Tuesday, February 16, 2016

अमरबेलों की फ़सल

नरेंद्रभाई के पुजारियों के काले झंडों को अपने ठेंगे पर रख कर राहुल गांधी जेएनयू पहुंच गए। इंदिरा गांधी जेएनयू गईं तो लाल सलाम का नारा लगाने वालों ने उन्हें रोका था। राजीव गांधी के जेएनयू जाने पर भी लाल ब्रिगेड ही लाल हुआ था। चालीस साल पहले कांग्रेस की सरकार ने जेएनयू की स्थापना की, लेकिन वह बन गया जमुना-तीर का क्रेमलिन। वो सिर पर लाल टोपी रूसी पहन कर घूमने के दिन थे, सो, हिंदुस्तानी दिल की दरियादिली ने जेएनयू को वाणी-स्वातंत्र्य की इंद्रसभा बनने की पूरी सहूलियत दे दी। नब्बे के दशक में अपने को जन्म-भूमि का स्वयंभू रक्षक मानने वालों ने जेएनयू की बुनियादी परिभाषा बदलने का बीड़ा उठाया और दो हज़ार दो आते-आते लाल-परिसर के रंग में ऐसा पीला-पन मिलाया कि वासंती-मन खिल उठे। कांग्रेस की सर्व-समाहित नीतियों से पगी विद्यार्थी-टोलियां जेएनयू में हाशिए पर ही टहलती रहीं। इंदिरा जी और राजीव जी के खि़लाफ़ नारे बुलंद करने वालों ने कांग्रेस में सेंध लगा कर नीति-निर्धारक कुर्सियां हासिल कर लीं। बहुत-से सावरकर-वादी भी कांग्रेस में घुसपैठ कर के भाग्य-विधाता बन गए। उनमें से कई आज भी कांग्रेसी अंतःपुर में अपनी चौपड़ खेल रहे हैं। बावजूद तमाम काले झंडों के राहुल गांधी तो जेएनयू भी जाएंगे और हैदराबाद भी, वे तो नियमगिरि भी जाएंगे और भट्टा-पारसौल भी; लेकिन असली चिंता तो यह है कि बरसों से उन्हें दर-दर घुमाने वाले शकुनि-वंशज आख़िर उन्हें कहां ले जा कर छोड़ेंगे? ईश्वर करे कि राहुल-सोनिया अपने पसीने की एक-एक बूंद का हिसाब मांगना शुरू करें, ताकि अमरबेलों की फ़सल पनपना थमे।

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