23 July 2016
पंकज शर्मा
आतंकवादी
बुरहान वानी के मारे जाने
के बाद कश्मीर में भड़की हिंसा को काबू करने
के लिए इस्तेमाल की गईं इस्राइली
पिलट बंदूकों से ज़ख़्मी हुए
हज़ारों लोगों का दर्द संसद
के पावस सत्र में गूंजा। कश्मीर में भीड़ की हिंसा से
निपटने के लिए पिलट
बंदूकों का इस्तेमाल शुरू
तो इसलिए किया गया था कि उनकी
गोलियां जानलेवा नहीं होती हैं, मगर इस बार इन
गोलियों के छर्रे इतने
नुकीले थे कि सैकड़ों
लोगों की आंखें ले
बैठे। बंदूकें अगर इस्राइली न होतीं तो
कश्मीर में सियासत शायद इतनी न गरमाती।
इसलिए कि आज जिस
इस्राइल से गलबहियों पर
हम इतरा रहे हैं, नब्बे के दशक से
पहले उसके साथ भारत का राजनयिक संबंध
तक नहीं था। 1947 में हमने फलस्तीन के विभाजन की
जम कर मुख़ालिफ़त की
थी और 1949 में इस्राइल को संयुक्त राष्ट्रसंघ
का सदस्य बनाने के हम बाक़ायदा
खुले विरोधी थे। अरब-विश्व से भारत के
दोस्ताना ताल्लुक़ थे और साठ-सत्तर के दशकों में
अमेरिका-परस्ती को आमतौर पर
थू-थू नज़रिए से
देखा जाता था। कई दक्षिणपंथी संगठन
इस्राइल से पींगें बढ़ाने
की घनघोर हिमायत उन दिनों भी
करते थे। लेकिन हालत यह थी कि
आज के सत्ताधारी दल
के एक बड़े नेता
को तब उनके इस्राइल-प्रेम की वजह से
वहां की जासूसी संस्था
मोसाद का एजेंट समझने
वालों की कमी नहीं
थी।
1977
में अपनी हार के वक़्त तक
इंदिरा गांधी ने भारत में
इस्राइली-हितों की पैरवी करने
वालों की मुश्क़ें बांध
रखी थीं। लेकिन 1978 में जनता पार्टी की सरकार आते
ही सेंधमारों की चलने लगी।
मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री थे। वे चाहे जितने
बड़े गांधीवादी रहे हों, मगर अपने बेटे कांति देसाई को क़ारोबारी हरफ़नमौला
बनने से नहीं रोक
पाए। राजधानी में उस ज़माने के
एक बड़े होटल मालिक की परदेस में
भी कई व्यवसायिक गतिविधियां
थीं। उसने कांति के साथ मिल
कर ऐसा चक्कर चलाया कि राजनयिक संबंधों
के न होते हुए
भी, अपनी एक आंख पर
काली पट्टी बांधे रखने वाले, इस्राइल के रक्षा मंत्री
मोशे दायां गुचपुच भारत आए, मोरारजी भाई से मिले और
चुपचाप चले भी गए।
जनता
सरकार बनने के चंद महीनों
के भीतर 1978 में ही यह कारगुज़ारी
हो गई। मोशे दायां गुप्त तरीक़े से मुंबई उतरे।
भारतीय वायुसेना का एक विमान
उन्हें लेकर दिल्ली पहुंचा। अटल बिहारी वाजपेयी विदेश मंत्री थे। उन्हें इस यात्रा की
जानकारी थी, लेकिन उनके विदेश मंत्रालय को इसकी कोई
ख़बर नहीं लगने दी गई थी।
मोशे दायां को दिल्ली के
सफदरजंग इलाक़े में भारतीय गुप्तचर ब्यूरो के एक सुरक्षित
अड्डे पर ठहराया गया
था। मोरारजी देसाई और मोशे दायां
की मुलाक़ात हुई तो वाजपेयी भी
मौजूद थे। तीनों के बीच लंबी
बातचीत हुई। मोशे दायां ने पूरा ज़ोर
लगाया कि इस्राइल के
साथ राजनयिक संबंधों की शुरुआत का
ऐलान करने को भारत तैयार
हो जाए। लेकिन मोरारजी भाई और अटल जी
जानते थे कि इससे
पश्चिम एशियाई देशों के साथ भारत
के संबंधों पर कितना प्रतिकूल
असर पड़ सकता है,
सो, दोनों के पास मोशे
दायां को खाली हाथ
विदा करने के अलावा कोई
चारा उस वक़्त तो
था ही नहीं। लेकिन
उन्हें गुप्त रूप से भारत लाकर
बातचीत करने भर से यह
संकेत साफ़ था कि अगर
मजबूरियां न हों तो
मोरारजी भाई और अटल जी
को इस्राइली बाहों में समाना ख़ुशी-खुशी मंजूर था।
इंदिरा
गांधी हालांकि सत्ता के बाहर थीं,
लेकिन उन्हें मोशे दायां की इस गुप्त
यात्रा की भनक लग
गई। उनका मन तो उसी
वक़्त हंगामा करने को कर रहा
होगा, लेकिन तरह-तरह के मुकदमांे का
सामना कर रहीं इंदिरा
गांधी ने इस सूचना
को भावी इस्तेमाल के लिए अपने
जे़ेहन में संजो लिया। जनवरी 1980 में जब वे सरकार
में लौटीं तो मोशे दायां
की यात्रा का पूरा रहस्य
जानने की इच्छा से
खदबदा रही थीं। वह मेरी पत्रकारीय
नौकरी का शुरुआती साल
था। अप्रैल का महीना दिल्ली
में तब इतना भभकता
नहीं था और वह
तीसरे हफ़्ते का बुधवार था।
इंदिरा गांधी गुट-निरपेक्ष आंदोलन के सम्मेलन में
हिस्सा लेने जिंबाब्वे की यात्रा पर
रवाना हुईं। अपने विमान की सीढ़ियां चढ़ने
से पहले पालम विमानतल पर उन्होंने गुप्तचर
विभाग के प्रमुख को
एक कोने में बुलाया और कहा कि
वापस आते ही वे मोशे
दायां की यात्रा के
बारे में पूरी जानकारी चाहती हैं।
रातों-रात गुप्तचर विभाग के बीसियों अधिकारियों
ने बैठ कर तमाम गोपनीय
फ़ाइलों पर निग़ाह डाली।
लेकिन कहीं इस यात्रा का
कोई ज़िक्र नहीं मिला। रक्षा मंत्री का दर्ज़ा रखने
वाला कोई परदेसी कितने ही गोपनीय तरीक़े
से भारत आया हो, लेकिन उसकी सुरक्षा के इंतज़ाम का
खाका तो किसी फ़ाइल
में होना चाहिए था। मगर कहीं कुछ नहीं था। मोरारजी देसाई के ज़माने में
प्रधानमंत्री की सुरक्षा का
ज़िम्मा संभालने का प्रभार गुप्तचर
ब्यूरो के एक संयुक्त
निदेशक पर था। उनका
नाम था जॉन लोबो।
वे रिटायर हो कर मुंबई
में रहने लगे थे। कुछ लोगों को उनसे बातचीत
के लिए भेजा गया। जितना कुछ उनसे पता चला, उसके टुकड़े जोड़े गए। मोशे दायां का मुंबई-दिल्ली-मुंबई के सफ़र में
पूरा ध्यान रखने की ज़िम्मेदारी वायुसेना
के एयर चीफ़ मार्शल अरविंद मुलगांवकर ने परदे के
पीछे से निभाई थी।
उनके साथ भी कई लोगों
ने शामें बिताईं और परत-दर-परत एक कहानी ने
आकार ले लिया। पूरी
रिपोर्ट इंदिरा गांधी को सौंप दी
गई।
राजनयिक
संबंध न होते हुए
भी दुनिया के कई देशों
के बीच इधर-उधर अनौपचारिक विचार-विमर्श होना भी जिस ज़माने
में आग लगा देने
वाली ख़बर होती थी, तब इस्राइल के
रक्षा मंत्री का इस तरह
भारत आ कर चले
जाना तो एक क़िस्म
का पोखरण था। इंदिरा गांधी अगर इसका सियासी महत्व न समझतीं तो
कौन समझता? सो, आने वाले दिनों में यह घटना एक
बड़ा बवाल बन गई और
अगले सात साल तक भारत के
राजनीतिक आकाश में कम-ज़्यादा कौंधती
रही।
जब
तक इंदिरा गांधी रहीं, भारत और पश्चिम एशिया
के बीच रिश्ते अलग रहे। हालांकि इस्राइल की भारतीय कामकाजी
व्यवस्था में घुसपैठ की क़ोशिशों में
कोई कमी नहीं थी, लेकिन राजीव गांधी ने भी अपने
वक़्त में इस्राइल को परे ही
रखा। यह बात बहुत
कम लोग जानते हैं कि उनके प्रधानमंत्राी
बनने के डेढ़ साल
के भीतर ही इस्राइल ने
पेरिस और एकाध अन्य
यूरोपीय देश में भारतीय अधिकारियों से गुप्त मुलाक़ातें
कर संकेत देने शुरू कर दिए थे
कि अगर भारत की मदद मिले
तो पाकिस्तान द्वारा कटुहा के यूरेनियम प्लांट
में अंजाम दी जा रही
गतिविधियों को ठप्प करने
की एक योजना उसके
पास है। यह भी अब
तक क़ब्रगाह में ही दबा हुआ
है कि इस्राइल की
योजना दरअसल कटुहा पर बम बरसाने
की थी। लेकिन भारत ने इस मामले
में इस्राइल से तालमेल के
लिए कोई उत्साह नहीं दिखाया। राजीव गांधी जानते थे कि ऐसे
में इस्राइल का तो कुछ
नहीं बिगड़ेगा, लेकिन भारत के तारापुर, ट्रांबे
और कोटा के परमाणु घर
नाहक ही निशाने पर
आ जाएंगे।
1989 में राजीव
गांधी की सरकार चली
गई। डेढ बरस चली पिलपिली सरकारों के समय इस्राइल
ने अपनी गोटियां बिछाने का काम तेज़ी
से किया। इस बीच राजीव
गांधी की हत्या हो
गई। पामुलपर्ति वेंकट नरसिंहराव की अगुआई में
1991 में कांग्रेस की सरकार बनी
और उसके दो साल के
भीतर 1993 में इस्राइल से भारत की
राजनयिक सप्तपदी संपन्न हो गई। भारत
का यह कन्या-दान
कराने में किन-किन बाबाओं, राजनेताओं, क़ारोबारियों और बौद्धिक पेशेवरों
की भूमिका रही, वह एक पूरे
उपन्यास का विषय है।
इसलिए फिर कभी!
लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।
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