लेकिन, मुझे भारतीय जनता पार्टी मुक्त भारत नहीं चाहिए।
इसलिए कि मैं इतना अलोकतांत्रिक नहीं हो सकता कि अपने बीहड़-से-बीहड़ सपने में भी एक राजनीतिक दल का तब तक सर्वनाश हो जाने की ख़्वाहिश पालूं, जब तक कि वह देशद्रोही साबित न हो जाए। आज आठ-आठ आंसू रो रहे भारत को देख कर मुझे यह तो लगता है कि मोदी ने अपनी ताजा सनक के चलते देशहित की अनदेखी कर दी, मगर बावजूद इसके, जितनी आसानी से वे दूसरों को राष्ट्र-विरोधी करार दे देते हैं, मेरे लिए उनकी पेशानी पर उतनी ही आसानी से यह तख़्ती लटकाना सोच के परे है। उनके बेहूदा फ़रमान ने पूरे मुल्क़ को तो फ़िजूल की मुश्क़िल में डाल ही दिया है, भाजपा के अस्तित्व के लिए भी ऐसी ज़मीनी मुसीबत खड़ी कर दी है कि उसके सांसदों-विधायकों की टोलियां नोटबंदी के फ़ायदे गिनाने गली-मुंडेर रवाना होने के पहले सौ-सौ बार सोच रही हैं।
इसलिए मुझे नरेंद्र मोदी मुक्त भाजपा चाहिए।
आयोजित-प्रायोजित लोकप्रियता की लहर पर सवार मोदी की टोपी से महज 918 दिन पहले भाजपा का ऐसा तंदरुस्त खरगोश निकलते लोगों ने देखा था कि तालियां थमते नहीं थम रही थीं। तब 2019 आते-आते चांदी जैसे इस रूप पर गहरी झाइयां पड़ जाने की बात करने वालों को लोग मानसिक अस्पताल जाने की सलाह दिया करते थे। लेकिन साल भर बीतते-बीतते ही सयानों की समझ में आने लगा कि मौजूदा सुल्तान के भीतर दशकों से परत-दर-परत आकार ले रही सूनामी हदें तोड़े बिना मानेगी नहीं। कोई भी जज़्बा, कोई भी ऊर्जा और कोई भी उछाह चाहे कितना ही अर्थवान क्यों न हो, अगर उसका बहाव बुद्धि-विवेक के संयम से संचालित नहीं है तो फिर तबाही रुक ही नहीं सकती।
मई-2014 के बाद भारत राज-काज के कई बचकाने पराक्रमों से रू-ब-रू हुआ और सबको सन्मति देने की मन्नतें मांगता रहा–इस उम्मीद के साथ कि क़दमों का बहकना समय के साथ थम जाएगा।
लेकिन आधा रास्ता पार होते ही साहबे-आलम ने अपने ख़यालों के घोड़े को ऐसी ऐड़ लगाई कि उसने सब-कुछ रौंद दिया। मुल्क़ के बाशिंदे तो क़तारों में खड़े रहम की भीख मांग ही रहे हैं, अपने रहनुमा की अज़ीमुश्शान फ़ितरत पर अब तक इतराने वाली भाजपा के सिपाहसालार भी खुद के ज़ख़्म सहला रहे हैं। जिसकी बदौलत 280 का काफ़िला नाचता-गाता संसद में पहुंचा था, उसी की बदग़ुमानी ने उनकी सियासी मज़लूमियत की इबारत भारत की जम्हूरी-दीवार पर इतने बड़े हर्फ़ों में लिख दी है कि सूरदास भी मीलों दूर से पढ़ लें।
नकटों के गांव की कहानी जिन्होंने पढ़ी है, वे जानते हैं कि उस गांव में ईश्वर किसी को नहीं दिखता था, लेकिन सच्चाई होठों से बयां क्यों नहीं होती थी! आज नरेंद्र भाई मोदी की ताजा करामात की शान में कसीदे पढ़ रहे लोगों का दिल ही जानता है कि साक्षात प्रभु-दर्शन के जाल-बट्टे में आकर अपनी नाक गंवा बैठने का दर्द कैसा होता है?
मुगले-आज़म की तरह ही उनके फै़सले पर उनके अजीज़-से-अजीज़ का भी कोई इख़्तियार नहीं है। आठ नवंबर की रात साहबे-आज़म के मंसूबों का ऐलान तो हो गया, मगर अब हर रात पूरे मुल्क़ पर भारी गुज़र रही है। ढाई बरस से जो काग़ज़ी जेवर पहन कर भाजपा इठलाती घूम रही थी, वे राहे-शौक़ में उठे इस क़दम से जल कर राख हो गए। आज राजपथ पर मेकअप-विहीन खड़ी भाजपा की असली शक़्ल देख कर रहगुज़र सिसक रहे हैं। इस दुल्हन की डोली को 21 अक्टूबर 1951 के दिन जनसंघ की स्थापना के दिन से ढो रहे पता नहीं कितने कहारों के दुखते कंधे इन दिनों भुवर्लोक से नरेंद्र भाई पर अश्रु-वर्षा कर रहे होंगे! लेकिन जिन्हें भू-लोक में अपने सामने दिखते आंसुओं से कोई लेना-देना नहीं है, उनके पास भुवर्लोक में विराजे पुरखों की भीगी आंखें देख सकने वाली आंखें कहां से आएंगी?
खुदमुख़्तारी अच्छी बात है। लेकिन जनतंत्र में किसी को इतनी स्वायत्तता नहीं हो सकती कि वह इतनी मनमानी पर उतर आए कि किसी की न सुने। मोदी अगर निर्वाचित प्रधानमंत्री हैं तो विपक्षी दल भी निर्वाचित हो कर ही संसद में पहुंचे हैं। मोदी अगर रिज़र्व बैंक के गवर्नर और वित्त मंत्री रहने के बाद प्रधानमंत्री की कुर्सी पी पहुंचे होते तो आठ नवंबर की रात आठ बजे भारत को आर्थिक मंदी की भट्टी में झौंकने का ऐलान शायद कभी नहीं करते। दस बरस प्रधानमंत्री रहे मनमोहन सिंह वित्त मंत्री भी रहे हैं और रिज़र्व बैंक के गवर्नर भी। इसलिए 84 बरस की उम्र में अगर वे इस बात से भीतर तक क्षुब्ध हैं कि मोदी ने रिज़र्व बैंक को नाहक ही अधनंगा कर दिया है, देश को सकल घरेलू उत्पाद में कम-से-कम दो फ़ीसदी की कमी के कगार पर खड़ा कर दिया है और उनकी इस चिरायु-भूल का ख़ामियाजा देश को दशकों भुगतना पड़ेगा तो उनसे 18 बरस छोटे आज के प्रधानमंत्री को अपने पूर्ववर्ती के क्षोभ को संजीदगी से लेना चाहिए।
सुना तो यही है कि अपनी ग़लती मान लेने से व्यक्ति और बड़ा हो जाता है। देखा भी यही है कि जो बड़े होते हैं, वे अपनी ग़लती स्वीकार करने में कभी हिचकते नहीं। कुर्सी व्यक्ति को बड़ा नहीं बनाती। लेकिन अब वह दौर भी नहीं है कि व्यक्ति कुर्सी को बड़ा बना देते हों। इतिहास किसी को बड़ा बनने का मौक़ा बार-बार नहीं देता। कोई भी महसूस कर सकता है कि नरेंद्र भाई को अहसास हो रहा है कि वे ग़लत कर बैठे हैं। यह करने का यह तरीक़ा था नहीं। लेकिन अब कुछ तो उनका ज़िद्दी मन और बाकी उनकी परिक्रमा-मंडली के ढोल-मंजीरे। सो, वे पीछे खिसकें भी तो कैसे खिसकें?
मैं तो सिर्फ़ इतना जानता हूं कि भारत की तासीर ऐसी नहीं है कि किसी के भी इशारे पर मुजरा शुरू हो जाए। यहां के लोग अपनी मर्ज़ी से तो किसी के भी पीछे नाचने लगते हैं, लेकिन जहां कहीं ऊबे, झट जाकर अंगारे बरसाने लगते हैं। इतनी जल्दी किसी से ऐसे मोहभंग का आलम आपने भी कभी नहीं देखा होगा। ऐसे दौर आते-जाते रहते हैं, जब कुछ लोगों को गुमां हो जाता है कि वे हैं तो सब है। वे हैं तो उनका दल है। वे हैं तो देश है। वे हैं तो क़ायनात है। संसार के इतिहास में ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो खुद को खुदा कहते थे।
नरेंद्र भाई को तो कांग्रेस-मुक्त भारत चाहिए। दरअसल, उन्हें तो सकल विपक्ष मुक्त भारत चाहिए। उन्हें तो भाजपा भी सिर्फ़ मोदी-युक्त ही चाहिए। लेकिन मैं मानता हूं कि भारत को तो कांग्रेस भी चाहिए, भाजपा भी चाहिए और क्षेत्रीय आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले बाकी राजनीतिक दल भी चाहिए। सियासत के बरामदों में अपने आकाओं को ख़ुश करने के लिए भोंगा बजाने वालों की भला कभी कमी रही है? सियासी-मदिरालय के पेशेवर नचनियों के ठुमकों का घेरा तत्काल तोड़ने में देरी करने का यह वक़्त नहीं है नरेंद्र भाई! वरना ये बगलगीर आपको उस जगह ले जा कर छोड़ेंगे, जहां से मोदी-मुक्त भाजपा का श्रीगणेश होता है। आज यह बात मज़ाक लगेगी। लेकिन अगर आपने भूल-सुधार में कोताही की तो कल आप छप्पन इंच की छाती पीटेंगे।