Monday, May 27, 2019

मेरा नाम चिन-चिन चू, हा-हा-हा-हा, हू-हू-हू

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Pankaj Sharma; 04 May, 2019 

हर बात का सियासी फ़ायदा उठाने की हवस है कि शांत होने का नाम ही नहीं ले रही! सो, जब मैं ने नरेंद्र भाई मोदी और उनकी कीर्तन-मंडली को मसूद अज़हर के वैश्विक आतंकवादी घोषित किए जाने का निजीकरण कर डांडिया करते देखा तो मुझे तो कोई हैरत नहीं हुई। पूरा मुल्क़ प्रधानमंत्री को पांच साल से समझा रहा है कि कृपया ऐसा समझना बंद कीजिए कि भारत 16 या 26 मई 2014 को जन्मा था, लेकिन जब नरेंद्र भाई ख़ुद ही अपनी इस ख़ामख़्याली से चिपके बैठे हैं तो उनके अनुचरों को आप-हम क्या खा कर रोंकेंगे? तो जैसे ही संयुक्त राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद की एक उपसमिति ने मसूद का नाम दुनिया भर के प्रतिबंधित आतंकवादियों की सूची में शामिल किया, अपने चुनावी दौरे में जयपुर से गुज़र रहे हमारे प्रधानमंत्री ने ख़ुद को शाबासी दे डाली। फिर क्या था, चालीसा-पाठ करने वालों ने भी शंखनाद शुरू कर दिया।
बुधवार की रात से नक्कारखाने में मेरे जैसे कई लोग यह तूती बजाने की क़ोशिश करते रहे कि मसूद को वैश्विक आतंकवादी घोषित करने की मांग तो दस साल पहले 2009 में कांग्रेस की अगुआई वाली केंद्र सरकार ने की थी। चीन के अड़ंगों की वज़ह से राष्ट्रसंघ को यह फ़ैसला लेने में इतनी देर लगी, लेकिन इसका यह मतलब कहां से हो गया कि मोदी नहीं थे तो यह मुमक़िन नहीं था और अब मोदी हैं तो यह मुमक़िन हुआ है? लेकिन मोदी हैं तो सब मुमक़िन है। यह भी कि आज़ादी के बाद जो मीठा-मीठा है, वह मोदी की वज़ह से है और जो कड़वा-कड़वा है, वह नेहरू, इंदिरा और राजीव गांधी की वज़ह से। मोदी हैं तो चीन थर-थर कांपने लगा और राष्ट्रसंघ महासचिव एंटोनियो गुट्रेस के सामने मसूद को प्रतिबंधित सूची में डालने के अलावा कोई चारा ही नहीं बचा। ‘सर्ज़िकल स्ट्राइक’ के सूरमा से भला कौन झंझट मोल ले?
अटल बिहारी वाजपेयी के लिए हम सभी के दिल में सम्मान है। दो दशक पहले जब वे प्रधानमंत्री थे, तब भारत में कोट-बहावल की जेल में पड़े मसूद को इंडियन एयर लाइन्स के अपहृत विमान और यात्रियों के बदले रिहा किया गया था। तब मैं नवभारत टाइम्स का विशेष संवाददाता था और राजनीति के अलावा नागरिक विमानन मंत्रालय भी कवर करता था। 1999 के दिसंबर की कड़कड़ाती सर्दियां थीं और उस साल के आख़िरी शुक्रवार की शाम पांच बजे के आसपास, जब काठमांडू से दिल्ली आ रही इंडियन एयर लाइन्स की उड़ान 814 के अपहरण की ख़बर आई तो एकबारग़ी सब स्तब्ध रह गए थे। अपहर्ता विमान को पाकिस्तान ले जाना चाहते थे, मगर पायलट ने झक्कू दे कर उसे अमृतसर में उतार लिया। मगर बाद में अपहर्ता उसे लाहौर और दुबई के विमानतल छुआ-छुआ कर अंततः कंधार ले पहुंचे।
मेरी तरह उस ज़माने के कई पत्रकार जानते हैं कि किस तरह यात्रियों के परिजन दिन-रात प्रधानमंत्री निवास के सामने पूरे हफ़्ते पड़े रहे थे, किस मजबूरी में अटल जी ने आतंकवादियों को रिहा करने का फ़ैसला किया था और उनके विदेश मंत्री जसवंत सिंह कितने अनमने मन से आतंकवादियों को छोड़ने ख़ुद कंधार तक गए थे? जैसे-जैसे नए साल का आख़िरी दिन नज़दीक आता जा रहा था, प्रधानमंत्री निवास के बाहर-भीतर बेचैनी चरम पर पहुंचती जा रही थी। आख़िरकार 31 दिसंबर को सारे बंधक यात्री वापस पहुंचे और उस बार का नया साल जिस अंदाज़ में मना, कभी नहीं मना। 
मसूद अज़हर पांच साल से ज़्यादा वक़्त से कोट-बहावल जेल में बंद था। उसे फरवरी 1994 में अनंतनाग के पास से पकड़ा गया था। जेल में पांच साल उससे पूछताछ करने वाले कई अफ़सरों द्वारा उन दिनों आपसी बातचीत में सुनाए गए क़िस्से मुझे आज भी याद आते हैं। उसे जसवंत सिंह के साथ कंधार ले कर गए विवेक काटजू, अजीत डोभाल, सी.डी. सहाय और आनंद अर्नी की गठरी में उन सात-आठ दिनों में हुई उठापटक की और भी बहुत-सी कहानियां थीं, जो तब छन-छन कर बाहर आती थीं। 
काटजू तब विदेश मंत्रालय में संयुक्त सचिव थे। डोभाल इंटेलिजेंस ब्यूरो के विशेष निदेशक थे। सहाय और अर्नी रॉ में थे। सहाय बाद में रॉ के प्रमुख बने। डोभाल आई.बी. के प्रमुख बने और कुछ वक़्त सेवानिवृत्ति-काल बिताने के बाद आज हमारे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हैं। मगर बीस साल में एक बार भी इनमें से किसी ने किसी को सार्वजनिक तौर पर यह नहीं बताया कि क्या नेपाल में तैनात रॉ का एक अहम अफ़सर भी इस विमान में था? क्या अमृतसर में अपहृत विमान के पौन घंटे के पड़ाव के दौरान कमांडो कार्रवाई के ज़रिए बंधकों को मुक्त कराने की तैयारी कर ली गई थी? क्या यह कार्रवाई प्रधानमंत्री-दफ़्तर के एक बड़े अधिकारी के कहने पर रोक दी गई थी? क्या विमान में मौजूद रॉ का उच्चाधिकारी प्रधानमंत्री-कार्यालय के इस अधिकारी का दामाद था? जितने मुंह, उतनी बातें तब हमारे कानों में फुसफुसाहट बन कर आती थीं।
मसूद अज़हर के वैश्विक आतंकी घोषित होने पर सबसे ज़्यादा चौड़ा सीना तो आज उन भारतीयों का है, जिन्होंने 1999 का वह दिसंबर देखा है। बे-बात ही इसका सारा श्रेय अपने माथे पर बांधे घूम रहे स्वयंभुओं की पेशानी पर तो दरअसल बीस साल पहले उठे सवाल लिखे हुए हैं। आज कश्मीर में पीडीपी से अपने रिश्तों को तेल-पानी के संबंध बताने वाले नरेंद्र भाई को इतना तो याद होगा कि तब की भाजपा के संबंध भी मुफ़्ती मुहम्मद सईद से कितने गहरे थे और फारूख अब्दुल्ला के तमाम विरोधों के बावजूद कोट-बहावल की जेल से किस-किस और आतंकी को रिहा किया गया था?
असलियत यह है कि घर में घुस कर मारने का दावा करने वाले जब सरकार में थे, भारत को अपने घर में क़ैद लोग दुश्मन के घर तक ख़ुद जा कर सौंपने पड़े। गांव में मेरे एक ताऊ थे। वे कहा करते थे कि दुश्मन को कोड़े मारो दस, गिनो एक। मुझे लगता है कि नरेंद्र भाई के उनके ताऊ ने बचपन में यह ढपोरशंखी-मंत्र दे दिया कि मारो एक, पर गिनो दस। सो, वे भारत जैसे महान देश का प्रधानमंत्री बनने के बाद भी जितना करते हैं, उससे ज़्यादा हा-हा-हू-हू करते हैं। उनमें ये संस्कार व्यक्तिगत हैं। अगर ये संस्कार व्यक्तिगत नहीं, सांस्थनिक होते तो अटल जी ने अपने प्रधानमंत्री रहते पाकिस्तान के ख़िलाफ़ कीं दो सर्ज़िकल स्ट्राइक पर ‘ये मारा, वो मारा’ का नाच हमें क्यों नहीं दिखाया?
कांग्रेस को कायर बताने वालों की आजकल कोई कमी नहीं है। सो, हम मान लेते हैं कि जब उसकी अगुआई में दस साल चली सरकार के समय जब भारतीय सेना ने पूरे छह बार पाकिस्तान को ‘घर में घुस कर’ मारा था तो वहां के हुक़्मरानों के डर के मारे भारत की जनता को यह बात नहीं बताई गई थी। अब जब तब की तारीख़ें, स्थान और समय मुल्क़ के सामने हैं तो नरेंद्र भाई ख़ामोश क्यों हैं? प्रधानमंत्री दो तरह के होते हैं। एक, जिनमें गंभीर जानकारियों को हज़म करने का माद्दा होता है। दूसरे, जिन्हें चिल्ल-पों किए बिना नींद नहीं आती है। इस मामले में मैं अटल जी को भी नमन करूंगा कि वे प्रधानमंत्री पहले थे, फिर बाकी सब। उनकी किसी ने सुनी, न सुनी, मगर उन्होंने प्रधानमंत्री रहते अपने ही लोगों को राजधर्म की याद दिलाई। ठीक है कि आज ‘मेरा नाम चिन-चिन चू’ का ज़माना है। मगर अपने गले में सब-कुछ लपेटते हुए कुछ तो रहम करो, हुज़ूर! (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)

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