफ गए हैं। उनकी सारी तरक़ीबें नाकाम होती जा रही हैं।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">क्षमा कीजिए, बावजूद इसके कि ममता बनर्जी और शरद पवार अपने-अपने हलकों में बहुत पुख़्ता सियासी ज़मीन के मालिक हैं, पूरे देश का संचालन उनके बस का नहीं है। बावजूद इसके कि तेजस्वी यादव, अखिलेश यादव और जगन रेड्डी उन युवा राजनीतिकों में हैं, जिनसे हम बहुत उम्मीद कर सकते हैं, मगर समूचा देश उनके भी बस का नहीं है। बावजूद इसके कि मायावती और अरविंद केजरीवाल रस्सी पर बांस ले कर चलने और गुलाटियां खाने के करतब दिखाने में माहिर हैं, पूरा मुल्क़ उनके भी बस का नहीं है। इन सभी की क्षेत्रीय राजनीतिक इकाइयों का अपना आधार है, लेकिन उनमें से किसी में भी 33 लाख वर्ग किलोमीटर भूमि पर पसरी पंगडंडियों का चप्पा-चप्पा छान सकने की सामर्थ्य नहीं है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">इसलिए नरेंद्र भाई मोदी का विकल्प अगर कोई हो सकता है तो राहुल गांधी। संघ-गिरोह के वैचारिक हथगोलों का अगर कोई जवाब हो सकता है तो कांग्रेस की अगुवाई वाला विपक्ष। जो इस अवधारणा के विरुद्ध हैं, वे मोशा के मित्र हैं। जिन्हें इस प्रस्तावना पर ऐतराज़ है, लोकतंत्र की हिफ़ाज़त में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है। अपना-तेरी के कर्मकांड में गले-गले डूबे ऐसे विपक्षी रुस्तम ताल कितनी ही ठोकें, उनका असली मक़सद नरेंद्र भाई की पहलवानी को चुनौती देना है ही नहीं। वे सिर्फ़ अपनी लंगोट घुमा रहे हैं। उन्हें कुश्ती के धोबियापछाड़ दांव से कोई लेना-देना ही नहीं है। वे इस दंगल के कलाजंग दांव के बारे में कुछ जानते ही नहीं हैं।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">जिन्हें लगता है कि विचारधाराओं के इस संघर्ष को वे बैठकखाने में रखे शतरंज-बोर्ड पर जीत लेंगे, उन्हें इस असलियत का अंदाज़ ही नहीं है कि नागफनी की खेती कहां-कहां तक पहुंच गई है। अब यह बैठकखाने का मसला नहीं रहा। अब तो कमीज़ को उतार कर, पचास दंड मार कर, अखाड़े में उतरने का वक़्त है। मानो-तो-मानो। मत मानो तो मत मानो। सच्चाई यही है कि वैचारिक दृढ़ता का जो वंश-बीज कांग्रेस और राहुल की जड़ों में है, विपक्ष के बाकी सियासी दलों को उस मुक़ाम तक पहुंचने के लिए अभी काफी आराधना करनी है। कांग्रेस को मुख्य पुरोहित बनाए बिना विपक्ष यह पूजन कर ही नहीं सकता। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।)</p></div></div></div></div>Pankaj Sharmahttp://www.blogger.com/profile/13850757662593978128noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5241910265090719926.post-50166266671124814722021-08-21T03:56:00.007-07:002021-08-21T03:56:48.151-07:00 लुभावने राजपथ पर मुंबई का जिन्न<p><br /></p><header class="entry-header alignwide" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif; margin: auto; max-width: 100%; padding: 0px 15px;"><div class="article-info" style="align-items: center; border-bottom: 1px dotted rgb(0, 0, 0); box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: row wrap; font-size: 13px; margin-bottom: 10px; padding: 20px 0px; place-content: center space-between;"><div class="article_inner" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex;"><div class="post-autor-sr" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; margin-right: 35px; position: relative;"><span class="author-img" style="box-sizing: border-box; padding-right: 10px;"><img alt="" class="avatar avatar-96 photo lazyloaded" data-ll-status="loaded" height="96" loading="lazy" sizes="(max-width: 96px) 100vw, 96px" src="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg" srcset="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg 96w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-150x150.jpg 150w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-250x250.jpg 250w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-100x100.jpg 100w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-24x24.jpg 24w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-48x48.jpg 48w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-300x300.jpg 300w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma.jpg 400w" style="border-radius: 50px; border-style: none; box-sizing: border-box; display: block; height: 30px; max-width: 96px; width: 30px;" width="96" /></span><span style="box-sizing: border-box;"><a href="https://www.nayaindia.com/author/pankaj" style="box-sizing: border-box; color: black; text-decoration-line: none; text-transform: capitalize;">By पंकज शर्मा</a></span></div><div class="post-date-sr" style="box-sizing: border-box; margin-right: 35px; position: relative;">March 27,2021</div><div class="post-count-sr" style="box-sizing: border-box; margin-right: 35px; position: relative;"><br /></div></div></div></header><div class="entry-content" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif;"><div class="news_two_block" style="box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; justify-content: space-between;"><div class="news" id="news" style="align-items: baseline; box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: column nowrap; max-width: 1230px; padding-left: 15px; padding-right: 15px; place-content: stretch flex-start; width: 861px;"><figure class="post-thumbnail" style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; margin: 20px 0px 25px; padding: 0px; text-align: center; width: 831px;"><br /></figure><div class="news_main_container" style="box-sizing: border-box; max-width: 100%; text-align: justify;"><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">जो मुंबई पुलिस के चंद अफ़सरों की सामने आई करतूतों को भी बुहेर कर गलीचे के नीचे ठेल देना चाहते हैं, उनकी अंतर-आत्मा के अंतिम संस्कार पर अगर आप आज विलाप नहीं करेंगे तो कल लोग भले ही इस गलीज़ हादसे के क़िस्से भूल जाएं, इतिहास आप के अपराध को कभी माफ़ नहीं करेगा। मुंबई-प्रसंग में कुछ अनोखा है, ऐसा नहीं है। हरियाणा से ले कर बिहार तक और तमिलनाडु से ले कर असम तक खादीधारियों और वर्दीधारियों के संयुक्त उगाही गिरोहों की भूमिगत कथाएं कोई आज से हवाओं में नहीं तैर रही हैं। मगर मुंबई-कथा क्या हमें लगातार खूंखार होते जा रहे इस बेताल के बारे में अब भी नए सिरे से सोचने पर मजबूर नहीं करेगी?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">सत्तासीन अपने छोटी-बड़ी टपोरी इच्छाओं को पूरा करने में नौकरशाही का, और ख़ासकर वर्दीधारी कारकूनों का, इस्तेमाल करने की कोशिश हमेशा से करते रहे हैं। मगर न तो लालासा-पूर्ति की इस इंद्रसभा के ‘देवताओं’ के मन की थिरकन पहले ऐसी बेकाबू हुआ करती थी कि वे अर्द्धनग्न हो जाएं और न उनके इशारों पर नृत्य करने वाली अप्सराएं पूरी तरह निर्वस्त्र होने को ऐसी बेताब हुआ करती थीं। छुपा-छुपाई का गंदला पानी इस खेल के नाले में सतह के नीचे चुपचाप बहता रहता था। लेकिन अब नंगे नाच का दौर है। इस दौर के शब्दकोष से लाज-शर्म के शब्द खुरच-खुरच कर मिटा दिए गए हैं। इसलिए जितनी बागड़ें हैं, वे ख़ुद ही खेत खाने में मशगूल हैं। ऐसे में इंसाफ़ का गंगाजल छिड़कने को अपना कलश ले कर निकलने वाले दूर-दूर तक हैं ही कहां?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">ये हालात इसलिए हुए हैं कि पिछले कुछ बरस से हमारे प्रजापालकों ने ‘लोकतंत्र’ नाम का रथ खींचने के लिए राजनीतिक-अश्वों के बजाय कमीशनख़ोर नौकरशाहों का सहारा लेना शुरू कर दिया। सत्ता के रथ में जुतने की होड़ से लबरेज़ टट्टुओं की कमी तो पहले भी कभी नहीं थी। मगर तब के सारथी सियासत इतने आत्मविश्वासी हुआ करते थे कि अरबी घोड़ों की सोहबत में अपने को असुरक्षित नहीं, सुरक्षित महसूस करते थे। फिर लोकतंत्र के रथ की लगाम ऐसे अधकचरे सारथियों के हाथों में जाने लगी, जिनकी नींव रथ-संचालन के हुनर की प्राथमिक कक्षाओं में ही कमज़ोर पड़ गई थी। उन्हें राज्य-व्यवस्था संचालित करने के लिए विलोम उपादानों का उपयोग करने के ही पाठ पढ़ने को मिले थे। वे राजधर्म, नैतिकता और मूल्यों का पहरुआ बनने को अपने-अपने गुरुकुलों से निकले ही नहीं थे। उन्हें तो छीना-झपटी पर आधारित जनतंत्र का झंडाबरदार बनना था। वे हर हथकंडा अपना कर सब-कुछ मुट्ठी में कर लेने का फ़लसफ़ा ले कर मैदान में कूदे थे।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">सो, तक़रीबन तीन दशक पहले भारत की शासन व्यवस्था में नागफनी के बीज पड़ने शुरू हुए, बाद के डेढ़ दशक में उनके अंकुर फूटे और गुज़रे पौन दशक में नागफनी का पूरा जंगल उग आया। कोई भी सियासी दल इन नागफनियों से बच नहीं पाया। भारत गणराज्य का कोई भी प्रदेश अपना दामन इन कांटों में हिलगने से बचा नहीं पाया। सारे-के-सारे कुओं में यह भांग कम-ज़्यादा घुलती गई। पिद्दी सियासतदांओं को जी-हुज़ूरिए नौकरों के ज़रिए हुकूमत चलाने में मज़ा आने लगा। वे बराबरी के हमजोलियों से कन्नी काटने लगे। फिर उन्हें काट-काट कर बौना बनाने के धंधें में लग गए। फिर उन्होंने चुन-चुन कर बौने अपने आसपास इकट्ठे कर लिए। वे भूल गए कि नौकर सिर्फ़ आप के सामने जी-हुज़ूरी करते हैं। आप की पीठ फिरी नहीं कि वे आप को अपनी फूहड़तम अंग-मुद्राओं के हवाले कर देते हैं। साथियों और नौकरों में यही फ़र्क़ होता है। सेवकों और नौकरों में भी बहुत फ़र्क़ होता है। जो नौकरों पर आश्रित हो गए थे, उन्हें नौकरों ने अंततः अपने पर इतना आश्रित कर लिया कि 2021 आते-आते मालिक अपने नौकरों के नौकर हो गए। मुंबई के जनाडू में इसी काले जादू का ‘फट्-फट् स्वाहा’ गूंज रहा है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">क्या नौकरशाही में पनपी इस अपसंस्कृति के लिए वे ज़िम्मेदार नहीं हैं, जो पिछले पांच-सात बरस में देश के सर्वोच्च कार्यालय से ले कर तमाम जांच एजेंसियों, टैक्स एजेंसियों और सत्ता-गलियारे के सभी अहम गुंबदों पर अपने प्रदेश के भाई-बंधुओं को बैठाने की तंगदिली से ख़ुद को बचा नहीं पाए? इस पर ज़रा गहराई से सोचिए कि जब कोई अफ़सरशाही के राजनीतिकरण को बढ़ावा देने का खाद-पानी डाल रहा हो तो दूसरे भी इस उकसावे में आ कर ऐसा ही क्यों नहीं करेंगे? अपनी नौकरियां छोड़ कर ताज़ा-ताज़ा राजनीति में आने वाले गृह सचिव और पुलिस आयुक्त को सीधे मंत्री बना देने की पीसीसरकारी करने के लिए क्या मतदाताओं ने किसी से कहा था? विदेश सचिव को संसद में आए बिना ही सीधे विदेश मंत्री बना देने की आप की सादगी पर जो मर रहे हैं, उन्हें नहीं मालूम कि आप के ऐसे क़दमों ने देश को कितना मर दिया है?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">नरेंद्र भाई मोदी ने पहली बार धूम-धड़ाके के साथ प्रधानमंत्री का सिंहासन संभालने के कोई एक बरस बाद, 2015 के अगस्त में, जब अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवाओं के लिए 47 साल पहले नियमों में संशोधन किया, तो मुझे लगा था कि वे खर-पतवार की जड़ों में डालने के लिए मट्ठे का मटका ले कर निकल पड़े हैं। तब नरेंद्र भाई ने अफ़सरशाही की राजनीतिक निष्पक्षता पर बार-बार ऐसा ज़ोर दिया कि लोग मुग्ध हो कर झूमने लगे। मगर तब क्या पता था कि सियासी तटस्थता के इस मंत्र में दरअसल उस ध्रुवीकरण के श्लोक लहरा रहे हैं, जो अधिकारी-तंत्र को मौजूदा सरकार के पितृ-संगठन की विचारधारा पर चलने की प्रेरणा दे रहे हैं। नरेंद्र भाई ने प्रशासनिक अधिकारियों की सैर के लिए बेहद लुभावने राजपथ का निर्माण करने में इन सात वर्षों में कोई कोताही नहीं बरती।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">इसी का नतीजा है कि खरबूजों को देख कर, खरबूजे तो खरबूजे, टिंडे-बैंगन भी रंग बदलने पर उतारू हो गए। अधोलोक की देगची से बाहर आ कर हमारी-आपकी आंखों-में-आंखें डाले हुंकार रहा मुंबई का जिन्न इन्हीं पापों का परिणाम है। इस पाप में सभी शामिल हैं। वे भी, जो यह प्रेत-क्रिया कर रहे थे। और, वे भी, जो यह कापालिक-नृत्य ख़ामोशी से देख रहे थे। जब प्रशासनिक नियुक्तियों की मंत्रिमंडलीय समिति में संबंधित विभाग के मंत्री को शामिल किए जाने की व्यवस्था नरेंद्र भाई ने ख़त्म की, तब विपक्ष कहां था? जब इस समिति के प्रमुख समेत सीबीआई, नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो, आयकर विभाग, सीबीडीटी, जैसे तमाम महकमों के मुखिया देश के एक ही भौगोलिक हिस्से से हस्तिनापुर आ कर बसने वाली प्रतिभाएं बन रही थीं, तब विपक्ष कहां था? तब विपक्ष मुंह छिपाए घूम रहा था। इसलिए कि पहला पत्थर वह किस मुंह से अपने हाथ में उठाता? अगर विपक्ष इस पर ताल ठोकता तो नरेंद्र भाई उसकी अलमारी में पड़े कंकाल बाहर निकाल कर गांव की चौपाल पर सजा देते।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">‘तेरा पाप, पाप; मेरा पाप, पुण्य’ की अंक-जोड़ू कलाकारी से परे हो कर शासन-प्रशासन के बुनियादी मसलों पर अगर हमारे प्रजापालक अब भी ग़ौर करने को तैयार नहीं हैं तो आज अपने पराक्रम की मदमस्ती में डोलने वाले भी जल्दी ही अपने को असहाय पाएंगे। जम्हूरियत अर्दलियों के ज़रिए नहीं चला करती। उसका प्रवाह तो जन-प्रतिनिधियों के सशक्तिकरण से ही सुनिश्चित किया जा सकता है। ‘हृदय-सम्राट’ होने का प्रमाणपत्र खा़दिमों से लिया तो काहे के हृदय-सम्राट? मुलाज़िमों की जय-जयकार सुन-सुन कर अपने को सिरमौर समझ लेने वालों का कोई नामलेवा आज आप को कहीं दिखाई देता है? इतिहास के अनुभवों की डलिया से अपने लिए फूल चुनने की फ़ुरसत जिन्हें नहीं है, इतिहास ने उन सभी के लिए एक कूड़ेदान भी बग़ल में रख रक्खा है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;"><span style="box-sizing: border-box; font-weight: 700;">(लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं)</span></p></div></div></div></div>Pankaj Sharmahttp://www.blogger.com/profile/13850757662593978128noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5241910265090719926.post-88625415940503816492021-08-21T03:55:00.003-07:002021-08-21T03:55:30.540-07:00 बदलाव की इबारत लिखने वाले चुनाव<p><br /></p><header class="entry-header alignwide" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif; margin: auto; max-width: 100%; padding: 0px 15px;"><div class="article-info" style="align-items: center; border-bottom: 1px dotted rgb(0, 0, 0); box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: row wrap; font-size: 13px; margin-bottom: 10px; padding: 20px 0px; place-content: center space-between;"><div class="article_inner" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex;"><div class="post-autor-sr" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; margin-right: 35px; position: relative;"><span class="author-img" style="box-sizing: border-box; padding-right: 10px;"><img alt="" class="avatar avatar-96 photo lazyloaded" data-ll-status="loaded" height="96" loading="lazy" sizes="(max-width: 96px) 100vw, 96px" src="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg" srcset="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg 96w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-150x150.jpg 150w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-250x250.jpg 250w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-100x100.jpg 100w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-24x24.jpg 24w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-48x48.jpg 48w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-300x300.jpg 300w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma.jpg 400w" style="border-radius: 50px; 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width: 861px;"><figure class="post-thumbnail" style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; margin: 20px 0px 25px; padding: 0px; text-align: center; width: 831px;"><br /></figure><div class="news_main_container" style="box-sizing: border-box; max-width: 100%; text-align: justify;"><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">पांच राज्यों के चुनाव में, और जो भी हो, भारतीय जनता पार्टी की मनोकामनाएं पूरी होती दिखाई नहीं दे रही हैं। जिन्हें इस बात में सुख मिलता हो कि पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु, केरल और पुदुचेरी में कांग्रेस को ख़ुद तो कोई ज़्यादा फ़ायदा नहीं होगा; वे फ़िलहाल इस गुदगुदी की गिलगिलाहट का मज़ा लेते रहें। मगर इतना तय है कि दो मई को आने वाले 814 विधानसभा क्षेत्रों के चुनाव नतीजों से देश की केंद्रीय राजनीति के नए व्याकरण की शुरुआत होगी। एक ऐसे व्याकरण की, जो मौजूदा केंद्र सरकार की संरचना में आमूल बदलाव की इबारत देश के माथे पर स्थाई तौर पर चस्पा कर देगा।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">2016 के चुनाव में पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस 294 में से 293 सीटों पर लड़ी थी और उसने 211 जगह जीत हासिल की थी। कांग्रेस 92 सीटों पर लड़ी थी और 44 जगह जीती थी। वाम दलों ने 203 निर्वाचन क्षेत्रों में चुनाव लड़ा था और 32 सीटें जीती थीं। भाजपा 291 सीटों पर लड़ी थी और सिर्फ़ 3 पर जीत पाई थी। बंगाल में ‘असली परिवर्तन’ लाने के लिए दिन-रात एक कर रहे नरेंद्र भाई मोदी और अमित भाई शाह दावों के ऐसे उस्ताद हैं कि यूं तो इस बार पूरी दो सौ सीटें जीतने के आसार बुलंद करते घूम रहे हैं, मगर ज़मीनी हालात वे भी अच्छी तरह जानते हैं।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">भाजपा ने चुनावी हवा को उछाल देने के लिए यह तर्क डेढ़ साल पहले ही गढ़ लिया था कि चूंकि 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान वह बंगाल में विधानसभा की 122 सीटों पर आगे रही है, इसलिए 2021 के प्रादेशिक चुनाव में उसके पास इतनी सीटें तो पहले से ही हैं और 70-80 अतिरिक्त सीटें जुटा लेना उसके लिए कौन-सी बड़ी बात है? मगर इस तर्क का थोथापन भी भाजपा को मन-ही-मन शुरू से मालूम है। उसके चुनावी नीम को आयातित उम्मीदवारों के करेले ने और भी कड़वा कर दिया है। हर चरण के प्रत्याशियों की सूची के साथ भाजपा के भीतर बग़ावती माहौल गहराता जा रहा है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">बंगाल के ताज़ा राजनीतिक समीकरणों की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष अंतर-तरंगों, सार्वजनिक गठबंधनों और एक-सी सोच रखने वालें दलों में आपस के अनौपचारिक तालमेल की धार इतनी पैनी हो गई है कि भाजपा को अपना घर संभालना भारी पड़ रहा है। गांव-गांव घूम रहे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दस्ते अपने मुख्यालय को जो दैनिक रपट भेज रहे हैं, उसके मुताबिक बंगाल में भाजपा तीन दर्जन के आसपास ही सीटें जीतने की स्थिति में है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">असम में भी भाजपा तेज़ ढलान पर लुढ़क रही है। 2016 के चुनाव में वह 126 में से 84 सीटें लड़ी थी और 60 जीतने का अभूतपूर्व करतब उसने दिखा डाला था। कांग्रेस 122 जगह लड़ी थी और 26 जगह ही जीत पाई थी। बदरुद्दीन अज़मल के आॅल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट ने 13, असम गण परिषद ने 14 और बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट ने 12 सीटें जीती थीं। असम में इस बार का चुनाव भाजपा के लिए पिछली बार की तरह मखमली गलीचा नहीं है। पांच साल में ब्रह्मपुत्र के जल ने अपना रंग काफी बदल लिया है। सो, भाजपा के आकलनकर्ताओं को भी उनकी पार्टी का आंकड़ा 20-22 के आसपास सिमटता नज़र आ रहा है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">234 सीटों वाली तमिलनाडु विधानसभा का रंग-रोगन जयललिता के बाद से इतनी बार उतर-चढ़-उतर चुका है कि भाजपा के सारे दूर-नियंत्रक यंत्र इस बार के चुनाव में नाकारा साबित हो रहे हैं। 2016 में जयललिता की अन्नाद्रमुक ने 136 सीटें जीती थीं। द्रमुक को 89 सीटें मिली थीं। कांग्रेस 41 जगह लड़ कर सिर्फ़ 8 जगह जीत पाई थी। भाजपा ने सभी सीटो पर अपने उम्मीदवार उतारे थे, मगर जीता कोई नहीं था। जयललिता की अनुपस्थिति से बने हालात अपने पक्ष में मोड़ने का प्रपंच रचने में भाजपा ने चार साल से कोई कसर बाक़ी नहीं रखी है, लेकिन तमिलनाडु है कि नरेंद्र भाई की झोली में, सीधे तो क्या, घुमा-फिरा कर भी, गिरने को तैयार ही नहीं हो रहा है। इसलिए भाजपा को अपना शून्य फिर दोहराएगी ही, उसके मित्र-दलों को भी इक्कादुक्का निर्वाचन क्षेत्रों में पैर रखने की जगह मिल जाए तो बड़ी बात होगी।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">केरल के विपत्तू, मपिलापत्तू और वडकनपत्तू की लोक-धुनें भी इस बार पूरी तरह बदली हुई हैं। 2016 में वाम मोर्चें और उसके सहयोगी दलों को 140 में से 91 सीटें मिली थीं। कांग्रेस की अगुआई वाले संयुक्त मोर्चे ने 47 सीटें हासिल की थीं। भाजपा को सिर्फ़ एक सीट मिली थी और उसके सहयोगी दलों को एक भी नहीं। एक बार वाम मोर्चे और एक बार संयुक्त मोर्चे को मौक़ा देने की क्रमवार परंपरा निभाने वाले केरल में इस बार संयुक्त मोर्चे की बारी है। वायनाड से राहुल गांधी के सांसद बनने के बाद से केरल की कांग्रेस पार्टी पर यह नैतिक बोझ बढ़ गया है कि वह, मन मार कर ही सही, एकजुट रहे और राज्य में अपनी सरकार बना कर दिखाए। सरकार न बनने की कीमत ऐसे-ऐसों को चुकानी पड़ेगी कि उनमें से कोई भी किसी भी तरह का जोख़िम लेने को तैयार नहीं है। बावजूद हर कोशिश के, केरल में भाजपा जैसी थी, वैसी ही है। वाम-दल हर तरह की बदनामी झेल रहे हैं। सो, संयुक्त मोर्चे की सरकार बनना तय है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">’मोशा’ की हाथ की सफ़ाई के ताज़ा शिकार बने पुदुचेरी की 30 विधानसभा सीटों में से कांग्रेस ने 2016 के चुनाव में 21 लड़ी थीं और 15 जीती थीं। भाजपा सभी 30 सीटों पर लड़ने के बावजूद शून्य पर रही थी। इधर चुनाव ख़त्म हुए और उधर नरेंद्र भाई मोदी ने किरण बेदी को पुदुचेरी का उपराज्यपाल बना कर भेज दिया था। तब से पिछले महीने की 16 तारीख़ को अपनी विदाई तक बेदी न ख़ुद चैन से बैठीं, न कांग्रेसी मुख्यमंत्री वी. नारायणसामी को चैन लेने दिया। उनके धतकर्मों से भाजपा की ज़मीन कितनी उपजाऊ हुई, इस बार के चुनाव यह बता देंगे। पुदुचेरी के संकेत भी उन दलों के पक्ष में जाते दिखाई नहीं दे रहे हैं, जिनसे भाजपा को अपने लिए आगे-पीछे कोई आस बंधे।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">अलग-अलग आकलन समूहों द्वारा पांच राज्यों की 814 सीटों को ले कर किए जा रहे विश्लेषणों से सामने आ रहे आंकड़े अब तक जो बता रहे हैं, वह यह है कि भाजपा को पश्चिम बंगाल में 34, असम में 29 और तमिलनाडु, केरल तथा पुदुचेरी में, तुक़्का लगा तो, एकाध-एकाध ही कोई सीट शायद मिले। यानी इन विधानसभा चुनावों में भाजपा सब मिला कर 65-70 सीटों की गिनती पार नहीं कर रही है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">सो, कांग्रेस की स्वयमेव हालत को परे रखिए और यह देखिए कि भाजपा की स्वयमेव हालत इन पांच राज्यों में कैसी है? महत्वपूर्ण यह भी है कि कांग्रेस के सहयोगी दल इन चुनावों में भाजपा के सहयोगी दलों से कहीं आगे हैं और तकनीकी तौर पर फ़िलवक़्त कांग्रेस-भाजपा से समान दूरी रखने वाली ममता बनर्जी उनके खि़लाफ़ इस्तेमाल हो रहे हथकंडों की आग का दरिया पार कर अपनी सरकार दोबारा बना रही हैं। सात साल से दनदनाती घूम रही भाजपा के हंटर-राज में इतना भी क्या कोई कम है? (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।)</p></div></div></div></div>Pankaj Sharmahttp://www.blogger.com/profile/13850757662593978128noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5241910265090719926.post-35961963535055365982021-08-21T03:53:00.002-07:002021-08-21T03:53:26.595-07:00ग़लत प्रस्तावना के चक्रव्यूह में राहु<p> </p><header class="entry-header alignwide" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif; margin: auto; max-width: 100%; padding: 0px 15px;"><div class="article-info" style="align-items: center; border-bottom: 1px dotted rgb(0, 0, 0); box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: row wrap; font-size: 13px; margin-bottom: 10px; padding: 20px 0px; place-content: center space-between;"><div class="article_inner" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex;"><div class="post-autor-sr" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; margin-right: 35px; position: relative;"><span class="author-img" style="box-sizing: border-box; padding-right: 10px;"><br /></span><span style="box-sizing: border-box;"><a href="https://www.nayaindia.com/author/pankaj" style="box-sizing: border-box; color: black; text-decoration-line: none; text-transform: capitalize;">By पंकज शर्मा</a></span></div><div class="post-date-sr" style="box-sizing: border-box; margin-right: 35px; position: relative;">March 13,2021</div><div class="post-count-sr" style="box-sizing: border-box; margin-right: 35px; position: relative;"><br /></div></div></div></header><div class="entry-content" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif;"><div class="news_two_block" style="box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; justify-content: space-between;"><div class="news" id="news" style="align-items: baseline; box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: column nowrap; max-width: 1230px; padding-left: 15px; padding-right: 15px; place-content: stretch flex-start; width: 861px;"><figure class="post-thumbnail" style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; margin: 20px 0px 25px; padding: 0px; text-align: center; width: 831px;"><br /></figure><div class="news_main_container" style="box-sizing: border-box; max-width: 100%; text-align: justify;"><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">आप भी इन दिनों लगातार यह सुनते होंगे कि एक अकेले राहुल गांधी ही हैं, जो देश भर में नरेंद्र मोदी और उनकी भारतीय जनता पार्टी से लड़ रहे हैं; एक अकेले राहुल गांधी ही हैं, जो नरेंद्र मोदी और उनकी भाजपा से लड़ सकते हैं; एक अकेले राहुल गांधी ही हैं, जिनके मन में संघ-कुनबे से लड़ने की अनवरतता के मामले में कोई विचलन नहीं है; एक वे ही हैं, जो इस सिलसिले में अपनी वैचारिक स्थिरता बनाए हुए हैं।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">तो सवाल यह उठता है कि बाक़ी की कांग्रेस क्या घास छील रही है? क्या वह देश भर में मोदी और भाजपा से नहीं लड़ रही है? बाक़ी के कांग्रेसी मोदी या भाजपा से क्यों नहीं लड़ सकते और यह ज़िम्मा एक अकेले राहुल के ही कंधों पर क्यों आन पड़ा है? बाक़ी के कांग्रेसियों के मन में संघ-कुनबे से लड़ने को ले कर क्या कोई सैद्धांतिक अविचलन है? बाक़ी के कांग्रेसियों के मन की स्थिरता क्या कहीं हवा हो गई है?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">पौने दो साल पहले, 3 जुलाई 2019 को, जब राहुल ने लोकसभा चुनाव में हार का ज़िम्मा लेते हुए कांग्रेस-अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दिया था तो कहा था कि मत-कुरुक्षेत्र में उन्हें कई बार लगा कि मोदी से युद्ध में वे एकदम अकेले खड़े हैं। यानी कि राहुल को यह बात साल रही थी कि जब बाग़बां ने उनके आशियाने को आग दी तो जिन पे तकिया था, वही पत्ते हवा देने लगे थे। जिन सिपाहसालारों के भरोसे वे मैदान में कूदे थे, वो घर जला रही लपटों का साथ दे रहे थे।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">राहुल के इस भीतरी अहसास में दम हो सकता है। हो सकता है कि चंद घुटे हुए कांग्रेसियों का तब ऐसा रंग राहुल ने देखा हो कि उनका दिल टूट गया। दिल तो बच्चा है जी! सो, तब से वे अकेले ही जंग लड़ने की मुद्रा में आ गए हैं। लेकिन क्या सचमुच ऐसा हुआ होगा कि पूरी कांग्रेस ने राहुल को अकेला उनके हाल पर छोड़ दिया हो? क्या सचमुच ऐसा है कि आज भी पूरी कांग्रेस राहुल को अकेले उनके हाल पर छोड़े हुए है? या फिर ऐसा है कि राहुल ने पूरी कांग्रेस को अकेले उसके हाल पर छोड़ दिया है?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">राहुल एकाधिक बार कह चुके हैं कि नरेंद्र मोदी उनका तो इसलिए कुछ नहीं बिगाड़ सकते हैं कि उन्होंने कभी कुछ ग़लत किया ही नहीं है। वे शिख-नख पाक-साफ़ हैं। सो, मोदी कर क्या लेंगे? राहुल की इस बात में भी ग़ज़ब का दम है। जब कुछ ग़लत-सलत किया ही नहीं है तो किसी से भी क्यों डरें? तो क्या बाक़ी के कांग्रेसी मोदी के खि़लाफ़ ताल ठोक कर इसलिए नहीं बोल रहे हैं, उनके दरख़्तों के तने इतने नाज़ुक हैं कि मोदी को आंखें दिखाने के लिए ज़रा-से हिले-डुले तो मोदी का त्रिनेत्र उन्हें पल भर में भस्म कर देगा?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">सो, अगर राहुल अकेले युद्धरत हैं और अगर अकेले वे ही मोदी से लड़ सकते हैं तो क्या इस तर्क की प्रस्तावना यह है कि शेष कांग्रेसियों के कुर्ते राहुल की कमीज़ से ज़्यादा सफ़ेद नहीं हैं, इसलिए वे हुंकारने के बजाय मिमिया रहे हैं? राहुल के वस्त्रों की धवलता को मैं सौ में से दो सौ अंक दूंगा। मगर बाक़ी सारे कांग्रेसियों के दामन पर धब्बे-ही-धब्बे देखने वाली आंखें मेरे पास तो नहीं हैं। कुरुक्षेत्र का चल-विवरण सुनाने वाली दिव्य-दृष्टि जिन अगलियों-बग़लियों के पास है, उनकी महिमा वे जानें! और, जिन्हें इस वृत्तांत के आधार पर ही अपने निष्कर्षों पर पहुंचना है, उनकी विडंबना, उनके पल्ले! मैं तो इतना भर समझता हूं कि इक्कादुक्का कुलकलंक तो कहीं भी हो सकते हैं, लेकिन एकाध को छोड़ कर कांग्रेस का पूरा घान ही आज के कलियुग में कलुषित हो गया है, यह बात तो वही मान सकता है, जिसके भाग ही फूट गए हों।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">आख़िर तो ऐसे लाखों पैदल-सैनिक हैं, जो ‘मोशा-दौर’ की सियासत से पिछले सात साल से दो-दो हाथ कर रहे हैं। शिखर और मध्यम स्तर के ऐसे हज़ारों कांग्रेसी नेता हैं, जो पसीना-पसीना हैं, मगर लोकतंत्र के परिंदे को चील-कौओं से बचाने के लिए कोई कसर बाक़ी नहीं रखे हुए हैं। इनमें वे भी हैं, जिन्हें हर तरफ़ से अवहेलना ही मिलती है। अपनों की तरफ़ से भी। उनके किए का कोई बहीखाता रखने की फ़ुरसत किसी को नहीं है। अपना-तेरी की होड़ में जो ग़िरोह राहुल की इस अंतःशक्ति को कमतर दिखा रहा है, वह राहुल का असली दुश्मन है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">यह तो कोई राहुल से पूछे तो वे भी नहीं मानेंगे कि अकेले वे ही मोदी और भाजपा से लड़ रहे हैं। वे भी शायद ही कभी कहेंगे कि कांग्रेस में अकेला मैं ही संघ-कुनबे से लड़ सकता हूं, और कोई नहीं। फिर यह अर्चना-पंक्तियां लिख कौन रहा है कि अकेले राहुल, अकेले राहुल, दूसरो न कोई? यह आरती खतरनाक है। यह देव-आराधना विनाशकारी है। यह पूजा-पद्धति शंकास्पद है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">राहुल कांग्रेस की बेहद अर्थवान संपदा हैं। वे आज की कांग्रेस की अक्षुण्ण ऊर्जा हैं। मगर यह अवधारणा परोसना कि राहुल के अलावा सब भाड़ झोंक रहे हैं, कांग्रेस को उत्थान नहीं, अवसान की तरफ़ ले जाएगा। उन्हें एकलवाद के खांचे में मढ़ कर दीवार पर टांगने की साज़िश मत करिए। उनके हमजोलीपन-भाव में ही कांग्रेस के प्राण बसे हैं। उनके निजी श्रेष्ठि-भाव का शहद कांग्रेस-संगठन का विष बन जाएगा। इस लाक्षागृह के निर्माताओं के षड्यंत्र से सभी को सावधान रहने की ज़रूरत है, ख़ासकर राहुल को ख़ुद।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">राहुल को ‘अपनी कांग्रेस’ बनाने का मशवरा देने वाले लुच्चे हैं। यह कांग्रेस, राहुल की ही कांग्रेस है। उन्हें यह समझाने वाले टुच्चे हैं कि आज की कांग्रेस में बैठे पुराने कांग्रेसी आपके साथ नहीं है। यह जालबट्टा कांग्रेस का सिपाही बने बैठे उन नन्हे-मुन्ने राहियों ने बिछाया है, जिन्हें राह चलते वह सब मिलता जा रहा है, जो बरसों-बरस की हाड़-तोड़ मेहनत के बाद भी सब को शायद ही मिल पाता है। हो सकता है कि पुराने कांग्रेसियों में से कुछ इधर-उधर नैनमटक्का कर रहे हों। मगर नए-नकोरों में से ही कौन सारे राहुल से प्रतिज्ञाबद्ध हैं? ज़रूरत तो इन सबसे निज़ात पाने की है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">नेहरू जी के जमाने के तो अब दो-चार ही बचे हैं, मगर बाक़ी के ये पुराने कांग्रेसी इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी की छांह में पल कर बड़े बने हैं। वे अपने-अपने समय में नेहरू-गांधी परिवार के बहुत नज़दीकी रहे हैं। अगर किसी को लगता है कि इनमें से कुछ कपूत निकल गए तो कैसे मान लें कि आज जिन्हें राहुल की बांहों का सहारा मिल रहा है, वे ताउम्र सपूत ही बने रहेंगे? कपूत तो जन्मते हैं। वे कभी भी अपने असली रंग में आ जाते हैं। इस गिरगिट-टोली की पहचान के लिए ख़ुर्दबीन का आविष्कार करना ही राहुल का असली इम्तहान है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">ईश्वर करे कि ऐसा न हो, मगर मुझे भय है कि अब से दो-तीन दशक बाद जब कोई कुलकलंकों के अनुपात का आकलन करेगा तो कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि नेहरू से सोनिया-युग तक के बनिस्बत राहुल-युग के कुलकलंक कई गुना ज़्यादा निकलंे? अब प्रतिबद्धता का गाढ़ापन वैसा नहीं रह गया है। सो, इस भय के बीज तब तक कैसे दफ़न हो सकते हैं, जब तक कि रहनुमाओं में अपनों की लियाक़त परखने का शऊर विकसित न हो जाए और राहुल को एकलखुरा-व्यक्तित्व के चक्रव्यूह में धकेलने की कोशिश कर रहे पतंगबाज़ छत की मुंडेरों से धकेल न दिए जाएं।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;"><span style="box-sizing: border-box; font-weight: 700;">(लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।)</span></p></div></div></div></div>Pankaj Sharmahttp://www.blogger.com/profile/13850757662593978128noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5241910265090719926.post-52370812515792360942021-08-21T03:50:00.003-07:002021-08-21T03:50:18.817-07:00आपातकाल की भूल और ‘यूरेका-यूरेका’ टोली<p> </p><header class="entry-header alignwide" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif; margin: auto; max-width: 100%; padding: 0px 15px;"><h1 class="entry-title" style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 40px; line-height: 60px; margin: 0px; padding: 0px;"><br /></h1><div class="article-info" style="align-items: center; border-bottom: 1px dotted rgb(0, 0, 0); box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: row wrap; font-size: 13px; margin-bottom: 10px; padding: 20px 0px; place-content: center space-between;"><div class="article_inner" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex;"><div class="post-autor-sr" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; margin-right: 35px; position: relative;"><span class="author-img" style="box-sizing: border-box; padding-right: 10px;"><img alt="" class="avatar avatar-96 photo lazyloaded" data-ll-status="loaded" height="96" loading="lazy" sizes="(max-width: 96px) 100vw, 96px" src="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg" srcset="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg 96w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-150x150.jpg 150w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-250x250.jpg 250w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-100x100.jpg 100w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-24x24.jpg 24w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-48x48.jpg 48w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-300x300.jpg 300w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma.jpg 400w" style="border-radius: 50px; border-style: none; box-sizing: border-box; display: block; height: 30px; max-width: 96px; width: 30px;" width="96" /></span><span style="box-sizing: border-box;"><a href="https://www.nayaindia.com/author/pankaj" style="box-sizing: border-box; color: black; text-decoration-line: none; text-transform: capitalize;">By पंकज शर्मा</a></span></div><div class="post-date-sr" style="box-sizing: border-box; margin-right: 35px; position: relative;">March 6,2021</div><div class="post-count-sr" style="box-sizing: border-box; margin-right: 35px; position: relative;"><br /></div></div></div></header><div class="entry-content" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif;"><div class="news_two_block" style="box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; justify-content: space-between;"><div class="news" id="news" style="align-items: baseline; box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: column nowrap; max-width: 1230px; padding-left: 15px; padding-right: 15px; place-content: stretch flex-start; width: 861px;"><figure class="post-thumbnail" style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; margin: 20px 0px 25px; padding: 0px; text-align: center; width: 831px;"><br /></figure><div class="news_main_container" style="box-sizing: border-box; max-width: 100%; text-align: justify;"><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">राहुल गांधी ने आपातकाल को भूल बताने की अपनी बात दोहराई तो कई अर्द्धशिक्षित क़लमकार और टीवी सूत्रधार ‘यूरेका-यूरेका’ चिल्लाने लगे। वे बेचारे जानते ही नहीं थे कि आपातकाल की ग़लती तो ख़ुद इंदिरा गांधी ने मान ली थी। उनके बाद राजीव गांधी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी भी कई बार कह चुके थे कि आपातकाल लगाना भूल थी। कांग्रेस पार्टी भी अपने अधिकृत दस्तावेज़ों में आपातकाल की ग़लती मान चुकी है। मगर राहुल के कहे का पल्लू पकड़ कर मौजूदा सत्तासीनों के आरती-कर्मियों ने दो-चार दिन ऐसा हल्ला मचाया, गोया इंदिरा गांधी का जनतंत्र से कोई लेना-देना ही नहीं था।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">1975 के बाद जन्म लेने वाली पीढ़ी को यह सिखाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी गई है कि इंदिरा जी लोकतंत्र-विरोधी थीं और एक तरह से तानाशाह ही थीं। इंदिरा जी ने आपातकाल क्यों लगाया था, इस पर लंबी चर्चा हो सकती है। उन्होंने विपक्षी नेताओं को क्यों जेल भेजा था, इस पर भी काफी बहस की गुंज़ाइष है। और, आपातकाल में सचमुच कितनी ज़्यादती हुई या नहीं हुई और की तो किसने की, किसके इशारे पर की, इस पर तो पूरा ग्रंथ लिखा जा सकता है। बावजूद इन तमाम पहलुओं के, मैं भी मानता हूं कि इंदिरा जी ने आपातकाल की घोषणा कर के अपने जीवन की सबसे बड़ी ग़लती की थी। लेकिन यह भी तो एक तथ्य है कि उन्होंने अपनी ग़लती मान ली थी।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">25 जून 1975 की आधी रात आपाातकाल लगा था। 21 मार्च 1977 को इंदिरा जी ने आपातकाल हटाने का ऐलान कर दिया था। मैं नहीं कहता कि इंदिरा जी के इन 633 दिनों को कोई भूले। इतिहास के ये पन्ने याद रखे जाने चाहिए। लेकिन सिर्फ़ इन 21 महीनों के चलते इंदिरा जी की ज़िंदगी के पूरे 67 वर्षों की भद्द पीटने की कारगुज़ारी में अनवरत लिप्त रहने वालों की हां-मे-हां, अपने को जनतंत्र का पहरुआ साबित करने के चक्कर में, मैं तो नहीं मिला सकता। मुझे तो लगता है कि जितना गहरा जनतांत्रिक दायित्वबोध इंदिरा जी में था, बहुत कम राजनीतिकों में होता है। कामकाजी दुनिया में ग़लतियां किस से नहीं होती हैं? लेकिन आज के राजनेताओं से तो यह उम्मीद करना भी फ़िजूल है कि कभी तो वह दिन आएगा, जब वे अपनी ग़लतियां मान लेंगे।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">भले ही इंदिरा जी के दामन पर आपातकाल लगाने के दाग़ हैं, लेकिन उनके जैसा जनतांत्रिक होने के लिए भी कई जन्मों के पुण्य लगते हैं। एक बच्ची, जिसके पिता स्वाधीनता आंदोलन की मसरूफ़ि़यत के चलते कभी-कभार ही घर रह पाते हों; एक बच्ची, जिसके बचपन का ज़्यादातर हिस्सा इसलिए अकेलेपन में गुज़रा हो कि पिता 11 साल अंग्रेज़ों की जेलों में रहे; एक बच्ची, जिसका पूरा बचपन अपनी बीमार मां की देखभाल और फिर उसे खो देने की निजी त्रासदी के बीच गुज़रा हो; एक बच्ची, जो खुद भी अपनी नरम सेहत से परेशान रहते हुए अंग्रेज़ो की तानाशाही से लड़ने में अपनी अग्रणी भूमिका निभाती रही हो; वह बच्ची, जब अपने देश की प्रधानमंत्री बन जाए तो, क्या आपको लगता है कि इतनी संवेदशून्य हो सकती है कि तानाशाह बनने की सोच ले?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">इंदिरा जी का जीवन तरह-तरह के भावनात्मक अभावों की कथा है। मैं जानता हूं कि अगर मैं कहूंगा कि इनमें आर्थिक अभाव भी शामिल था तो ज़्यादातर लोग अपना पेट पकड़ कर हंसेंगे। लेकिन सच्चाई यह भी है कि इंदिरा जी की मां का इलाज़ कराने तक के पैसे उनके पिता जवाहरलाल नेहरू के पास एक वक़्त नहीं थे। नेहरू की शादी कमला से 8 फरवरी 1916 को हुई थी। उस दिन वसंत पंचमी थी। इंदिरा जी को जन्म देने के बाद से ही कमला नेहरू बीमार रहने लगी थीं। बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि इंदिरा जी के जन्म के 7 साल बाद 1924 में उन्होंने एक बेटे को भी जन्म दिया था। वह कुछ ही दिन जीवित रहा। नेहरू जेल में थे। 7 साल की इंदिरा पर अपने भाई की मौत का क्या कोई असर नहीं हुआ होगा?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">कमला को टीबी हो गई थी। वे महीनों लखनऊ के अस्पताल में भर्ती रहीं। इंदिरा जी का बचपन इलाहाबाद से लखनऊ के बीच भाग-दौड़ में बीता। डॉक्टरों ने कमला को इलाज़ के लिए स्विट्जरलैंड ले जाने की सलाह दी। यह 1926 की बात है। जवाहरलाल के पास इतने पैसे नहीं थे कि यह खर्च उठा पाते। शादीशुदा थे। बेटी भी हो गई थी। उन्हें अपने पिता से खर्च के लिए पैसे लेना अच्छा नहीं लगता था। मोतीलाल जी को कोई कमी नहीं थी। लेकिन जवाहरलाल के पास खुद के पैसे नहीं थे। उन्होंने नौकरी तलाषनी शुरू की।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">इस पर पिता ने उन्हें फटकारा। मोतीलाल का मानना था कि राजनीतिक जीवन में काम करने वाले को संन्यासी की तरह रहना चाहिए। आजीविका कमाने के लिए एक राजनीतिक नौकरी-धंधा नहीं कर सकता। मोतीलाल ने जवाहरलाल से कहा कि नौकरी कर के जितना तुम एक साल में कमाओगे, उतनी तो मेरी एक हफ़्ते की कमाई है। लेकिन बेटे की खुद्दारी का मान रखने के लिए उन्होंने जवाहरलाल को अपने कुछ मुकदमों की याचिकाएं तैयार करने को कहा और दस हज़ार रुपए का मेहनताना दिया। कितने लोग जानते हैं कि तब जा कर नेहरू अपनी पत्नी को ले कर इलाज़ के लिए परदेस गए?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">सो, नेहरू-इंदिरा पर बिना सोचे-समझे मुंह उठा कर टिप्पणी करने का चस्का जिन्हें लगा हुआ है, वे पहले ज़रा इतिहास पढ़ें। आपातकाल-आपातकाल का रट्टा लगा कर ख़ुद के लोकतंत्रवादी होने का प्रमाणपत्र गले में लटकाए घूम रहे चेहरों के पीछे का चेहरा कितना कुत्सित है, कौन नहीं जानता? आपातकाल की भूल का अहसास इंदिरा जी को एक बरस बाद ही हो गया था। 1976 के जून-जुलाई में जब वे आनंदमयी मां से मिलने गई थीं, तभी। बाद में जब अक्टूबर के महीने में वे दर्शनवेत्ता जड्डू कृष्णमूर्ति से मिलीं तो उन्होंने तय कर लिया था कि आपातकाल हटा लेंगी।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">अपने विश्वस्तों से इंदिरा जी ने जब कहा कि वे चुनाव कराना चाहती हैं तो उनके बेटे संजय समेत सब ने उन्हें रोका। रॉ के प्रमुख आर. एन. काव ने इंदिरा जी को बताया कि कांग्रेस बुरी तरह हार जाएगी। संजय गांधी ने इंदिरा जी से कहा कि वे आपातकाल हटा कर जिंदगी की सबसे बड़ी ग़लती करेंगी। कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों ने भी इंदिरा जी को ऐसा न करने की सलाह दी। मगर इंदिरा जी को इनमें से कोई नहीं रोक पाया। 18 जनवरी 1977 को उन्होंने ऐलान कर दिया कि चुनाव होंगे। उसी दिन सभी विपक्षी नेता जेलों से रिहा कर दिए गए।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">तब जयप्रकाश नारायण ने कहा था कि इंदिरा जी ने जो हिम्मत दिखाई है, बिरले ही दिखा सकते हैं। स्वाधीनता आंदोलन के दिनों में इंदिरा जी को अपने पिता से जो संस्कार मिले थे, वे उन्हें ज़िंदगी भर अपने पल्लू से बांधे रहीं। लोकतंत्र में नेहरू और इंदिरा की कितनी गहरी आस्था थी, इसका वे तो बित्ता भर भी अंदाज़ नहीं लगा सकते, जिनके राज में जन-स्वतंत्रता के विश्व मानक पर भारत लगातार नीचे लुढ़कता जा रहा है। यह आस्था ही थी कि अगर संजय गांधी की मां ने भारत को आपातकाल के हवाले कर दिया था तो जवाहरलाल की बेटी ने मुल्क़ को अंधेरी कोठरी से मुक्त कर फिर लोकतंत्र की बगिया में खेलने भेज दिया। अपने दिल पर हाथ रख कर बताइए कि आज कितने लोग हैं, जो ऐसा प्रायश्चित कर सकते हैं? इसलिए आपातकाल के मस्से के बावजूद इंदिरा गांधी बहुतों से ज़्यादा ख़ूबसूरत हैं। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।)</p></div></div></div></div>Pankaj Sharmahttp://www.blogger.com/profile/13850757662593978128noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5241910265090719926.post-62213658389482947062021-08-21T03:48:00.007-07:002021-08-21T03:48:51.005-07:00राहुल-प्रियंका के लिए पंचामृत<p> </p><header class="entry-header alignwide" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif; margin: auto; max-width: 100%; padding: 0px 15px;"><div class="article-info" style="align-items: center; border-bottom: 1px dotted rgb(0, 0, 0); box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: row wrap; font-size: 13px; margin-bottom: 10px; padding: 20px 0px; place-content: center space-between;"><div class="article_inner" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex;"><div class="post-autor-sr" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; margin-right: 35px; position: relative;"><span class="author-img" style="box-sizing: border-box; padding-right: 10px;"><img alt="" class="avatar avatar-96 photo lazyloaded" data-ll-status="loaded" height="96" loading="lazy" sizes="(max-width: 96px) 100vw, 96px" src="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg" srcset="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg 96w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-150x150.jpg 150w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-250x250.jpg 250w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-100x100.jpg 100w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-24x24.jpg 24w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-48x48.jpg 48w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-300x300.jpg 300w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma.jpg 400w" style="border-radius: 50px; border-style: none; box-sizing: border-box; display: block; height: 30px; max-width: 96px; width: 30px;" width="96" /></span><span style="box-sizing: border-box;"><a href="https://www.nayaindia.com/author/pankaj" style="box-sizing: border-box; color: black; text-decoration-line: none; text-transform: capitalize;">By पंकज शर्मा</a></span></div><div class="post-date-sr" style="box-sizing: border-box; margin-right: 35px; position: relative;">February 27,2021</div><div class="post-count-sr" style="box-sizing: border-box; margin-right: 35px; position: relative;"><br /></div></div></div></header><div class="entry-content" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif;"><div class="news_two_block" style="box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; justify-content: space-between;"><div class="news" id="news" style="align-items: baseline; box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: column nowrap; max-width: 1230px; padding-left: 15px; padding-right: 15px; place-content: stretch flex-start; width: 861px;"><figure class="post-thumbnail" style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; margin: 20px 0px 25px; padding: 0px; text-align: center; width: 831px;"><br /></figure><div class="news_main_container" style="box-sizing: border-box; max-width: 100%; text-align: justify;"><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">मैं अपनी इस अज्ञानता के लिए पहले ही माफ़ी मांग लेता हूं कि एक कोई कपिल कोमिरेड्डी हैं, जिन्हें मैं नहीं जानता, मगर अंतरताना-शोध बताता है कि वे एक महान लेखक हैं, जिन्होंने बड़ी ‘ऐतिहासिक’ क़िताबें लिखी हैं और दुनिया का शायद ही ऐसा कोई अख़बार हो, जिसमें उनके लेख न छपे हों; और इन कपिल साहब ने इस बृहस्पतिवार को भारत के एक अंग्रेज़ी दैनिक में लिखा है कि नरेंद्र भाई मोदी को दो बार जिताने और तीसरी बार भी जीत की तरफ़़ ले जाने के लिए राहुल गांधी और सिर्फ़ राहुल गांधी ज़िम्मेदार हैं। इसलिए उन्हें फौरन कांग्रेस की जान छोड़ देनी चाहिए और शशि थरूर, पी. चिदंबरम या यतींद्र सिद्धारमैया में से किसी को पार्टी की बागडोर सौंप देनी चाहिए।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">थरूर, चिदंबरम और सिद्धारमैया की वरिष्ठता, अनुभव, सोच, समझ और बुद्धिमत्ता प्रश्नचिह्नविहीन है। लेकिन कोमिरेड्डी की छलकती गगरी देख कर मुझे उनके भीतर के ज़मीनी अध-जल पर तरस आ रहा है। जिन्हें लगता है कि नरेंद्र भाई और अमित भाई शाह की भाजपा ने राजधर्म के तमाम उसूलों पर डग-डग चल कर रायसीना पर्वत को फ़तह किया और दोबारा फिर फ़तह किया और सोनिया-राहुल-प्रियंका की कांग्रेस इतनी नाकारा निकली कि उन्हें रोक नहीं पाई, उनकी प्रायोजित मासूमियत पर जान छिड़कूं कि क़लम की कमान उठाऊं, आप ही बताइए! कांग्रेस ने दसियों ग़लतियां की होंगी, राहुल में बीसियों ख़ामियां होंगी, मगर जो हमें समझाना चाहते हैं कि नरेंद्र भाई का अवतरण और पुर्नअवतरण किसी स्वाभाविक राजनीतिक प्रक्रिया का हिस्सा है, कम-से-कम मैं तो उनकी चालबाज़ियों में आने से इनकार करता हूं।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">जो दिल के साफ़ हैं, सियासी-राजनय के संसार में उन्हें अपरिपक्व समझा जाता है। राहुल गांधी के साथ पंद्रह बरस से यही हो रहा है। वे यह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि साम की, दाम की, दंड की, भेद की, ढोंग की, झूठ की, मुखौटे की, छल की, बल की, जोड़-तोड़ की, हाथ की सफ़ाई की, जिस दुनिया का वे चाहे-अनचाहे हिस्सा हैं; उसमें पारदर्शिता ही उनके व्यक्तित्व का सबसे बड़ा अवगुण है। वे इसलिए असफल हैं कि दिल खोल कर ईमानदारी से वह सब कह डालते हैं, जो उन्हें लगता है। राहुल को सफल होना है तो उन्हें सबसे पहले चेहरे पर चेहरा ओढ़ना होगा; कहना कुछ, करना कुछ की महारत हासिल करनी होगी; छुरी बग़ल में, मुंह में राम का रास्ता अपनाना होगा; और, वैसा ही काइयांपन अपनी 42 इंच के सीने के भीतर जगाना होगा, जैसा 56 इंच के सीने में अनवरत खदबदाता रहता है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">मगर राहुल को लगता है कि वे त्रेता और द्वापर तो छोड़िए, सत-युग में सियासत कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि वे कलियुग में भी, ‘मोशा-दौर’ की नहीं, चालीस-पचास के दशक की सियासत कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि वे दलाली और ठेकेदारी मनोवृत्ति से सराबोर राजनीतिक अगलिए-बग़लियों के ज़माने की नहीं, उसूलों के प्रति समर्पित हमजोलियों के दिनों की सियासत कर रहे हैं। लोग कहते हैं कि अब राहुल को यह सब कौन समझाए? लेकिन मेरा कहना है कि राहुल को कुछ समझाने की ज़रूरत ही नहीं है, क्योंकि ऐसा नहीं है कि राहुल को मालूम नहीं है कि मौजूदा दौर इतना मासूम नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि राहुल यह नहीं जानते हैं कि वे जिस अवधारणा को गांठ बांधे हुए हैं, स्थितियां उससे ठीक उलट हैं। फिर भी वे अपने तौर-तरीक़े बदलने को तैयार नहीं हैं। इसलिए कि वे सांचों में ढलने को तैयार नहीं हैं और उन्हें यक़ीन है कि एक दिन वे सांचों को बदल कर रख देंगे।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">राहुल गांधी को लगता है कि अगर यह उनकी ग़लती है, तो है। जो उनके मानदंडों की राह पर उनके साथ चलना चाहता है, चले। जिन्हें नहीं चलना, वे अपना रास्ता नापें। जो इसे सनक मानें, मानते रहें। जिन्हें वे ख़ब्ती लगते हैं, लगते रहें। राहुल को तो वही करेंगे, जो उन्हें करना है। वे पंद्रह साल से ‘खटोला यहीं बिछेगा’ मुद्रा में अपना काम कर रहे हैं। तो जब वे पंद्रह बरस में नहीं बदले तो अब क्यों बदलेंगे? इसलिए आप कहते रहिए कि उन्हें उत्तर भारत की राजनीति को छिछलेपन में डुबकियां खाते रहने वाला नहीं बताना चाहिए था। आप सोचते रहिए कि उन्हें अगर ऐसा लगा भी कि केरल और दक्षिण भारत की राजनीति मुद्दों की गहराई में जाने वाले स्वभाव की है और उत्तर भारत की सियासत का स्वभाव उतना संजीदा नहीं है तो भी उन्हें ताज़ा हवा के इस झोंके में इस तरह बह नहीं जाना चाहिए था कि दिल खोल कर यूं बाहर रख दिया। मगर दिल की बात को ज़ुबां तक आने से अगर राहुल रोक लें तो फिर उनका जन्म लेना ही अर्थहीन नहीं हो जाएगा? वे तो कह चुके हैं कि उनका जन्म सच के साथ खड़े रहने के लिए हुए हुआ है और अगर ऐसा नहीं कर पाए तो उनके ख़ुद के मन में ही अपने जीवन की समूची सार्थकता को लेकर प्रश्नचिह्न लग जाएगा। इसलिए हिम्मत से सच कहने का बुरा जिन्हें मानना है, मानें। राहुल की बला से!</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">सियासत में इन्सानियत, अर्थवत्ता, सार्थकता, सकारात्मकता, सिद्धांतों, मूल्यों, पारदर्शिता, वग़ैरह, वग़ैरह की हिफ़ाज़त के चलते 135 करोड़ के देश की 135 साल पुरानी कांग्रेस पार्टी का नाश होता है तो हो जाए। राहुल को इससे कोई लेना-देना नहीं है। जिन तमाम रक्तबीजों से कांग्रेस जन्मी थी, जिनकी रक्षा के लिए अपनी भूमिका का निर्वाह कर रही थी, क्या मरते दम तक नहीं करती रहे? मुझे लगता है कि राहुल की सोच है कि जिन्हें कांग्रेस मृत्युशैया पर पड़ी नज़र आ रही है, वे अपने-अपने स्वर्ग में जाने को स्वतंत्र हैं। कांग्रेस अगर नरक हो गई है तो जिन्हें जहां अपनी जन्नत तलाशनी है, तलाश लें। वो हंस, जो सूखे तालाब में पड़े-पड़े प्राण देने को तैयार हैं, रहें। बाक़ी उड़ जाएं। तालाब में पानी एक दिन तो आएगा। तब तक जिनके प्राण बचे रहेंगे, उनके अप्सरा-स्वप्न शायद पूरे हो जाएं!</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">सो, राहुल संपूर्ण प्रलय-प्रवाह के बाद एक नई सृष्टि का निर्माण करने का दार्शनिक भाव रखते हैं। आजकल अपने मिलने वालों से वे ब्रह्मा, विष्णु और शिव की कथाओं के ज़रिए प्रतीक चर्चाएं करते हैं। उनके सम्यक ज्ञान को सुनने वाले कभी इस और कभी उस अहसास के बीच से गुज़रते हैं। राहुल की इन संगाष्ठियों के श्रोता ज़्यादातर वक़्त अपने बाल नोचने की छटपटाहट से भरे रहते हैं। इससे ज़्यादा कुछ करने का साहस उनके भीतर है नहीं। होता तो पंद्रह साल में कांग्रेस की क्या यह दशा हो जाती?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">मैं 14 साल से कांग्रेस पार्टी में हूं। वनवास की अवधि तो अभी-अभी पूरी हो गई है, लेकिन मैं किस अयोध्या लौटूं? राहुल की कार्यशैली मैं ने भी भीतर रह कर दूर-दूर से देखी है। इसलिए मैं पांच बातें कहूंगा। एक, जिस मूल अवधारणा के आधार पर राहुल अपनी राजनीति करना चाहते हैं, उसमें कुछ भी ग़लत नहीं है। लेकिन इस अवधारणा की मुंडेर पर दीये जलाए रखने वाले हमजोली उनके पास नहीं हैं। दो, कांग्रेस में अर्थवान और जुझारू पैदल-सैनिकों की आज भी कमी नहीं है। लेकिन अपने-पराए की पहचान की राहुल की ज्ञानेंद्रिय पर इसलिए काई जम गई है कि वे अपनी पसंद-नापसंद को लेकर दुराग्रही हैं।तीन, राहुल दूध के जले व्यक्ति की तरह बर्ताव करते हैं और इस चक्कर में उन्होंने अपने आसपास छाछ-ही-छाछ इकट्ठी कर ली है। राहुल को पारंपरिक कांग्रेसजन पर कोई विश्वास नहीं है और जिन पर उन्हें विश्वास है, उनमें से ज़्यादातर का राहुल और कांग्रेस में कोई विश्वास नहीं है। वे सब राहुल की परिक्रमा कर महज़ अधर-सेवा कर रहे हैं। लेकिन कांग्रेस का दुर्भाग्य यह है कि राहुल उन्हें जनम-मरण का साथी समझते हैं।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">चार, राहुल पर आर-पार की मनोदशा हावी है और जो राजनीति की परंपराओं के निर्वाह का आग्रह करते हैं, वे उन्हें दो-तीन-चार नावों पर सवार लगते हैं। लेकिन इस वज़ह से फ़र्ज़ी और जनाधारविहीन योद्धाओं की एक पूरी फ़ौज़ राहुल के आसपास जमा हो गई है।पांच, राहुल और प्रियंका पूरे तन-मन से भारत के चिरंतन मूल्यों को बचाने में दिन-रात लगे हैं, अपना काम पूरी शिद्दत और ईमानदारी से कर रहे हैं। लेकिन रणनीतिकारों की अनुभवहीन कूदफांद ने डेढ़ दशक से इच्छित नतीजों को परे ढकेल रखा है।इन पांच घटकों के संशोधित-पंचामृत का पान अगर राहुल-प्रियंका करना शुरू कर दें तो कांग्रेस का स्वास्थ्य बेहतर हो जाएगा। सब को सन्मति दे भगवान! (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।)</p></div></div></div></div>Pankaj Sharmahttp://www.blogger.com/profile/13850757662593978128noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5241910265090719926.post-86169199088363491262021-08-21T03:47:00.000-07:002021-08-21T03:47:05.575-07:00संसद, संगम और सरहद की संवेदना का सरगम<p><br /></p><header class="entry-header alignwide" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif; margin: auto; max-width: 100%; padding: 0px 15px;"><div class="article-info" style="align-items: center; border-bottom: 1px dotted rgb(0, 0, 0); box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: row wrap; font-size: 13px; margin-bottom: 10px; padding: 20px 0px; place-content: center space-between;"><div class="article_inner" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex;"><div class="post-autor-sr" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; margin-right: 35px; position: relative;"><span class="author-img" style="box-sizing: border-box; padding-right: 10px;"><img alt="" class="avatar avatar-96 photo lazyloaded" data-ll-status="loaded" height="96" loading="lazy" sizes="(max-width: 96px) 100vw, 96px" src="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg" srcset="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg 96w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-150x150.jpg 150w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-250x250.jpg 250w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-100x100.jpg 100w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-24x24.jpg 24w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-48x48.jpg 48w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-300x300.jpg 300w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma.jpg 400w" style="border-radius: 50px; border-style: none; box-sizing: border-box; display: block; height: 30px; max-width: 96px; width: 30px;" width="96" /></span><span style="box-sizing: border-box;"><a href="https://www.nayaindia.com/author/pankaj" style="box-sizing: border-box; color: black; text-decoration-line: none; text-transform: capitalize;">By पंकज शर्मा</a></span></div><div class="post-date-sr" style="box-sizing: border-box; margin-right: 35px; position: relative;">February 13,2021</div><div class="post-count-sr" style="box-sizing: border-box; margin-right: 35px; position: relative;"><br /></div></div></div></header><div class="entry-content" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif;"><div class="news_two_block" style="box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; justify-content: space-between;"><div class="news" id="news" style="align-items: baseline; box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: column nowrap; max-width: 1230px; padding-left: 15px; padding-right: 15px; place-content: stretch flex-start; width: 861px;"><figure class="post-thumbnail" style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; margin: 20px 0px 25px; padding: 0px; text-align: center; width: 831px;"><br /></figure><div class="news_main_container" style="box-sizing: border-box; max-width: 100%; text-align: justify;"><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">माघ महीने के कृष्ण पक्ष की इस अमावस्या को घटी दो घटनाओं ने भारतीय राजनीति में जनतंत्र की चिरंतन पूर्णिमा के चांद की कांति बढ़ाने का काम किया है। और, उसी दिन घटी एक घटना ने अमावस की कालिमा को और गहरा कर दिया है। कई बार घटनाएं जब घटती हैं, उनका रेखांकन उस वक़्त ठीक से नहीं हो पाता है। बल्कि बहुत बार उन्हें जानबूझ कर दिमाग़ों से बाहर हकाल दिया जाता है और तब यह अहसास ही नहीं होता है कि वे कितने गहरे तक पैठ गई हैं। यह तो जब समय आने पर उनकी परछाईं दनदनाती हुई लौटती है, तब पता चलता है कि बीज बरगद कैसे बनते हैं!</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">इस बृहस्पतिवार को मौनी अमावस्या थी। उस दिन सियासी पूनम का ओज चौगुना करने वाला काम राहुल गांधी ने संसद में किया। लोकसभा में बजट पर होने वाली बहस में हिस्सा लेते हुए उन्होंने सरकार को आग़ाह किया कि वह किसान आंदोलन की अनदेखी कर के बड़ी भूल कर रही है और अब यह आंदोलन सिर्फ़ किसानों का नहीं रह गया है, पूरे देश का आंदोलन बन गया है। बहुत पुरज़ोर तरीके से यह मसला उठाने के बाद राहुल ने किसान आंदोलन में प्राण गंवाने वाले दो सौ से ज़्यादा किसानों को श्रद्धांजलि देने के लिए सबसे खड़े हो कर मौन रखने का आग्रह किया। विपक्ष के सदस्य खडे हुए। सत्तापक्ष के बैठे रहे। न सिर्फ़ बैठे रहे, शोर मचा कर श्रद्धांजलि का विरोध करते रहे। यह तसवीर मुल्क़ के मन पर चस्पा हो गई है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">लोकसभा अध्यक्ष की शक़्ल पर किंकर्तव्यविमूढ़ता के भाव थे। उसके बाद वे विपक्ष पर कम, सत्ता पक्ष पर ज़्यादा झल्लाते। फिर उन्होंने विपक्ष की तरफ़ मुख़ातिब हो कर कहा कि अगर सदन में किसी को श्रद्धांजलि देनी है तो बेहतर होता कि उनसे आग्रह किया जाता और वे फ़ैसला लेते। मगर राहुल अपना काम कर चुके थे। जब ढाई महीने में सरकार को किसानों की आह सुनाई तक नहीं दी तो राहुल भी और क्या करते? चार दशक से पत्रकार के नाते मैं संसद की कार्यवाही कवर कर रहा हूं। मैं ने तो ऐसी अद्भुत आदरांजलि संसद में पहली बार देखी। आप राहुल की इस संवेदना को सियासी कह सकते हैं, मगर जब कोई सरकार मृतात्माओं को श्रद्धांजलि देने में भी भेदभाव की नीयत से काम लेने लगे तो संसदीय परंपराओं की याद दिलाने के लिए हुए ऐसे हस्तक्षेप का स्वागत किया जाना चाहिए। संसद में राहुल समेत समूचे विपक्ष का मौन, आप देखना, वक़्त आने पर, पूरे देश का मौन ऐसे तोड़ेगा कि उसके शोर के बहाव में सारा कूड़-करकट बह जाएगा।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">भारतीय राजनीति को एकलवाद के पंजे से मुक्त कराने के अभियान की दूसरी अहम घटना मौनी अमावस को प्रयाग के संगम पर घटी। वहां प्रियंका गांधी ने स्नान की डुबकी लगा कर अपने दाहिने हाथ की कलाई से लिपटी रुद्राक्ष की माला के साथ जब अंजुरी भर कर अर्ध्य सूर्य भगवान को चढ़ाया तो जैसे एक नई रश्मि-रथी ने आकार लिया। उस समय छह ग्रह-शनि, बृहस्पति, सूर्य, शुक्र, बुध और चंद्रमा-मकर राशि में थे। ऐसा 59 साल बाद हो रहा था। काल-गणना के मर्मज्ञ इसका महत्व बेहतर जानते हैं। मगर हिमालय की गुफ़ा में बैठे एक चरम-सियासी व्यक्ति की तपस्या-मुद्रा पर उछल-कूद मचाने वाले, प्रियंका के संगम-स्नान में, अध्यात्म का दर्शन करने वाली आंखें भला कहां से लाएंगे? इस प्रतीक-आचमन के जल की बूंदों ने जन-मन को किस तरह भिगो दिया है, इसका अंदाज़ नकारात्मक सियासत के अनुचरों को अगले बरस चैत्र की नवरात्रि में होगा। तब उत्तर प्रदेश की विधानसभा के लिए चुनाव प्रचार पूरे उफ़ान पर पहुंच चुका होगा।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">आसमान को और धूसर बना देने वाला एक कारनामा भी इस मौनी अमावस को हुआ। हुंकार भर-भर कर, ताल ठोक-ठोक कर और भुजाएं फड़फड़ा-फड़फड़ा कर दूसरों के घर में घुस कर मारने वाले, अपने घर की ज़मीन ख़ुद-ब-ख़ुद हवाले करने के लिए, इस बृहस्पतिवार को ख़ामोशी का काला कंबल ओढ़ कर चीनी-चंपू बन गए। उन्होंने भारत-चीन सरहद पर पेंगोंग में तैनात भारतीय फ़ौज को फ़िंगर-4 से फ़िंगर-3 पर लौटने को कह दिया। कैलाश पर्वत श्रेणी की ऊंचाइयों से भी सेना को नीचे आने का हुक़्म दे दिया। उन सैन्य विशेषज्ञों की कौन सुनता, जो कहते रहे कि कैलाश पर्वत श्रेणी को खाली कर देना 55 साल पहले हुई उसी भूल की तरह साबित होगा, जो हमने हाज़ी पीर के दर्रे से वापस आ कर की थी। हमारे भले-मानुस प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री तब पाकिस्तान के अयूब ख़ान की बातों से सोवियत-मध्यस्थ कोसिगिन की मौजूदगी में क्यों मुतमईन हो गए थे, कौन जाने? मगर आज के हमारे खाड़कू प्रधानमंत्री चीन के सामने क्यों नतमस्तक हो गए, वे ही जानें! बहरहाल, चीन से हमारे सीमा विवाद के इस शोक-पत्र की इबारत का नश्तर भी भारतमाता के दिल में भीतर तक उतर गया है। समय आने पर क्या इस दर्द की हूक उठे बिना रह पाएगी?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">इसलिए इस बार की मौनी अमावस के सुख-दुख की टहनियों पर अगले तीन-साढ़े तीन बरस में लगने वाले पत्तों पर निग़ाह रखिएगा। इन फुनगियों पर खिलने वाले फूलों के रंगों की मीमांसा मन-ही-मन करते रहिएगा। फूल तो जूही के भी उगेंगे और कनेर के भी, गुड़हल के भी उगेंगे और धतूरे के भी। क्योंकि बीज तो दोनों ही क़िस्म के बोए गए हैं। तय तो हमें-आपको करना होगा कि हम किन फूलों से किसका कैसा श्रंगार करेंगे। जो संसद, संगम और सरहद के मसलों को सामाजिक संवेदनाओं का हिस्सा मानने को तैयार नहीं हैं, वे भोले-भाले नहीं हैं, लोकतंत्र के लंपट हैं। उनकी चले तो जम्हूरियत के सारे लिबास तार-तार कर दें। उनकी चले तो प्रजातंत्र की सिसकियों को पूरी तरह दफ़न कर दें। वे इसीलिए तिलमिलाए हुए हैं कि उनकी पूरी तरह चल नहीं पा रही है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">कुछ सवाल ऐसे हैं, जो पूरा देश अपने आज के हुक़्मरानों से करना चाहता है। मुल्क़ इंतज़ार कर रहा है कि उसका सामना एक रोज़ तो अपने सुल्तानों से होगा ही। और, जिस दिन यह होगा, वह क़यामत का दिन होगा। उस दिन सारी रूहें अपनी-अपनी क़ब्रों से बाहर आएंगी। उस दिन सभी को हश्र के मैदान में जाना होगा। उस दिन सभी के आमाल तोले जाएंगे। उस दिन नेकियों और ग़ुनाहों का हिसाब होगा। उस दिन वक़्त करवट लेगा। सो, इस करवट की अग्रिम अंगड़ाइयों पर जो ग़ौर नहीं कर रहे हैं, वे किसी और को नहीं, स्वयं को गफ़लत में रख रहे हैं।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">रात-दिन ‘चित्रगोटी, मिट्ठू-मिट्ठू, राम-राम’ रटते रहने वाले अपने पिंजरों को सोने का भले बनवा लें, मगर खुले आसमान का उछाह उन्हें क्या मालूम? तरह-तरह के कुतर्कों के सहारे भारतीय समाज को पलटन में तब्दील कर उसका एकमार्गीकरण करने की जो कोशिशें पिछले साढ़े-छह सात साल में हुई हैं, वे हमारे लोकचरित मानस के पन्नों पर बदनुमा दाग़ हैं। ये धब्बे धोने का उपक्रम अगर अब भी आरंभ नहीं हुआ तो हमारी आने वाली पीढ़ियां ऐसे उपनिषदों का अध्ययन कर अपनी राहें तय करेंगी, जिनमें लोकाचार, राज्य-व्यवस्था, नेतृत्व-गुण और राजधर्म के विलोम पाठ दर्ज़ होंगे। ऐसा हुआ तो कहीं अयोध्यावासी ‘कौन दिशा में ले के चला रे बटोहिया’ गुनगुनाते-गुनगुनाते सोने की लंका के पीछे तो नहीं चल पड़ेंगे? अगर आपको इसकी चिंता नहीं है तो आराम से चादर तान कर सोते रहिए। लेकिन अगर आपको भीतर से कोई फ़िक्र कचोट रही है तो अलार्म को बार-बार बंद मत कीजिए और बिछौना छोड़ कर उठ खड़े होइए। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।)</p></div></div></div></div>Pankaj Sharmahttp://www.blogger.com/profile/13850757662593978128noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5241910265090719926.post-31298393246422785922021-08-21T03:44:00.007-07:002021-08-21T03:44:53.405-07:00 मुक्ति-वाहिनियों को पुनर्नमन का समय<p> </p><header class="entry-header alignwide" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif; margin: auto; max-width: 100%; padding: 0px 15px;"><div class="article-info" style="align-items: center; border-bottom: 1px dotted rgb(0, 0, 0); box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: row wrap; font-size: 13px; margin-bottom: 10px; padding: 20px 0px; place-content: center space-between;"><div class="article_inner" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex;"><div class="post-autor-sr" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; margin-right: 35px; position: relative;"><span class="author-img" style="box-sizing: border-box; padding-right: 10px;"><img alt="" class="avatar avatar-96 photo lazyloaded" data-ll-status="loaded" height="96" loading="lazy" sizes="(max-width: 96px) 100vw, 96px" src="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg" srcset="https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-96x96.jpg 96w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-150x150.jpg 150w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-250x250.jpg 250w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-100x100.jpg 100w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-24x24.jpg 24w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-48x48.jpg 48w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma-300x300.jpg 300w, https://www.nayaindia.com/wp-content/uploads/2021/06/pankaj-sharma.jpg 400w" style="border-radius: 50px; border-style: none; box-sizing: border-box; display: block; height: 30px; max-width: 96px; width: 30px;" width="96" />z</span><span style="box-sizing: border-box;"><a href="https://www.nayaindia.com/author/pankaj" style="box-sizing: border-box; color: black; text-decoration-line: none; text-transform: capitalize;">By पंकज शर्मा</a></span></div><div class="post-date-sr" style="box-sizing: border-box; margin-right: 35px; position: relative;">February 6,2021</div></div></div></header><div class="entry-content" style="box-sizing: border-box; font-family: Arial, sans-serif;"><div class="news_two_block" style="box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: row; justify-content: space-between;"><div class="news" id="news" style="align-items: baseline; box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: column nowrap; max-width: 1230px; padding-left: 15px; padding-right: 15px; place-content: stretch flex-start; width: 861px;"><figure class="post-thumbnail" style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; margin: 20px 0px 25px; padding: 0px; text-align: center; width: 831px;"><br /></figure><div class="news_main_container" style="box-sizing: border-box; max-width: 100%; text-align: justify;"><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">मरते रहें तो भी मारने के लिए हाथ नहीं उठाने की राह पर चलते रहना आसान नहीं होता है। शाहरुख ख़ान को बादशाह ख़ान समझने वालों में से पता नहीं कितनों को यह पता होगा कि 131 बरस पहले आज ही के दिन जन्मे असली बादशाह ख़ान तो ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान थे, जिन्होंने अपनी ज़िंदगी के 35 साल शांति से जेलों में गुज़ार दिए, मगर बलूचिस्तान के उबाल खाते ग़र्म पठानी ख़ून को दूसरों के रक्त का प्यासा नहीं बनने दिया। आज के आंदोलनों को बदनाम और बर्बाद करने की हर मुमकिन कोशिश करने वाले अगर सच्चे आंदोलनों का व्याकरण जानते होते तो उन्हें मालूम होता कि आंदोलनकारियों के अंतर्मन में कैसे हमेशा एक सरहदी गांधी मौजूद होता है, जो लंबी-से-लंबी लड़ाई को बिना विचलित हुए अहिंसक तरीके से जीतने का माद्दा रखता है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">दिल्ली की सरहद पर जो घट रहा है, क्या उसमें आपको लाखों-लाख सरहदी गांधी नज़र नहीं आ रहे? कारोबारी फ़ायदों से प्रेरित सियासती मसलों के विरोध की भावना में जब आध्यात्मिक पुट आ जाए तो महात्मा और सरहदी गांधी जन्म लेते हैं। आंदोलनों से हमेशा हिटलरों का ही जन्म नहीं होता है। आंदोलनों से नेल्सन मंडेला और मार्टिन लूथर किंग जूनियर भी जन्म लेते हैं। इसलिए जिन्हें रामचरित मानस की चौपाइयों का धर्म नहीं मालूम, जिन्हें गीता के श्लोकों का मर्म नहीं मालूम, जिन्हें गुरु ग्रंथ साहिब के सबद का अर्थ नहीं मालूम, जिन्हें क़ुरान की आयतों का पैग़ाम नहीं मालूम और जिन्हें बाइबल के पदों का पयाम नहीं मालूम; उन्हें तो हर सकारात्मक आंदोलन में भी बग़ावत की बू ही आएगी। उन्हें तो जनक्षोभ से उपजे हर अभियान के पीछे देसी-विदेशी साज़िशें ही दिखाई देंगी।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">इसलिए यह ख़ुदाई ख़िदमतगार की स्थापना की स्मृतियों को और पुख़्ता करने का वक़्त है। इसलिए यह लालकुर्ती आंदोलन की यादों को फिर ताज़ा करने का वक़्त है। इसलिए यह बच्चाख़ान के बच्चा मन के पुर्नअघ्ययन का समय है। इसलिए यह असहयोग आंदोलन के इतिहास को दोबारा पढ़ने का समय है। इसलिए यह रंगभेद और नस्लवाद के खि़लाफ़ हुए आंदोलनों के स्मरण का समय है। इसलिए यह मुक्ति-वाहिनियों के पुर्नअभिनंदन का वक़्त है। इसलिए यह तीसरी दुनिया के हक़ों को महफ़ूज़ रखने के लिए लड़ी गई राजनयिक लड़ाइयों के योद्धाओं को पुनर्नमन करने का समय है। इसलिए उनकी परवाह करना छोड़िए, जो षड्यंत्रों और रक्तपात से सने नकारात्मक आंदोलनों की उपज हैं। उनमें असहमतियों के सुरों की पावनता का संगीत सुनने का शऊर ही कहां है?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">42 बरस पहले इसी फरवरी महीने की शुरुआत में अटल बिहारी वाजपेयी भारत के विदेश मंत्री के नाते चीन की यात्रा पर गए थे। 1962 के चीन-भारत युद्ध के बाद किसी मंत्री की यह पहली चीन यात्रा थी। 1979 में फरवरी के दूसरे रविवार को वाजपेयी बीजिंग (तब पीकिंग) के लिए रवाना हुए और यात्रा के आठवें दिन जब केंटोन में थे तो चीन ने वियतनाम पर हमला कर दिया। इसके विरोध में वाजपेयी अपनी यात्रा अधूरी छोड़ उसी दिन फ़ौरन भारत लौट आए। दिल्ली में चीनी दूतावास के सामने कई दिन जंगी प्रदर्शन होते। क्या यह चीन के आंतरिक मामलों में हमारी दख़लंदाज़ी थी? क्या हम तिब्बत और शिंगज़ियांग के मसले उठा कर चीन के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करते हैं? क्या रंगभेदी नीतियों के विरोध में 40 साल तक राजनयिक संबंध न रख कर भारत ने दक्षिण अफ़्रीका के आंतरिक मामलों में दख़ल दिया था? क्या नाज़ी जर्मनी में यहूदियों से हुए बर्ताव का ज़िक्र कर हम जर्मनी के अंदरूनी मामलों में दख़ल देते हैं? क्या पाकिस्तान में हिंदुओं, सिक्खों, अहमदियों और ईसाइयों से हो रहे बर्ताव के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा कर हम पाकिस्तान के अंदरूनी मसलों पर बोल रहे हैं? क्या पश्चिमी पाकिस्तान द्वारा पूर्वी पाकिस्तान पर किए जा रहे ज़ुल्मों का विरोध कर भारत ने उसके आंतरिक मामले में हस्तक्षेप किया था? क्या हम नेपाल, श्रीलंका और मालदीव जैसे पड़ौसियों के आंतरिक मामलों में दख़लंदाज़ी करते रहे हैं?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">क्या हमारे हिंदू हृदय सम्राट ने ’अब की बार, ट्रंप सरकार’ की धुन पर ठुमका लगा कर अमेरिका के आंतरिक मामलों में दख़ल दिया था? मैं तो नहीं मानता कि भारत की सरकार या भारत के किसी नागरिक ने कभी भी किसी भी देश के भीतरी मसलों में दख़ल दिया हो। लेकिन अगर सच कहने का साहस किसी को अपने आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप लगता हो तो लगता रहे। यह तो नहीं चल सकता कि जब हम चाहें धरती को वैश्विक-गांव मान लें और जब चाहें, अपने निजी दड़बे में तब्दील कर लें। अगर हमारे सुख सार्वजनीन हैं तो हमारे दुःखों को भी सार्वजनीन होने का हक़ है। अगर हम अपने सार्वजनीन आनंद का उत्सव मनाने की उम्मीद सारे संसार से करते हैं तो हमें हमारे सार्वजनीन ग़मों पर एकाध आंसू बहाने का हक़ भी तो दुनिया को देना होगा। इसलिए हमें रिहाना और ग्रेटा थनबर्ग की भावनाओं के पीछे टूल-किट और लता मंगेशकर और सचिन तेंदुलकर की टिप्पणियों के पीछे अटूट देशभक्ति का दर्शन कराने वालों से सावधान रहना सीखना भी बहुत ज़रूरी है।</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">पहले कभी-कभी लगता था, अब रोज़-रोज़ लगता है कि मेरा जनम अमोल भले ही नहीं था, लेकिन जा तो कौड़ियों के बदले ही रहा है। वे सचमुच पराक्रमी होते हैं, जो सियासत की डोरियों का संचालन करते हैं। मैं तो उनमें हूं, जिनसे यह सियासत देखी भी नहीं जा रही। जिनके लिए राजनीति का कीचड़ ही उनका स्वर्ग है, मैं उन्हें दाद देता हूं। इतने बहरे कानों, इतनी अंधी आंखों, इतनी गेंडा-चमड़ी, इतने सूखे दिल और इतने बट्ठर दिमाग़ का बोझ ले कर जीना और मुस्कराते हुए जीते चले जाने का आसुरीपन सौभाग्य की श्रेणी में आता है कि दुर्भाग्य की, आप ही बताइए? जिनकी राह में दुआओं के नहीं, बद्दुओं के ही दीप जलते पाए जाएं, उन्हें आप ख़ुशक़िस्मत मानेंगे या बदक़िस्मत? इतनी माथाफोड़ी के जीवन में ही जिन्हें रस मिलता है, उनका अभिवादन करें कि उन्हें लानत भेजें, आप ही बताइए? जिन्हें सुकून ही ढाई घर की चाल चलने में मिलता है, पिछले कुछ बरसों से उनकी बनाई दुनिया, सच बताइए, आपको कितनी रास आ रही है?</p><p style="-webkit-font-smoothing: antialiased; box-sizing: border-box; font-size: 18px; line-height: 35px; margin: 0px 0px 20px; padding: 0px;">मैं चाहता हूं कि उन परिंदों पर लिखूं, जिनकी चहचहाट मैं बचपन में सुनता था। मैं चाहता हूं कि उन सुरीली धुनों पर लिखूं, जिन्हें किशोर-वय में मैं गुनगुनाता था। मैं चाहता हूं कि उन रूमानी दिनों पर लिखूं, जो मैं ने युवावस्था में गुज़ारे। मैं चाहता हूं कि उन बाड़ियों और अमराइयों पर, ताल और नदियों पर, झीलों और झरनों पर, टेकरियों और परबतों पर, मेड़ों और पगडंडियों पर लिखूं, जिनसे हो कर इस ज़िंदगी में गुज़रा हूं। मगर सात बरस से इन सब पर लिखने को तरस गया। ज़िंदगी के इस चिरंतन हुस्न की वे ओस-बूंदें हमेशा की तरह अब भी दिलक़श हैं, मगर लौट आती है इधर को भी नज़र, क्या कीजे! प्रभु से रोज़ यही मांगता हूं कि जल्दी वह समय लाएं कि मेरी क़लम हर सप्ताह सियासी कचड़कांध पर चलने से मुक्ति पाए और उसकी स्याही से शाश्वतता का श्रंगार आरंभ हो! आप भी मेरे लिए यही दुआ कीजिए। सचमुच बहुत उकता गया हूं। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।)</p></div></div></div></div>Pankaj Sharmahttp://www.blogger.com/profile/13850757662593978128noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5241910265090719926.post-88241007685891742552021-01-30T01:59:00.004-08:002021-01-30T01:59:13.965-08:00 भृतक-मीडिया के भुक्खड़ उचक्के और किसान<p> <a href="https://www.nayaindia.com/guest-columnist/farmer-protest-and-media-modi-government-130962.html" style="box-sizing: border-box; color: #555555; font-family: Roboto, sans-serif; font-size: 14px; opacity: 0.8; text-decoration-line: none;" title="भृतक-मीडिया के भुक्खड़ उचक्के और किसान">January 30, 2021</a><span style="color: #555555; font-family: Roboto, sans-serif; font-size: 14px;"> </span></p><p><span style="color: #555555; font-family: Roboto, sans-serif; font-size: 14px;"> </span><a href="https://www.nayaindia.com/author/pankaj" style="box-sizing: border-box; color: #555555; font-family: Roboto, sans-serif; font-size: 14px; opacity: 0.8; text-decoration-line: none;">Pankaj Sharma</a></p><p><br /></p><div class="entry-content" style="box-sizing: border-box; color: #555555; font-family: Roboto, sans-serif; font-size: 15px;"><p style="box-sizing: border-box; line-height: 30px; margin-bottom: 20px; margin-top: 0px;">यह दिसंबर 2020 के तीसरे शनिवार की बात है। भारत के किसान आंदोलन के समर्थन की आड़ में वाशिंगटन में भारतीय दूतावास के पास लगी महात्मा गांधी की प्रतिमा को कुछ तत्वों ने नुक़सान पहुंचाया और खालिस्तान ज़िंदाबाद के नारे लगाए तो श्वेत-भवन की तरफ़ से प्रेस सचिव कैली मैकेनी ने बयान ज़ारी किया कि शांति, न्याय और स्वतंत्रता के पुजारी का अपमान क़तई बरदाश्त नहीं किया जाएगा। पिछले साल जून में एक अश्वेत जॉर्ज फ्लायड की पुलिस के हाथों हुई मौत के बाद भी गांधी की इस प्रतिमा को कुछ लोगों ने बेसबब तोड़ डाला था।</p><p style="box-sizing: border-box; line-height: 30px; margin-bottom: 20px; margin-top: 0px;">वाशिंगटन में गांधी-प्रतिमा और दिल्ली में लालकिले की पवित्रता इसलिए एक-सी है कि वे उन मूल्यों के प्रतीक के तौर पर देखे जाते हैं, जिनका ताल्लुक हमारी आज़ादी से है। इसलिए प्रतीकों का अपमान भारत के शाश्वत मूल्यों की अवमानना है। इस नाते लालकिले पर इस गणतंत्र दिवस को तिरंगे के अलावा कोई और झंडा नहीं लहराया जाता तो बेहतर होता। इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है कि वह झंडा सिखों का पावन ‘निशान साहिब’ था या कुछ और। इससे भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है कि उसे लहराते वक़्त मन में कौन-सा जज़्बा हिलोरें ले रहा था। फ़र्क़ सिर्फ़ इस बात से पड़ता है कि जब हमारा मन अपनी हुक़ूमत के रवैए पर क्षोभ, कुंठा और गुस्से से बलबला रहा हो, तब भी हमने मर्यादाओं का पालन किया या नहीं। सरकारें राजधर्म की मर्यादा से बाहर चली जाएं, कोई बात नहीं; मगर जनता को प्रजा-कर्तव्य की लक्ष्मणरेखा का दायरा इत्ता-सा भी नहीं लांघना चाहिए।</p><p style="box-sizing: border-box; line-height: 30px; margin-bottom: 20px; margin-top: 0px;">यह वह युग नहीं है, जब हमारे पत्रकारीय संसार में दीन-ईमान हुआ करता था। आज मीडिया की दुनिया उचक्कों के हाथ में चली गई है। इक्कादुक्का को छोड़ कर मुख्यधारा मीडिया के तमाम चेहरों से गलाज़त का ऐसा मवाद टपक रहा है, जिसे धोने के लिए हमें उस वैषाख के शुक्ल पक्ष की सप्तमी का इंतज़ार करना होगा, जब कोई भगीरथ अपनी तपस्या से गंगा को अवतरित होने के लिए राज़ी कर ले। जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक हम उस गिद्ध-मंडली के बीच रहने को मजबूर हैं, जो मौक़ा मिलते ही अपने चोंच-पंजे लिए भुक्खड़ों की तरह सब कुछ चीथड़ा-चीथड़ा करने के लिए टूट पड़ेगी। आपने देखा न कि बित्ते भर का बहाना मिलते ही मीडिया-जमींदार जानबूझ कर यह भूल गए कि 64 दिनों से किसान कितने संयम, धैर्य और शांति से सरकारी और कुदरती मौसम के बर्फ़ीलेपन को झेल रहे थे।</p><p style="box-sizing: border-box; line-height: 30px; margin-bottom: 20px; margin-top: 0px;">चौथे स्तंभ के अर्थवान टुकड़े-टुकड़े एकजुट रह कर अपनी फ़र्ज़ अदायगी न करते रहते तो हमारे प्रजापालकों ने तो बागड़ खाने में कोई कोताही बाकी रखी ही नहीं थी। राज्य-व्यवस्था के भृतक-मीडिया ने मुद्दे की बात उठाने वाले हर एक को देशद्रोही होने का प्रमाणपत्र जारी करने का जैसा धंधा छह-सात साल से शुरू किया है, वैसा तो अंग्रेजों के ज़माने में भी नहीं था। होता तो बंगाल में नील पैदा करने वाले किसान लड़ पाते? पाबना के किसानों की कोई सुनता? तेभागा के किसानों का क्या होता? केरल में मोपला के किसान कहां जाते? बिहार के चंपारण में गांधी कुछ कर पाते? गुजरात के बारदोली में सरदार वल्लभ भाई पटेल कैसे कामयाबी पाते? सो, सिंघू, टीकरी और गाज़ीपुर इसलिए रेखांकित किए जाने चाहिए कि अनुचर-मीडिया के ज़रिए हमारे हुक़्मरानों द्वारा किए गए दंद-फंदों के बावजूद किसानों ने ददनी-प्रथा के सामने हारने से अंततः इनकार कर दिया। उन्होंने तिनकठिया पद्धति के पुनर्जन्म की आशंकाओं के रास्ते में ठोस अवरोध खड़ा कर दिया।</p><p style="box-sizing: border-box; line-height: 30px; margin-bottom: 20px; margin-top: 0px;">जिन्हें नहीं मानना है, उन्हें कौन मनवा सकता है, मगर सच्चाई यही है कि किसान-आंदोलन ने पूरे भारतीय समाज के अंतर्मन को झकझोर कर रख दिया है। अपने सहचर-पूजीपतियों की मंशाओं पर फिर रहा पानी सुल्तान की सुल्तानी को नागवार गुज़र रहा है। वरना इतने ज़िद्दड़ तो यूरोपीय बाग़ान मालिकों की नुमाइंदगी करने वाले फर्ग्यूसन भी नहीं थे कि नील-किसानों पर ज़रा-सा भी रहम न खाएं। उन दिनों के एश्ली ईडन और हर्शेल जैसे अंग्रेज़ ज़िलाधिकारियों के तो नाम भी आज के कारकूनों को मालूम नहीं होंगे। अगर होते तो अपने सलामी शस्त्रों पर उन्हें यह सोच कर शर्म आ रही होती कि परायों की तुलना में वे अपने ही किसानों के आंसुओं की कितनी बेशर्मी से अनदेखी कर रहे हैं।</p><p style="box-sizing: border-box; line-height: 30px; margin-bottom: 20px; margin-top: 0px;">उस तोता-मैना युगल की कहानी जिन्होंने पढ़ी है, वे जानते हैं कि कैसे उल्लू द्वारा एक रात की दावत के फेरे में फंस कर तोता अपनी मैना को तक़रीबन गंवा बैठा था और फिर कैसे उल्लू ने उन्हें समझाया कि बस्ती में वीरानी तब नहीं आती, जब वहां उल्लू आ कर बस जाते हैं, बल्कि तब आती है, जब इंसाफ़ फ़ना हो जाता है। संवैधानिक न्याय चूंकि दरकता जा रहा है, ईश्वरीय न्याय की गुंज़ाइश बढ़ती जा रही है। इसलिए हमने देखा कि जब राज्य के सारे अस्त्र किसानों पर एकतरफ़ा प्रहार कर रहे थे तो किस तरह आंसुओं ने नए सैलाब को जन्म दे दिया। प्राकृतिक आपदाएं तो किसान की हमसफ़र हैं। उनसे तालमेल बिठा कर, लड़-झगड़ कर जीवन जीना वह जानता है। लेकिन अप्राकृतिक सियासी आपदाओं से दो-दो हाथ करने की सिफ़त का काइयांपन चूंकि किसानों में नहीं होता है, सो, वह चूक जाता है। लेकिन यही वह समय होता है, जब एकाएक कहीं दूर से ‘अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मनं सृज्याम्यहम’ का बिगुल बजने लगता है।</p><p style="box-sizing: border-box; line-height: 30px; margin-bottom: 20px; margin-top: 0px;">आपको तो सुनाई दे ही रहा होगा, मगर, जो अपने कानों में रुई ठूंसे बैठे हैं, वे भी अगर ध्यान से सुनेंगे, तो उन्हें भी उलटी गिनती का नाद-स्वर ठीक से सुनाई देने लगेगा। अपनी राजनीतिक दीर्घजीविता को सुनिश्चित करने के चक्कर में नरेंद्र भाई मोदी समूची भारतीय जनता पार्टी के अल्पायु-योग को लगातार मज़बूत कर रहे हैं। उनके किए की आंच से अब भाजपा का पितृ-संगठन भी झुलसने लगा है। जैसे, अगर नरेंद्र भाई के राजनीतिक दर्शन में उनके लंगोटिया-साझीदार डॉनल्ड ट्रंप दोबारा अमेरिका के राष्ट्रपति बन जाते तो उनकी सियासी-ज़िंदगी भले ही थोड़ी और लंबी हो जाती, मगर रिपब्लिकन पार्टी आने वाले चार बरस में अपना आधार बुरी तरह खो देती; उसी तरह, पिछले साल की गर्मियों में हुए चुनावों से नरेंद्र भाई की राजनीतिक पारी ज़रूर लंबी हो गई है, लेकिन उसके बाद से भाजपा के प्रति लोगों का भाव-आधार लगातार भुरभुरा होता जा रहा है। सो, अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के भीतर यह खदबदाहट तेज़ होती जा रही है कि नरेंद्र भाई की राजकाज-शैली को आयुष्मान भवः कहें या भारतीय समाज में स्वयं की सांगठनिक जड़ें पिलपिली होने से बचाएं!</p><p style="box-sizing: border-box; line-height: 30px; margin-bottom: 20px; margin-top: 0px;">मेरी यह बात आपको अजीब लगेगी, मगर इसे गांठ बांध लीजिए कि मौजूदा सत्ताधीशों की राजनीति का अंतःप्रवाह जिस दिशा में जा रहा है, उससे उभर रही तसवीर में नरेंद्र भाई मोदी 2022 के स्वतंत्रता दिवस पर लालकिले पर तिरंगा लहराते दिखाई नहीं दे रहे हैं। वे 2024 में भाजपा के चुनाव-सारथी की भूमिका में नज़र नहीं आ रहे हैं। उन्होंने पिछला चुनाव जीतने के फ़ौरन बाद भाजपा के नवनिर्वाचित सांसदों की बैठक में 10 अगस्त 2019 को ही कह दिया था कि 2024 के लिए वे अभी से ख़ुद मेहनत करें और उनके नाम-काम के संदर्भ पर अब निर्भर न रहें। वे हर अहम काम 2022 के मध्य तक पूरा कर लेने की हड़बड़ी में यूं ही नहीं हैं। वे मुझे 2022 की जुलाई में राष्ट्रपति भवन जाते दीख रहे हैं। संघ-भाजपा के बस्ते में उनसे निज़ात पा कर ख़ुद सलामत रहने का इससे न्यूनतम साझा कार्यक्रम और क्या हो सकता है? </p></div>Pankaj Sharmahttp://www.blogger.com/profile/13850757662593978128noreply@blogger.com0