Saturday, August 21, 2021

राहुल गांधी का ‘ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः’ क्षण

यह अश्वमेध यज्ञ का नहीं, राजसूय यज्ञ का समय है। यह बहेलियों के जाल को तार-तार करने का वक़्त है। ‘नाभिषेको न संस्कारः सिंहस्य क्रियते वने । विक्रमार्जितसत्त्वस्य स्वयमेव मृगेंद्रता ।।’ शेर को जंगल का राजा नियुक्त करने के लिए न तो कोई राज्याभिषेक किया जाता है और न कोई पूजा-पाठी संस्कार। राहुल मुझ नाचीज़ की सुनें तो ठीक, न सुनें तो ठीक। अपनी बात कहना अपना काम है।

कल राजीव गांधी का जन्म दिन था और अगर त्रासद हादसे ने उन्हें न छीना होता तो आज वे ज़रूर हमारे साथ होते और 77 बरस के होते। आजकल 77 की उम्र होती ही क्या है? मोतीलाल वोरा शरीर से भले ही थोड़े थक गए थे, मगर दिमाग़ी तौर पर 92 की उम्र तक चुस्त रहे और कांग्रेस मुख्यालय में नियमित बैठ कर काम करते रहे। लालकृष्ण आडवाणी 93 के हैं और हर लिहाज़ से चुस्त-दुरुस्त हैं। डॉ. कर्ण सिंह 90 के हैं और कई नौजवानों से बेहतर सेहत है उनकी। मुरली मनोहर जोशी 87 के हैं और खूब स्वस्थ हैं। शिवराज पाटिल 85 के हैं और वैसे-के-वैसे हैं। राज्यसभा में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे 79 के हैं और रोज़ ताल ठोकते हैं।

लोकसभा के मौजूदा सदस्य शफ़ीकुर्रहमान बर्क 91 के हैं। फ़ारूक अब्दुल्ला और चौधरी मोहन जटुआ 83 के हैं। मुहम्मद सादिक 82 के हैं। मुलायम सिंह यादव 81 के हैं। टी. आर. बालू, अबू हसीम खान चौधरी, श्रीनिवास दादासाहब पाटिल और सिद्दप्पा बसवराज 80 के हैं। राज्यसभा में दोनों पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और एच.डी. देवेगौड़ा 88 साल के हैं। सुखदेव सिंह ढींडसा 85 के हैं। के. केशवराव और एस.आर. बालासुब्रह्मण्यम 82 के हैं। सुब्रह्मण्यन स्वामी, महेंद्र प्रसाद, एम. षण्मुगम और लक्ष्मीकांत राव 81 के हैं। शरद पवार, ऑस्कर फर्नांडिस और हरनाथ सिंह यादव 80 के हैं।

तो राजीव गांधी तो आज की लोकसभा में 79 के शिशिर अधिकारी और राज्यसभा में 78 साल की अंबिका सोनी से भी छोटे होते। सोचिए कि अगर वे होते तो आज की संसद कैसी होती? अंदाज़ लगाइए कि अगर वे होते तो आज की कांग्रेस कैसी होती? अगर वे होते तो आज की भारतीय जनता पार्टी कैसी होती? वे होते तो क्या नरेंद्र भाई मोदी आज अपने को हिंदुओं का हृदय-सम्राट घोषित कर प्रधानमंत्री बने बैठे होते? अगर राजीव गांधी आज होते तो देश की अर्थव्यवस्था ऐसी बदहाल होती? अगर वे होते तो किसी भी महामारी के वक़्त क्या मोर से खेल रहे होते? वे होते तो क्या राजनय के संसार में भारत की ऐसी फ़ज़ीहत हो रही होती?

राजीव गांधी होते तो वे पामुलपर्ति वेंकट नरसिंहराव प्रधानमंत्री नहीं होते, जिनके राज में भारत का सामाजिक जीवन दो-फाड़ होने पर बाक़ायदा मुहर लगी। जिनके राज में देश के आर्थिक-भाखड़ा के सारे दरवाज़े ऐसे खुले कि भरभरा कर आई उदारीकरण की बाढ़ में बहुत कुछ बह कर इधर-उधर चला गया। राजीव होते तो अटल बिहारी वाजपेयी भी शायद प्रधानमंत्री नहीं बन पाते। वाजपेयी भले ही बहुत भले थे, लेकिन उनके जमाने में ही सरकारी अंगने में आमोद-प्रमोद और रंजन-मनोरंजन को संस्थागत स्वरूप मिला। अटल जी के आंख-कान-नाक प्रमोद महाजन और दत्तक दामाद रंजन भट्टाचार्य के बोए बीजों ने राजनीति और कारोबार की दुनिया को ऐसी सतरंगी फ़सल से नवाज़ा कि क्या कहूं?

राजीव गांधी होते तो देश का साबका हरदनहल्ली देवेगौड़ा और इंदर कुमार गुजराल से भी नहीं पड़ता। सत्ता के दलालों की प्रधानमंत्री कार्यालय में जैसी आवभगत देवेगौड़ा के वक़्त में हुई, भूतो न भविष्यति थी। विजय माल्या को भूमिपुत्र मानने वाले देवेगौड़ा ने उनके लिए दो बार राज्यसभा का दरवाज़ा खोला था। उनके सियासी नृत्यांगन का परदा इतना झीना था कि ऐसों-ऐसों ने ताकझांक कर ली, जो कभी अपने घर से बाहर भी नहीं निकले थे। इंदर कुमार गुजराल ने तो प्रधानमंत्री बन कर वह किया कि कोई मूढ़ भी न करता। उनके ‘गुजराल-सिद्धांत’ का नतीजा देश को बहुत भुगतना पड़ा। प्रधानमंत्री बनने के बाद गुजराल ने रॉ की पाकिस्तान-डेस्क को ही पोटली में बांध कर रख दिया। करगिल इसी निर्णय की देन था। नेपाल का कालापानी विवाद भी गुजराल के सौजन्य से ही भारत के गले पड़ा। 1997 की गर्मियों में जब वे नेपाल गए तो वहां की सरकार ने पहली बार बाकायदा यह मसला उनके सामने उठाया और प्रतिकार करने के बजाय गुजराल सिले होंठ लिए लौट आए।

इसलिए जिन्हें आज लग रहा है कि 56 इंच के किसी सीने से चिपक कर उनका जीवन धन्य हो गया है, मैं उन्हें बताना चाहता हूं कि अगर महज़ 46 साल की उम्र में राजीव गांधी को विश्व-शक्तियों ने अपने रास्ते से न हटाया होता तो भारत आज उस रास्ते पर चल रहा होता कि दुनिया उसके पीछे होती। हम विश्व-गुरु बनने के थोथे दावे नहीं कर होते। हम सचमुच विश्व-गुरु होते। इसलिए कि राजीव गांधी होते तो कांग्रेस वैसी नहीं होती, जैसी हो गई है। और, कांग्रेस ऐसी न हो गई होती तो नरेंद्र भाई सात जनम भी भारत के प्रधानमंत्री नहीं बन सकते थे।

यह तो भला हो सोनिया गांधी का कि उन्होंने सीताराम केसरी के समय अंधे कुएं में डूब रही कांग्रेस को खींच कर बाहर निकाल लिया और दो दशक से ज़्यादा हो गए हैं कि उसकी देखभाल में अपने दिन-रात एक कर रही हैं। दो साल से अपने क्षोभ-भवन में बैठे राहुल गांधी की तकनीकी अनुपस्थिति में भी सोनिया की वज़ह से ही कांग्रेस संतुलन-बांस के सहारे सियासत की रस्सी पर एक-एक कदम आगे बढ़ा पा रही है। सोचिए कि अगर तमाम दबावों, मजबूरियों और घुसपैठियों की कुचालों का बावजूद सोनिया की विवेकवान अगुआई कांग्रेस के भाग्य में न होती तो उसके कितने परखच्चे बिखर चुके होते? विपक्षी-दादुरों के लिए एक मर्तबान में ठोस ज़गह बनाने के लिए भी उन्होंने इसीलिए राजीव गांधी के जन्म का दिन चुना कि अपनी अलविदाई के तीन दशक बाद भी राजीव भलमनसाहत और वचनबद्धता के सबसे बड़े प्रतीक हैं।

दो साल पहले राहुल गांधी ने जब कांग्रेस का अध्यक्ष पद छोड़ा, तब भी उनका फ़ैसला मेरी समझ से बाहर था। अब दो बरस से उन्हें सारी मान-मनुहार की अनदेखी करते देख तो मैं ने अपनी अक़ल को घास चरने के लिए छोड़ दिया है। कौन-सा ऐसा राजनीतिक दल दुनिया में होगा, जिसके सदस्य किसी की दहलीज़ पर इतनी बार अपने सिर पटक-पटक कर रोते होंगे? और, किस राजनीतिक दल में ऐसा कोई होगा कि आंसुओं की इतनी निष्ठुर अनदेखी करता होगा? राहुल के अगलिए-बगलिए अगर उन्हें यह समझा रहे हैं कि इन सब को अभी और रोने दो तो कोई उन्हें समझाए कि एक दिन आता है कि आंसू भी सूख जाते हैं। वह दिन भी आता है कि आंसू अंगारे बन जाते हैं। ईश्वर करे कि वह दिन न आए। आया तो सबसे पहले, सूरजमुखी के जिन फूलों की बेतरतीब फ़सल छह साल से लहलहा रही है, वह भस्म होगी। गिरिधर-मुद्रा में पसर कर मोहिनीयट्टम कर रहे चिरकुटों की बांसुरियां स्वाहा होंगी।

मैं तो अपने पिता के जन्म दिन पर अगले साल के लिए संकल्प धारण करता हूं। मैं राजीव गांधी के जन्म दिन पर भी एक संकल्प लेता हूं। मुझे नहीं मालूम कि राहुल गांधी ने अपने पिता के जन्म दिन पर इस बार क्या संकल्प लिया है। मुझसे पूछते तो मैं उनसे कहता कि आप पर अपने पिता का जो कर्ज़ है, ‘ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः’ बोल कर इस साल उससे मुक्ति का संकल्प लीजिए। भेड़ियों, सियारों, लोमड़ियों और गिरगिटों को परे ठेलिए। राजसूय यज्ञ की तैयारियां कीजिए। यह अश्वमेध यज्ञ का नहीं, राजसूय यज्ञ का समय है। यह बहेलियों के जाल को तार-तार करने का वक़्त है। ‘नाभिषेको न संस्कारः सिंहस्य क्रियते वने । विक्रमार्जितसत्त्वस्य स्वयमेव मृगेंद्रता ।।’ शेर को जंगल का राजा नियुक्त करने के लिए न तो कोई राज्याभिषेक किया जाता है और न कोई पूजा-पाठी संस्कार। राहुल मुझ नाचीज़ की सुनें तो ठीक, न सुनें तो ठीक। अपनी बात कहना अपना काम है।(लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)

अंगद-आसन और भरवां खिलौना-भालू

लोक-दबाव अगले दो साल में ऐसे हालात बनाएगा-ही-बनाएगा कि विपक्ष की बिखरी डालियां जटाधारी बरगद की शक़्ल लें। इस बरगद का तना कितना मज़बूत होगाकितना नहींयह मायने नहीं रखता। मायने सिर्फ़ यह बात रखेगी कि एक एकजुट विपक्षी झुरमुट सियासत के बियाबान में अंततः उग आया है और नरेंद्र भाई को उसके बीच से गुज़र कर जाना है। इतना भर भी हो गया तो आसमान का रंग बदल जाएगा। इतना भर भी हो गया तो एक बार तो धरती करवट ले ही लेगी।

 कल भारत को अंग्रेज़ों से आज़ाद हुए जब 74 साल पूरे हो जाएंगे तो 75 वें प्रवेश के मौक़े पर हमारे मौजूदा प्रधानमंत्री लालकिले से, ज़ाहिर है कि, कोई नई हुंकार भरे बिना मानेंगे नहीं। इस हुंकार में आने वाले दिनों के लिए वादों का गुलाबी गुब्बारा होगा, अब तक किए-कराए का स्वयं-शाबासी ठहाका होगा और इस पारंपरिक झींक का धूसर किस्सा होगा कि कैसे उन 60 बरस में देश में कुछ नहीं हुआ, जब जनसंघ-भारतीय जनता पार्टी केंद्र की सरकारों में नहीं थी और जो हुआ, तब-तब ही हुआ, जब-जब गुरु गोलवलकर और दीनदयाल उपाध्याय के रणबांकुरों ने सत्ता संभाली, उसमें भागीदारी की या उसे बाहर से समर्थन दिया।

74 साल में क़रीब सवा पंद्रह साल हिंदू-रक्षक केंद्र की सत्ता के भागीदार रहे हैं। अपूर्ण क्रांति को संपूर्ण क्रांति बता कर 1977 से 1979 के बीच केंद्र की सरकार में आए राजनीतिक दलों में भारतीय जनता पार्टी का पूर्वज-दल भारतीय जनसंघ शामिल था। फिर 1989-90 के बीच बनी विश्वनाथ प्रताप सिंह की 343 दिन चली सरकार की कुर्सी के पायों को एक तरफ़ से भाजपा और दूसरी तरफ़ से वाम-दलों ने बाहर से संभाल रखा था। इसके बाद मई 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी की 16 दिनों वाली ऐतिहासिक सरकार बनी। दो साल बाद 1998 में वाजपेयी फिर प्रधानमंत्री बने और कोई सवा छह साल टिके रहे। और, अब 2014 से नरेंद्र भाई मोदी अंगद-आसन जमाए हुए हैं। सवा सात साल हो गए हैं। कोई कुछ कहे, पौने तीन साल तो उन्हें अभी अपनी गोद में धमाचौकड़ी मचाने से ख़ुद भारतमाता भी नहीं रोक सकती हैं।

तो 2024 के चुनाव जब आएंगे, तब तक हिंदू हृदय सम्राटों को मुल्क़ की हुक़ूमत चलाते 18 साल हो जाएंगे। जिन्होंने अब तक के सवा पंद्रह साल तो छोड़िए, सिर्फ़ इन सवा सात साल में हमें इतना दे दिया, कि बाकी सब मिल कर 60 साल में नहीं दे पाए, सोचिए कि अगर कहीं उनके पैर चौबीस के बाद भी जमे रहे तो हम कहां-से-कहां पहुंच जाएंगे? लालकिले से नरेंद्र भाई कभी यह खुल कर नहीं बताएंगे कि दरअसल वे हमें कहां ले जाना चाहते हैं। मगर वे पूरी मुस्तैदी से अपने असली काम में दिन-रात लगे हैं। आधा रास्ता उन्होंने तय कर लिया है। सो, अभी हम अधमरे हैं। जिस दिन पूरा रास्ता तय हो जाएगा, भारत स्वर्ग बन जाएगा।

नरेंद्र भाई चूंकि सकारात्मकता के पुजारी हैं, इसलिए उन्होंने आज तक, लालकिले से तो भूल जाइए, वैसे भी कभी, नोटबंदी से उपजे नकारात्मक प्रभावों का ज़िक्र नहीं किया। इसीलिए उन्होंने जीएसटी की शंखघ्वनि से आधी रात निकली तरंगों की चपेट में आ कर बिलबिला रही कारोबारी व्यवस्था का ज़िक्र नहीं किया। सकारात्मकता की यही गहन प्रेरणा उन्हें पीठ पर मां को लादे सैकड़ों मील पैदल जाते प्रवासी मज़दूरों की पीड़ा का ज़िक्र करने से रोके रही। और, इसीलिए इस बार भी वे प्राणवायु के एक-एक कतरे के इंतज़ार में तरसती आंखों के साथ हमारे संसार को छोड़ कर चले गए हज़ारों बेगु़नाहों का लालकिले से कोई ज़िक्र नहीं करेंगे। वे ‘संसार मिथ्या है और आत्मा अमर है’ के दर्शन में यक़ीन रखते हैं। वे आत्मा के चोला बदलने में विश्वास करते हैं। इसलिए वे हमारे दुःख-दर्द से परे हैं। ऐसे ऋषि-स्वभाव का प्रधानमंत्री पा कर भी जिन्हें तसल्ली नहीं है, उनका कोई क्या करे!

विपक्ष के पास लालकिला नहीं है। लेकिन उसके पास लाल बजरी का मैदान तो है। पर इस मैदान में अपने अश्व इकट्ठे करना शुरू करने में भी उसे सात साल लग गए। ‘देर आयद, दुरुस्त आयद’। मैं तो बहुत ख़ुश हूं कि शुभारंभ तो हुआ। अगर इस अश्वमेध का मंत्रोच्चार दसों दिशाओं में देर-सबेर गूंजने लगा तो इंद्रासन हिलेगा तो ज़रूर। और, सिंहासन अगर हिलता दिखाई देने लगा तो फिर ले मशालें चल पड़ेंगे लोग मेरे गांव के; तब अंधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गांव के। बेतरह उकताए हुए देशवासी जिस प्रतीक्षालय में बैठे हैं, उसमें जनतांत्रिक करवट की अंगड़ाई आकार ले चुकी है। प्रतीक्षालय बस एक नायक के इंतज़ार में है।

वह नायक राहुल गांधी हो सकते थे। वह नायक राहुल गांधी शायद आज भी हो सकते हैं। उन्हें विपक्ष की एकजुटता का रोड़ा बताने वालों से मैं बेहद ख़ाकसारी के साथ कहना चाहता हूं कि राहुल विपक्ष की मुसीबत नहीं हैं। कांग्रेस की भी मुसीबत वे नहीं हैं। वे तो कांग्रेस की मूल-शक्ति हैं और विपक्ष की भी बुनियादी ताक़त बन सकते हैं। मुसीबत असल में कुछ और है। लोगों को राहुल की क्षमता, कुशलता, विवेक और निडरता पर रत्ती भर भी संदेह नहीं है। मगर उन्हें राहुल के अगलियों-बगलियों की मंशा, मंसूबों, सामर्थ्य और पराक्रम पर भरोसा नहीं है।

मैं शुरू से मानता हूं कि कांग्रेस में हमेशा से ऐसे तिकड़मबाज़ मौजूद रहे हैं, जिन्होंने राजीव-सोनिया-राहुल-प्रियंका की भलमनसाहत का बेज़ा फ़ायदा उठा कर ख़ुद को हरा-भरा बनाए रखने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। दुर्भाग्य से आज भी बोलबाला तो ऐसों का ही है। बाकी तो अपना वक़्त काट रहे हैं। राहुल के साथ मुसीबत यह है कि वे इतने भले हैं कि बरसों से उन्हें यह अहसास ही नहीं हो पा रहा है कि अपने अखाड़े के जिन तरुण हमजोलियों को वे मसाहिको किमूरा, ब्रूस ली, चेंग पेईपेई और मिशेल यो समझते हैं, उनमें से ज़्यादातर दरअसल प्लास्टिक के हवा भरे अतिमानव हैं। ‘हिट मी’ पुतले हैं। वे स्टार वॉर्स के कृत्रिम एक्शन फ़िगर्स हैं। वे भरवां खिलौना भालू हैं – टेडी बेअर हैं। राहुल की मुसीबत यह है कि इन ढपोरशंखियों पर उनकी अगाध श्रद्धा कम होने का नाम ही नहीं ले रही है। वे जिन्हें युद्ध के मैदान का दीया समझे बैठे हैं, पता नहीं, उनमें बाती है भी या नहीं? वे जिन मुरलीवादकों पर रीझे हुए हैं, कहीं उनकी बांसुरी से निकल रही बेसुरी ध्वनि कांग्रेस के भीतर की सुर-ताल तो भंग नहीं कर रही? जिस दिन राहुल इत्ती-सी निगरानी करने लगेंगे, उस दिन से देवता उन पर फूल बरसाने आरंभ कर देंगे। लेकिन अगर वे तिकड़मी छद्म आंकड़ेबाज़ों के कंधों पर सिर रख कर झपकी लेने से नहीं बच पाएंगे तो नरेंद्र भाई की राह में और लाल गलीचे बिछाएंगे।

जो हो, पौने तीन साल बाद नरेंद्र भाई की राजनीतिक विदाई की पटकथा लोग किसी की अगुआई में तो लिखेंगे ही। इस ज़द्दोज़हद के मुहाने पर शरद पवार भी खड़े नज़र आ सकते हैं और ममता बनर्जी भी। हाशिए से उठ कर पूरे पन्ने पर छा जाने वाला कोई चेहरा भी एकाएक सामने आ सकता है। राहुल का अनमनापन 2024 की दहलीज़ सामने आने पर कांग्रेस को प्रियंका गांधी के आंचल में भी डाल सकता है। सो, मौजूदा हुकूमत से निज़ात पाने के लिए कुछ भी हो सकता है। लोक-दबाव अगले दो साल में ऐसे हालात बनाएगा-ही-बनाएगा कि विपक्ष की बिखरी डालियां जटाधारी बरगद की शक़्ल लें। इस बरगद का तना कितना मज़बूत होगा, कितना नहीं, यह मायने नहीं रखता। मायने सिर्फ़ यह बात रखेगी कि एक एकजुट विपक्षी झुरमुट सियासत के बियाबान में अंततः उग आया है और नरेंद्र भाई को उसके बीच से गुज़र कर जाना है। इतना भर भी हो गया तो आसमान का रंग बदल जाएगा। इतना भर भी हो गया तो एक बार तो धरती करवट ले ही लेगी। इसलिए आइए, यही मनौती मांगें कि देश की पंचकोशी यात्रा का समापन शुभ और कल्याणकारी हो! (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)

नरेंद्र भाई और छद्म-गैयाओं के बीच हम

नरेंद्र भाई मोदी राजकाज के हर कूचे में बेआबरू हैं। वे आर्थिक बहीखाते के हर पन्ने के खलनायक हैं। वे देश की सुरक्षा के बाहरी-भीतरी मोर्चों पर लड़खड़ाए हुए हैं। वे राजनय के हर अंतःपुर में अवांछित-से हो गए हैं। वे देश की सामाजिक फुलवारियों के कंटक हैं। वे सवा साल से अर्रा रहे महामारी के भैंसे को उसके सींगों से पकड़ कर पटकनी देने के बजाय उसकी पीठ पर बैठे नज़र आते रहे हैं। उनकी हृदय-सम्राटी तेज़ी से भुरभुरी हो रही है।

विपक्ष कमर कसता दिखाई देने लगा है। वह करवट ले रहा है। एकजुटता की ख़्वाहिश अपनी बूंदें बरसाने लगी है। अभी यह बारिश मूसलाधार भले न हो, मगर उसकी रिमझिम शुरू हो चुकी है। राहुल गांधी सोशल मीडिया मंचों की झालर तोड़ कर सड़कों पर कूदने की मुद्रा में आ गए हैं। ममता बनर्जी बंगाल की सरहदों को लांघ रही हैं। शरद पवार के तज़ुर्बों की घनघनाहट सब के कानों में बज रही है। अखिलेश यादव के सेनानी लाल टोपियां पहन कर निकल गए हैं। तेजस्वी यादव की मुट्ठियां और तन गई हैं।

ये सब सुखद संकेत हैं। ये सब सकारात्मक लक्षण हैं। संघ-कुनबे और भारतीय जनता पार्टी के भीतर से बाहर आ रही ख़बरें कहती हैं कि उनकी अकुलाहट बढ़ती जा रही है। नरेंद्र भाई मोदी की हरदिलअज़ीज़ी के परत-दर-परत फ़ना होने का अहसास संघ-भाजपा के भीतर गहराता जा रहा है। नरेंद्र भाई के चीर-चीर होते जा रहे तिरंगे अंगवस्त्रम की रफ़ूगीरी के उपाय खोजे जा रहे हैं। इस चक्कर में बड़े-बड़े विज्ञापन और सूचनापट्टों को तो छोड़िए, राशन के थैलों, बच्चों के बस्तों और टीके के प्रमाणपत्रों तक पर नरेंद्र भाई का मुखड़ा चेप दिया गया है।

कोई जन-मन में बसा हो तो कौन यह सब छिछोरपंथी करता है? ये सारे बाह्य उपादान तब अपनी जगह बनाते-बढ़ाते हैं, जब कोई अंतर्मन से उतरने लगता है। इसीलिए रायसीना की छाती पर चढ़ने के पहले हमें नरेंद्र भाई के त्रिविम-दर्शन की नई तकनीक से महीनों लुभाया गया था। क्योंकि वे ‘मान-न-मान, मैं तेरा मेहमान’ थे। पिछले सवा सात साल में हम सिर्फ़ ‘मैं, मैं और मैं’ का महामंत्र सुनने के अलावा कुछ नहीं सुन पा रहे तो इसकी एक पृष्ठभूमि है। अगले पौने तीन साल में यह मंत्र-ध्वनि 185 डेसिबल का दायरा पार कर 200 का अंक छूने वाली है। सो, अपने कान के परदों की नहीं, अपने आत्मिक प्राणों की परवाह कीजिए।

अपनी ही धुन में आंय-बांय-शांय नरेंद्र भाई को जन-मन में थोपे चले जाने की कोशिश में लगे मूढ़ यह जानते ही नहीं कि इससे जन-मानस में उनके प्रति कितनी गूढ़ चिढ़ जड़ें जमाने लगी है। लेकिन वे भी करें क्या? पहले दिन से वे नरेंद्र भाई के आत्मकेंद्रित और आत्ममुग्ध स्वभाव को जानते हैं। नरेंद्र भाई को कभी नहीं दिखा, लेकिन उनके अनुचर ख़ुद अपने प्रति दीवानगी से भरे नरेंद्र भाई को कोई आज से तो देख नहीं रहे हैं। उन्हें मालूम है कि ‘राजा नंगा है’ कहने का नतीजा क्या होता है? इसलिए वे नरेंद्र भाई को अजीब तरह के रंग-बिरंगे परिधानों से, नकली स्वर्णपरत वाले आभूषणों से और ढपोरशंखी जुमलों से सजाते रहते हैं। अगर नरेंद्र भाई में कहीं कोई ‘स्व’ कभी रहा भी होगा तो भांड-मंडली के ठुमकों में वे सब भूल गए हैं। नायकत्व की ललक में यह रोग आमतौर पर सब को लग ही जाता है। यह ऐसा रोग है कि सिंहासन के साथ ही जाता है।

सो, हिंदोस्तां बोल रहा है कि सिंहासन डोल रहा है। लेकिन अभी महज़ डोल रहा है। इसे जाना मत समझिए। बावजूद तमाम उलटबांसियों के, 2024 में नरेंद्र भाई की विदाई आसान नहीं है। अभी तो अपने को श्वेत बताने वाली बहुत-सी भेड़ें रेवड़ को दूर-दूर से ही निहार रही हैं। फिर रेवड़ के भीतर भी काली भेड़ों का टोटा नहीं है। अगले दो बरस में विपक्ष की गोद में कितनी सफ़ेद ऊन इकट्ठी होती है और कितनी काली ऊन अपना असली रंग दिखाती है, नरेंद्र भाई की डोली जाना-न-जाना बहुत-कुछ इस पर निर्भर करेगा। वे ‘डोली रख दो कहारों’ गीत गुनगुनाना भी जानते हैं और न मानने पर कहारों से निपटना भी।

मायावती हैं। नवीन पटनायक हैं। जगन मोहन रेड्डी हैं। के. चंद्रशेखर राव हैं। महबूबा मुफ़्ती हैं। चिराग पासवान हैं। और, इन सभी के ‘टेढ़ो-टेढ़ो जाए‘ सहोदर अरविंद केजरीवाल हैं। फिर असदुद्दीन ओवैसी जैसे छुपे रुस्तम हैं। आपको क्या लगता है, इन सब के होते विपक्ष की राह मखमली है? इन सब के होते क्या नरेंद्र भाई की राह इतनी ऊबड़-खाबड़ हो जाएगी कि दचकों में उनका सिंहासन जाता रहे? नियंता भले न हों, नियंत्रक तो वे बन ही गए हैं। सियासी गलियारों में ऐसा कौन-सा अड्डा है, जो उनका विशेष विक्रय अधिकार पत्र हासिल किए बिना अपना कारोबार चला ले?

जब-जब धर्म की हानि होती है, तब-तब न्याय की स्थापना के लिए अवतार जन्म लेते हैं। सो, अब तो धर्म क्षेत्र उनका। न्याय क्षेत्र उनका। अर्थ-क्षेत्र उनका। संसदीय चौपाल उनकी। कार्यपालिका-चबूतरा उनका। चौथा स्तंभ उनका। सैन्य शक्ति उनकी। अर्द्ध-सैन्य शक्ति उनकी। देशभक्ति उनकी। राष्ट्रवाद उनका। ज्ञान उनका। विज्ञान उनका। साहित्य उनका। संस्कृति उनकी। इतिहास उनका। परंपराएं उनकी। विकास उनका। निर्माण उनका। आपका है क्या? आप कौन-से समरथ हैं? सो, आपका केवल दोष है। आपकी हैसियत ही क्या है? सो, आपका सिर्फ़ कुसूर है।

इसलिए भूल जाइए कि क्रांति को नरेंद्र भाई इतनी आसानी से नज़दीक आ जाने देंगे। भूल जाइए कि वे देश को इतने आराम से अपने खि़लाफ़ उठ कर खड़ा हो जाने देंगे। भूल जाइए कि हम, जो अपने तईं ख़ुद, बग़ावत में मशगूल हैं, किसी मंगल पांडे के वंशजों के आज हमजोली हैं। आपका आप जानें! मुझे तो नहीं मालूम कि मैं जिस विचार का अनुगामी हूं, उस विचार के नायक नज़र आ रहे चेहरे, सचमुच उस विचार का नेतृत्व करने लायक हैं भी कि नहीं! लेकिन मेरे लिए विचार महत्वपूर्ण है, नायक नहीं। मेरे लिए विचार की अहमियत है, उसके प्रतिनिधि-संगठन की नहीं।

संगठन और नायक तो सौ-डेढ़ सौ साल में पनपे हैं। भारत का मूल विचार तो शाश्वत है, चिरंतन है। हज़ारों साल से है। हज़ारों साल रहेगा। जब से भारत-भूमि है, हम सर्वसमावेशी हैं, समरसता में पगे हैं, अपना-तेरी से दूर हैं, करुणा-दया के संस्कारों के पुजारी हैं। यह क्या 136 साल पहले बनी कांग्रेस ने हमें सिखाया है? यह क्या बीस दिन बाद 96 बरस का हो रहा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हम से छीन सकता है? इसलिए भारतवासी जैसे हैं, हैं। वे ऐसे ही रहेंगे। समाज में विचलन के दौर आते हैं, आते रहेंगे। लेकिन वे जाते भी रहे हैं, जाते भी रहेंगे। यह इस मुल्क़ की बुनियादी तासीर है कि वह तमाम झंझावातों से बाहर आ जाता है।

जिन्हें लगता है कि वे हैं तो सब-कुछ है, पौने तीन साल बाद हम उनका हाल देखेंगे। जिन्हें लगता है कि अगर वे न होंगे तो भारत का पुष्पक विमान आज के काले आसमान को पार ही नहीं कर पाएगा, उनकी भी नेकनीयती और पराक्रम हम 2024 में देखेंगे। एक बात मैं आपको बता दूं? जिन छद्म-गैयाओं की पूंछ पकड़ कर हम यह सियासी-वैतरिणी पार करने का सोच रहे हैं, उनकी पूंछ पर नहीं, अपने हाथों पर भरोसा रखने का यह वक़्त है। इन्हें जो करना है, करने दीजिए, और, नरेंद्र भाई तो अपना हर जलवा दिखाएंगे ही; इसलिए ठान लीजिए कि हमें भी हर हाल में अपना ज़िम्मा निभाना है। निभाया तो मोक्ष मिलेगा। नहीं निभा पाए तो नर्क मिलेगा। सो, तय कीजिए। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)

543 से 888 नहीं, 148 कर देने का वक़्त

 

अगर कोई राज्यों में विधायकों की संख्या बढ़ाने की बात करे तो समझ में भी आए। सांसदों की संख्या बढ़ाने की बात से मुझे या तो मूर्खता की गंध आती है या फिर किसी साज़िश की बू। इससे किसी के प्रधानमंत्री बनने या बने रहने की राह भले ही हरी-भरी हो जाए, देश और देश की जनता को तो कुछ मिलने वाला है नहीं। सो, विचार करना है तो इस पर करें कि लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या घटा कर 148 कैसे की जाए!

क्या नरेंद्र भाई मोदी तीसरी बार फिर प्रधानमंत्री बनने का अपना मंसूबा पूरा करने की खा़तिर 2024 के चुनावों में लोकसभा की सीटों की तादाद 543 से बढ़ा कर एक हज़ार या बारह सौ कर देंगे? वैसे अटल बिहारी वाजपेयी के समय 24 अगस्त 2001 को देश के संविधान में किए गए 91वें संशोधन के मुताबिक लोकसभा की सीटों में कोई भी बदलाव 2026 के पहले हो तो नहीं सकता है, मगर नरेंद्र भाई अपनी टोपी से कब कौन-सा खरगोश निकाल कर हमारे-आपके सामने रख दें, कौन जानता है?

हालांकि स्थूल बुद्धि का इस्तेमाल करने वाला हर कोई यही कह रहा है कि चूंकि लोकसभा की मौजूदा सीटों की संख्या 1971 की जनगणना के हिसाब से तय हुई थी, इसलिए अब पचास साल बाद उन्हें बढ़ाया तो जाना ही चाहिए। और-तो-और, 2019 के दिसंबर में अटल बिहारी वाजपेयी स्मृति व्याख्यान देते हुए विवेक-बुद्धि से भरपूर पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी तक ने कह दिया कि पौने 57 करोड़ की आबादी के आधार पर निश्चित की गई लोकसभा की सीटों का निर्धारण अब 135-140 करोड़ जनसंख्या के हिसाब से करना ज़रूरी है।

लेकिन मेरा मानना है कि दरअसल लोकसभा की सीटें घटा कर एक चौथाई नहीं तो कम-से-कम आधी तो कर ही देनी चाहिए। चौंकिए मत। अभी औसतन क़रीब पौने आठ लाख मतदाताओं पर एक लोकसभा सदस्य चुना जाता है। नई संसद में लोकसभा-सदन में 888 सदस्यों के बैठने का इंतज़ाम फ़िलहाल किया जा रहा है। 2019 के चुनाव में 91 करोड़ 20 लाख मतदाता थे। यानी तक़रीबन दस-ग्यारह लाख मतदाताओं पर एक सदस्य चुनने की सोच पर शायद काम हो रहा है। अगर अभी के पौने आठ लाख मतदाताओं पर एक सदस्य चुनने की बात तय हो तब तो लोकसभा में 1200 सांसद हो जाएंगे।

मगर ऐसा हुआ तो कई राज्यों को सिर्फ़ इसलिए फ़ायदा हो जाएगा कि उनकी आबादी इस बीच अच्छी-ख़ासी बढ़ गई है और उन राज्यों को नुकसान होगा, जो बेचारे जनसंख्या नियंत्रण के उपायों को ईमानदारी से लागू करने में लगे रहे। ऐसे में उत्तर प्रदेश में लोकसभा सीटें 80 से बढ़ कर 193, महाराष्ट्र में 48 से बढ़ कर 117, बिहार में 40 से बढ़ कर 94 और पश्चिम बंगाल में 42 से बढ़ कर 92 हो जाएंगी। लेकिन दूसरी तरफ़ तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, ओडिसा और केरल जैसे राज्यों में सीटें इस अनुपात में नहीं बढ़ेंगी। यह एक ऐसा झमेला है, जिसे सुलझाना आसान नहीं है। पर, मतदाताओं की संख्या के हिसाब से सीटों की संख्या तय न करें तो क्या करें? और, इस हिसाब से करें तो किसी को सु-शासन का नुकसान क्यों हो?

लेकिन इससे भी बड़ा सवाल मेरे हिसाब से तो यह है कि लोकसभा में 543 सीटें भी क्यों हों? बावजूद इसके कि कहां कितने मतदाता हैं, 28 राज्यों से सिर्फ़ पांच-पांच सांसद ही चुन कर क्यों न आएं? 8 केंद्रशासित क्षेत्रों से महज़ एक-एक सदस्य ही लोकसभा में क्यों न भेजा जाए? 543 सांसद ऐसा क्या पहाड़़ ढोते हैं, जो ये 148 सदस्य अपनी कन्नी उंगली पर नहीं उठा पाएंगे? ये सब बेकार की बातें हैं कि अमेरिका में 7 लाख की आबादी पर एक सांसद है, कनाडा में 97 हज़ार की आबादी पर एक और ब्रिटेन में 72 हज़ार पर एक तो भारत में भी आबादी ही पैमाना हो। मुझे लगता है कि यह मूढ़मति-तर्क है। इसलिए कि हमारी निर्वाचित लोकतांत्रिक संस्थाओं की व्यापकता इतनी लंबी-चौड़ी है कि दरअसल भारत में तो प्रति साढ़े तीन सौ-चार सौ की आबादी पर जनता से परोक्ष-अपरोक्ष निर्वाचित कोई-न-कोई प्रतिनिधि बैठा हुआ है। न अमेरिका में ऐसा है, न कनाडा में और न ब्रिटेन सहित यूरोप के किसी भी देश में।

इसे इस तरह समझिए। लोकसभा में 543 सदस्य चुन कर आते हैं और दो मनोनीत होते हैं। राज्यसभा में 238 सदस्य निर्वाचन के ज़रिए आते हैं और 12 नामज़द होते हैं। देश भर की विधानसभाओं में 4123 सदस्य चुने जाते हैं। छह राज्यों में विधान परिषदें हैं। उनमें 426 सदस्य निर्वाचित होते हैं। क़रीब सवा सौ महानगरपालिकाएं और नगर निगम हैं। तक़रीबन डेढ़ हज़ार नगरपालिकाएं हैं। उनमें कोई एक लाख पार्षदों को मतदाता सीधे चुनते हैं। 630 ज़िला पंचायतें हैं। 2100 नगर पंचायतें हैं। उनमें भी हज़ारों लोग चुन कर भेजे जाते हैं। 6634 मध्यवर्ती पंचायतें हैं और 2 लाख 53 हज़ार 268 ग्राम पंचायतें। राजीव गांधी द्वारा लागू किए गए पंचायती राज की इन संस्थाओं में 31 लाख से ज़्यादा पंच-सरपंच निर्वाचित होते हैं। इन सब के अलावा 6630 कृषि उपज मंडिया हैं। इनमें भी हज़ारों लोग चुन कर भेजे जाते हैं। 1650 शहरी सहकारी बैंक हैं। साढ़े 96 हज़ार ग्रामीण सहकारी बैंक हैं। इनके भी पदाधिकारियों का चुनाव होता है।

तो मेरे हिसाब से हमारे देश की विभिन्न लोकतांत्रिक संस्थाओं में कम-से-कम 35 लाख लोग निर्वाचन के ज़रिए पहुंचते हैं। किस अमेरिका, कनाडा या ब्रिटेन में लोकतंत्र का इतना व्यापक ज़मीनी आधार है? वहां पंचायती राज व्यवस्था नाम की तो कोई चीज़ ही नहीं है। निर्वाचित लोकतांत्रिक संस्थाओं का संजाल वहां राज्य-स्तर से नीचे आमतौर पर है ही नहीं। बड़े शहरों की परिषदों को छोड़ दें तो पूरे-के-पूरे मैदान में जनतांत्रिक निर्वाचन का सन्नाटा पसरा हुआ है। चूंकि सारा काम वहां मूलतः देश की संसद करती हैं, सो, उन्हें लगता है कि इतनी आबादी पर उनका एक प्रतिनिधि वहां होना चाहिए।

लेकिन भारत की संसद में ऐसा क्यों हो? यह क्या दलील हुई कि एक सांसद 10 पंदह लाख, बीस लाख या पच्चीस लाख की आबादी का ख़्याल कैसे रख सकता है? मुझे बताइए, उसे लोकसभा सदस्य के नाते अपने क्षेत्र के लोगों का ख़्याल रखना ही क्या है? शहरों और कस्बों की पानी, बिजली, खड़ंजे के लिए निर्वाचित पार्षद, नगर पालिका अध्यक्ष और मेयर हैं। बाकी प्रशासनिक मसलों और सिंचाई, शिक्षा, स्वास्थ्य और दूसरी विकास योजनाओं की देखभाल के लिए विधायक, मंत्री और मुख्यमंत्री हैं। किसानों की उपज, खाद, बीज, वगै़रह के इंतजाम के लिए कृषि मंडिया हैं। ऋण वग़ैरह की सहूलियतें देने के लिए छोटे-बड़े सहकारी बैंक हैं। यह सारा ज़िम्मा निभाने वाले लोग निर्वाचित होते हैं। प्रशासनिक अमले की निगरानी भी उन्हीं का काम है। जितने धरती-पकड़ वे सब हैं, कौन-सा लोकसभा सदस्य हो सकता है?

इसलिए मेरे मत में तो लोकसभा की सदस्यता फालतू की चौधराहट है। हां, लेकिन लोकसभा इसलिए होनी चाहिए कि उसे समूचे देश के लिए संवैधानिक क़ानून बनाने होते हैं; सुरक्षा, अंतरराष्ट्रीय संबंध और वित्त-व्यवस्था जैसी राष्ट्रीय नीतियां रचनी होती हैं; और, संघीय गणराज्य को एक सूत्र में पिरोए रखने की भूमिका निभानी होती है। लेकिन लोकसभा में प्रतिनिधित्व का किसी राज्य की आबादी और वहां मतदाताओं की तादाद से क्या अंतःसंबंध है? जब केंद्र और राज्य के विषय स्पष्टतौर पर बंटे हुए हैं तो स्थानीय आबादी का तालमेल सांसद से होना चाहिए या विधायक, पार्षद, सरपंच आदि से? अगर कोई राज्यों में विधायकों की संख्या बढ़ाने की बात करे तो समझ में भी आए। सांसदों की संख्या बढ़ाने की बात से मुझे या तो मूर्खता की गंध आती है या फिर किसी साज़िश की बू। इससे किसी के प्रधानमंत्री बनने या बने रहने की राह भले ही हरी-भरी हो जाए, देश और देश की जनता को तो कुछ मिलने वाला है नहीं। सो, विचार करना है तो इस पर करें कि लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या घटा कर 148 कैसे की जाए! (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)

पंजाब की त्रिशंकु-गोद का राजनीति शास्त्र

राजनीति शास्त्र का यह पन्ना कहता है कि किसान आंदोलन से उपजी ऊर्जा का पंजाब में सही इस्तेमाल करने के लिए सोनिया गांधी और राहुल-प्रियंका को अभी और बहुत पापड़ बेलने हैं। बुजु़र्ग जाएं। युवा आएं। लेकिन कौन-से बुज़ुर्ग जा रहे हैं और कौन-से युवा आ रहे हैं? किसी भी राजनीतिक दल को उसके पदाधिकारियों की संख्या चुनाव नहीं जिताती है। चुनाव तो मतदाताओं और कार्यकर्ताओं के भाव-पक्ष की देखभाल से जीता जाता है। ज़रूरत तो दरअसल इस शून्य को भरने की है।

सवाल कैप्टन अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू का नहीं है। सवाल सियासत की परंपराओं, आचरण संहिता और नियमों का है। ख़ासकर इसलिए कि मसला कांग्रेस का है। उस कांग्रेस का, जो 136 बरस से ख़ुद के गंगाजली होने पर फ़ख़्र करती रही है। उस कांग्रेस का, जिसका शिखर नेतृत्व अपने को क्षुद्र उठापटक से निर्लिप्त दिखाता है। उस कांग्रेस का, जिस पर अब भी लोगों का यह विश्वास क़ायम है कि एक दिन वह देश को मौजूदा जंजाल से मुक्ति दिलाने की हैसियत रखती है।

सो, पंजाब-प्रसंग के कुछ आयामों को राजनीति नहीं, राजनीति-शास्त्र के नज़रिए से समझना ज़रूरी है। इस कथानक के एक नायक चौधरी फूलसिंह के राजवंश से ताल्लुक रखने वाले पटियाला के पूर्व महाराज अमरिंदर सिंह हैं। वे तीन बार कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष रहे हैं और दूसरी बार मुख्यमंत्री हैं। महाराज हैं तो ज़ाहिर है कि करोड़पति-अरबपति भी होंगे ही। फ़ौज में रहे हैं, सो, उन राजाओं में नहीं हैं, जिनकी देहभाषा से रंगीला रतन भाव टपकता हो। संजीदा हैं। ख़ुद्दार भी हैं। राजनीति की उठापटक, ख़ुद की जीत-हार और सियासी मसलों की टप्पेबाज़ी ने उन्हें गहरा अनुभव भी दे दिया है।

कांग्रेस से अमरिंदर का सार्वजनिक जीवन शुरू हुआ। राजीव गांधी उन्हें राजनीति में लाए थे। 1980 में वे लोकसभा के सदस्य बने। मगर कुछ बरस बाद, 1984 में, अमृतसर के स्वर्णमंदिर के क्षतिग्रस्त गुबंद ने उन की भावनाओं को आहत किया और वे कांग्रेस छोड़ कर शिरोमणि अकाली दल में चले गए। लेकिन अपनी साफ़ग़ोई के चलते वहां उन्हें कसमसाहट होने लगी और अलग हो कर उन्होंने अकाली दल पंथिक का गठन कर लिया। उनकी यह पार्टी विधानसभा चुनाव बुरी तरह हार गई और ख़ुद अमरिंदर को सिर्फ़ 856 वोट मिले। 23 साल पहले जब सोनिया गांधी कांग्रेस की अध्यक्ष बनीं तो अमरिंदर ने अपने अकाली दल का कांग्रेस में विलय कर दिया। तब से वे पंजाब में कांग्रेस का प्रथम चेहरा हैं। इसी मार्च में 79 के हो कर उन्होंने उम्र के 80 वें साल में प्रवेश किया है।

इस कथानक के सह-नायक नवजोत सिंह सिद्धू हैं। वे मशहूर क्रिकेट खिलाड़ी भगवान सिंह के बेटे हैं, सो, राजनीति में आने से पहले उन्होंने भी 19 साल प्रथम श्रेणी क्रिकेट खेला। 51 टेस्ट मैच खेले। 136 एकदिवसीय अंतरराष्ट्रीय मैच खेले। 34 साल पहले हुए विश्व-कप में चार अर्द्धशतक बनाने का कमाल दिखाया। उनके छक्के आज भी लोगों को याद हैं। फिर वे क्रिकेट की कमेंटरी करने लगे। उनकी कमेंटरी शैली को भी लोग चुटीली ज़ुमलेबाज़ियों की वज़ह से याद करते हैं। अपने इसी अंदाज़ ने उन्हें टेलीविजन के लॉफ्टर चैलेंज, बिग बॉस और कपिल शर्मा शो के ज़रिए खिलंदड़ी पहचान दी।

सिद्धू के राजनीतिक जीवन की शुरुआत 17 साल पहले भारतीय जनता पार्टी से हुई। भाजपा और क्रिकेट दोनों की सियासत में गहरी पैठ रखने वाले अरुण जेटली सिद्धू को राजनीति में लाए। वे अमृतसर से तीन बार लोकसभा का चुनाव जीते। लेकिन जब 2014 में भाजपा ने उन्हें उम्मीदवार नहीं बनाया तो वे आम आदमी पार्टी में जाने की तैयारी करने लगे। 2017 में पंजाब के विधानसभा चुनाव होने वाले थे। सो, सिद्धू को थामे रखने के लिए भाजपा ने एक साल पहले उन्हें राज्यसभा में भेज दिया। लेकिन ढाई महीने में ही सिद्धू ने इस्तीफ़ा दे कर अपना अलग मंच ‘आवाज़-ए-पंजाब’ गठित कर लिया। उसके तीन महीने बाद उन्होंने यह बोरिया-बिस्तर समेट लिया और कांग्रेस में शामिल हो गए। विधानसभा का चुनाव लड़े। जीते और अमरिंदर-सरकार में पहली खेप में बने नौ मंत्रियों में से एक हो गए। दो साल बाद उन्होंने मुख्यमंत्री से मतभेद के चलते मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा दे दिया। फिर उन्होंने पंजाब सरकार के ख़िलाफ़ दो साल तक मूसलाधार बयानबाज़ी करने में कोई कोताही नहीं बरती और अब अमरिंदर की घनघोर असहमति के बावजूद पंजाब-कांग्रेस के अध्यक्ष बन गए। तीन महीने बाद वे उम्र के 58 साल पूरे कर लेंगे।

यह सही है कि ऐसा क्यों हो कि कोई पूर्व-महाराज अपने को पंजाब जैसे सूबे में कांग्रेस का एकछत्र अधिपति समझने लगे? ऐसा क्यों हो कि एक मुख्यमंत्री अपने को पार्टी-आलाकमान से भी ऊपर मानने की ख़ामख़्याली पाले? ऐसा भी क्यों हो कि सब-कुछ किसी एक के भरोसे ही छोड़ दिया जाए? क्या नेतृत्व की दूसरी कतार तैयार नहीं होनी चाहिए? जिन्हें मालूम है, वे जानते हैं कि अमरिंदर ने साढ़े चार साल कैसी सरकार चलाई है? तन-मन से वे जितने प्रशासनिक लगते हैं, क्या पंजाब का प्रशासन वैसा चल पाया? हाव-भाव से वे जितने साफ़-सुथरे लगते हैं, क्या पंजाब का कामकाज उतने ही साफ़-सुथरे तरीके से चला?

मगर विधानसभा के अगले चुनाव से सिर्फ़ छह महीने पहले नींद से जागने वालों से क्या यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि साढ़े चार साल तक पंजाब की केंद्रीय निगरानी करने वाले क्या कर रहे थे? अगर सिद्धू, प्रताप सिंह बाजवा और शमशेर सिंह ढुल्लो की बातों में दम था तो एक-डेढ़ साल से दिल्ली के कुएं में ऐसी कौन-सी भांग पड़ी थी, जिसने सब की आंखें अधमुंदी कर रखी थीं? क्या अमरिंदर की कार्यशैली एकाएक गड़बड़ हो गई? क्या उनकी चौकड़ी के सदस्य अचानक धमाचौकड़ी मचाने लगे? तो अब तक उनकी पतंग को यह लंबी डोर क्यों मुहैया होती रही?

चलिए, देर आयद, दुरुस्त आयद! मगर क्या अमरिंदर के पंख कतरने के लिए सिद्धू को कैंची बनाना बुद्धिमत्ता है? सो भी इस वक़्त? क्या पूरे प्रसंग से यह संदेश नहीं गया कि सिद्धू को प्रदेश-अध्यक्ष पद मिला नहीं, उन्होंने इसे छीना है। क्या इससे यह संदेश नहीं गया कि कांग्रेस के जिस शिखर नेतृत्व ने अमरिंदर की इच्छाओं के सामने समर्पण नहीं किया, उसने सिद्धू के भयादोहन के चलते घुटने टेक दिए? आख़िर सिद्धू आख़ीर-आख़ीर तक आम आदमी पार्टी की तरफ़ पेंग बढ़ाने के संकेत देने में कोई कसर तो रख नहीं रहे थे। तो अगर पंजाब के चुनाव में सिर्फ़ छह महीने की देर न होती तो क्या सिद्धू को आलाकमान बावजूद इसके प्रदेश अध्यक्ष बनाता कि अमरिंदर भी जाट-सिख हैं और वे भी, दोनों की उपजाति भी एक है और दोनों ही पटियाला के बाशिंदे हैं?

इसलिए जिन्हें इस पूरे प्रसंग में कांग्रेस आलाकमान की दुंदुभि बजती सुनाई दे रही है, वे उसे सुन कर भांगड़ा करने को स्वतंत्र हैं। मैं तो इतना जानता हूं कि अगर अमरिंदर और सिद्धू के बीच की खरखराहट शांत नहीं हुई और बाजवा सरीखे आधा दर्जन पर्दानशीनों ने अपने घूंघट की ओट से नैनमटक्का करने का करतब दिखाया तो अगले बरस की वसंत पंचमी पर पंजाब हमें त्रिशंकु-गोद में पड़ा मिलेगा। पंजाब में कांग्रेस की वापसी न अकेले अमरिंदर के बस की है और न अकेले सिद्धू के बस की। सिद्धू अपने चेहरे के बूते चुनावी सभाओं में भीड़ जुटाने का माद्दा रखते होंगे, लेकिन उनका चेहरा अगले मुख्यमंत्री का चेहरा बनने की कूवत अभी तो नहीं रखता है।

इसलिए राजनीति शास्त्र का यह पन्ना कहता है कि किसान आंदोलन से उपजी ऊर्जा का पंजाब में सही इस्तेमाल करने के लिए सोनिया गांधी और राहुल-प्रियंका को अभी और बहुत पापड़ बेलने हैं। बुजु़र्ग जाएं। युवा आएं। लेकिन कौन-से बुज़ुर्ग जा रहे हैं और कौन-से युवा आ रहे हैं? किसी भी राजनीतिक दल को उसके पदाधिकारियों की संख्या चुनाव नहीं जिताती है। चुनाव तो मतदाताओं और कार्यकर्ताओं के भाव-पक्ष की देखभाल से जीता जाता है। ज़रूरत तो दरअसल इस शून्य को भरने की है। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)

 

कर्तव्य-विमुखता के दो बरस पूरे होने पर

आपकी अनुपस्थिति कांग्रेस को तक़रीबन एक यतीमखाने में तब्दील कर चुकी है। मुझे तो नहीं मालूम, मगर आपको बेहतर पता होगा कि साढ़े आठ साल पहले जो सोच कर आप चले थे, वह बीच में कहां और क्यों बिखर गया? लेकिन इतना ज़रूर मैं जानता हूं कि अगर अब भी आप अपने कोप-भवन में ही बैठे रहे तो न तो कांग्रेस के पितरों की आत्मा से न्याय करेंगे और न आने वाली नस्लों से इंसाफ़। इतने कर्तव्य-विमुख तो आप कभी लगते नहीं थे! अपने चिरंतन कर्तव्य-बोध की पुकार सुनिए, राहुल जी! माफ़ कीजिए, वरना इतिहास आपको माफ़ नहीं करेगा।

आदरणीय राहुल गांधी जी,

आज आपको कांग्रेस-अध्यक्ष पद छोड़े दो साल पूरे हो रहे हैं, सो, अपने दिलो-दिमाग़ में पछुआ बयार की तरह तैर रहे महज़ आठ साल पांच महीने पुराने दृश्यों का आप से ज़िक्र किए बिना मुझ से रहा नहीं जा रहा। उस दिन 2013 की सर्दियों का रविवार था। तारीख़ थी 20 जनवरी। मैं जयपुर के कांग्रेस अधिवेशन में पार्टी के राष्ट्रीय सचिव के नाते उस मंच पर मौजूद था, जिस पर आप ने उपाध्यक्ष का पद संभाला था। उसके फ़ौरन बाद अपने भाषण में कही गई आपकी बातें मेरे मन को अब तक झंकृत किए हुए हैं। आपने कहा था:

‘‘…हम लीडरशिप डेवलपमेंट पर फ़ोकस नहीं करते। आज से 5-6 साल बाद ऐसी बात होनी चाहिए कि अगर किसी स्टेट में हमें चीफ़ मिनिस्टर की ज़रुरत हो तो जैसे पहले फ़ोटो हुआ करती थी कांग्रेस पार्टी की, उन में नेहरु जी, पटेल, आजाद, जैसे जायंट्स हुआ करते थे, उनमे से कोई भी देश का प्रधानमंत्री बन सकता था। यह बात हमें करनी है। हमें 40-50 नेता तैयार करने हैं, जो देश को चला सकें। सिर्फ़ प्रदेश को नहीं, देश को चला सकें। 40-50 नेता ऐसे तैयार करने हैं हर प्रदेश से। हमारे पास 5-6-7-10 ऐसे नेता हों जो चीफ़ मिनिस्टर बन सकें। और हर डिस्ट्रिक्ट में यह बात हो, हर ब्लॉक में यह बात हो। और अगर हमसे कोई पूछे की कांग्रेस पार्टी क्या करती है? कांग्रेस पार्टी हिन्दुस्तान के भविष्य के लिए नेता तैयार करती है। कांग्रेस पार्टी सेक्यूलर नेता, ऐसे नेता जो गहराई से हिन्दुस्तान को समझते हैं, जो जनता से जुड़े हुए हैं, वैसे नेता तैयार करती है। ऐसे नेता तैयार करती है, जिनको हिन्दुस्तान के सब लोग देख कर कहते हैं भैया हम इनके पीछे खड़े होना चाहते हैं।’’

‘‘तो लीडरशिप डेवलपमेंट की ज़रुरत है और इसके लिए ढांचे की ज़रुरत है, सिस्टम की ज़रुरत है, इनफ़ार्मेशन की ज़रुरत है, क्योंकि यहां पर जो नहीं होता है, इसलिए नहीं कि कोई चाहता नहीं है। इसलिए नहीं होता है कि कोई सिस्टम नहीं है। और सिस्टम बनाया जा सकता है। और इस सिस्टम को आप लोग बनाओगे और आप लोग चलाओगे।’’

‘‘हम टिकट की बात करते हैं। ज़मीन पर हमारा कार्यकर्ता काम करता है। यहां हमारे डिस्ट्रिक्ट प्रेसिडेंट बैठे हैं, ब्लॉक प्रेसिडेंट्स हैं ब्लॉक कमेटीज़ हैं, डिस्ट्रिक्ट कमेटीज़ हैं। उनसे पूछा नहीं जाता है। टिकट के समय डिस्ट्रिक्ट प्रेसिडेंट से नहीं पूछा जाता, संगठन से नहीं पूछा जाता, ऊपर से डिसीजन लिया जाता है। होता क्या है कि दूसरे दलों के लोग आ जाते हैं, चुनाव के पहले आ जाते हैं, चुनाव हार जाते हैं और फिर चले जाते हैं। और हमारा कार्यकर्ता कहता है भैया ये क्या? वो ऊपर देखता है, चुनाव से पहले ऊपर देखता है, ऊपर से पैराशूट गिरता है-धड़ाक! नेता आता है, दूसरी पार्टी से आता है, चुनाव लड़ता है, फिर हवाई जहाज में उड़ के चला जाता है।’’

‘‘तो सबसे पहले कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ता की इज्ज़त होनी चाहिए और सिर्फ कार्यकर्ता की इज्ज़त नहीं, नेताओं की इज्ज़त भी होनी चाहिए। नेताओं की इज्ज़त का मतलब क्या है? कि अगर नेता ने अच्छा काम किया है, अगर नेता जनता के लिये काम कर रहा है, चाहे वह जूनियर नेता हो या सीनियर नेता हो, जितना भी छोटा हो, जितना भी बड़ा हो, अगर वो काम कर रहा है तो उसे आगे बढ़ाना चाहिए। अगर वो काम नहीं कर रहा है तो उसको कहना चाहिए, भैया, आप काम नहीं कर रहे हो और अगर दो-तीन बार कहने के बाद भी काम नहीं करता है तो फिर दूसरे को चांस देना चाहिए।’’

‘‘और अंत में जो हमारे ही लोग हमारे खि़लाफ़ खड़े हो जाते हैं, चुनाव के समय इंडिपेंडेंट खड़े हो जाते हैं, जो इंडिपेंडेंट को खड़ा कर देते हैं, उनके खि़लाफ़ एक्शन लेने की ज़रुरत है। आप सब ये चीजें जानते हैं। मैं भी जानता हूं। सब लोग जानते हैं। कमी इंप्लिमेंटेशन में है। और हम इंप्लिमेंटेशन अगर मिल के करेंगे, यहां पे ज्ञान है, जानकारी है, हम ये काम कर सकते हैं और जिस दिन हमने ये काम कर दिया, हमारे सामने कोई नहीं खड़ा रह पाएगा। जिस दिन जनता की आवाज़ कांग्रेस पार्टी के अंदर गूंजने लगी – आज गूंजती है, बाकियों से ज्यादा गूंजती है – मगर जिस दिन गहराई से गूंजने लगेगी, जिस दिन पंचायत, वार्ड के लोग यहां आ के बैठ जाएं, उस दिन हमें कोई नहीं हरा पाएगा। और होगा क्या कि जो आज हमारे अंदर कभी-कभी गुस्सा आता है, दुःख होता है, फ्रस्टेªशन आती है, वो कम हो जाएगा, मुस्कुराहटें आ जाएंगी। लोग कहेंगे, भैया मज़ा आ रहा है, विपक्षी पार्टियों को हराते हैं, मजे़ से लड़ेंगे, मज़े से जीतेंगे।’’

‘‘मैं पिछले 8 साल से यह काम कर रहा हूँ और मैंने आपसे कहा कि आपने मुझे सिखाया है। सीनियर नेता बैठे हैं। कल मैंने ओला जी का भाषण सुना कितनी गहरी बात बोली उन्होंने, और युवा भी थे, उन्होंने ने भी गहरी बात बोली। चिदंबरम जी थे और उन्होंने भी गहरी बात बोली, एंटोनी जी थे उन्होंने ने गहरी बात बोली। यहाँ पर कैपेबिलिटी की कोई कमी नहीं है, गहराई की कोई कमी नहीं है और जिस प्रकार यह पार्टी सोचती है, जितनी डेप्थ इस पार्टी में है और कहीं नहीं है। पार्लियामेंट में देखते हैं, सब जगह देखते हैं।’’

‘‘और मैं आपको यह बताना चाहता हूं कि मैं सब कुछ नहीं जानता हूं। दुनिया में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं, जो सब कुछ जानता हो। कांग्रेस पार्टी में करोडों लोग हैं। कहीं न कहीं जानकारी ज़रूर है। मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि मैं उस जानकारी को ढूंढूंगा। सीनियर नेताओं से पूछूंगा, शीला जी यहां बैठी हैं, गहलोत जी बैठे हैं, सब बैठे हैं, उन सब से पूछूंगा और आपसे सीखूंगा, क्योंकि इस पार्टी का इतिहास आपके अंदर है, इस पार्टी की सोच आपके अंदर है और मैं सिर्फ़ आपकी आवाज़ को आगे बढ़ाऊंगा। जो सुनाई देगा, उसे आगे बढ़ाऊंगा। और फ़ेयरनेस की बात होती है, कल मैंने मीटिंग में कहा कि कचहरी में दो लोग होते हैं। एक लॉयर होता है, दूसरा जज होता है। मैं जज का काम करूंगा, वकील का काम नहीं करूंगा।…’’

राहुल जी! उपाध्यक्ष बनने के पांच साल बाद 16 दिसंबर 2017 को आप कांग्रेस-अध्यक्ष बन गए। फिर डेढ़ साल बाद 3 जुलाई 2019 को आपने पार्टी-अध्यक्ष पद छोड़ने की ट्वीट-घोषणा कर दी। सोनिया जी दो बरस से अंतरिम कामकाज संभाले हुए हैं। उनकी सहालियत तो बेजोड़ है, मगर आपकी अनुपस्थिति कांग्रेस को तक़रीबन एक यतीमखाने में तब्दील कर चुकी है। मुझे तो नहीं मालूम, मगर आपको बेहतर पता होगा कि साढ़े आठ साल पहले जो सोच कर आप चले थे, वह बीच में कहां और क्यों बिखर गया? लेकिन इतना ज़रूर मैं जानता हूं कि अगर अब भी आप अपने कोप-भवन में ही बैठे रहे तो न तो कांग्रेस के पितरों की आत्मा से न्याय करेंगे और न आने वाली नस्लों से इंसाफ़। इतने कर्तव्य-विमुख तो आप कभी लगते नहीं थे! अपने चिरंतन कर्तव्य-बोध की पुकार सुनिए, राहुल जी! माफ़ कीजिए, वरना इतिहास आपको माफ़ नहीं करेगा। (लेखक न्यूज-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)

वे काले दिन बनाम ये अच्छे दिन

 

जनतंत्र को अपने ठेंगे पर रखे घूम रहे लठैतों के इस दौर में इंदिरा जी का कद तो और भी सौ गुना बढ़ जाता है। इसलिए 46 साल पहले के आपातकाल के 633 दिनों पर खूब हायतौबा मचाइए, मगर पिछले 2555 दिनों से भारतमाता की छाती पर चलाई जा रही अघोषित आपातकाल की चक्की के पाटों को नज़रअंदाज़ मत करिए। दिल पर हाथ रखकर बताइए कि आज आप के कितने मौलिक अधिकार सचमुच शेष रह गए हैं? गंगा जल हाथ में ले कर पूरी ईमानदारी से बताइए कि वे दिन तो चलिए काले थे, लेकिन ये ‘अच्छे दिन’ कैसे हैं?

Indira Gandhi Emergency : हर साल आपातकाल की सालगिरह पर चूंकि उन ‘काले दिनों’ पर हाय-हाय करने का दस्तूर है, इसलिए इस बार जब 46 साल पूरे हो गए हैं, मैं भी आप से कुछ गुज़ारिश करना चाहता हूं। इसलिए कि इन साढ़े चार दशकों में यह धारणा बनाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी गई है कि जनतंत्र से इंदिरा गांधी का कोई लेना-देना था ही नहीं। 1975 के बाद जन्म लेने वाली पीढ़ी को तो यह सिखाने में कोई कसर छोड़ी ही नहीं गई है कि इंदिरा जी लोकतंत्र-विरोधी थीं और एक तरह से तानाशाह ही थीं। हम अपने बच्चों को लगातार यह बता रहे हैं कि इंदिरा जी ने जनता के मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए थे, विपक्ष के सभी बड़े नेताओं को जेल भेज दिया था और उन ‘काले दिनों’ में जैसी ज़्यादतियां हुईं, कभी नहीं हुईं।

इंदिरा जी ने आपातकाल क्यों लगाया था, इस पर लंबी चर्चा हो सकती है। उन्होंने विपक्षी नेताओं को क्यों जेल भेजा था, इस पर भी काफी बहस की गुंज़ाइश है। और, आपातकाल में सचमुच कितनी ज़्यादती हुई या नहीं हुई और की तो किसने की, किसके इषारे पर की, इस पर तो पूरा ग्रंथ लिखा जा सकता है। लेकिन चूंकि ऐसा करने में अलोकप्रिय होने की पूरा जोख़िम मौजूद है, इसलिए आज तक यह काम किसी ने नहीं किया।

मैं भी मानता हूं कि इंदिरा जी ने आपातकाल लगा कर के अपने जीवन की सबसे बड़ी ग़लती की थी। लेकिन यह भी तो एक तथ्य है कि उन्होंने अपनी ग़लती मान ली थी। खुद इसके लिए माफ़ी मांगी थी। उनके बाद राजीव गांधी ने भी इसके लिए माफ़ी मांगी। सोनिया गांधी की कांग्रेस भी आपातकाल की भूल स्वीकार कर चुकी है। आज के दौर में जब अपनी ग़लती मानने के बजाय अर्राने का रिवाज़ है, आपको नहीं लगता कि इंदिरा जी और कुछ भी थीं, तानाशाह नहीं थीं?

25 जून 1975 की आधी रात आपातकाल लगा था। 21 मार्च 1977 को इंदिरा जी ने आपातकाल हटाने का ऐलान कर दिया था। मैं नहीं कहता कि इंदिरा जी के इन 633 दिनों को कोई भूले। जिन्हें याद रखना है, वे ज़रूर याद रखें, लेकिन इतना निवेदन मैं ज़रूर करना चाहता हूं कि सिर्फ़ इन 633 दिनों के आधार पर इंदिरा जी के ज़िंदगी के पूरे 67 वर्षों पर अपनी पसंद का रंग पोत देना ठीक नहीं है। मुझे तो लगता है कि जितना गहरा जनतांत्रिक दायित्वबोध इंदिरा जी में था, बहुत कम राजनीतिकों में होता है।

भले ही इंदिरा जी के दामन पर आपातकाल लगाने के दाग़ हैं, लेकिन उनके जैसा जनतांत्रिक होने के लिए भी कई जन्म के पुण्य लगते हैं। एक लड़की, जिसके पिता स्वाधीनता आंदोलन की मसरूफ़ियत के चलते कभी-कभार ही घर रह पाते हों; एक लड़की, जिसके बचपन का ज़्यादातर हिस्सा इसलिए अकेलेपन में गुज़रा हो कि पिता कुल मिला कर 11 साल अंग्रेज़ों की जेलों में रहे; एक लड़की, जिसका पूरा बचपन अपनी बीमार मां की देखभाल और फिर उसे खो देने की निजी त्रासदी के बीच गुज़रा हो; एक लड़की, जो ख़ुद अपनी नरम सेहत से परेशान रहते हुए भी आज़ादी की लड़ाई में अपनी भूमिका अदा करती रही हो; वह लड़की, जब अपने देश की प्रधानमंत्री हो जाए तो मैं नहीं मानता कि इतनी संवेदनशून्य हो सकती है कि तानाशाह बनने का सोच ले।

इंदिरा जी की परवरिश तरह-तरह के अभावों में हुई थी। अगर मैं कहूंगा कि इनमें आर्थिक अभाव भी शामिल था तो आपको ताज्जुब हो सकता है। लेकिन सच्चाई यह भी है कि इंदिरा जी की मां का इलाज़ कराने तक के पैसे उनके पिता जवाहरलाल नेहरू के पास एक वक़्त नहीं थे। नेहरू की शादी कमला से 8 फरवरी 1916 को हुई थी। उस दिन वसंत पंचमी थी। कमला के पिता का नाम था अटल कौल। कमला 16 साल की थीं। शादी के समय नेहरू 27 साल के थे। इंदिरा जी को जन्म देने के बाद से ही कमला नेहरू बीमार रहने लगी थीं। इंदिरा जी के जन्म के 7 साल बाद 1924 में उन्होंने एक बेटे को भी जन्म दिया था। वह कुछ ही दिन जीवित रहा। नेहरू तब जेल में थे। 7 साल की इंदिरा गांधी पर अपने छोटे भाई की मौत के हादसे ने असर नहीं डाला होगा?

कमला को टीबी हो गई थी। वे महीनों लखनऊ के अस्पताल में भर्ती रहीं। इंदिरा जी इलाहाबाद से लखनऊ के बीच आती-जाती रहती थीं। डॉक्टरों ने उन्हें इलाज़़ के लिए स्विट्ज़रलैंड ले जाने की सलाह दी। यह 1926 की बात है। जवाहरलाल के पास इतने पैसे नहीं थे कि यह खर्च उठा पाते। शादीशुदा थे। बेटी भी हो गई थी। इसलिए उन्हें अपने पिता मोतीलाल जी से खर्च के लिए पैसे लेना अच्छा नहीं लगता था। मोतीलाल जी को कहां कोई कमी थी? लेकिन जवाहरलाल के पास खुद के पैसे नहीं थे। उन्होंने नौकरी तलाशनी षुरू की। पिता को पता चला तो वे बहुत नाराज़ हुए। उनका मानना था कि भारत में राजनीतिक काम करने वाले को संन्यासी की तरह रहना होता है। वह आजीविका कमाने के लिए नौकरी-धंधा नहीं कर सकता। वरना लोग उसे नेता नहीं मानेंगे। मोतीलाल ने जवाहरलाल से कहा कि जितना तुम एक साल में कमाओगे, उतनी तो मेरी एक हफ़्ते की कमाई है। लेकिन बेटे की खुद्दारी का मान रखने के लिए मोतीलाल ने जवाहरलाल को अपने कुछ मुकदमों की याचिकाएं तैयार करने का काम दिया और बदले में दस हज़ार रुपए का मेहनताना दिया। तब नेहरू अपनी पत्नी को ले कर मार्च के महीने में इलाज़ के लिए परदेस गए।

स्वाधीनता आंदोलन के दिनों में इंदिरा जी को अपने पिता से जो संस्कार मिले थे, वे उन्हें ज़िंदगी भर अपने पल्लू से बांधे रहीं। लोकतंत्र में नेहरू की गहरी आस्था थी। इंदिरा जी के संस्कार भी स्वाधीनता आंदोलन की आंच में न पगे होते तो बात अलग होती। यही कारण है कि हमने देखा कि अगर संजय गांधी की मां ने भारत को आपातकाल के हवाले कर दिया था तो नेहरू की बेटी ने भारत को आपाकाल की अंधेरी कोठरी से मुक्त कर फिर लोकतंत्र की बगिया में खेलने भेज दिया। कितने लोग हैं, जो अपनी भूल-सुधार का माद्दा रखते हैं? कितने लोग हैं, जो ऐसा प्रायश्चित कर सकते हैं? जनतंत्र के प्रति यह दायित्वबोध ही इंदिरा जी को दूसरों से अलग बनाता है।

हम ने पढ़ा है कि इंदिरा गांधी को आपातकाल लगाने की सलाह देने वालों में सिद्धार्थ शंकर राय प्रमुख थे। लेकिन 25 जून की आधी रात आपातकाल लगने के वक़्त का एक वाक़या और है। राजेंद्र कुमार धवन राष्ट्रपति फ़खरुद्दीन अली अहमद से अध्यादेश पर दस्तख़त करा लाए थे। इंदिरा जी 26 जून की सुबह देश को संबोधित करने के लिए अपना भाषण तैयार कर रही थीं। देवकांत बरुआ और राय इसमें उनकी मदद कर रहे थे। गृह मंत्री तो ब्रह्मानंद रेड्डी थे, लेकिन गृह राज्य मंत्री ओम मेहता संजय गांधी के चहेते थे। दिल्ली के उपराज्यपाल किषनचंद और ओम मेहता संजय के ताबेदार थे।

Indira Gandhi Emergency Story : रात को तीन बजे इंदिरा जी सोने चली गईं। ओम मेहता ने बरामदे में आ कर निर्देष दिए कि अख़बारों की बिजली काट दी जाए ताकि सुबह कोई अख़बार न आए। राय ने यह भी सुना कि इंतजाम किए गए हैं कि कल सुबह कोई अदालत नहीं खुलेगी। उन्होंने एतराज़ किया। लेकिन ओम मेहता अड़े रहे तो राय ने इंदिरा जी के सहायकों से उन्हें जगाने को कहा। इंदिरा जी को जगाया गया। वे बाहर आईं तो राय ने उन्हें सारी बात बताई। कहा कि बिजली काटना ठीक नहीं है और अदालतों को बंद रखना तो हद ही है। इंदिरा जी भीतर गईं। बीस मिनट बाद लौटीं। राय समेत सबको बुलाया और कहा कि बिजली नहीं कटेगी। अदालतें भी खुली रहेंगी। सुबह अदालतें तो खुली रहीं, लेकिन ज़्यादातर अख़बारों की बिजली गा़यब रही। कुछ अख़बार ही निकल पाए। यानी इंदिरा जी को अंधरे में रख कर काम करने की शुरुआत आपातकाल के पहले दिन से ही हो गई थी।

इंद्रकुमार गुजराल सूचना-प्रसारण राज्य मंत्री थे। रात को दो बजे कैबिनेट सेक्रेटरी ने उन्हें फ़ोन कर उठाया और कहा कि 6 बजे कैबिनेट की बैठक है। जब बैठक में इंदिरा जी ने ऐलान किया कि आपातकाल लागू कर दिया गया है और जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई और बाकी बड़े नेता गिरफ्तार कर लिए गए हैं तो रक्षा मंत्री स्वर्ण सिंह ने कुछ सवाल उठाए। बैठक से सब बाहर निकल रहे थे तो संजय बाहर खड़े थे। उन्होंने गुजराल से कहा कि सारे न्यूज़ बुलेटिन प्रसारित होने से पहले उनके पास भेजे जाएं। गुजराल ने कहा कि जब तक प्रसारित नहीं होते, न्यूज़ बुलेटिन गोपनीय होते हैं। इसलिए उन्हें नहीं भेजे जा सकते।

इंदिरा जी भी बगल में ही थोड़ी दूर थीं। उन्होंने संजय और गुजराल के बीच हो रही किचकिच सुनी तो पूछा कि क्या मामला है? गुजराल ने बता दिया। गुजराल घर लौटे और अपना इस्तीफ़ा तैयार करने लगे। तभी उन्हें प्रधानमंत्री निवास वापस बुला लिया गया। वहां इंदिरा जी नहीं थीं। वे दफ्तर चली गई थीं। संजय थे। उन्होंने गुजराल से कड़क आवाज़ में पूछा कि प्रधानमंत्री का संदेश सुबह आकाषवाणी के सभी वेव-लेंग्थ पर प्रसारित क्यों नहीं हुआ? गुजराल ने संजय से कहा कि अगर आपको मुझसे बात करनी है तो पहले शिष्टाचार सीखना होगा। आप मेरे बेटे से भी छोटे हैं और मैं आपको किसी भी बात का जवाब देने के लिए बाध्य नहीं हूं। इंदिरा जी को पता चला कि गुजराल इस्तीफ़ा दे रहे हैं तो उन्होंने उनसे लंबी बातचीत की। गुजराल ने कहा कि मैं सूचना-प्रसारण नहीं संभालूंगा।

चिंतक-दार्शनिक जड्डू कृष्णमूर्ति आपातकाल ( Indira Gandhi Emergency ) लगने से नाराज़ थे। जब 24 अक्टूबर 1976 को वे विदेश से दिल्ली आए तो इंदिरा जी उनसे मिलने गईं। बातचीत में बताया कि हिंदू पंचांग के हिसाब से आज मेरा जन्म दिन है तो 80 साल के कृष्णमूर्ति ने इंदिरा जी का हाथ अपने हाथ में लिया और दोनों काफी देर ख़ामोष बैठे रहे। कृष्णमूर्ति ने पूछा कि आप भीतर से इतनी परेशान क्यों हैं? इंदिरा जी ने कहा कि हां, हूं। फिर बताने की कोशिश की कि पिछले सवा साल में देश में क्या-क्या हुआ? कृष्णमूर्ति कुछ नहीं बोले। बेचैन इंदिरा जी लौट गईं। महीने भर बाद 28 नवंबर को सुबह 11 बजे अचानक वे फिर कृष्णमूर्ति के पास पहुंचीं। सुरक्षाकर्मी भी साथ नहीं थे। एक घंटे वे संत कृष्णमूर्ति के पास रहीं। तब वहां मौजूद एक चश्मदीद ने लिखा है कि इंदिरा जी बाहर आईं तो आंसू उनके गाल पर लुढ़क रहे थे। कृष्णमूर्ति ने भी इस मुलाक़ात के बारे में किसी को ज़्यादा नहीं बताया। इंदिरा जी ने बहुत बाद में अपनी एक बेहद पुरानी सहेली को बताया कि कृष्णमूर्ति से उस मुलाक़ात में वे इतना रोईं, इतना रोईं कि उन्हें पता ही नहीं कि कितना रोईं। सहेली से उन्होंने कहा कि मैं अरसे से रोई नहीं थी। इस रोने से मेरा जी कितना हलका हो गया, मैं बता नहीं सकती।

24 अक्टूबर को कृष्णमूर्ति से मिलने के चार दिन बाद इंदिरा जी ने क़रीब-क़रीब तय कर लिया था कि वे आपातकाल हटाने और चुनाव कराने का ऐलान कर देंगी। लेकिन चौकड़ी ने ऐसा खेल खेला कि 5 नवंबर को लोकसभा का कार्यकाल बिना चुनाव के ही एक साल के लिए बढ़ा दिया गया। 28 नवंबर को कृष्णमूर्ति से मिल कर लौटने के बाद इंदिरा जी का यह फ़ैसला और दृढ़ हो गया कि वे चुनाव कराएंगी। अपने विष्वस्त लोगों से उन्होंने ज़िक्र किया तो सबने विरोध किया। संजय गांधी ने, बंसीलाल ने, सब ने।

रॉ के आर.एन. काव ने देश भर की राजनीतिक स्थिति का अध्ययन करने के लिए समय मांगा। कुछ हफ़्तों बाद उन्होंने इंदिरा जी से कहा कि चुनाव होंगे तो कांग्रेस बुरी तरह हार जाएगी। इसके बाद संजय ने जा कर इंदिरा जी से कहा कि चुनाव करा कर आप अपने जीवन की सबसे बड़ी ग़लती कर रही हैं। मुख्यमंत्रियों से पूछा तो उन्होंने भी तरह-तरह की आशंकाएं गिनाईं। लेकिन इंदिरा जी को कोई नहीं रोक पाया। 18 जनवरी 1977 को उन्होंने ऐलान कर दिया कि चुनाव होंगे। उसी दिन सभी विपक्ष नेता भी जेलों से रिहा कर दिए गए। किसी को यक़ीन ही नहीं हो रहा था। जयप्रकाश नारायण ने तब कहा था कि इंदिरा जी ने जो हिम्मत दिखाई है, बिरले ही दिखा सकते हैं। नेहरू की बेटी की अंर्तआत्मा ने संजय की मां के दिल पर जो जीत हासिल की, वह बेमिसाल है। इंदिरा जी में फ़ासीवादी गुण-सूत्र थे ही नहीं, इसलिए वे यह कर पाईं।

आज यह कह देना तो बड़ा आसान है कि जवाहरलाल ने अपनी बेटी को विरासत सौंप दी, लेकिन कितने लोग यह जानते हैं कि एक पिता ने जेल के एकाकी जीवन में रह कर अपनी बेटी को चिट्ठियों के ज़रिए लोकतंत्र के कैसे ठोस संस्कार दिए थे? आज हिंदू-संस्कारों के स्वयंभू रक्षक हर महीने अपने ‘मन की बात’ सुना-सुना कर जो संस्कार देश को दे रहे हैं, आप देख नहीं रहे? जनतंत्र को अपने ठेंगे पर रखे घूम रहे लठैतों के इस दौर में इंदिरा जी का कद तो और भी सौ गुना बढ़ जाता है। इसलिए 46 साल पहले के आपातकाल के 633 दिनों पर खूब हायतौबा मचाइए, मगर पिछले 2555 दिनों से भारतमाता की छाती पर चलाई जा रही अघोषित आपातकाल की चक्की के पाटों को नज़रअंदाज़ मत करिए। दिल पर हाथ रखकर बताइए कि आज आप के कितने मौलिक अधिकार सचमुच शेष रह गए हैं? काशी की गंगा का जल आज जैसा भी कर दिया गया हो, लेकिन है तो गंगा का, सो, यह जल हाथ में ले कर पूरी ईमानदारी से बताइए कि वे दिन तो चलिए काले थे, लेकिन ये ‘अच्छे दिन’ कैसे हैं? (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।) Indira Gandhi Emergency Indira Gandhi Emergency Indira Gandhi Emergency Indira Gandhi Emergency Indira Gandhi Emergency

लुच्चों, टुच्चों, नुच्चों, कच्चों का धमाचौकड़ी दौर

 

क्या कभी आप ने सोचा कि प्रेमचंद, अमृता प्रीतम, कमलेश्वर और खुशवंत सिंह ने जन्म लेना क्यों बंद कर दिया? कबीर-रहीम तो छोड़िए; रवींद्र नाथ टैगोर, महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद और रामधारी सिंह दिनकर भी अब क्यों पैदा नहीं होते? मीर और ग़ालिब को जाने दीजिए; फ़िराक़ गोरखपुरी, साहिर लुधियानवी और बशीर बद्र तक अब जन्म क्यों नहीं लेते? कुमार गंधर्व, भीमसेन जोशी, पंडित रविशंकर और एम. एस. सुब्बुलक्ष्मी के गुण-सूत्र अब क्यों दिखाई नहीं देते? होमी जहांगीर भाभा और हरगोविंद खुराना के बाद हमारे विज्ञान-जगत की गर्भधारण क्षमता को क्या हो गया है?

क्या आप ने कभी सोचा कि सियासत रेगिस्तानी क्यों होती जा रही है? छोटे हों या बड़े, जो राजनीतिक दल पहले हरे-भरे गुलमोहर हुआ करते थे, अब वे बबूल के ठूंठों में तब्दील क्यों होते जा रहे हैं? तमाम उठापटक के बावजूद अंतःसंबंधों का जो झरना राजनीतिक संगठनों के भीतर और बाहर बहता था, उसकी फुहारें सूखती क्यों जा रही हैं? परिवार और कुनबा-भाव आपसी छीना-झपटी की हवस से सराबोर क्यों होता जा रहा है? वैचारिक सिद्धांतों पर आधारित पारस्परिक जुड़ाव की ओस-बूंदें मतलबपरस्ती के अंगारों में क्यों बदलती जा रही हैं? आंखों का परिस्थितिजन्य तिरछापन नफ़रत के लाल डोरों को आकार क्यों देने लगा है?

यह किसी एक राजनीतिक दल का हाल नहीं है। हमारी समूची राजनीति का यही स्थायी भाव बनता जा रहा है। सियासी संगठनों में भीतर ही किसी को एक-दूसरे से कोई लेना-देना नहीं है तो समान विचारों वाले दूसरे राजनीतिक संगठनों के विवेकवान लोगों से तालमेल की तो चिंता कौन करे? ऐसे में अपने प्रतिपक्ष से तो सीधे मुंह बात करने का सवाल ही कहां उठता है? सो, यह ख़ुद को सुल्तान समझ कर अपनी-अपनी मीनारों में बैठे रहने का युग है। यह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ और दूसरों को हेय समझने का दौर है। यह अपने अलावा बाकी सब को तुच्छ मान कर नाक-भौं सिकोड़ने का वक़्त है। इसलिए हमारे समय की सियासत रेतीली होती जा रही है।

जब सियासी संसार की कोपलें बर्छियों में तब्दील होती हैं तो सामाजिक संसार की हरियाली से भी लपटें निकलने लगती हैं। जब समाज की संवेदनाएं भोथरी होने लगती है तो संस्कृति और साहित्य के संस्कार भी उथले होने लगते हैं। बौनापन और क्षुद्रता जब पैर पसारते हैं तो वे हर आंगन में धमाचौकड़ी मचाते हैं। बड़ों का और बड़प्पन का दौर छीजते-छीजते आज उस पायदान पर आ गया है, जहां शकुनियों का अड्डा है। अब हर शिखर की शुरुआत इस सब से निचले पायदान से होती है। यही हमारी सियासत, समाज, साहित्य और संस्कृति का सर्वोच्च कंगूरा है। अब सारा बहाव इससे भी नीचे की तरफ़ जा रहा है।

ऐसा इसलिए हुआ कि हम ने अपनी जीवन-सत्ता की सारी डोरियां ना-लायकों के हवाले कर दीं। एक से बढ़ कर एक बदशक़्ल नायक-नायिकाएं चुन-चुन कर हम ने अपने सिर पर बैठा लिए। राजनीति को जाने दीजिए भाड़ में! गांधी-नेहरू-पटेल तो छोड़िए, अटल बिहारी वाजपेयी तक की अनुपस्थिति पर विलाप करने का भी यह समय नहीं है। मगर क्या कभी आप ने सोचा कि प्रेमचंद, अमृता प्रीतम, कमलेश्वर और खुशवंत सिंह ने जन्म लेना क्यों बंद कर दिया? कबीर-रहीम तो छोड़िए; रवींद्र नाथ टैगोर, महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद और रामधारी सिंह दिनकर भी अब क्यों पैदा नहीं होते? मीर और ग़ालिब को जाने दीजिए; फ़िराक़ गोरखपुरी, साहिर लुधियानवी और बशीर बद्र तक अब जन्म क्यों नहीं लेते? कुमार गंधर्व, भीमसेन जोशी, पंडित रविशंकर और एम. एस. सुब्बुलक्ष्मी के गुण-सूत्र अब क्यों दिखाई नहीं देते? होमी जहांगीर भाभा और हरगोविंद खुराना के बाद हमारे विज्ञान-जगत की गर्भधारण क्षमता को क्या हो गया है?

यह सूची बहुत लंबी हो सकती है। यह सूची बहुत लंबी है भी। लेकिन इसकी अनवरतता अब भंग-सी हो गई लगती है। गायन की दुनिया में, वादन की दुनिया में, नृत्य की दुनिया में, अभिनय की दुनिया में, अध्यापन की दुनिया में, खेलकूद की दुनिया में, हमारी पूरी दुनिया में जिन सितारों के भरोसे हम ने यहां तक का सफ़र तय किया, अब वैसे सितारे हमारी आकाशगंगा से अगर गायब होते जा रहे हैं तो क्या हमें चिंतित नहीं होना चाहिए? सो, सौ बरस बाद आई एक महामारी के इस दौर में थोड़ा वक़्त निकाल कर इस महामारी के बारे में भी सोचिए। मानव-शरीरों को चाट रही महामारी से तो हम निपट लेंगे, लेकिन भारतीय जीवन-तत्व को लील रही इस महामारी की भी कोई वैक्सीन बनाने का हम कभी सोचेंगे?

मैं जानता हूं कि मेरे इस प्रलाप का कोई अर्थ नहीं है। राष्ट्र-निर्माण का अर्थ अब सवा तीन किलोमीटर लंबी केंद्रीय वीथी और 597 फुट ऊंची मूर्तियों के निर्माण तक सिमट गया है। तमाशा-प्रबंधन के इस युग में मानव-जीवन के बुनियादी आयामों के क्षरण की फ़िक़्र करने वालों को मूर्ख नहीं तो क्या कहेंगे? राजनीति लुच्चों के चंगुल में जाए तो जाए, समाज को टुच्चों की ठेकेदारी भाए तो भाए, धर्म-अध्यात्म नुच्चों के गले की कंठी-माला बने तो बने, साहित्य-संस्कृति कच्चों की बाहों में समाए तो समाए। हमें क्या? यही तटस्थता-भाव हमें देवत्व तक पहुंचाएगा, क्योंकि पक्षधरता के तो अपने खतरे हैं। हमारे आसपास का पानी इसलिए सूख रहा है कि हम तटस्थ हैं। हमारे चारों तरफ़ की ज़मीन इसलिए बंजर हो रही है कि हम तटस्थ हैं।

हमें किसी की परवाह नहीं है। जो पराए हैं, उनकी तो परवाह करें ही क्यों, हम ने तो अपनों की भी परवाह करना छोड़ दिया है। हम यह मानते ही नहीं हैं कि संसार के सारे बड़े काम एक-दूसरे का ख़्याल रखने से होते हैं। हम ने यह बात अपने दिमाग़ से निकाल कर बाहर फेंक दी है कि जो अपनों की परवाह नहीं करते, उनकी भी फिर कोई परवाह नहीं करता है। बेपरवाही को अपना जीवन-मंत्र बना लेने की इस सोच का नतीजा है कि हमारी सियासत रेगिस्तानी होती जा रही है। सहयोगियों को कठपुतलों में तब्दील करने का जो कारखाना हम ने अपने सियासी संसार के चप्पे-चप्पे पर लगाया है, उसी ने आज हमें इस दशा में पहुंचाया है।

यह शुष्कता एक दिन सब-कुछ ले बैठेगी। किसी भी देश की धमनियों में लोकतंत्र की धारा संसद और केंद्रीय वीथी की वैभवशाली इमारतों से नहीं बहती है। यह बहाव तो संवेदनाओं, हमजोलीपन और पारस्परिक सम्मान-भाव से ही त्वरा पाता है। शहाबुद्दीन मुहम्मद ख़ुर्रम को भले ही हम लालकिला और ताजमहल बनवाने वाले शाहजहां की तरह जानने लगे, मगर मीराबाई ने ऐसा क्या बनवाया था कि बच्चा-बच्चा उन्हें जानता है? लोग हाथी और ख़ुद की सैकड़ों मूर्तियां बनवाने वाले को याद रखते हैं या काशी के बाज़ार में परिवार सहित स्वयं को बेच डालने वाले सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र को?

गांधी ने कौन-से अचल-निर्माण कराए थे कि उनकी प्रतिमाएं दुनिया भर में लगी हुई हैं? बुद्ध को क्या हम किसी शाक्य राजा के तौर पर याद करते हैं? उनकी बनाई किसी इमारत का नाम आप जानते हैं? महावीर को क्या हम कुंडलपुर के क्षत्रिय राजा की तरह जानते हैं? उनके बनाए किसी भवन-वीथी की याद है आपको? दुनिया के सबसे बड़े मानव-निर्मित अचल निर्माण चीन की दीवार के सूत्रधार क्विन शी हुआंग को कोई जानता भी है? दुनिया की सबसे ऊंची इमारत बुर्ज़ ख़लीफ़ा बनाने वाले मुहम्मद अलाब्बार को जानते हैं आप? शंघाई टॉवर किसने बनवाया, कुछ पता है आपको?

सो, जिन्हें लगता है कि ईंट-गारे की सात तल्ली इमारतें बनवा कर वे इतिहास में अमर हो जाएंगे, उन्हें मूर्खों के स्वर्ग में निवास करने दीजिए। देश जिस ईंट-गारे से बनते हैं, वह कहां मिलता है, ये बेचारे जानते ही नहीं। इसका मतलब यह नहीं है कि कल को जो आएंगे, वे असली ईंट-गारे की विशेषज्ञता से पगे होंगे। मुझे तो लगता है कि वह मिट्टी ही ख़त्म हो रही है, जो ईंट-गारे की पहचान करने वालों का निर्माण करती थी। इसलिए पहली ज़रूरत तो उस मिट्टी को बचाने की है। वह मिट्टी इन में से किसी के भरोसे नहीं बचेगी। वह तो तब बचेगी, जब हम सब भीतर से बचे रहें।( लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।)

अनफ़ॉलो तो राहुल गांधी ने मुझे भी कर दिया!

राहुल गांधी को मैं पहले भी फॉलो करता था, अब भी करता हूं और जब तक हूं, करता रहूंगा। क्योंकि उन में दम है। मैं उनकी ज़्यादातर बातों से सहमत हूं, लेकिन बहुत-सी बातों से नहीं। मैं उनके कर्मकांड के ज़्यादातर आयामों से सहमत हूं, लेकिन हर पहलू से नहीं। मुझे लगता है कि उन्हें स्वयं में, अपने आसपास की संरचना में और कांग्रेस के सांगठनिक ढांचे में कई संशोधन करने की ज़रूरत है। लेकिन उन्हें फ़ॉलो करने में मुझे तो इस से कोई विरोधाभास नहीं लगता। फॉलो करने का मतलब दंडवत-सहमति कहां से हो गया?

कांग्रेस को ट्विटरमयी होने की ज़रूरत तो है, लेकिन ट्विटर के आगे जहॉ और भी हैं। पिछले तीन-चार दिनों से राहुल की अनुगमन-सूची राष्ट्रीय मीडिया के विमर्श का मसला जिस तरह बनी हुई है, वह मौजूदा मीडिया के बौद्धिक स्तर की प्रतिच्छाया है। लेकिन यह आभासी-जगत पर इस कदर आश्रित हो गए राजनीतिक दलों पर भी तो निरावृत्त टिप्पणी है। सोचिए ज़रा!

मैं भी उन तक़रीबन चार दर्जन लोगों में हूं, जिन्हें दोबारा कांग्रेस-अध्यक्ष बनने में हीले-हवाली कर रहे पूर्व कांग्रेस-अध्यक्ष राहुल गांधी, बुधवार की शाम सूर्यास्त होने से पहले तक ट्विटर पर फ़ॉलो किया करते थे, और अब अनफ़ॉलो कर दिया है। 1 करोड़ 88 लाख 91 हज़ार 301 की फ़ॉलोअर-संख्या वाले राहुल ख़ुद देश-दुनिया के कोई पौने तीन सौ लोगों को ही फ़ॉलो करते थे, जो अब 219 ही रह गए हैं; सो, जब उन्होंने मुझे फ़ॉलो करना शुरू किया था तो ज़ाहिर है कि मुझे इस से ख़ुशी हुई। मगर अब जब उन्होंने बाक़ियों के साथ मुझे अनफ़ॉलो कर दिया है तो इस से मैं कई दूसरों की तरह कोई ग़म के सागर में नहीं डूब गया हूं।

मैं भी सिर्फ़ 414 लोगों को ही फॉलो करता हूं। मेरे फ़ॉलोअर भी बित्ते भर हैं-महज़ 10 हज़ार 883। उन में बहुत नामी-गिरामी लोग भी नहीं हैं। चार-छह होंगे। अब एक कम हो गया। मगर इतना ज़रूर है कि जो मुझे फ़ॉलो करते हैं, उनमें दम है। वे आंकड़ा भर नहीं हैं। मैं भी जिन्हें फॉलो करता हूं, वे भी दमदार हैं। वे भी महज़ गिनती ही नहीं हैं। राहुल गांधी को मैं पहले भी फॉलो करता था, अब भी करता हूं और जब तक हूं, करता रहूंगा। क्योंकि उन में दम है। मैं उनकी ज़्यादातर बातों से सहमत हूं, लेकिन बहुत-सी बातों से नहीं। मैं उनके कर्मकांड के ज़्यादातर आयामों से सहमत हूं, लेकिन हर पहलू से नहीं। मुझे लगता है कि उन्हें स्वयं में, अपने आसपास की संरचना में और कांग्रेस के सांगठनिक ढांचे में कई संशोधन करने की ज़रूरत है। लेकिन उन्हें फ़ॉलो करने में मुझे तो इस से कोई विरोधाभास नहीं लगता। फॉलो करने का मतलब दंडवत-सहमति कहां से हो गया?

ऐसे फ़ॉलो तो मैं, सात बरस से पूरे देश को पाषाण-युग में ले जाने की जी-तोड़ कोशिश कर रहे, नरेंद्र भाई मोदी को भी करता हूं। उनके अश्वेत साए अमित भाई शाह को भी मैं फ़ॉलो करता हूं। क्या इसका मतलब यह है कि मैं उनका अनुगामी हूं? उनका अनुचर हूं? तो किसी को फ़ॉलो करने का अर्थ उसका समर्थक होना तो है नहीं। इसलिए जब मैं ने देखा कि राहुल ने क़रीब पचास लोगों को अनफ़ॉलो कर दिया है तो मुझे समझ ही नहीं आया कि हंसूं कि रोऊं? जब राहुल ने इन लोगों को फ़ॉलो किया था तो क्या सोच कर किया था? जब उन्हें अनफ़ॉलो कर दिया तो इसके पीछे कौन-सी समझ काम कर रही है? सो, यह जानते हुए भी कि सारा खेल ही सोच-समझ का है, इस क़दम के पीछे किस की कौन-सी रणनीतिक सोच या अकादमिक समझ काम कर रही है, मैं तो समझ नहीं पा रहा।

बावजूद इसके, जैसे मेरे ट्विटर हैंडल पर मेरी मर्ज़ी है कि मैं जिसे जब चाहूं फॉलो करूं और जब चाहूं अनफ़ॉलो कर दूं, वैसे ही इसी स्वतंत्रता का हक़ राहुल को क्यों न हो? अब अगर उन्होंने बरखा दत्त, निधि राज़दान, राजदीप सरदेसाई, हर्षमंदर, हंसराज मीना, प्रतीक सिन्हा, संयुक्ता बसु, निखिल अल्वा, कुणाल कामरा, कौशल विद्यार्थी, अलंकार सवाई, बायजू, वग़ैरह को अनफ़ॉलो कर दिया तो इस पर इतना बवाल क्यों होना चाहिए? इसमें किसी को इतना अपमानित महसूस करने की क्या जरूरत है कि कहने लगे कि चूंकि मैं आलोचना करता/करती हूं, इसलिए मुझे अनफ़ॉलो किया है और इस से ही अंदाज़ लगा लो कि मीडिया से कांग्रेस के संबंधों में क्या बुनियादी ख़ामियां हैं और राजनीति के वृहद क्षितिज पर भी पार्टी की हालत ऐसी क्यों है? अरे, यह क्या बात हुई कि राहुल अगर ट्विटर पर मुझे फ़ॉलो करें तब तो मैं उन्हें नरेंद्र भाई का विकल्प मानूंगा और अगर अनफ़ॉलो कर देंगे तो वे विपक्ष की अगुआई के अयोग्य हो जाएंगे?

अपने को बहुत चुस्त-चौकन्ना समझने वाले मीन-मेखिए राहुल के ट्विटर-खाते के प्रबंधन पर यह सवाल ज़रूर उठा सकते हैं कि हैं अब भी जिन लोगों को फ़ॉलो किया जा रहा है, उनमें पिछले साल के नवंबर में स्वर्गवासी हुए अहमद पटेल और तरुण गोगोई के नाम क्यों हैं, दिसंबर में अलविदा हुए मोतीलाल वोरा क्यों मौजूद हैं, इसी साल मई के तीसरे हफ़्ते में हमारे बीच से हमेशा के लिए चले गए युवा सांसद राजीव सातव का नाम कैसे है और पिछले बरस अप्रैल में जन्नतनशीं हुए युवा अभिनेता इरफ़ान तक को भी राहुल एक साल बाद तक भी क्यों फ़ॉलो कर रहे हैं? लेकिन मेरा सवाल है कि अगर कोई अपनी संवेदनाओं के चलते स्वर्गवासियों को भी ट्विटर-सूची में बने रहने देना चाहता हो तो आप को क्या है?

अब क्या यह भी हम-आप तय करेंगे कि जब राहुल गांधी कांग्रेस के बड़े-बड़े दिग्गजों तक को अपने ट्विटर का फॉलो-अमृत वितरित नहीं करते हैं तो बिहार के चुनाव में कांग्रेस की भद्द पीट देने वाले शक्तिसिंह गोहिल को यह सुख क्यों प्राप्त है? असम में चुनावी रणनीति की ख़ामियों के लिए जिन जितेंद्र सिंह अलवर पर 10 मई को हुई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में तीखी बौछार हुई, राहुल उन्हें फ़ॉलो क्यों करते हैं? पुदुचेरी में कांग्रेस का भट्ठा बैठा देने वाले वी. नारायणसामी में ऐसे क्या लाल टंके हैं कि वे उनकी फ़ॉलो-सूची से बाहर नहीं हो रहे हैं? पंजाब में कांग्रेस की सरकार के लिए कांटे बिछाने का मूल-कर्म करने वाले प्रताप सिंह बाजवा को राहुल का अनुगमन-अलंकरण कैसे मिला हुआ है?

अगर राहुल यह सोचते हैं कि अपने ही सचिवालय के सहयोगियों को भी क्या ट्विटर पर फ़ॉलो करना, तो मुझे उनकी इस सोच में कोई बुराई नज़र नहीं आती है। मगर अगर कौशल विद्यार्थी जैसे ज़हीन कवि-छायाकार और अंतरराष्ट्रीय बैंकिंग व्यवस्था की बारीकियों के जानकारी अलंकार सवाई इस नीति का शिकार हुए हैं तो पार्टी के मीडिया विभाग के पार्श्व-कक्ष में लघु-सहयोगी की भूमिका में बैठे दो चेहरों को फॉलो करते रहने की राहुल में इतनी ललक क्यों है? इनमें से एक ने पार्टी की तरफ़ से पिछले 8 साल में औसतन हर रोज़ सिर्फ़ दो ट्वीट किए हैं और दूसरे ने पांच।

राहुल अपने ट्विटर पर किसी का भी अनुगमन करें-न-करें, यह किसी भी बहस का मुद्दा नहीं हो सकता। हां, इतना ज़रूर है कि राहुल चूंकि एक बड़ी राजनीतिक हस्ती हैं, वे कांग्रेस के अध्यक्ष थे और उन्हें कांग्रेस के भावी-अध्यक्ष के तौर पर अब भी देखा जाता है, इसलिए ट्विटर जैसे सार्वजनिक माध्यम पर उन्हें अपनी अनुगमन-सूची तैयार करते वक़्त ज़िम्मेदारी और सावधानी से काम लेना चाहिए। इसलिए, अब जब इतने लोगों को राहुल ने अपने ट्विटर-बरामदे से विदा कर ही दिया है तो उनकी मौजूदा सूची की शोभा बढ़ाने का काम अगर दो नाम और न करें तो इस से कांग्रेस को पुण्य ही मिलेगा। एक, केशवचंद्र यादव और दूसरा फ़ैरोज़ ख़ान। सब जानते हैं कि 2019 की जुलाई में यादव को युवा कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा क्यों देना पड़ा था और 2018 के अक्टूबर में ख़ान को एनएसयूआई के अध्यक्ष पद से क्यों हटाया गया था। सो, उन्हें दो-दो ढाई-ढाई साल बाद अब तक फ़ॉलो करते रहने में कोई तुक मुझे तो समझ नहीं आती।

कांग्रेस को ट्विटरमयी होने की ज़रूरत तो है, लेकिन ट्विटर के आगे जहॉ और भी हैं। पिछले तीन-चार दिनों से राहुल की अनुगमन-सूची राष्ट्रीय मीडिया के विमर्श का मसला जिस तरह बनी हुई है, वह मौजूदा मीडिया के बौद्धिक स्तर की प्रतिच्छाया है। लेकिन यह आभासी-जगत पर इस कदर आश्रित हो गए राजनीतिक दलों पर भी तो निरावृत्त टिप्पणी है। सोचिए ज़रा! (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।