फरवरी की शुरुआत में जब राहुल गांधी बिहार गए थे, तभी ये संकेत साफ हो गए थे कि बीस बरस से अलसाई पड़ी कांग्रेस यह साल विदा होते-होते वहां करवट लेने वाली है। बिहार को लेकर राहुल गांधी का उत्साह फिलहाल जिन लोगों को हकीकत से परे लग रहा है, उनकी शतुरमुर्गी सोच आने वाले नवंबर में ही असलियत का अहसास कर पाएगी। कोई चाहे तो आसानी से यह भूल सकता है कि पांच बरस पहले के बिहार ने भी न तो कांग्रेस को सिरे से नकारा था और न ही कांग्रेस-विरोधी राजनीतिक दलों की बलैयां ली थीं। लेकिन दो हजार पांच से दस के बीच तो कोसी में बहुत पानी बह गया है और अब इतना तो सब मान रहे हैं कि इस बार बिहार न तो नीतीश कुमार और उनके साथ खड़ी नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी का स्वागत करने को तैयार है और न ही उसे लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान की मतलबी-जोड़ी पर यकीन हो पा रहा है।
और, पांच साल पहले भी इन सबकी असली हालत क्या थी? 2005 में बिहार में दो बार विधानसभा के चुनाव हुए थे। उस साल फरवरी में हुए चुनाव में ऐसे लटकनपच्चू नतीजे आए कि कोई सरकार ही नहीं बन पाई और विधानसभा भंग हो गई। अक्टूबर-नवंबर में चार चरणों में दोबारा चुनाव हुए। लोगों ने लालू-राबड़ी के पंद्रह बरस से आजिज आ कर सिंहासन नीतीश कुमार को सौंप दिया। इस बात से क्या मुंह चुराना कि फरवरी में हुए चुनाव में कांग्रेस को 10 सीटें मिली थीं और अक्टूबर में चुनाव हुए तो सीटें 9 रह गईं। लेकिन क्या यह भूल जाएं कि फरवरी में कांग्रेस ने 84 उम्मीदवार उतारे थे और अक्टूबर में सिर्फ 51 ही? फरवरी में कांग्रेस को करीब 15 प्रतिशत वोट मिले थे। अक्टूबर में वे बढ़ कर 29 प्रतिशत हो गए। 84 सीटों पर लड़ने के बावजूद फरवरी में कांग्रेस को 12 लाख 23 हजार वोट मिले और आठ महीने बाद 33 उम्मीदवार कम उतारने के बावजूद उसे 14 लाख 35 हजार वोट मिल गए। पांच बरस पहले के बिहार में आठ महीने के भीतर सवा दो लाख वोटों की यह बढ़ोतरी भी जिन्हें 2010 के नवंबर की हवा का संकेत नहीं देती हो, उनकी राजनीतिक समझ को प्रणाम करने के अलावा क्या किया जा सकता है?
2005 की असलियत यह है कि तब फरवरी और अक्टूबर-नवंबर के बीच बिहार में कांग्रेस के अलावा सिर्फ भारतीय जनता पार्टी और युनाइटेड जनता दल की ही राजनीतिक जमीन मजबूत हुई थी। लालू प्रसाद, रामविलास पासवान, वाम दलों और निर्दलियों के नीचे से जमीन खिसक गई थी। लालू को फरवरी में 75 सीटें मिली थीं और नवंबर आते-आते वे 54 पर रह गए थे। पासवान को फरवरी में 29 सीटें मिली थीं, नवंबर में तकरीबन सभी सीटों पर लड़ने के बावजूद वे 10 पर झूल रहे थे। फरवरी में 17 सीटें जीत गए निर्दलीय नवंबर में 10 पर सिमट गए थे। लालू के राश्ट्रीय जनता दल को फरवरी में 61 लाख से ज्यादा वोट मिले थे, अक्टूबर आते-आते वे 55 लाख रह गए। उन्हें सात महीनों में सात लाख वोटों का घाटा हो चुका था। पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी को फरवरी में 31 लाख वोट मिले थे और अक्टूबर में वह 26 लाख पर आ टिकी। पासवान भी इस बीच पांच लाख वोट खो चुके थे। मार्क्सवादी पार्टी को इस बीच हजारों वोटों का नुकसान हो चुका था और कम्युनिस्ट पार्टी के हाथ से भी 65 हजार वोट फिसल चुके थे। हां, भाजपा की सीटें जरूर 37 से 55 हो गई थीं और जदयू 55 से बढ़ कर 88 पर पहुंच गई थी। यानी सेकुलर पार्टियों में से अगर किसी पर बिहार के मतदाता का भरोसा तब बढ़ा था तो वह कांग्रेस ही थी।
अक्टूबर-नवंबर ’05 के चुनाव की कुछ सच्चाइयां और जान लीजिए। कांग्रेस के तब सिर्फ नौ उम्मीदवार ही विधानसभा की दहलीज तक पहुंच पाए थे, मगर 33 विधानसभा क्षेत्र ऐसे थे, जहां कांग्रेसी उम्मीदवार बहुत कम वोटों के अंतर से दूसरे क्रम पर रहे थे और उन्हें 30 से 45 हजार तक वोट मिले थे। कोलगोंग में पड़े वोटों का 36 प्रतिशत से ज्यादा कांग्रेस को मिला, लेकिन 45 हजार से ज्यादा वोट पा कर भी कांग्रेसी उम्मीदवार पिछड़ गया। बगहा में 35 प्रतिशत से ज्यादा वोट कांग्रेस को मिले, लेकिन 42 हजार से अधिक वोट भी उसे जिता नहीं पाए। सिमरी बख्तियारपुर में कांग्रेस को साढ़े 37 प्रतिशत वोट मिले, लेकिन सीट फिसल गई। मांझी में कांग्रेस को 40 प्रतिशत वोट मिले, लेकिन सीट हाथ से निकल गई। वारसलीगंज में 41 प्रतिशत से ज्यादा वोट पा कर भी कांग्रेसी उम्मीदवार नहीं जीता। पांच बरस पहले किनारे पर डूबी कांग्रेसी किश्ती का यह किस्सा बेतिया, चनपतिया और बचवाड़ा से ले कर बरगिहा, फतुआ और पटना-पश्चिम तक पसरा पड़ा है।
2005 में बाकी राजनीतिक दलों की हालत क्या थी? जदयू के 51 उम्मीदवार हारे थे और उनमें से 9 की तो जमानत जब्त हो गई थी। भाजपा के 47 उम्मीदवार घर बैठ गए थे और उसके भी 9 प्रत्याशियों ने जमानत खो दी थी। लोजपा के तो 193 उम्मीदवार बुरी तरह हारे थे और उनमें से 141 जमानत भी नहीं बचा पाए थे। राजद के 121 उम्मीदवार लालू की माला जपने के बावजूद हारे थे और 8 की जमानत जब्त हुई थी। मायावती की बहुजन समाज पार्टी भी मैदान में थी और उसके 208 उम्मीदवार बेहद बुरी हालत में हारे थे। इनमें से भी 201 की तो जमानत भी नहीं बची थी। मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी भी इतराते हुए बिहार के मैदान में उतरी थी और उसने 158 उम्मीदवार मैदान में उतार दिए थे। 156 हार गए और उनमें से 150 की जमानत भी जाती रही। कम्युनिस्ट पार्टी का तब सिर्फ एक उम्मीदवार जीता था और मार्क्सवादी पार्टी के महज तीन। आज अपने को सूरमा बता रहे राजनीतिक दलों की हालत तो पांच बरस पहले के बिहार में भी यह थी कि बहुत-सी सामान्य सीटों पर राजद की भद्द पिट गई थी। मसलन, मुजफ्फरपुर में उसके उम्मीदवार को महज पौने तीन हजार वोट मिले थे। लोजपा को भी ज्यादातर सीटों पर दो-एक हजार वोट ही मिले थे। मसलन, धनाहा जैसी सीट पर भी उसे सिर्फ तेरह सौ वोट से संतोश करना पड़ा था। बसपा की हालत तो यह थी कि उसके उम्मीदवार को दरभंगा में 860 और आदापुर में 926 वोट मिले। भोर, भैरवा, राजौली, राजगीर और बरबिगहा जैसी आरक्षित सीटों तक पर बसपा इतनी बुरी तरह हारी कि उसे एक से दो हजार के ही बीच वोट मिले। लोजपा और सपा भी ज्यादातर आरक्षित सीटें बुरी तरह हारे। सपा की झोली में तो बहुत-सी जगह पांच-सात सौ वोट भी मुश्किल से पड़े। मोतिहारी जैसे निर्वाचन क्षेत्र में भी उसे 692 वोट ही मिले। पटना-पूर्व, दिनारा और पालीगंज में भी सपा का आंकड़ा पांच सौ के आसपास ही झूलता रहा।
हारे तो कांग्रेस के उम्मीदवार भी। उनमें से कुछ की जमानतें भी जब्त हुईं। लेकिन फर्क यह है कि बारसलीगंज में 36 हजार 851 वोट पाने के बाद भी कांग्रेस हार गई। रक्सौल में 23 हजार, घुरैया में 21 हजार, चकई में साढ़े 18 हजार और भैरवा में 15 हजार वोट पा कर भी कांग्रेस के उम्मीदवार नहीं जीत पाए। हरसिद्धी में कांग्रेसी उम्मीदवार की जमानत 13 हजार से ज्यादा वोट पाने के बाद भी जब्त हो गई। ऐसी और भी कई मिसालें हैं। कांग्रेस को छोड़ कर कोई ऐसा राजनीतिक दल नहीं था, जिसके उम्मीदवार की जमानत किसी-न-किसी आरक्शित सीट पर 2005 में जब्त नहीं हुई। लेकिन कांग्रेस के किसी भी अनुसूचित जाति-जनजाति प्रत्याशी ने अपनी जमानत नहीं गंवाई। कांग्रेसी उम्मीदवारों की हार भी काफी कम अंतर से हुई थी। मांझी, बनियापुर, मसरख, गरखा और वैशाली जैसे कई इलाकों में कांग्रेस बहुत ही कम फर्क से हारी। इनमें से हर जगह जदयू या भाजपा जीती। और, जहां-जहां कांग्रेस जीती, काफी वोटों से जीती। बहादुरगंज में कांग्रेस 43 हजार वोटों से जीती। अमौर में साढ़े 14 हजार और कोरहा, शेखपुरा और सिंघिया में 12 हजार से ज्यादा वोटों के अंतर से कांग्रेसी प्रत्याशी जीते थे।
बिहार में पंद्रह बरस के लालू-कुराज में करीब आधा वक्त लालू ने राज किया और बाकी आधा वक्त उनकी अर्धांगिनी राबड़ी देवी ने। अब पांच साल से लोग नीतीश-भाजपा की नटबाजी भी देख रहे हैं। बिहार की राजनीतिक रस्सी पर चलने का दोनों का संतुलन पिछले कुछ महीनों में पूरी तरह गड़बड़ हो गया है। पांच साल पहले बिहार के जिन लोगों ने लालू और पासवान को आपस में तू-तू-मैं-मैं करते अपनी आंखों से देखा है, क्या वे आसानी से उनकी गलबहियों पर ऐतबार कर लेंगे? इसलिए, बिहार के बदलते मत-समीकरण के ताजा दौर में, राहुल गांधी वहां कांग्रेस की सीटों को तीन अंक तक पहुंचाने का ब्लू-प्रिंट अगर तैयार कर रहे हैं, तो आज उसे मजाक में उड़ा देने वाले, इस साल की सर्दियां आते-आते अपने को राजनीतिक बर्फ में बुरी तरह ठिठुरता हुआ भी पा सकते हैं। पिछले पांच साल में बिहार का माहौल बहुत बदल गया है। युवा और दलित वर्ग में राहुल गांधी की पैठ ने समाजशास्त्रियों को भी आंखें मसलने पर मजबूर कर दिया है। बिहार का अल्पसंख्यक लालू-पासवान की टोपियों की असलियत समझ गया है। उसे नीतीश के ताजा मुखौटे पर भी यकीन नहीं हो रहा है। 2010 में राहुल के मिशन-बिहार को संजीदगी से लेना इसीलिए जरूरी है।
Thursday, July 8, 2010
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राहुल गांधी और मिशन-बिहार |
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