अर्ध-श्वेत बराक ओबामा को शांति का नोबेल पुरस्कार इतनी जल्दी मिलने से अचकचा कर हाय-तौबा मचा रहे लोग यह भूल रहे हैं कि ओबामा जब वाशिंगटन के श्वेत भवन पहुचे थे तो अमेरिकी जमीन से अरसे बाद उस लोक संगीत की धुनों ने जोर पकड़ा था, जिनकी स्वर-लहरियों पर चढ़ कर कोई ओबामा दुनिया के राजनीतिक-सामाजिक आसमान का रंग बदलने का काम कर सकता है। अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव की दौड़ के वक़्त फिलाडेल्फिया के संविधान केंद्र में ओबामा की कही बातों ने अमेरिकियों को झकझोर दिया था। अमेरिकियों को शायद पहली बार लग रहा था कि भले ही उन सबकी कहानियां अलग-अलग हों, उनकी उम्मीदें तो एक-सी हैं, भले ही वे सब एक ही जगह से न आए हों, मगर अब उन सबको जाना तो एक ही दिशा में है और इसके लिए पूरे राजनीतिक-सामाजिक ताने-बाने को पूरी तरह उधेड़ कर फिर से बुनने के दिन आ गए हैं। अभी से इस नतीजे पर पहुंच जाना कि दुनिया में शांति का राज कायम करने के ओबामा के इरादे में कोई खोट है, ठीक नहीं होगा। नोबेल की पगड़ी पहने ओबामा की निगाहों को अब इतनी शर्म तो करनी ही होगी कि उनके हाथ से अमन-चैन का कहीं कत्ल न हो।
ओबामा के उदय का समाजशास्त्र समझने के लिए ज्य़ादा दूर जाने की ज़रूरत नहीं है। पिछले बरस जब वे श्वेत भवन की तरफ एक-एक कदम बढ़ रहे थे तो दुनिया को ओबामा की इन बातों में सच की परछाईं नजर आ रही थी कि वे अमेरिका का मुखिया बनने की दौड़ में इसलिए शामिल हुए है कि उन पर अमेरिकी समाज को और ज्यादा न्याय-प्रिय, और ज्यादा समानतावादी और एक-दूसरे का ख्याल रखने वाला बनाने की धुन सवार है। केन्या से आए अश्वेत पिता और कन्सास की रहने वाली श्वेत मां की संतान ओबामा के चुनावी भाषण सुनने की नहीं, गुनने की चीज बन गए थे। भारत के चुनावी माहौल और भाषणों का लंबा अनुभव हमें यह अंदाज लगाने लायक भी नहीं छोड़ता है कि चुनावी प्रचार करते वक्त बुनियादी सामाजिक मुद्दों को इतनी गहराई से भी कोई उठा सकता है। ओबामा ने अमेरिकी गिटार के उस तार को छेड़ दिया था, जिससे सबसे दर्दीले सुर का जन्म होता है।
अपने भाषणों में ओबामा जब यह इशारा करते थे कि किस तरह उनकी अश्वेत पत्नी की रगों में एक गुलाम और उस गुलाम के मालिक का खून दौड़ रहा है तो उनके होठों पर एक दर्द भरी मुस्कान होती थी। वे अपनी चादर पर दिल की गहराइयों से निकले विचारों की कतार बिछाते जाते थे और बार-बार इशारा करते थे कि अनेकता में एकता की जरूरत अमेरिका के समाज को जितनी है, दुनिया के किसी भी समाज को उतनी नहीं। समानता के तमाम अमेरिकी दावों के बावजूद वहां के राष्ट्रपति के चुनाव में पूरी संजीदगी से दौड़ रहे ओबामा जब नस्लीय भेदभाव की तरफ संकेत देते थे तो अमेरिका भर में उनके कहे की ताईद में हिलने वाले सिरों की कमी नहीं थी। वे अपने भाषणों में कहते थे कि कोई कहता है कि मैं जरा ज्यादा ही अश्वेत हूं और कोई कहता है कि मैं पूरी तरह अश्वेत नहीं हूं। ओबामा आहत थे कि नस्लीय नजरिया समाज को श्वेत-अश्वेत ही नहीं, अश्वेत और गेहुंए के बीच भी बांटने लगा है। 47 वर्षीय ओबामा की गीली आंखें अमेरिका की राजनीतिक दीवारों पर एक नई इबारत के लिखे जाने के ठोस संकेत दे रही थीं।
इसलिए मुझे अब भी पूरी उम्मीद है कि ओबामा ओवल-ऑफिस और अपने आसपास की व्यवस्था से बेपरवाह रह कर अपना काम कर पाएंगे। उनके कार्यकाल के चार बरस पूरे होने पर आप देखेंगे कि अमेरिका की शक्ल तो बदल ही रही है, दुनिया की शक्ल भी तब्दील होती जा रही है। इसलिए कि 221 बरस के अमेरिकी इतिहास में यह अपनी तरह का पहला मौका है, जब एक ओबामा के बहाने खुल कर ऐसे मसलों पर औपचारिक सोच-विचार शुरू हुआ है, जिन्हें खामोशी से गलीचे के नीचे खिसका कर चेहरों पर नकली मुस्कान ओढ़ ली जाती थी। ओबामा ने इराक से ले कर अफगानिस्तान तक पसरी अमेरिकी खामियों को मंजूर करने में कोई हिचक नहीं दिखाई है। वियतनाम से ले कर चेचैन्या और कसोवो तक के मुद्दों पर ओबामा के अपने स्वतंत्र विचार हैं। यही उनकी पूंजी है।
यह मान लेना कि ओबामा की बातों से गदगद हो रहे अमेरिका में दिलजले गायब ही हो गए होंगे--मासूमियत होगी। यह मान लेना भी बचपना होगा कि ओबामा के पास को तिलस्मी गलीचा है, जिस पर बैठ कर वे जिस दिशा में उड़ेंगे, आसमान गुलाबी होता चला जाएगा। क्योंकि बदलाव की राह पर चलना कोई आसान काम नहीं है। बदलाव की बयार का दोनों हाथ फैला कर स्वागत भला कितने लोग करते हैं? ऐसा होता तो गांधी डरबन के स्टेशन पर ट्रेन से बाहर नहीं फैंके जाते। ऐसा होता तो सत्ता के दलालों को बियाबान में भेजने की शपथ लेने वाले राजीव गांधी की श्रीपेरुम्बुदूर में ऐसी अलविदाई न हुई होती। इसलिए ओबामा की बातों पर थिरकने वाले बहुत हैं तो उनकी बातों पर नथुने फुलाने वालों की भी कमी नहीं है। सो, यह कहानी भी खलनायक-विहीन कैसे हो सकती है?
मैं नहीं जानता कि ओबामा कितना बदलाव ला पाएंगे? लेकिन मैं इतना जानता हूं कि अगर ओबामा के बाद किसी गैर-ओाबामा को भी बाकी दुनिया से जुगलबंदी के रास्ते पर ही आगे चलना होगा। ओबामा के बहाने एक नए युग की शुरुआत के बीज अमेरिका की मिट्टी में अब पड़ गए हैं। ओबामा की इतनी ही सार्थकता बहुत है। इसलिए मुझे तो उन्हें मिले नोबेल से खुशी ही हुई है।
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Wednesday, October 14, 2009
नोबेल पगड़ी की लाज ओबामा के हाथ
Posted by Pankaj Sharma at Wednesday, October 14, 2009
Labels:
अमेरिका,
ओबामा,
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