राज-सिंहासन पर नरेंद्र भाई मोदी के पांच सौ के आसपास ही दिन-रात बाकी बचे हैं और गिनती उलटी शुरू भी हो गई। मुझे तो 22 मई 2014 को ही यक़ीन हो गया था कि 2019 किसी भी हालत में उनका नहीं होगा और अगर कोई चुनाव नतीजों के दरमियान उस सुबह दूरदर्शन समाचार पर हो रही बहस फिर से देखे तो मुझ पर ठट्ठा मार कर हंसते भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ताओं को देख कर आज अपनी खोपड़ी खुजाएगा। मैं ने उस सुबह हर चैनल पर कहा कि ये नतीज़े ज़मीनी हक़ीक़त नहीं हैं, ये झक्कूबाज़ी के आसमानी परदे पर लिखे हुए हैं और तीन बरस बीतते-बीतते यह परदा तार-तार हो जाएगा। ज़ाहिर है कि चैनल-एंकर और विपक्षी प्रवक्ता मेरी खिल्ली उड़ा रहे थे। कांग्रेस जब 44 पर सिमट रही हो और भारतीय जनता पार्टी 282 छू रही हो तो तात्कालिक उछाह और गहरी मायूसी के उस माहौल में मुझ से हो रहा सलूक ठीक ही था।
लेकिन जिन्हें साढ़े तीन साल पहले की उस तपती सुबह चुनाव के उन नतीजों की आंच पर इतना पक्का यक़ीन था कि वह कम-से-कम दस साल तक तो भाजपा की देगची को खौलाए रखेगी, अब उन्होंने अपनी आंखें मसलना शुरू कर दी हैं। इसलिए कि एक बात तो साफ हो गई है कि राहुल गांधी के पैर अब जहां-जहां पड़ेंगे, नरेंद्र और अमित भाई शाह की संयुक्त-ज़ागीर बन गई भाजपा का बंटाढार होता जाएगा। पिछले हफ्ते अमेरिका के भारतवंशियों की तालियां अपनी झोली में राहुल गांधी ने जिस तरह समेटीं, उसने भाजपा का चैन-हरण कर लिया। बाकी कसर अमेरिका से लौटते ही राहुल के गुजरात दौरे ने पूरी कर दी। सो, ताज़ा माहौल अमित भाई को कलपा रहा है, नरेंद्र भाई को सनका रहा है और मोहन भागवत को बिदका रहा है।
नरेंद्र भाई अगर न होते तो भाजपा, पता नहीं कब, पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आती? सो, उन्हें यह श्रेय तो देना ही होगा कि लफ़्फाज़ी के बूते ही सही, सपनों की सौदागरी के सहारे ही सही, वे भाजपा की पीठ पर सवार होकर सनसनाते हुए रायसीना-पहाड़ी चढ़ गए। लेकिन आते ही अपने देश पर वे इस तरह पिल न पड़े होते तो आज की उलटी बयार शायद कुछ और वक़्त बाद बहनी शुरू होती। हो सकता है, अगले चुनावों के बाद ही हवा बदलती। लेकिन चाबुक हाथ में ले कर चलने का नरेंद्र भाई का शौक इतनी जल्दी उन पर भारी इसलिए पड़ गया कि अपने पूज्य को प्रसन्न करने के चक्कर में पुजारियों ने ऐसे-ऐसे कान-फाड़ू भजन सुनाए कि देश की उकताहट यहां आ पहुंची।
अमित भाई के मन में नरेंद्र भाई का प्रति-रूप बनने की ऐसी लालसा जगी कि उन्होंने भाजपा-संगठन के साथ वही सब करना शुरू कर दिया, जो उनके प्रणेता सरकार और संसद के साथ करने पर तुले हैं। सरकार में अगर नरेंद्र भाई के अलावा सबकी ज़ुबां थरथरा रही है तो संगठन में अमित भाई के अलावा बाकी सबकी टांगें कांप रही हैं। ऐसे में हृदय-सम्राटों को कोई कब तक दिल में बिठाए रख सकता है? इसलिए सरकार और संगठन के बरामदों में ऐसे लोग अब इने-गिने ही रह गए हैं, जो एक हाथ अपने दिल पर रख कर आज भी दूसरे हाथ से आरती का थाल घुमाने को तैयार हों। अवाम के जिस तबके के दिल में नरेंद्र भाई बस गए लगते थे, नोट-बंदी और जीएसटी ने उन दिलों को भी बेतरह झकझोर दिया। नतीजा यह है कि आसमान से गिर रही भाजपा खजूर में भी अटक पाएगी या नहीं, मालूम नहीं। जिस सोशल-मीडिया के क़सीदे पढ़ते-पढ़ते भाजपा के होंठ नहीं थकते थे, वह भाजपा अब अपने बचे-खुचे चाहने वालों की हिफ़ाजत के लिए उन्हें इस ‘बुराई’ से दूर रहने की हिदायत दे रही है।
आज विजयादशमी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत हर साल की तरह इस बार भी अपने मन की बात कहेंगे। पिछली विजयादशमी पर उन्होंने ‘मत-संप्रदायों का भेद न करने वाले’ शैवदर्शन के आचार्य अभिनवगुप्त को याद किया था; ‘समता और बंधुता का अलख जगाने वाले’ रामानुजाचार्य को याद किया था; ‘स्वाभिमान की रक्षा और पाख्ंाड का घ्वंस करने वाले’ गुरु गोविंद सिंह को याद किया था; और, ‘सभी पंथ-संप्रदायों के समन्वय’ के समर्थक गुलाबराव महाराज को याद किया था। इससे पहले, 2015 की विजयादशमी पर भागवत ने कहा थाः ‘‘सस्ती लोकप्रियता अथवा राजनीतिक लाभ लेने के मोह से दूर रहते हुए समाज के सभी वर्गों के प्रति आत्मीयतापूर्ण भाव रख कर ही समाज का मन बदला जा सकता है’’।
भाजपा की सरकार बनने के फौरन बाद आई विजयादशमी पर भागवत बोले थेः ‘‘समाज ने देश के सत्ता-तंत्र में एक बड़ा परिवर्तन लाया है। अभी इस परिवर्तन को छह महीने भी पूरे नहीं हुए हैं, परंतु ऐसे संकेत यदा-कदा प्राप्त होते रहते हैं, जिससे लगता है कि भारत की जनता के संपूर्ण सुरक्षित, सर्वांगीण उन्नत जीवन की आकांक्षा का प्रतिबिंब शासन-प्रशासन की नीतियों में खिलने लगेगा। आने वाले दिनों में देश की नीति सुव्यवस्थित हो कर आगे बढ़े, यह इस सरकार को करना होगा।’’
भागवत आज क्या बोलेंगे, वे जानें। मैं तो इतना जानता हूं कि उनका मन भी कसक रहा है। संघ की सहयोगी संस्थाएं नरेंद्र भाई के घूंसों से कराह रही हैं। 62 बरस पहले बना और एक करोड़ की सदस्यता वाला भारतीय मज़दूर संघ मोदी-सरकार की नीतियों को ले कर अपनी नाराज़गी एक बार नहीं, कई बार ज़ाहिर कर चुका है। 38 साल पहले बना भारतीय किसान संघ नरेंद्र भाई की सरकार को लानत भेज रहा है। 26 साल पहले बना स्वदेशी जागरण मंच भारत की विदेशों पर बढ़ती निर्भरता को ले कर गुस्से में है। 23 साल पहले जन्मी लघु उद्योग भारती चौपट हो रहे काम-धंधों को ले कर आगबबूली है। 39 बरस पहले बना सहकार भारतीय खुल कर कह रहा है कि सरकार ने सहकारिता को भुला दिया है। 43 साल पहले बनी ग्राहक पंचायत महंगाई को ले कर इतनी गुस्से में है कि उसे सड़कों पर आने से रोकने के लिए भागवत को चिरौरी करनी पड़ती है।
और, संघ के भीतर भी क्या कम खदबदाहट है? कई दिग्गज विदेशी निवेश पर श्वेत-पत्र अब तक नहीं आने को ले कर चिंतित हैं। सार्वजनिक उपक्रमों के बिना सोचे-समझे विनिवेश से खुद भागवत बेचैन हैं। सातवें वेतन आयोग की विसंगतियां अब तक दूर नहीं होने पर भी पितृ-संगठन के भीतर फ़िक्र बढ़ रही है। आंगनवाड़ी और आशा कार्यकर्ताओं को सामाजिक सुरक्षा क़ानून के दायरे में अब तक नहीं लाने ने संघ के ज़्यादातर लोगों को लाल-पीला कर रखा है।
इसलिए मैं मानता हूं कि नरेंद्र भाई की सरकार अपने निर्धारित समय से कम-से-कम दो साल देरी से चल रही है। देश हमेशा सरकारों से तेज़ चलता है। सो, नरेंद्र भाई की बुलैट ट्रेन जब चलेगी, तब चलेगी; देश की बैलेट ट्रैन तो अब सरकने लगी है। वह प्लेटफॉर्म छोड़ रही है। जिन्हें उसकी सीटी सुनाई नहीं दे रही, वे अपनी मीनार में रहें। भारत को तो अपने पुराने दिन फिर बुला रहे हैं।
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