अगले आम चुनाव से पहले अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण शुरू हो जाएगा या नहीं, नरेंद्र भाई मोदी, अमित भाई शाह और मोहन भागवत जानें। लेकिन हम सब इतना तो जानते ही हैं कि इन तीनों में से कोई भी उतना बड़ा राम-भक्त नहीं है, जितने बाबा तुलसीदास थे। इसीलिए राम के चरित्र को जैसा तुलसीदास ने समझा, मोदी-शाह-भागवत की तिकड़ी उसका रत्ती भर भी समझने की लियाकत नहीं रखती है। सो, राम का मंदिर अयोध्या में भले ही बन जाए, राम तो बाबा तुलसीदास के रामचरित मानस में ही विराजेंगे।
संघ कुनबे और भारतीय जनता पार्टी के शिखर-नायकों को राम से अगर ज़रा भी लेना-देना होता तो उन्होंने तुलसी के मानस में गोता लगा कर कभी तो वे मोती तलाशे होते, जो बताते हैं कि नायक होना आख़िर होता क्या है? तुलसी का मानस अलग-अलग नायकों और उनकी क़ुर्बानियों का दस्तावेज़ है। वह बताता है कि नायक को कैसा होना चाहिए। वह बताता है कि नायकत्व क्या होता है। वह बताता है कि नायक का व्यवहार, प्रवृत्ति, संप्रेषण और शैली कैसी होनी चाहिए।
तुलसी ने रामचरित मानस में कई बार यह सवाल उठाया है कि क्या हम किसी को सिर्फ़ इसलिए अपना नायक मान लें कि वह राजा है? या वह राजा का पुत्र है? या उसने कोई युद्ध जीत लिया है? तुलसी पूछते हैं: ‘राम कवन कहि प्रभु पूछहि तोहि, कहिय बुझाई कृपानिधि मोहि’। ‘एक राम अवधेश कुमारा, तेहि चरित बिदित संसारा‘। ‘नारि विरह दुःख लहुन अपारा, भायु रोष रण रावण मारा’। ‘राम अवध नृपति सुत सोई, कि अज अगुन अलख गति सोई’। तुलसी के मन में प्रश्न हैं कि हम किस राम को अपना नायक मानें? उसे, जो अयोध्या-नरेश का पुत्र है? या उसे, जिसने रावध का वध किया? या उसे, जो अपनी पत्नी के विरह से व्याकुल हो कर युद्ध-रत रहा?
हम भले ही अपने नायक तय करते वक़्त ज़्यादा न सोचें और किसी को भी अपना भाग्य-विधाता बना कर बाद में कलपते रहें, मगर तुलसी बाबा सिर्फ़ इसलिए किसी को भी अपना नायक मानने को तैयार नहीं हैं कि वह योद्धा है और किसी युद्ध का विजेता है। राम को भी नहीं। वे कहते हैं: ‘जासु कृपा अस भ्रम मिट जाई, गिरिजा सोई कृप्याल रघुराई’। ‘दलन मोह तम सो सप्रकाशु, बड़े भाग्य उर आव्ये जासु’। ‘आदि अंत कोई जासु न पावा, मति अनुमानि निगम अस गावा’। नायक वह है, जो हमारे भ्रम दूर कर दे, हमें भ्रंतियों से बाहर ले आए, जो कभी दुविधा में न रहे, जो अंधकार दूर करे, प्रकाश-पुंज हो और जो इतना सहज हो कि सब उस तक पहुंच सकें। तुलसी ने मानस में कहा है कि नायक को अपार ज्ञान होना चाहिए, मगर जो ज्ञानी होने के बावजूद, जो अपनी बात लोगों तक न पहुंचा सके, ऐसे नायक का कोई मतलब नहीं।
सैकड़ों बरस पहले तुलसीदास ने हमें बता दिया था कि नायकत्व और कुछ नहीं, सिर्फ़ अवधारणा है। नेतृत्व महज मनोभाव है, संकल्पना है, संधारणा है। मानस में वे कहते हैं: ‘एक अनिह अरूप अनामा, अज सच्चिदानंद परधामा’। ‘व्यापक विश्व रूप भगवाना, तेहि धरि देह चरित कृत नाना’। ‘व्यापक एक ब्रह्म अविनाशी, सत चेतन घन आनंद राशी’। नायकत्व अपरिभाषित होता है। राम के देह-स्वरूप के नेतृत्व-गुणों को परिभाषित किया जा सकता है? मगर ब्रह्म की परिभाषा संभव नहीं है। नेतृत्व दरअसल है क्या? वह किसी एक व्यक्ति के प्रति, उसकी कार्य-शैली के प्रति, उसकी जीवन-शैली के प्रति और उसकी विचार-प्रक्रिया के प्रति हमारा मनोभाव है। हमारा यह सामूहिक मनोभाव ही किसी को नायकत्व प्रदान कर देता है।
इसलिए तुलसीदास बताते हैं कि छल-कपट से भरे लोग कभी नायक नहीं हो सकते। ‘सोचिय नृपत जो नीति न जाना, जेहि न प्रजा प्रिय प्राण समाना’। ‘सुनु सर्वज्ञ प्रणत सुखकारी, मुकुट न होई भूप गुण चारी’। ‘साम, दाम अरु दंड विभेदा, नृप उर बषिन नाथ कह वेदा’। जो नीति नहीं जानता, जिसे प्रजा अपने प्राणों से भी ज़्यादा प्यारी न हो और जो साम-दाम-दंड-भेद के ज़रिए राज करना चाहता हो, वह क्या ख़ाक नेतृत्व करेगा? तुलसी बाबा की नज़र में ऐसा व्यक्ति नायक हो ही नहीं सकता।
तुलसी का मानस हमें दो क़िस्म के मुख्य नायकों के सामने खड़ा करता है। एक है रावण, जो इतना महाज्ञानी है कि खुद राम भी अपने छोटे भाई लक्ष्मण को ज्ञान हासिल करने उसके पास भेजते हैं। वह छह शास्त्रों और चार वेदों का ज्ञाता है। इतना महाशक्तिशाली है कि यमराज भी थर-थर कांपते हैं। इतना संपन्न है कि कुबेर उसका भाई है और उसकी लंका तक सोने की है। दूसरी तरफ़ ‘विरथ रघुबीरा’ हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम राम हैं। अनीति और मर्यादा के इस संघर्ष में विजय मर्यादा की होती है। अहंकार और विनम्रता के इस संघर्ष में विजय विनम्रता की होती है। एकालाप और वार्तालाप के इस संघर्ष में एकालाप हारता है।
सो, चुनाव आते ही ‘सौगंध राम की खाते हैं कि मंदिर वहीं बनाएंगे’ का आलाप शुरू कर देने वालों से कहिए कि पहले वे रामचरित मानस पढ़ें। पढें और विचार करें कि हमने अपने लिए कौन-से नायक गढ़ लिए हैं? ख़ुद से पूछें कि क्या हम इसी तिकड़ी-नेतृत्व के लायक हैं? सोचें कि हमारी शबरी-प्रवृत्ति से झरने वाले बेर हम असली नायकों को समर्पित कर रहे हैं या छले जा रहे हैं? हमारी झोंपड़ी में प्रभु ही पधारे हैं या उनका वेश धर कर कोई मारीच घुस आया है?
आम चुनावों तक का समय भारत का इम्तहान-दौर है। इसमें हमें लगातार तेज़ होती राम-धुन सुननी है। सरहदी-हवा को और बारूदी होते हुए देखना है। ख़ुशनुमा स्वर्ग तक ले जानी वाली सपनीली सीढ़ियों पर चढ़ना है। चार बरस में हुए विकास की आभासी-राह पर दौड़ना है। इसलिए यह बेहद सावधानी से काम लेने का दौर है। ठहरे हुए आंसुओं वाली ज़िंदगी से अगर हमारी निग़ाह हटी, फटेहालों का विलाप अगर हम अनसुना कर गए और राजधर्म की तार-तार होती मर्यादाओं की अगर हमने अनदेखी कर दी तो अपना बाकी जीवन अयोध्या में रामलला की दहलीज़ पर पड़े-पड़े बिताने से भी वैतरणी पार नहीं होगी। मुसीबत का जो पर्वत सामने है, उसके बगल से गुज़रना असली समाधान नहीं है। इस पर्वत को तो चढ़ कर उस पार पहुंचना होगा।
नरेंद्र भाई ने कहा कि मैं आपका चौकीदार हूं। हमने मान लिया। चौकीदारी उन्हें सौंप दी। चार साल में चौकीदार ने हमें चौकन्ना कर दिया है कि यह चौकीदारी हम अब उससे वापस ले लें। अपनी दरबानी अगर अब हमने ख़ुद नहीं की तो आत्म-विलाप ही हमारा भविष्य होगा। इसलिए हमें अपनी दुनिया फिर से शुरू करनी होगी। अवाम को कमतर आंकने की चूक हुक़मरानों से आमतौर पर हो जाती है। लेकिन जो समझते हैं कि वे हमारे नायक बन गए हैं, उन्हें मालूम होना चाहिए कि आम आदमी जीवन नाम के महाकाव्य का महानायक है। उसके सामूहिक अवचेतन में थोड़ी देर के लिए तो घुसपैठ की जा सकती है, मगर वहां स्थाई डेरा वे नहीं डाल सकते, जिनके मन में खोट है। लोग अभी इतने भी गए-बीते नहीं हो गए हैं कि शहर जलता रहे और वे अपने घर से भी न निकलें।