Saturday, April 15, 2017

वैश्विक संकीर्णता का स्वर्ण-काल और हम!


अदनान की उन दिनों सुनाई एक सीरियाई लोक-कथा की ओस अब तक मेरे ज़ेहन पर जमी है। दादियों-नानियों की श्रव्य-परंपरा ने सीरिया में इस कहानी को वैसे ही सदियों से सहेज कर रखा हुआ था, जैसे भारत में बच्चे कुछ दशक पहले तक रजाई में दुबक कर अपनी दादी-नानी से कोई कहानी सुनते-सुनते, पता नहीं कब, नींद की गोद में चले जाते थे। अदनान की कहानी सीरिया की तीन ग़रीब बहनों के बारे में थी, जिनके माता-पिता गुज़र गए थे और अपने पीछे रहने को एक बेहद छोटा-सा घर छोड़ गए थे। तीनों बहनें अपनी ज़िंदगी बसर करने के लिए ऊन कातती थीं और उसे बाज़ार में बेच आती थीं। वे अच्छा खाना खाने के ख़्वाब बुना करती थीं। ऊन कातते वक़्त अपने इसी सपने पर केंद्रित गीत गाया करती थीं। खूब मेहनत करते-करते जब एक दिन ऐसा आया कि वे अपनी पसंद का खाना पका सकीं तो खाने के ऐन पहले उन्हें याद आया कि बाज़ार से प्याज़ और लाल मिर्च लाना तो वे भूल ही गई हैं।
सो, खाने को और चटपटा बनाने की गरज़ से वे बाज़ार भागीं। इस बीच कूड़ा इकट्ठा करने वाले की नज़र घर में रखे इस भोजन पर पड़ गई। उसके परिवार ने तो ऐसा खाना कभी देखा ही नहीं था। सो, वह खाना उठा ले गया और अपनी बूढ़ी मां को ले जा कर दे दिया। बहनें लौटीं तो खाना ग़ायब देख कर रोईं-पीटीं। महीनों की मेहनत के बाद नसीब हुए अच्छे भोजन के वियोग में कुछ दिनों बाद वे चल बसीं। अदनान का कहना था कि उसकी दादी यह कहानी सुनाने के बाद उसे बताती थीं कि कहानी का मतलब क्या है? कहानी का मतलब यह था कि आप भले ही खुद को ग़रीब समझते हों, लेकिन आपसे भी ज़्यादा ग़रीब लोग दुनिया में मौजूद हैं। इसलिए हमेशा मिल-बांट कर खाना चाहिए। जब आप अकेले ही अच्छा-अच्छा गप्प कर लेना चाहते हैं तो मुसीबतें बढ़ती ही हैं, कम नहीं होतीं।
आज दमिश्क दम तोड़ रहा है। आज सीरिया में सन्नाटा है। राष्ट्रपति बशर-अल असद के खि़लाफ़ छह साल पहले शुरू हुई शांतिप्रिय मुहिम अंतरराष्ट्रीय शतंरज की बिसात पर कुछ इस तरह बिखर गई है कि तीन लाख से ज़्यादा लोगों की जानें जा चुकी हैं। सीरिया के दक्षिणी शहर डेरा में 2011 में शुरू हुए ‘अरब-वसंत’ की लपटों ने आहिस्ता-आहिस्ता सब लील लिया है। सीरिया की प्राचीन लोक-कथाओं के केंद्र में भी रोटी थी। उसकी वर्तमान उत्तर-कथाओं के केंद्र में भी रोटी है। सीरिया की चीखें सुन कर भी अनसुनी करने वालों के मुंह में रोटियों के अपने-अपने कौर हैं। इसलिए दमिश्क का दावानल कइयों को नहीं दहला रहा। वरना दिल्ली से दमिश्क कोई इतना दूर नहीं है कि भारतीय संवेदनाओं को न छू पाए। वह महज चार हज़ार किलोमीटर दूर है। क़रीब उतना ही, जितना तवांग से कन्याकुमारी। छह बरस हो गए, सीरिया में सबको अपनी पड़ी है। सऊदी अरब को अपनी, तुर्की को अपनी, ईरान को अपनी, रूस को अपनी और अमेरिका को अपनी। लेकिन पचास लाख से ज़्यादा बेघरबारों की किसी को नहीं पड़ी है। छाती पीटती लाखों औरतों और कलपते बच्चों का माथा सहलाने में तमाम महाशक्तियों के हाथ भी कांप रहे हैं।
दुनिया किसी भी दौर में रही हो, पीड़ित समाज की कथाएं तो हमेशा एक-सी ही रही हैं। सीरिया भी कोई अपवाद नहीं है। तीन दशक पहले अदनान ने ही मुझे तब नई-नई प्रकाशित हुई उल्फ़त इदिल्बी की एक पुस्तक के बारे में बताया था। उल्फ़त अपने समय के सीरियाई साहित्य की मानो मातृ-शक्ति हैं। अपनी उम्र के 95 बरस पूरे करने के बाद अभी छह-सात साल पहले पेरिस में उनका निधन हुआ। दमिश्क की उदास हंसी पर अरबी में लिखी इस क़िताब का पीटर क्लॉर्क द्वारा किया गया अंग्रेज़ी अनुवाद मैंने पहली बार नब्बे के दशक में पढ़ा था। यह 1920 के आसपास के दमिश्क की स्त्री-कसमसाहट को उजागर करने वाला उपन्यास है।
साब्रिया नाम की केंद्रीय पात्र के चारों तरफ़ बुनी गई कथा-वस्तु विस्तार से बताती है कि किस तरह मुक्ति के राष्ट्रीय संघर्ष को विदेशी शक्ति कुचलती हैं, कैसे पुरुष-प्रधान समाज एक युवती को अपने क़ौमी-मुद्दों से जुड़ कर उसकी भूमिका अदा करने से रोकता है और कैसे इससे उपजा अवसाद अंततः साब्रिया की ख़ुदक़ुशी की वज़ह बनता है। उपन्यास में असफल प्रेम, घरेलू हिंसा और भावनात्मक शोषण के वे गहरे छींटे भी अपनी-अपनी खिड़कियों से खुल कर झांकते हैं, जो सदियों से संसार के हर प्राचीनतम और आधुनिकतम समाजों की जड़ों में मौजूद रहे हैं।
डोनॉल्ड ट्रंप के अमेरिका ने इस हफ़्ते सीरिया में जब अपनी सक्रियता दिखाई तो मैंने साब्रिया की कहानी के कुछ पन्ने फिर पलटे और सोचा कि सितारों की लड़ी अपने-अपने गले में डाल कर घूम रहे रहज़नों की दुनिया को आज भी किसी साब्रिया से तो कोई लेना-देना है कि नहीं।
यह वैश्विक संकीर्णता का स्वर्ण-काल है। कट्टरता के बीज किसी-न-किसी बहाने नए सिरे से बोए जा रहे हैं। सीरिया तो प्रतीक भर है। वह महज़ एक भूगोल नहीं है। वह तो हमारी आज की दुनिया की नस-नस से रिसने वाला मवाद है। अंतरराष्ट्रीय-राजनय की चौपड़ पर फेंके जा रहे पांसे शकुनियों के हाथों में हैं। लेकिन ऐसा कोई विदुर दूर-दूर तक नहीं है, जो हमें वह सुरंग दिखा दे, जिससे भाग कर दुनिया भर के मासूम अपने को बचा सकें। बर्बरता के खि़लाफ़ हमेशा तन कर खड़ी रहने वाली ताक़तें भी अपनी बाज़ुओं पर भरोसा खोती जा रही हैं। जिन्होंने हमें बुनियादी उसूलों की हिमायत में सब-कुछ न्यौछावर करते देखा है, वे बाज़ार के दबावों तले बगलें झांकते भारत को देख कर मन मसोस रहे हैं। हमें अपनी सामाजिकता, सामूहिकता, वैश्विक-लोकतांत्रिकता और सहिष्णुता को नए सिरे से परिभाषित करने की ज़रूरत है। भारत अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपनी मान्यताओं को पुनर्स्थापित करने में कोताही करने की भूल भला कैसे कर सकता है?

ख़ुशनुमा दुनिया के कैनवस का रंग भले अलग-अलग हो, मगर ग़मगीन दुनिया के कैनवस का रंग तो धूसर ही है। उसके दर्द की भाषा एक है। उसके आंसुओं का स्वाद एक है। उसकी कुंठाएं समान हैं। उसकी समस्याएं समान हैं। इसलिए मेरे मन को हमेशा यह सवाल सालता है कि जब मुसीबतें इतनी समानधर्मी हैं तो उनके समाधान एक-से क्यों नहीं हैं? एक ही दृश्य वाशिंगटन की दूरबीन से अलग, मॉस्को की दूरबीन से अलग और बीजिंग की दूरबीन से अलग क्यों दिखना चाहिए? क्या इराक से लेकर सीरिया और अफ़गानिस्तान तक के लिए कोई मरहम हमारे पास बचा ही नहीं है? क्या अमेरिकी बमों की अम्मा जीबीयू-43 की बौछारें ही अब एकमात्र इलाज़ रह गया है? ये हंगामे अगर ऐसे ही बेलगाम होते रहे तो इनका उपसंहार लिखने में इतिहास की भी घिग्घी बंध जाएगी। वैचारिक कट्टरता से बिगड़ रहे भौगोलिक समीकरण हमें विनाश की तरफ़ ले जा रहे हैं। इसलिए साफ़गोई से इज़हार के धंधे में कितना ही घाटा होता हो, भारत को अपनी भूमिका निभानी ही होगी।

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