tag:blogger.com,1999:blog-52419102650907199262024-02-08T02:15:43.457-08:00पंकज शर्माPankaj Sharmahttp://www.blogger.com/profile/13850757662593978128noreply@blogger.comBlogger2125tag:blogger.com,1999:blog-5241910265090719926.post-41149573954101334172009-10-08T10:04:00.000-07:002009-10-08T10:07:41.815-07:00राम-राज्य के स्वयंभू संस्थापक के बारे मेंदो साल पहले चंद्रास्वामी ने ऐलान किया था कि अब उनका तन-मन-धन श्रीराम सेतु की रक्षा के लिए अर्पित है। वह 2007 के मार्च का आखिरी बुधवार था और चंद्रास्वामी बनारस में दोपहर ढाई बजे केदारघाट के विद्या मठ में शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती के कमरे में घुस कर सवा तीन बजे बाहर आए। बातचीत का मुद्दा था कि रामेश्वरम के श्रीराम सेतु को कैसे बचाया जाए? अरसे बाद चंद्रास्वामी को फिर चौधराहट करने का बहाना मिला गया था। अपने को हमेशा किसी-न-किसी तरह सुर्खियों में बनाए रखने के लिए छटपटाते रहने वाले चंद्रास्वामी ने श्रीराम सेतु की रक्षा के लिए इन दो सालों में क्या किया, यह तो वे जानें, लेकिन जानने वाले इतना ज़रूर जानते हैं कि अब वे फिर मंच की तमाम रोशनियों का रुख अपनी तरफ़ करने का कोई मौका तलाश रहे हैं।<br /><br />श्रीराम सेतु की बात मैं फिर कभी करूंगा। अभी चंद्रास्वामी की बात करें। मैं चंद्रास्वामी से डेढ़-दो दशक पहले सिर्फ एक बार मिला हूं। दिल्ली से मुंबई जा रही उड़ान के दौरान चंद्रास्वामी के एक नजदीकी पत्रकार ने मेरा परिचय उनसे कराया था। चंद्रास्वामी उस जमाने में आसमान पर उड़ रहे थे और उनके आश्रम में जाने वालों की लंबी कतार रहा करती थी। उन्होंने मुझ से भी किसी दिन अपने आश्रम आने को कहा, लेकिन मुझे उनके पास जाने की कभी इच्छा नहीं हुई। इसलिए अब जब चंद्रास्वामी को देश में राम-राज्य की स्थापना का फितूर फिर सवार हुआ है, आपको यह याद दिलाना जरूरी है कि उनका कोई भी सामाजिक-धार्मिक अभियान राजनीतिक कोण रखे बिना कभी शुरू होता ही नहीं है। राम जन्मभूमि आंदोलन के दौरान जिन्होंने चंद्रास्वामी की भूमिका पर गहराई से निगाह रखी होगी, वे जानते होंगे कि भगवा वस्त्रों से लिपटी इस काया की खोपड़ी किस कदर राजनीति में पगी हुई है। चंद्रास्वामी की समर्थक शक्तियां भले ही अब वैसी मजबूत नहीं हैं, भले ही अब देश में ऐसा प्रधानमंत्री नहीं है, जिसके घर में उनकी कार बेरोक-टोक कभी भी घुस जाए और भले ही चंद्रास्वामी का अंतरराष्ट्रीय जलवा अब वैसा नहीं रहा है, मगर मौका मिलते ही गुलाटी खाने का जज्बा अब भी चंद्रास्वामी में उसी तरह बरकरार है। ज्योतिष और तंत्र विद्या के आधे-अधूरे जानकार चंद्रास्वामी अपने सितारों की चाल बदलने को बेताब हैं।<br /><br />मैं नहीं जानता कि चंद्रास्वामी ने राजीव गांधी की हत्या के लिए इस्राइल के एक भाड़े के हत्यारे को दस लाख डॉलर देने की पेशकश की थी या नहीं? मैं नहीं जानता कि हैरॉड्स पर कब्जे को ले कर जब मुहम्मद अल फयाद और टोनी रॉलैंड के बीच तलवारें खिंची हुई थीं तो चंद्रास्वामी ने रॉलैंड को कैसे काबू किया था? मुझे यह भी नहीं मालूम कि तब चंद्रास्वामी ने रॉलैंड से बातचीत टेप की थी या नहीं और ये टेप तब के बेहद बदनाम बैंक बीसीसीएल की मोंटे कार्लो शाखा के लॉकर में छुपा कर रखे थे या नहीं? मुझे यह भी पता नहीं कि बोफोर्स कंपनी के मुखिया मॉर्टिन आर्डबो से मिल कर चंद्रास्वामी ने उनसे यह कहा था या नहीं कि वे उन्हें बु्रनेई का सलाहकार बनवा सकते हैं और इसके बदले में चंद्रास्वामी आर्डबो से क्या चाहते थे? मैं यह भी नहीं कह सकता हूं कि दो दशक पहले ज्ञानी जैल सिंह को दोबारा राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ऩे के लिए चंद्रास्वामी ने उन्हें चालीस करोड़ रुपए देने का प्रस्ताव रखा था या नहीं? जब मुझे यह सब नहीं मालूम तो फिर यह मालूम होने का तो सवाल ही नहीं है कि नागार्जुन सागर स्रेयाप आयरन स्केंडल में क्या चंद्रास्वामी को महज 23 साल की उम्र में ही न्यायिक हिरासत में रहने का सौभाग्य मिल गया था?<br /><br />पामुलपर्ति वेंकट नरसिंह राव राजनीति में कितने बड़े संत थे, ये बाकी संत जानते होंगे। मैं तो इतना जानता हूं कि चंद्रास्वामी जैसे संत से उन दिनों नरसिंह राव को खासी ताकत मिलती थी और चंद्रास्वामी की सबसे बड़ी ताकत नरसिंह राव थे। राजस्थान के अलवर जिले के बहरोड़ गांव से चल कर नेमिचंद्र जैन कोई यूं ही चंद्रास्वामी नहीं बन गए। उनका परिवार आंध्र प्रदेश जा कर न बस गया होता और वहां नरसिंह राव से नेमिचंद का संपर्क न हुआ होता तो वे भी लाखों जटाधारियों की तरह रेलवे के किसी प्लेटफॉर्म पर पड़े होते। इसलिए चंद्रास्वामी का यह चमत्कार तो आपको मानना ही पड़ेगा कि ललित नारायण मिश्र, यशपाल कपूर, चरण सिंह, राजनारायण, जगजीवनराम, नानाजी देशमुख और देवीलाल तक कौन है, जिससे उन्होंने कभी न कभी अपनी शागिर्दी न कराई हो। एक जमाना था कि कुर्सी पाने के लिए और अपनी कुर्सी बचाने के लिए देश भर से अपने हवाई जहाज ले कर राजनेता चंद्रास्वामी के आश्रम में पहुंचते थे और हाथ जोड़े कतार में खड़े रहते थे। चंद्रास्वामी अब से तेरह-चौदह बरस पहले लंदन जाते थे तो ब्रिटेन के प्रधानमंत्री जॉन मेजर उनसे मिलने को उत्सुक रहा करते थे और श्रीचंद हिंदूजा से ले कर सरोश जरीवाला तक बिचौलिए की भूमिका अदा करते थे। दिनेश पांड्या जैसे किसी हीरा व्यवसायी के निजी निमंत्रण पर अगर चंद्रास्वामी बैंकाक पहुंच जाते थे तो थाइलैंड की सरकार के बड़े-बड़े मंत्री उनकी अगवानी के लिए विमानतल पहुंचने की होड़ लगाया करते थे। अब से दस बारह साल पहले तक किसी सोमचाई चाईश्री चावला के लिए यह हिम्मत करना महंगा पड़ जाता था कि वह चंद्रास्वामी को विश्वास में लिए बगैर कर्नाटक की सरकार के साथ दस अरब रुपए के सौदे का सहमति पत्र हासिल कर ले।<br /><br />मैंने चौदह साल पहले का वह वक्त नजदीक से देखा है, जब हमेशा हिम्मत से सराबोर रहने वाले राजेश पायलट ने चंद्रास्वामी को गिरफ्तार करने के निर्देश सीबीआई को दे दिए थे। नरसिंह राव प्रधानमंत्री थे। पायलट उनके आंतरिक सुरक्षा मंत्री थे। तब कानपुर की जेल में बंद बबलू श्रीवास्तव ने रहस्य उजागर किया था कि चंद्रास्वामी के दाऊद इब्राहीम से रिश्ते हैं। मुंबई में दाऊद के कराए बम विस्फोटों के बारूद की बदबू हवा में बाकी थी। बबलू का कहना था कि दीवान भाइयों--विपिन और संदीप—ने चंद्रास्वामी को दुबई में दाऊद से मिलवाया था और बाद में दाऊद ने ही चंद्रास्वामी को दुनिया के सबसे बड़े हथियार सौदागर अदनान खाशोगी से मिलवाया। जाहिर है कि 1995 के सितंबर महीने में तब हवा बेहद गर्म हो गई और पायलट ने सीबीआई से चंद्रास्वामी के खिलाफ कार्रवाई करने को कह दिया। चंद्रास्वामी के सबसे बड़े खैरख्वाह नरसिंह राव परेशान थे। चंद्रास्वामी अपने आश्रम में भीतर से सहमे और ऊपर से उबलते बैठे थे। मिलने वालों की कतार गायब थी। सितंबर के दूसरे सप्ताह के उस सूने शुक्रवार को नरसिंहराव का सिर्फ एक मंत्री चुपचाप चंद्रास्वामी से मिलने उनके आश्रम पहुंचा था। उस शुक्रवार की शाम आते-आते पायलट की गृह मंत्रालय से विदाई हो गई। उन्हें आंतरिक सुरक्षा की जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया गया और पर्यावरण मंत्रालय में भेज दिया गया। यह थी हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में संत-महात्माओं को सताने की सजा। शंकरराव चह्वाण गृह मंत्री थे। पायलट की गृह मंत्रालय से छुट्टी के बाद सीबीआई ने दिखाने के लिए दो-एक बार चंद्रास्वामी से पूछताछ की और बात आई-गई हो गई।<br /><br />इसलिए दो दशक से भी ज्यादा वक्त से हवा में तैर रहे कई सवाल आज भी जिंदा हैं। सवाल है कि अदनान खाशोगी से चंद्रास्वामी की दोस्ती कैसे हुई थी? खाशोगी जब दिल्ली आए तो चंद्रास्वामी के आश्रम में उनसे कौन-कौन मिलने गए थे? बु्रनेई के सुल्तान से चंद्रास्वामी की ऐसी गहरी दोस्ती क्यों हो गई थी? पामेला बोर्डेस किस्से की सच्चाई क्या थी? भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार में चंद्रास्वामी के किस-किस से क्या संबंध थे? इन तमाम सवालों के कुहासे में घिरे चंद्रास्वामी के राम-राज्य स्थापना अभियान से आपको चिंता होती हो या नहीं, मुझे तो होती है। चंद्रास्वामी भले कितने ही कमज़ोर हो गए हों, मेरे जैसों को तो वे अब भी चुटकियों में उड़ा सकते हैं। इसलिए अगर मेरी यह चिंता मेरे लिए मुसीबत बन जाए तो आप चिंता मत करना।Pankaj Sharmahttp://www.blogger.com/profile/13850757662593978128noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-5241910265090719926.post-40099282461402566432009-09-08T12:18:00.000-07:002009-09-08T12:21:22.385-07:00राजीव गांधी की विदेश नीति के पक्ष मेंप्रोफेसर-नुमा कुछ ऐसे लोग आपको आज भी मिल जाएंगे, जो समझते हैं कि हर मामले में उनकी राय ही अंतिम है, जो मूर्खों के स्वर्ग के रहवासी का दर्ज़ा छोड़ने को तैयार नहीं हैं, जिन्हें लगता है कि विदेश नीति के मामले में उनकी अनसुनी की वजह से देश का बहुत नुक़सान हो रहा है और जो सोचते हैं कि वे और सिर्फ़ वे ही अंतरराष्ट्रीय मामलों में भारत की नीतियों को क़ायदे की शक़्ल दे सकते हैं। अगर मुझे आला-दिमाग़ और लंबी ज़ुबान वाले ऐसे ही एक शख़्स से पिछले दिनों मुलाक़ात का मौक़ा न मिला होता तो मैं यह लेख लिखने की कभी गुस्ताख़ी नहीं करता। हमेशा फड़फड़ाते रहने की आदत वाला यह शख़्स मुझ पर इसलिए बुरी तरह बिगड़ गया कि मैंने उसकी यह टिप्पणी निगलने से इनकार कर दिया कि राजीव गांधी को विदेश नीति के मामलों में कुछ अता-पता नहीं था और जब वे प्रधानमंत्री थे तो भारत की विदेश नीति में स्थिर-भाव नहीं था।<br /><br />मैं मानता हूं कि मैं विदेश नीति का विषेषज्ञ नहीं हूं और अगर सक्रिय पत्रकारिता के अपने दिनों में मैंने विदेष मंत्रालय की रिपोर्टिंग की है तो इसका मतलब यह नहीं है कि मैं भारतीय विदेश नीति के किसी आइंस्टीन की तरह व्यवहार करने लगूं, जैसा कि सनकी और अंतरराष्ट्रीय संबंधों के स्वयंभू अधेड़ प्रोफेसर करते हैं। लेकिन मेरे लिए यह भी नामुमक़िन है कि जब कोई कहे कि राजीव गांधी विदेश नीति से अनजान थे तो मैं इस बात को गले उतार लूं।<br /><br />24 बरस पहले राजीव गांधी ने देश के सातवें प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ ली थी, 40 बरस की उम्र में वे भारत के युवतम प्रधानमंत्री थे और 542 सदस्यों वाली लोकसभा में कांग्रेस के 413 सांसदों की अभूतपूर्व जीत के नायक थे। राजीव गांधी ग़रीब-समर्थक उदार अर्थव्यवस्था, आधुनिक दूरसंचार उद्योग, शिक्षा-जगत के सुधारों और विज्ञान तथा तकनालॉजी क्षेत्र के विस्तार कार्यक्रम के शिल्पकार थे। वह दुनिया में दो मज़बूत वैचारिक धड़ों का ज़माना था और राजीव गांधी ने उस दौर में भारतीय विदेश नीति की सच्ची आत्मा को सुरक्षित रखने का काम किया था--उस आत्मा को, जिसका आधार था गुट-निरपेक्षता, शांति और निःशस्त्रीकरण।<br /><br />दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का प्रधानमंत्री बनने के छह महीने के भीतर ही राजीव गांधी दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र की यात्रा करने गए। 1985 की गर्मियों में बुधवार की एक चमकीली सुबह वे वाशिंगटन में उतरे। वह 12 जून का दिन था। राजीव गांधी गुट निरपेक्ष आंदोलन के बहुत मज़बूत नेता थे और अमेरिकी उनकी अगवानी के लिए बेहद उत्सुक थे। अमेरिकी राश्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने 1949 में हुई पंडित जवाहरलाल नेहरू की यात्रा को याद किया और राजीव जी को बताया कि किस तरह नेहरू जी ने अपनी उस यात्रा के दौरान कहा था कि भले ही हम एक-दूसरे के देशों के इतिहास और संस्कृति से वाकिफ़ हैं, लेकिन असली ज़रूरत इस बात की है कि हम एक-दूसरे को ठीक से समझे और एक-दूसरे के लिए सराहना का भाव रखें। रीगन ने कहा कि नेहरू जी ने तब अपनी या़त्रा को खोज की कोशिश कहा था और फिर राजीव जी की तरफ़ मुख़ातिब हो कर बोले कि और आपकी यह यात्रा आपसी खोज की उसी कड़ी को आगे बढ़ा रही है।<br /><br />राजीव जी भारत-अमेरिका संबंधों के हर पहलू के गहरे अध्येता थे। उन्होंने अमेरिकी व्यवस्था के अंतर्विरोधों को अपने तरीके से रीगन के सामने रखने का यह मौक़ा हाथ से नहीं जाने दिया। उन्होंने रीगन से कहाः ”जब मैं यहां आ रहा था तो विमान से मैंने थॉमस जैफरसन का स्मारक देखा, जिन्होंने बहुत ही ठोस और सादे शब्दों में कहा था कि सभी मनुष्य समान और स्वतंत्र बनाए गए हैं“। फिर पीछे अमेरिकी व्हाइट हाउस की तरफ़ एक नज़र डाल कर राजीव जी बोलेः “मेरे पीछे वह इमारत है, जो उन महान हस्तियों का घर रहा है, जो आपके देश को महान बनाने के सपने और ललक का प्रतीक रहे हैं। उनमें से एक अब्राहम लिंकन थे, जिनका कहना था कि कोई भी देश आधा गु़लाम और आधा आज़ाद नहीं रह सकता और आपस में बंटा हुआ कोई भी घर खड़ा नहीं रह सकता। हमारे दौर के सभी सयानों का कहना है कि आपस में खुद ही बंटा हुआ विश्व क़ायम नहीं रह सकता है।“ अब से चौथाई सदी पहले एक भारतीय प्रधानमंत्री का अमेरिकी राष्ट्रपति से खुल कर यह कहना भारतीय विदेश नीति के मसलों पर राजीव जी के स्पष्ट मानस का प्रतीक है। इसके बाद रीगन को यह साफ आश्वासन देना पड़ा कि आतंकवाद से लड़ाई में अमेरिका भारत का पूरा साथ देगा और उन्होंने राजीव जी से कहा कि अमेरिका भारत की गुट-निरपेक्षता का पूरा सम्मान करता है और उसे दक्षिण एशिया में भारत की भूमिका की अहमियत का भी पूरा अहसास है।<br /><br />राजीव गांधी स्वतंत्र भारत से सिर्फ़ तीन साल बड़े थे। उस बुधवार के रात्रि भोज के दौरान रीगन से यह कहने की खुद्दारी भी उनमें थीः “हम दोनों ही ज़रा स्पष्टवादी लोग हैं। जैसा सोचते हैं, जैसा मानते हैं, वैसा बोलते हैं। ऐसे में चुप रहना हमें नहीं आता। एक-दूसरे का लिहाज़ ही हमारे आपसी रिश्तों के स्थायित्व का पैमाना है। हम दोनों का ही निर्माण उस भलमानसाहत भरी सहनशीलता से हुआ है, जिससे लोकतांत्रिक भावना का जन्म होता है। यही वजह है कि नीतियों और कुछ ख़ास मसलों पर असहमतियों के बावजूद हमारे देशवासियों के बीच एक मज़बूत रिश्ता लगातार बना हुआ है।“<br /><br />ठीक दो दशक पहले, जब दुनिया नए साल की अगवानी की तैयारी कर रही थी, चीनी प्रधानमंत्री ली पेंग के निमंत्रण पर, क्रिसमस के ऐन पहले, एक सोमवार राजीव गांधी बीजिंग पहुंचे। यह दिन था 19 दिसम्बर 1988 का। सोमवार से शुक्रवार तक पूरे हफ्ते राजीव जी चीन में रहे। 34 साल बाद कोई भारतीय प्रधानमंत्री चीन की यात्रा पर था। राजीव जी के नाना नेहरू जी 1954 में चीन गए थे। राजीव गांधी की यह यात्रा भारत-चीन रिश्तों की एक बड़ी घटना थी और न सिर्फ़ चीनी प्रधानमंत्री पेंग ने उनसे लंबी बातचीत की, बल्कि चीन के राश्ट्रपति यांग षांगकुन और चीन के केंद्रीय सैन्य आयोग के अध्यक्ष देंग श्याओपिंग ने भी राजीव जी से मुलाक़ात कर दोनों देषों से जुड़े मसलों पर चर्चाएं कीं। यहां मैं भारतीय विदेश नीति के आइंस्टीनों को यह याद दिलाना ज़रूरी समझता हूं कि यह वह दौर था, जब समद्रोंग-चू का संकट काफी बढ़ चुका था और चीन की अपनी यात्रा के दो हफ्ते पहले ही राजीव गांधी ने अरुणाचल प्रदेष को पूर्ण राज्य का दर्ज़ा दे दिया था और जा़हिर है कि चीन ने इस पर ख़ासी हायतौबा मचाई थी। लेकिन एक पखवाड़े बाद ही बीजिंग में राजीव गांधी की भव्य अगवानी की जा रही थी। राजनय की दुनिया में यह थी राजीव गांधी की असली ताक़त।<br /><br />फिर आया जुलाई-1989। राजीव गांधी मास्को गए। तब तक सोवियत संघ बरकरार था। राजीव जी एक दिन की यात्रा पर वहां गए थे। उस 16 जुलाई को रविवार था और राजीव जी पूरे दिन सोवियत नेताओं से मुलाक़ात करते रहे। राजीव जी और सोवियत नेता मिखाइल गोर्बाचेव के बीच द्विपक्षीय संबंधों पर तो खैर बातचीत हुई ही। लेकिन राजीव जो को कभी भी और किसी के भी सामने अपने मन की बात कहने से भला कौन रोक सकता था? उन्होंने गोर्बाचेव के सामने परमाणु अस्त्रों में कमी करने का मसला उठा दिया। उन्होंने गोर्बाचेव से कहा कि यह ख़ामख्याली ही खतरनाक है कि कभी परमाणु युद्ध को किसी सीमा में भी बांधा जा सकता है। ऐसा सोचने से तो परमाणु अस्त्रों के इस्तेमाल को ले कर हिचक ही कम होगी और एक दिन ऐसा आएगा कि पूरा परमाणु युद्ध ही छिड़ जाएगा। सर्वोच्च सोवियत नेता की पत्नी रईसा गोर्बाचेव सोनिया गांधी को खुद अपने साथ घुमाने ले गई थीं और उन्हें क्रांति-पूर्व रूसी कला और स्थापत्य दिखा रही थीं। उधर जब सोनिया जी एक स्कूल में रूसी बच्चों से बात कर रही थीं, इधर राजीव गांधी गोर्बाचेव को अपनी बात समझाने में मसरूफ़ थे।<br /><br />जानबूझ कर अपना दिमाग़ बनाए बैठे लोग ही राजीव गांधी की विदेष नीति के स्थायी भाव पर सवालिया निषान लगा सकते हैं। अंतरराष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर भारतीय हितों की चिंता करने के मामले में राजीव जी इतने दृढ़प्रतिज्ञ थे कि न्यूयार्क में संयुक्त राष्ट्रसंघ की महासभा से ले कर स्टाकहोम में छह देशों और पांच महाद्वीपों के षांति प्रयास तक कहीं भी भारतीय नज़रिए को रखने में उन्होंने कोई कसर बाक़ी नहीं रखी। उनकी सोच और कोषिषों हर जगह लोगों को गदगद कर दिया करती थीं। 21 जनवरी 1988 को राजीव जी स्टाकहोम में थे और वहां उन्होंने खुल कर कहाः ”कुछ हैं, जो दलीलें देते हैं कि परमाणु अस्त्रों से शांति क़ायम रखने में मदद मिलती है। यह झूठ है। व्यवस्थाओं पर काबिज़ लोगों को अपनी सोच बदलनी होगी। अगर परमाणु हथियार रहेंगे तो एक दिन उनका इस्तेमाल भी होगा। और, आखि़री दिन, यह बात बेमानी हो जाएगी कि उनका इस्तेमाल योजनाबद्ध तरीके से किया गया या दुर्घटनावश हो गया। पुनर्जीवन की सारी उम्मीदें परमाणु मलबे के ढेर में दब जाएंगी। पीछे लौटने की कोई राह बाकी नहीं रहेगी, कोई नहीं बचेगा, यह कहानी कहने वाला भी कोई नहीं होगा। भविष्य के लिए कोई सबक बाकी नहीं रहेगा--कोई भविष्य ही बाक़ी नहीं होगा।”<br /><br />जून 1988 के उस गुरुवार, एक प्राचीन देश के नवीनतम भविष्य की अगुआई कर रहे, उम्मीद भरी आंखों वाले, एक नौजवान को संयुक्त राश्ट्र संघ की महासभा ने ज़ोरदार आवाज़ में यह बताते सुना कि किस तरह यह सदी इतिहास की सबसे रक्तरंजित सदी साबित हुई है, कि किस तरह दो विष्व युद्धों ने क़रीब पौने आठ करोड़ लोगों को लील लिया, कि किस तरह चार करोड़ और लोग दूसरी लड़ाइयों में मारे गए और किस तरह युद्ध की राक्षसी मशीनें दस करोड़ लोगों को निगल चुकी हैं। राजीव गांधी ने राष्ट्र संघ की दीवारों में जड़ी हर ईंट को साफ़तौर पर बता दिया कि यह सब अब नहीं चल सकता, क्यों कि वे ग़रीब और विकासशील मुल्क ही सबसे ज़्यादा नुक़सान उठा रहे हैं, जो न इस सैन्य गठजोड़ के साथ हैं और न उस सैन्य गठजोड़ के साथ, जो इस दौड़ में कहीं भी शामिल नहीं हैं और जिन्हें हथियारों का जखीरा इकट्ठा करने की कोई हवस नहीं है। सभी परमाणु हथियारों को पूरी तरह ख़त्म करने की कार्य-योजना पेश करते हुए राजीव जी सबको चेताया कि हथियारों की दौड़ ने राष्ट्रीय और वैष्विक अर्थव्यवस्थाओं पर बोझ बहुत बझ़ा दिया है और अब वह दिन बेहद नजदीक आ गया है, जब अमीर मुल्क़ों को भी यह अहसास हो जाएगा कि फ़ौजी तामझाम का जो बोझ उन्होंने खुद पर डाल रखा है, उसे संभालने में उनकी भी सांस फूल गई है। दो दशक पहले भारतीय विदेश नीति के बारे में राजीव जी की इस विचार-प्रक्रिया को उनकी दूरदृश्टि मानने से इनकार करने वालों पर तरस ही खाया जा सकता है। उनका नज़रिया एक नई विश्व-व्यवस्था के निर्माण का नज़रिया था।<br /><br />भारत के पड़ोसियों से व्यवहार के मामले में भी राजीव जी का दिमाग एकदम साफ था। उन्होंने पाकिस्तान से संबंधों को सुधारने के कई क़दम उठाए, लेकिन हर बार यह भी साफ कर दिया कि सीमा पार के आतंकवाद की अनदेखी वे कतई नहीं करेंगे। वे बांग्लादेश, श्रीलंका, भूटान, नेपाल और मालदीव की तरक़्की में हमेषा सहयोगी की भूमिका निभाने को तैयार रहे। राजीव गांधी का भारत अपने पड़ोसियों के लिए हमेषा वक़्त का साथी बना और जब भी ज़रूरत हुई, उनके साथ खड़ा रहा। 1988 में जब मालदीव में बगावत हुई और वहां की सरकार ने भारत से मदद मांगी तो राजीव गांधी ने हर मुमक़िन मदद की। वे ज़रूरत पड़ने पर अपनी भूमिका के मामले में कभी ऊहापोह में नहीं पड़े।<br /><br />श्रीलंका में भारतीय शांति सेना भेजना बड़ी हिम्मत का काम था। 1987 की शुरुआत में ही ये संकेत मिलने लगे थे कि श्रीलंका के हालात बदतर होते जा रहे हैं। श्रीलंका हालत से निपटने में भारत से मदद चाहता था। 29 जुलाई 1987 को कोलंबो में श्रीलंका के राश्ट्रपति जे.आर. जयवर्द्धने और राजीव गांधी के बीच एक समझौते पर दस्तखत हुए। भारतीय शांति सेना श्रीलंका भेजी गई। मैं अपने निजी अनुभव से जानता हूं कि वे सचमुच बेहद दिक़्कत भरे दिन थे। मैं उन दिनों नवभारत टाइम्स का संवाददाता था और भारतीय शांति सेना की कार्रवाई को श्रीलंका के जाफना में कवर कर रहा था। मैंने अपनी आंखों से देखा है कि जाफना के घने जंगलों में हर क़दम पर बिछी लिट्टे की सुरंगों के बीच शांति सेना ने किस अद्भुत बहादुरी और अनुशासन के साथ अपने काम को अंजाम दिया। मेजर जनरल कालकट तब शांति सेना के प्रमुख थे और उन्होंने मुझे बताया कि किस तरह राजीव गांधी ने उन्हें सख्त निर्देष दिए हुए थे कि न तो ऐसी कार्रवाइयां की जाएं और न ही ऐसे हथियारों का इस्तेमाल हो, जिनसे जाफना के आम नागरिकों की जान जाए। जाफना की बड़ी आबादी तब लिट्टे की बंधक थी और राजीव गांधी ने इन तमिल नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित की थी। मुझे 1987 में हुए संसद के उस शीतकालीन सत्र का वह सोमवार अब भी याद है, जब राजीव जी लोकसभा में भारतीय शांति सेना के पराक्रम और अनुशासन के किस्से सुना रहे थे और अपने चेहरों पर चमक लिए सभी सांसद ज़ोरों से मेजें थपथपा रहे थे। वह 9 नवंबर का दिन था और लग रहा था कि राजीव जी की आंखों से उनका यह मशहूर कथन झांक रहा थाः ”मैं युवा हूं और मेरा भी एक सपना है। मेरा सपना है एक ऐसा भारत, जो मज़बूत है, स्वतंत्र है, आत्मनिर्भर है और मानवता की सेवा में खड़े देशों की सबसे अग्रिम कतार में सबसे पहले क्रम पर खड़ा है।”Pankaj Sharmahttp://www.blogger.com/profile/13850757662593978128noreply@blogger.com0