Monday, June 4, 2018

‘नमोरोगियों’ के देश में बजती विदा-गीत की धुन


पंकज शर्मा

पंकज शर्मा

    मैंने पिछले साल 30 सितंबर को इसी जगह छपे अपने लेख में नरेंद्र भाई मोदी को आग़ाह किया था कि उनकी उलटी गिनती शुरू हो गई है। उस दिन विजयादशमी थी। लेकिन आठ महीने बाद, गुरुवार को लोकसभा के 4 और विधानसभा के 10 उपचुनावों में अपनी ऐसी-तैसी करा लेने के बाद भी, भारतीय जनता पार्टी शुतुरमुर्ग-मुद्रा में इठलाए बिना नहीं मान रही है।
    शुतुरमुर्ग संसार का सबसे बड़ा पक्षी है। भाजपा भी संसार का सबसे बड़ा राजनीतिक दल है। शुतुरमुर्ग का अंडा भी बाकी सभी पक्षियों के अंडों में सबसे बड़ा होता है। भाजपा के वैचारिक-अंडे भी पिछले चार साल से बाकी तमाम वैचारिक-अंडों को मात दिए हुए हैं। शुतुरमुर्ग के पैरों में ऐसी जान होती है कि एक लात मारें तो शेर भी बिलबिला जाता है। भाजपा ने भी 2014 में विपक्ष को जब लात जमाई तो वह चारों खाने चित्त हो गया। शुतुरमुर्ग सबसे ऊंचा पक्षी है। सो, भाजपा पिछले चुनाव में सबसे ऊंची जगह पहुंच गई। शुतुरमुर्ग सबसे तेज़ दौड़ने वाला पक्षी है। सो, भाजपा भी ऐसी दौडी कि सब देखते रह गए।
    लेकिन भाजपा भूल गई कि बेचारे शुतुरमुर्ग के साथ तीन मुसीबतें हैं। एक, सबसे तेज़ भले ही दौड़ ले, मगर वह हवा में उड़ नहीं सकता। दस-पंद्रह फुट की छलांग तो लगा सकता है, लेकिन लाख पंख फड़फड़ाए, उड़ान नहीं भर सकता। दो, शुतुरमुर्ग के दांत नहीं होते। इसलिए उसे अपना भोजन पचाने के लिए तरह-तरह की जुगाड़ करनी पड़ती है। और तीन, जब तूफ़ान आता है तो शुतुरमुर्ग अपनी गर्दन रेत में घुसा लेता है और सोचता है कि वह बच गया। उसे यह अहसास ही नहीं होता है कि बाकी पूरा ज़िस्म तो बाहर है, सिर्फ़ गर्दन बचा कर क्या हो जाएगा?
    अपनी ताज़ा-ताज़ा पिटी भद्द के बावजूद भाजपा का यही हाल है। चार साल में उसने छलांग लगाने की कोशिशें तो बहुत कीं, मगर उड़ान वह नहीं भर सकी तो नहीं ही भर सकी। अपना वैचारिक नज़रिया देश के गले उतारने के लिए भी भाजपा ने हर तरह की जुगाली करने में कोई कसर बाक़ी नहीं रखी, मगर भारत हिंदू राष्ट्र बनने को तैयार नहीं हुआ तो नहीं ही हुआ। और, अब जब तूफ़ानी हवाएं सांय-सांय कर रही हैं तो भाजपा अपनी गर्दन रेत में घुसा कर तूफ़ान के अस्तित्व को नकारने में दिन-रात एक कर रही है। लोकसभा में वह अल्पमत में आ गई है, तो नरेंद्र भाई की बला से! 4 साल में 14 राज्यों में हुए 27 उपचुनावों में से वह सिर्फ़ 5 जीती है, तो अमित शाह की बला से!
    मगर भाजपा के दिखाने के इन दांतों के पीछे से मुझे तो नरेंद्र भाई के ललाट पर गहरी होती जा रही लकीरें साफ दिखाई दे रही हैं। जिन्हें अमित भाई शाह के चेहरे पर उड़ती हवाइयां दूरबीन लगा कर भी नहीं देखनीं, न देखें; लेकिन देश तो नंगी आंखों से भी उन्हें देख रहा है। मैं तो चाहता हूं कि भाजपा ताज़ा नतीजों के बावजूद आत्म-मुग्ध रहे। अब भी न चेते। यही लोकतंत्र के लिए शुभ है। नरेंद्र भाई का आत्म-मोह ही तो 2019 में उन्हं  इंद्रासन से नीचे फेंकेगा। इसलिए उनकी तंद्रा बनी रहे तो ही बेहतर है। मुझे पक्का यक़ीन है कि वे नहीं चेतेंगे। चेतने वाला चेतने में चार साल थोड़े ही लगाता है। भारतीय संवेदनाओं की ज़रा भी चेतना होती तो क्या नरेंद्र भाई अपने प्यारे देशवासियों के बहते आंसुओं के बीच चार बरस से ऐसे ही ठुमके लगाते विचर रहे होते?
    इसलिए मैं घनघोर नमोरोगियों (मनोरोगियों मत समझिए) को छोड़ कर बाक़ी सबसे भाजपा की विदाई-डोली सजाने में हाथ बंटाने का अनुरोध करता हूं। इस अनुरोध के पीले चावल लेकर हम अगली गर्मियों तक जितने घरों के दरवाज़े खटखटा लेंगे, देश उतने ही क़दम आगे बढ़ जाएगा। चार साल में भारत चार सौ साल पीछे चला गया है। तब कबीर ने देह छोड़ी थी। आज भाजपा के हंटर हमारी तहज़ीब में बसी कबीर-तत्व की देह को बेतरह लहुलुहान कर चुके हैं। एक बरस बाद अगर भाजपा विदा नहीं हुई तो कबीर-भाव विदा हो जाएगा। तब या तो नरेंद्र भाई के मन की बात रहेगी या कबीर के मन की। इसलिए चुनना तो हमें है।
    हमें चुनना है कि हम निजी महत्वाकांक्षाओं के बरसते कोड़ों को अपनी पीठ देंगे या विचारधाराओं के युद्ध में अपना सीना तान कर खड़े होंगे? हमें चुनना है कि कौन हमारे लिए यह तय करेगा कि मुख्य-धारा क्या है और गौण-धारा क्या? हमें चुनना है कि हरियाली को ऐसे ही झुलस जाने देंगे या अपनी अंजुरियों में पानी ले कर उसे बचाने दौड़ेंगे? हमें चुनना है कि भारत के सांस्कृतिक गमले में लगे फूलों को हम कुम्हलाने देंगे या उनकी पंखुड़ियों को बचाने में अपना सब-कुछ लगाएंगे? क्या हमारे हाथ इतने बंध गए हैं कि अपनी ज़ंजीर भी हम नहीं खोल सकते?
    बस, एक धक्का भर और देना है। उसके बाद चार साल पहले उतरी रेल अपनी पटरी पर लौट आएगी। अपनी ग़लती है तो हमें ही सुधारनी भी होगी। जब रेल में एक से ज़्यादा यात्री बैठे हों तो किसी एक को यह हक़ नहीं मिलना चाहिए कि वह अपनी मर्ज़ी से रेल को चाहे जिस पटरी पर डाल दे। लेकिन हमने बेवज़ह अपनी लंगोट घुमाते घूम रहे एक तालठोकू को 2014 में अपने हाथ काट कर दे दिए। चार बरस में उसने भारतीय रेल को अंधी गली के हवाले कर दिया। अब हम अपनी यात्रा के अंतिम चरण में हैं। इस एक बरस में या तो हम इस रेल की पटरी बदल दें या फिर उस मुहाने पर जा कर खड़े होने की तैयारी कर लें, जिसके आगे कोई पटरी नहीं है। 
    इसलिए अब एक-एक लमहा बेहद अहम है। यक़ीन रखिए कि नरेंद्र भाई अगर अब आसमान के सारे बादलों को भी इकट्ठा कर लें तो वह बारिश नहीं होने वाली, जिससे नए अंकुर फूटते हैं। उनके आगमन के बाद से लगातार बांझ होती जा रही धरती की जब तक नए सिरे से जुताई-गुड़ाई नहीं होगी, फ़सल नहीं लहलहाएगी। अपनी राह में बिछे पत्थर अगर हम उठा कर नहीं फेंकेंगे तो कौन फेंकेगा? अपनी आंखों में जो सपने हमने संभाल कर रखे हैं, उन्हें कोई और आकर पूरे नहीं करेगा। यह तो हमें अब खुद करना होगा। 
    देश घोषणाओं का अंबार लगाने से नहीं, ज़मीनी क्रियान्वयन से आगे बढ़ते हैं। ऐसे नौ-नौ किलोमीटर की सड़क बनाने के बाद उसके किनारे खड़े किराए के चेहरों का हाथ हिला कर अभिवादन करने का शौक़ अगर दूसरे प्रधानमंत्रियों को भी होता तो सोचिए, भाखड़ा-नांगल बांध और भिलाई इस्पात कारखाने के निर्माण से लेकर हरित, श्वेत और कंप्यूटर क्रांति तक हम पहुंचते कैसे? इसलिए आइए, इस एक साल में, चार साल पहले अपने हाथों हुए पाप का प्रायश्चित करें और आज ही उस कांवड़-यात्रा पर निकल पड़ें, जो 2019 में जब संपन्न हो तो हमारे सारे पाप धुल जाएं। ऐसा नहीं हुआ तो ये पाप, हमारे नहीं, अगली पीढ़ी के सिंर चढ़ कर बोलेंगे और तब कोई काल-सर्प पूजा हमें मोक्ष नहीं देगी। 

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