Saturday, March 31, 2018

सियासी आतंक से दुबके पड़े देश का शंखनाद




पंकज शर्मा

 17 March 2018

            महीने पहले जब मैं ने लिखा था कि नरेंद्र भाई मोदी की गिनती उलटी शुरू हो गई है तो मेरे कई पत्रकार मित्रों ने मुझे कांग्रेसी-निमोनिया से पीड़ित बताया था। मगर उसके बाद चुनावी मैदान से एक-के-बाद-एक आए नतीजों ने साफ संकेत देने शुरू कर दिए कि भारतीय जनता पार्टी की गीत-माला लगातार निचली पायदानों की तरफ़ खिसकती जा रही है। अब उत्तर प्रदेश और बिहार से आए चुनाव नतीजों से तो यह आकाशवाणी ही हो गई है कि भाजपा अपने दिन गिन रही है और 2019 की गर्मियों में उसके खि़लाफ़ ऐसी लू चलेगी कि उसका चेहरा ख़ासा झुलस जाएगा।

            पिछले छह महीनों से देश भर में जगह-जगह पंचायत, स्थानीय निकाय, विधानसभा और लोकसभा के लिए हुए चुनाव-उपचुनावों में भाजपा कम, नरेंद्र भाई-अमित भाई शाह की रंगई-बिल्लई ज़्यादा हारी है। बाहर तो बाहर, भाजपा के भीतरी गलियारों में भी, दोनों की मद-मस्ती से लोग आजिज़ चुके हैं। उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के नज़दीकी आपको खुल कर यह बताने को तैयार हैं कि गोरखपुर और फूलपुर का जनादेश स्थानीय नहीं, केंद्रीय मुद्दों की वजह से सामने आया है। इसी तरह बिहार के अररिया को भी भाजपा के भले-मानुस केंद्र सरकार के दंभी क्रिया-कलापों का नतीजा मानते हैं।

            कांग्रेस इन चुनावों में भले ही किसी गिनती में रही हो, लेकिन उसकी पीठ इसलिए थपथपाई जानी चाहिए कि पिछले चार साल में लोकशाही पर हावी मोदी-अमितशाही की लाठियां खाने में कांग्रेस ही सबसे आगे खड़ी रही है। आज कांग्रेस की सर्वोच्च नेता सोनिया गांधी के बुलावे पर उनके रात्रि-भोज में शामिल होने वाले बीस राजनीतिक दलों की तसवीर तले यह हम यह कैसे भूल सकते हैं कि इन चार बरस में कितनी ही बार ऐसे मौक़े आए कि समान विचारों वाले कितने ही दल कांग्रेस से इसलिए कतराए घूमते रहे कि कहीं वे हुकूमत के हंटरों की ज़द में जाएं। मगर मई 2014 में भाजपा के धोबी-पछाड़ से बेतरह लस्त-पस्त कांग्रेस ने अपनी धूल झाड़ कर फौरन खड़े होने में बावजूद इसके हिचक नहीं दिखाई कि उसके हाथ-पैर बुरी तरह टूट चुके थे। किसी अधमरे का बेरहम किंगकांग के सामने फिर-फिर खड़े होने का जज़्बा; किसी को लगे, लगे; मुझे तो अभिनंदनीय लगता है।

पिछले 1400 दिन में अगर कांग्रेस लोकतांत्रिक सरहदों की हिफ़ाजत के लिए एक-एक दिन लड़ती रहती तो आज तो कुतुबशाही के हैदराबाद में बैठे चंद्राबाबू नायडू को असलियत का अहसास हो रहा होता और अवधशाही के लखनऊ में बैठी मायावती के मन में अमितशाही के खि़लाफ़ अंततः उठ खड़े होने की हिलारें उठतीं। सो, मैं मानता हूं कि कांग्रेस को इस बात का श्रेय दिया ही जाना चाहिए कि वह सियासी आतंक से दुबके पड़े एक मुल्क़ को चार साल के भीतर फिर शंखनाद-मुद्रा में ले आई। वरना तो लोग माने ही बैठे थे कि अब दस तो क्या, पचास बरस भी, कहीं कोई पत्ता खड़कने वाला नहीं है।

इन चार साल में लोकसभा की चार सीटें कांग्रेस ने भाजपा से सीधे-सीधे छीनी हैं। अपने निम्नतम दंद-फंद को राजनीतिक रणनीति कहने वाली भाजपा आज भले ही 21 राज्यों पर सीधे या अपने सहयोगियों के ज़रिए काबिज़ हो गई हो, मगर असलियत यह है कि 2014 के बाद हुए विधानसभा चुनाव-उपचुनावों में वह इतनी सीटें हार चुकी है, जिनका जोड़ 65 से ज़्यादा लोकसभा क्षेत्रों के बराबर है। लोकसभा के उपचुनावों में वह अब तक दस सीटें अलग से भी खो चुकी है। यानी नरेंद्र भाई 282 की अपनी चरम चढ़ाई से कम-से-कम 75 सीढ़ियां नीचे तो अभी ही गिर चुके हैं। यह अंकगणित 2019 के आम चुनाव में भाजपा को 207 सीटों से ज़्यादा पर जीत दिलाने लायक तो आज भी नहीं है। भाजपा-विरोधी दलों की एकजुटता का ग़ुल खिला तो सत्रहवीं लोकसभा में नरेंद्र भाई के हमजोलियों की तादाद दो सौ की गिनती कहां से पार करेगी? उत्तर प्रदेश और बिहार से पिछली बार भाजपा को लोकसभा की 93 सीटें मिली थीं। गोरखपुर से अररिया तक के खलिहानों में पसरे ताजा संकेत इशारा कर रहे हैं कि विपक्ष अपने को एकजुट कर विकल्प के तौर पर पेश भर कर दे, बाकी का काम तो मतदाता खुद ही कर देंगे।

चार साल से खुद का चालीसा सुनने-सुनाने में आनंद ले रहे नरेंद्र भाई को पहले तो यह बताए कौन कि उनके मौजूदा ज़मीनी हालात हैं क्या? कोई बता भी दे तो उनके कान यह सुनने को तैयार होंगे या नहीं, इसका क्या भरोसा? वे सुन भी लें तो इस सचाई को स्वीकार करेंगे कि नहीं, क्या पता? असलियत का अहसास वे कर भी लें तो अब उनके लिए देर हो गई है। उनकी लोकप्रियता का चांद ऐसे काले बादलों में खो गया है, जो उनकी किसी भी बाज़ीगरी के बावजूद सवा साल में तो छंटने वाले नहीं हैं। इतने सारे मोर्चों पर एक साथ भड़-भड़-भड़-भड़ अपनी नट-कला का प्रदर्शन करने के बजाय अगर नरेंद्र भाई ने चार साल में आहिस्ता-आहिस्ता चार मोर्चों पर अपना संजीदा शास्त्रीय संगीत सजाया होता तो वे कहीं और होते। तब उनकी भड़भड़ाहट की वजह से भाजपा आज ऐसे लड़खड़ा नहीं रही होती।

नरेंद्र भाई भूल गए कि वे जिस देश के प्रधानमंत्री बने हैं, वह धार्मिक तो है, मगर धर्म के नाम पर धार्मिक-झुंडों की दादागीरी गले उतारना उसके मूल-स्वभाव में नहीं है। नरेंद्र भाई भूल गए कि वे जिस देश के प्रधानमंत्री बने हैं, उसकी जनतांत्रिक जड़ें पाताल तक गहरी हैं और एकतंत्र की हर कुल्हाड़ी उन पर चलते ही भोथरी हो जाती है। नरेंद्र भाई भूल गए कि भले ही प्रधानमंत्री के राज-सिंहासन पर वे बैठे हैं, मगर भाजपा के जिस रथ पर चढ़ कर वे यहां तक पहुंचे है, उसके पहियों को रफ़्तार देने में उनके पुरखों को एक युग लगा है। अपने ही पेड़ की शाखों को काट कर कौन लंबे समय तक फुनगी पर बैठा रह सका है कि नरेंद्र भाई बैठे रहेंगे? आज भाजपा अगर लहुलुहान है तो इसके लिए नरेंद्र भाई के तरकश से चले तीरों और अमित भाई की तलवार के प्रहारों की ज़िम्मेदारी कम नहीं है।

आप भले मानें, लेकिन उत्तर प्रदेश और बिहार में भाजपा की इस हार के बाद खुद भाजपा के ज़्यादातर लोग अपनी ख़ुशी दबा नहीं पा रहे हैं। दलीय शिष्टाचार के निर्वाह ने उन्हें खुलेआम लड्डू बांटने से ज़रूर रोके रखा है, मगर निजी बातचीत में वे अपने मन की प्रसन्नता झलकाए बिना नहीं रह पा रहे हैं। भाजपा के लिए यह खतरे की घंटी भले हो, लेकिन हम सब के लिए यह इसलिए सुखद है कि जनतंत्र पर मंडरा रहा खतरा टलने लगा है। भाजपा में हैं तो क्या, मनुष्य तो वे भी हैं। इसलिए जो मनुष्य हैं, वे जहां भी हैं, वतन के काम पर हैं। और, जो वतन-परस्त हैं, वे लोकशाही को किसी मोदीशाही में तब्दील होते कैसे देख सकते हैं? इसलिए एकरूपता थोपने की कोशिशों और बहुलता के संरक्षण के प्रयासों के बीच होने वाले संघर्ष में, आप देखना, बहुत-से भाजपाई भी आने वाले दिनों में सन्मति-पथ पर कूच करेंगे।

लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।

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