Wednesday, April 18, 2018

अजय सिंह बिष्ट, सत्यपाल सिंह और राहुल गांधी




पंकज शर्मा
 14 April 2018

            न्नाव और कठुआ से उद्वेलित राहुल गांधी ने बृहस्पतिवार की रात 9 बज कर 39 मिनट पर लोगों से मोमबत्ती ले कर ठीक आधी रात इंडिया गेट पहंुचने का आह्वान किया और सवा दो घंटे बाद हज़ारों की भीड़ वहां उनके पीछे खड़ी थी। एक घंटे राहुल वहां रहे। प्रियंका गांधी भी उनके साथ थीं। उन्नाव-घटना के आरोपी विधायक को गिरफ़्तार करने से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अजय मोहन बिष्ट उर्फ़ आदित्यनाथ में अपना बिरादराना इनकार खुल कर घोषित करते हुए कह दिया था कि सरकार के पास विधायक के खिलाफ़ कोई सबूत नहीं है। दबाव बढ़ा तो जांच सीबीआई के हवाले कर के पल्ला झाड़ लिया गया। हीले-हवाले तो सीबीआई भी करती, मगर राहुल गांधी की लोक-मुद्रा देखने के बाद उसने शुक्रवार की सुबह पांच बजे विधायक को हिरासत में ले लिया।

            उन्नाव-मसले पर अजय सिंह बिष्ट के प्रवचन के बाद नरेंद्र भाई मोदी की मंत्रिपरिषद में बैठे सत्यपाल सिंह ने भी हमें एक नई रोशनी दिखाई। उन्होंने देश को बताया कि ऐसे ज़्यादातर मामले झूठे होते हैं। और कोई कहता तो आप अनसुनी कर सकते थे। मगर सत्यपाल सिंह मानव संसाधन मंत्रालय में राज्यमंत्री हैं। वे उच्च शिक्षा का ज़िम्मा संभाल रहे हैं। मुंबई के पुलिस आयुक्त रहे हैं। उस बागपत में जन्मे हैं, जहां के चरण सिंह थे। चरण सिंह के पुत्र अजित सिंह को दो लाख से ज़्यादा मतों से हरा कर लोकसभा में आए हैं। पुलिस में रह कर महाराष्ट्र की सेवा करने के बाद सियासत में कर राष्ट्र-सेवा करने के जज़्बे ने उनके मन में ऐसी हिलोरें लीं कि पुलिस आयुक्त के पद पर रहते हुए ही 2014 की जनवरी के आख़िरी दिन उन्होंने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति का आवेदन कर दिया। आमतौर पर होता नहीं है, लेकिन चंद घंटों में राज्य की सरकार ने उनका आवेदन मंजूर कर लिया। महज़ 48 घंटे बाद सत्यपाल सिंह मेरठ में भारतीय जनता पार्टी की सभा के मंच पर नरेंद्र भाई की बगल में खड़े थे।

            बागपत से बंबई तक के सफ़र में सत्यपाल सिंह ने नारी-अत्याचार के पता नहीं कैसे-कैसे रूपों से निगाहें मिलाई-चुराई होंगी। कनिष्ठ पुलिस अफ़सर के तौर पर उन्होंने नासिक से अपनी नौकरी शुरू की। बुल्ढाना, नागपुर, गढ़चिरौली, पुणे, कोंकण, कहां-कहां नहीं रहे। कुछ वक़्त सीबीआई में भी गुज़ारा है। सो, उन्नाव-मामला सीबीआई के हवाले हो जाने के बाद अगर सत्यपाल सिंह की यह राय सामने आई कि ऐसे ज़्यादातर मामले झूठे होते हैं तो हम क्या समझें? प्रसंगवश आपको यह बताना भी ज़रूरी लगता है कि ये वही सत्यपाल सिंह हैं, जिनके मुंबई के निजी मकान में वेश्यावृत्ति का अड्डा पकड़ा गया था। मकान उन्होंने किराए पर दे रखा था। सब को किराए पर मकान देने से पहले किराएदार का सत्यापन करा लेने की सलाह देने वाले पुलिस महकमे के मुखिया ने ऐसा किया था या नहीं, कौन पूछता? ये वही सत्यपाल सिंह हैं, जो पुलिस-सेवा में जाने से पहले दरअसल वैज्ञानिक बनना चाहते थे और जिन्होंने कुछ महीने पहले देश-दुनिया का ज्ञानवर्द्धन करते हुए ऐलान किया था कि मानव-विकास का डॉर्विन-सिद्धांत पूरी तरह ग़लत है।

            अजय सिंह और सत्यपाल सिंह की जुगल-मानसिकता हमारे दौर का चरम-दुर्भाग्य है। उन्नाव और कठुआ हमारे समय के अमिट कलंक हैं। ऐसी घटनाओं के वक़्त सत्ताधीशों का जो चेहरा सामने आया है, उसकी कुरूपता उबकाई लाती है। कठुआ की आसिफ़ा के साथ हुए हादसे के बाद भाजपा के लाल सिंह और चंद्रप्रकाश गंगा के दिए निर्लज्ज बयानों ने पूरे देश की लाज लूटी है। सुकून इस बात का है कि सत्ता-शिखर पर पसरी संवेदनहीनता के नीचे सामाजिक संवेदनशीलता का एक गहरा समुद्र हिलोरें ले रहा है। ये वे लहरें हैं, जो समुदाय, बिरादरी और राजनीतिक दलों के दायरों को चीरती हुई उठती हैं और सवा दो घंटे में हज़ारों लोगों को इंडिया गेट पर ला कर खड़ा कर देती हैं। संवेदना का यह ज्वार राहुल गांधी को एक राजनीतिक से राजनेता में तब्दील करने की कूवत रखता है। जब-जब ऐसे रूपांतरण होते हैं, तब-तब पूरा समाज करवट लेता है। सियासत तो सियासत है। होती रही है और होती रहेगी। मगर महत्वपूर्ण यह है कि राजनीति से परे अपने सामाजिक दायित्व के बोध ने गुरुवार की रात राहुल गांधी को बेचैन किया और बेचेैनी का यह भाव जितना स्थायी होता जाएगा, मुल्क़ की सियासत उतनी ही निखरती जाएगी।

            प्रतिबद्धता राजनीति का मूल-मंत्र है। लेकिन देखना तो यही होता है कि हम किस सोच से प्रतिबद्ध हैं? एक सोच अजय सिंह बिष्ट की है, जो अपने हमजोलियों के खिलाफ़ सबूतों को देखना सिखाती है। एक सोच सत्यपाल सिंह की है, जो शोषितों के आंसुओं पर संदेह करना सिखाती है। और, एक सोच उस समाज की है, जो मानता है कि न्याय के लिए अगर किसी ने भी जहांगीरी-घंटा बजाया है तो सबसे पहले उसकी सुनवाई होनी चाहिए। जिस राजनीतिक व्यवस्था से सहानुभूति का तत्व गायब हो जाता है, उसे संचालित करने वाला सत्ता-समूह भी काल-पात्र के हवाले हो जाता है। जो सरकारें संसद की बात नहीं सुनतीं, उन्हें अंततः सड़कें अपनी आवाज़ सुनाती हैं।

            लोकतंत्र के रथ का घर्घर-नाद मौजूदा सत्ता-तंत्र को भले ही सुनाई दे रहा हो, मगर यह नाद शुरू हो गया है। एक प्रभावी, प्रखर, निर्णायक और धारदार सोच इन चार वर्षों में चुपचाप अपनी जड़ें जमा चुकी है। आने वाले महीनों में इस सोच की एकीकृत-शक़्ल अगर ठीक से आकार ले सकी तो सिंहासन-बत्तीसी की नई पटकथा का मंचन हम-आप देखेंगे। अभी इस राह में हमें वे सारे दृश्य भी देखने हैं, जिनमें भय फैलाने वाली आवाजे़ं होंगी, फुसलाने वाली फुसफुसाहट होगी और सौदेबाज़ी का सट्टा लगेगा। जो यह जंगल पार कर जाएंगे, वे रायसीना की पहाड़ियों तक पहुंचेंगे। जो बीच में बैठ जाएंगे, उनके सिर हुक़्मरानों की बैठक की दीवारों पर सजे होंगे।

            कभी-कभी हमें लगता है कि हम इस विशालकाय राज्य-व्यवस्था के बेहद अदने पुर्ज़े हैं। हम सोचते हैं कि हम क्या कर पाएंगे? इसलिए हम बाहर नहीं निकलते। लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि आस्था का पुर्ज़ा पूरी मशीन से बड़ा होता है। प्रतिबद्धता का पुर्ज़ा पूरी मशीन का प्राण-तत्व होता है। चार साल पहले राजनीति के पहिए को आस्था के पुजेऱ् ने ही पूरी तरह घुमा दिया था। प्रतिबद्धता का यही पुर्ज़ा अगले साल भी इस पहिए को घुमाएगा। यह पहिया उलटा घूमना शुरू हो गया है। यह कैसी रफ़्तार पकड़ेगा, वह आप तय करेंगे।

            कुछ लड़ाइयां ऐसी होती हैं, जिनसे बच कर भागा नहीं जा सकता। उन्नाव और कठुआ प्रतीक हैं। वे शोषक और शोषित को परिभाषित करते हैं। वे शोषक-समर्थक शक्तियों को बेनक़ाब करते हैं। वे शोषित-समर्थक ताक़तों का इम्तहान लेते हैं। इस इम्तहान में असफल होने का कलंक माथे पर ले कर घूम पाएंगे आप? इतना बोझ ले कर कहां जाएंगे हम-आप? चालाकी भरे तर्कों से अपराध को जायज़ ठहराने की कुचालें कब नहीं चली जाती हैं? उन्नाव और कठुआ का संकट किसी एक धर्म का संकट नहीं है, किसी एक बिरादरी का संकट नहीं है, किसी एक राज्य का संकट नहीं है। यह हमारी प्रतिबद्धता का संकट है, यह हमारी आस्था का संकट है, यह हमारा राष्ट्रीय संकट है। इस संकट से मुंह चुराने वाले क्या मुंह दिखाएंगे?

लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।

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