Monday, January 30, 2017
Saturday, January 28, 2017
[+/-] |
बीजगणित, अंकगणित और हमारा गणतंत्र |
इस बार गणतंत्र दिवस की परेड देखते हुए मैं सोच रहा था कि पिछले 67 साल से राजपथ पर जिस भारत का दर्शन हम करते हैं और दुनिया को कराते हैं, क्या वक़्त नहीं आ गया कि उसका स्वरूप अब बदल दिया जाए? सेना, अर्द्धसैनिक बलों, पूर्व-सैनिकों और एन.सी.सी. की कदमताल; रक्षा उपकरणों का प्रदर्शन; मोटर साइकिल सवारों की संतुलन दक्षता; राज्यों, सरकारी विभागों और सार्वजनिक उपक्रमों की झांकियां; बहादुर बच्चों की प्रतीक उपस्थिति; स्कूली बच्चों की सांस्कृतिक प्रस्तुतियां; और, सैन्य विमानों का उड़ान कौशल। क्या भारत के विभिन्न पहलुओं को दिखाने का यह तरीका आज की डिजिटल दुनिया के लिहाज़ से बहुत ज़्यादा घिस नहीं गया है? भारतीय गणतंत्र का उत्सव मनाने का जज़्बा सिर-माथे। अगर अपनी आज़ादी और गणतंत्र के त्योहार भी हमारे भीतर तरंगें पैदा नहीं करेंगे तो होली-दीवाली-ईद भी हमारे लिए रस्म-अदायगी ही हो जाएंगे। इसलिए राजपथ तो हर गणतंत्र दिवस पर ऐसे ही थिरकना चाहिए, लेकिन इसे सरकारी ठूंठपन के चंगुल से बाहर निकाल कर अगर अब हम जीवंत समाज को नहीं सौंपेंगे तो घोर पाप करेंगे।
वो ज़माना गया, जब चिठियां हफ़्तों में एक से दूसरी जगह पहुंचती थीं, फोन पर लाइटनिंग कॉल भी तीसरे दिन जा कर जुड़ पाती थी और रेडियो पर फौजी भाइयों के मनपसंद गीत सुन कर देश हर रात सोने जाता था। भारत की विविधता में एकता दिखाने के लिए राजपथ के सालाना जलसे का यह स्वरूप तब क्रांतिकारी था। सिनेमा हॉल में फ़िल्म के पहले न्यूज़रील में गणतंत्र दिवस की परेड के अंश देख कर हम सब को भी अपना सीना छप्पन इंच का लगने लगता था। लेकिन अब दिन-रात हाथ में डिजिटल संसार लिए घूम रहे, देश-दुनिया की हर सही-ग़लत सूचनाओं से रू-ब-रू हो रहे और हर मतलब-बेमतलब की बात में अपने विचारों की चोंच लड़ा रहे किशोर-किशोरियों और युवक-युवतियों को राजपथ का गणतंत्र-मंचन एक औपचारिक कर्मकांड ही ज़्यादा लगता होगा।
गणतंत्र के मौजूदा आयोजन में राष्ट्रीय उपलब्धियों के आधे-अधूरे संग्रह की झलक और देश पर गर्व का आग्रह तो है, लेकिन उम्मीदों, स्वप्नों, अवसरों और भरोसे के वे गलियारे उतने स्पष्ट नहीं हैं, जिनसे गुज़र कर हमें आने वाले दिनों की चुनौतियों से दो-दो हाथ करने हैं। इसलिए गणतंत्र का उत्सव सिर्फ़ सरकार ही क्यों मनाए? जिस निजी क्षेत्र ने भारत की सार्वजनिक संपत्ति को तमाम तरह की तिकड़में रच कर अपनी मुठी में भींच कर बंद कर लिया है, वह हर साल राजपथ पर आ कर देश को अपनी असली झांकी क्यों नहीं दिखाता है? मुल्क़ की स्वास्थ्य सेवाओं, स्वास्थ्य बीमा योजनाओं और दवा कारोबार के ज़रिए हर रोज़ अपने बदन की चर्बी बढ़ा रहे संस्थानों और अस्पतालों को अपनी बाज़ीगरी की प्रस्तुति राजपथ पर क्यों नहीं करनी चाहिए? शिक्षा और कोचिंग की बड़़ी-बड़ी दुकानों के हथकंडों की झलकियां भी राजपथ पर पूरा देश क्यों न देखे? बहादुर चेहरों के साथ शोषण और अनाचार के मारे चेहरे भी शामिल क्यों न हों?
हमारी रक्त-शिराओं में बह रहा बीज-मंत्र हमें हर हाल में अपने देश पर गर्व करना सिखाता है। सो, बावजूद इसके कि बिना पैसे के आमतौर पर हमारे बच्चे का प्रवेश किसी स्कूल में नहीं हो पाता; कि बिना पैसे के अस्पताल से स्वजन का पार्थिव शरीर भी बहुत बार नहीं मिल पाता; कि राज्यों के परीक्षा मंडल और नियुक्ति आयोग पैसा ले कर अयोग्य को योग्य और योग्य को अयोग्य बनाने के काम में निर्लज्जता से लगे रहते हैं; बावजूद इसके कि हमें अपनी ही मेहनत की कमाई बैंक से लेने के लिए भिखारी बनने पर मजबूर होना पड़ता है; हम अपने देश पर गर्व करते हैं। जब हम ऐसा करते हैं तो उसे किसी व्यक्ति-विशेष या एक ख़ास शासन-व्यवस्था को सलामी समझना भूल है। भारत का एक-एक नागरिक यह सलामी अपने देश की उस अंतर्निहित शक्ति को देता है, जिसके बूते, हर कमी-बेसी के बाद भी, हम यहां तक पहुंचे हैं और आगे जाएंगे।
भारतीय समाज के अंक-गणित पर अपनी सियासत की बहियां संजोए बैठे आज के राजनीतिक अगर देश के बीज-गणित को समझ लें तो फिर रोना ही किस बात का? लेकिन गणतंत्र का तो दुर्भाग्य ही यह है कि पूरा सत्तातंत्र–पक्ष, विपक्ष, सरकारी अमला और कॉरपोरेट गिरोह–लोक जन-जीवन की असलियत से जानबूझ कर विमुख है। असली सच्चाइयों से मुह फेर कर बैठे सामाजिक, सांस्कृतिक, व्यावसायिक और राजनीतिक नेतृत्व के बावजूद अगर भारत के क़दम नहीं डगमगा रहे हैं तो इसलिए कि ऊबड़-खाबड़ पंगडंडी पर चल रहे हर देशवासी के पास खुद के संयम और धैर्य की वह नैसर्गिक लाठी है, जो उसे सहारा दे रही है। यह लाठी उसे 70 साल से राजपथ पर अर्रा कर विचरण कर रहे वर्ग के सौजन्य से नहीं, भारत की संपन्न आध्यात्मिक विरासत से मिली है। उस विरासत से, जिसमें वेदों, पुराणों, उपनिषदों और सूफ़ी परंपरा की शाश्वत झांकी है।
वेद अपुरुषेय हैं। वे श्रुति साहित्य हैं। हमारी श्रुति और स्मृति परंपरा ने ही मनुष्य को अपनी ज़ुबान पर जान तक दे देने की नैतिक ताक़त दी। ‘प्राण जाहिं, पर वचन न जाहिं’ जैसे बीज-वाक्य आज के ज़ुमलों के दौर की उपज नहीं हैं। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद की रचना तो अब दोबारा क्या होगी? अब तो वेदों की संहिताओं और अरण्यकाओ का मोटा मर्म समझने वालों को हमसे विदा लिए भी दशकों बीत गए। ताम्र युग के उत्तरार्द्ध और लौह युग के आसपास हमारे पूर्वज अगर ऐसे प्रखर और विवेकवान थे तो इक्कीसवी सदी में हमारे रहनुमाओं की मति ऐसी क्यों मारी गई है?
ऋग्वेद के 1028 मंत्रों और 10600 श्लोकों में से अगर दस-पांच भी आज के कर्ताधर्ताओं ने गांठ बांध लिए होते तो क्या हम ये दिन देख रहे होते? 18 महापुराणों में चार लाख श्लोक हैं। महापुराण और उपपुराण गूगल आने के बाद नहीं लिखे गए हैं। वैसे तो कोई 200 उपनिषद होंगे, लेकिन एक दर्जन मुख्य उपनिषद तो भारतीय समाज की हज़ारों बरस से जीवनी-शक्ति हैं। किसी को नहीं मालूम कि उन्हें याज्ञवल्क्य ने लिखा या शांडिल्य ने या फिर श्वेतकेतु या किसी और ने। इसलिए आज अपने हर अल्पजीवी प्रयास की शिलापट्टिका पर खुद का नाम उकेरने को आतुर नश्वर नेतृत्व की कतार देख कर ब्रह्मा भी अपना सिर पीटते होंगे।
कहां वे, जो हज़ारों बरस पहले मानवता के लौह-युग में भी सृष्टि शास्त्र, ब्रह्मांड विज्ञान, खनिज शास्त्र, खगोल विज्ञान, औषधियों और व्याकरण पर ध्यान लगा रहे थे और कहां ये, जो चुनावों के जातिगत आंकड़ों के विश्लेषण को अपनी राजनीतिक-प्रतिभा का चरम मानते हैं; जमुना-तीरे विश्व संस्कति महोत्सव के आयोजन को अपनी आध्यात्मिक-प्रतिभा की पराकाष्ठा समझते हैं; देखते-ही-देखते पचास हज़ार करोड़ रुपए का उत्पादन साम्राज्य खड़ा कर देने को अपनी यौगिक-प्रतिभा का शिखर बताते हैं; और सार्वजनिक बैंकों के लाखों करोड़ रुपए अंटी कर देश को उंगलियों पर नचाने की अपनी वणिक-प्रतिभा पर इतराते हैं! अग्नि पुराण से ले कर वायु पुराण तक, भागवत पुराण से ले कर विष्णु पुराण तक, पद्म पुराण से ले कर स्कंद पुराण तक और सत्व पुराण से ले कर राजस पुराण तक में जिन देवताओं, संतों और तीर्थों की वंशावली दर्ज़ है, उनका अगर एक भी पन्ना हमारे आज के रहनुमाओं ने पलटने की ज़हमत उठाई होती तो उन्हें अपने दौर के देवताओं और असुरों को समझने की कूवत मिलती। लेकिन सृष्टि के तानाबाना तो दूर, अब तो भारत की खोज करने का सोच रखने वाले भी कब के चले गए! अब जो बचे हैं, उनके रहते तो हमारा गणतंत्र बचा रहे, यही बहुत है। गणतंत्र दिवस की परेड जैसी भी सही, होती रहे। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)
Monday, January 23, 2017
[+/-] |
India Facing Trump Card |
If the inaugural speech of the 45th President of the United States of America, Donald John Trump, is any indication, India is bound to pass through a very turbulent economic weather in the days to come. The message to Indian companies providing information technology enabled services could not have been clearer in the first half of Trump's speech that during his tenure there would not be any leniency in accommodating India at the cost of American interest.
"For many decades, we've enriched foreign industries at the expense of American industry; subsidised the armies of other countries while allowing for the very sad depletion of our military; we've defended other nation's borders while refusing to defend our own; and spent trillions of dollars overseas while America's infrastructure has fallen into disrepair and decay," Trump said.
"We've made other countries rich while the wealth, strength, and confidence of our country has disappeared over the horizon. One by one, the factories shuttered and left our shores, with not even a thought about the millions upon millions of American workers left behind. The wealth of our middle class has been ripped from their homes and then redistributed across the entire world," he went on to add.
Trump believes India tops the list of the countries which have benefitted enormously by creating jobs and wealth at the expense of America. He now seeks to reverse this dynamic. Therefore, Indian IT industry is bound to face a very tough time during Trump regime. When Trump continued by saying that he wants to issue a new decree to be heard in every city, in every foreign capital, and in every hall of power and it is going to be America First from this moment onwards, he meant a cap on H1B visas and a lesser number of on-site jobs. That means students and job seekers from India would have the dark shadow of the immigration services over their heads in coming days. To achieve his goal Trump had perfect clarity in his mind and assured Americans by declaring, "We will bring back our jobs. We will bring back our borders. We will bring back our wealth. And we will bring back our dreams."
Prime Minister Narendra Modi's negotiation skills will be on test for the next few months because he has to get used to a new President who is known to be a tough negotiator. More than US President, Trump is a real estate mogul in his heart and Modi will not be able to take the liberty of calling him 'my friend Donald' as was the case with 'Barack'. Trump has made it known to the world that he prefers to rebuild his country with American hands and American labour. "We follow two simple rules: Buy American and Hire American", he emphasised in his inaugural speech after taking oath as President.
There could be a large section of world audience that finds Trump's speech missing the aura of former American Presidents. His speech might have been less historical and without intellectual punches that can be quoted, but though delivered in simple words, the speech communicated a strong sense of Trump's commitments. He was straightforward and ignored all diplomatic protocols when he said, "We must protect our borders from the ravages of other countries making our products, stealing our companies, and destroying our jobs". Trump openly justified Protectionism, which he feels will create more employment and opportunities in America and for American citizens themselves rather than outsourcing jobs.
Thinking that India can rejoice as there has been a significant representation of the community in Trump administration could be proved wrong when the new President gets to work in the oval office. Dejection would be the result of any extra enthusiasm in leg-shacking over an Indian touch to the inauguration as DJ and drummer Ravi Jakhotia opened the inaugural concert with scintillating beats. This is the time when India has to learn the subtleness of diplomacy and realise that it has to acquire the required language in dealing with Trump and gone are the days of 'chats on the phone with friend Barack'.
There is no dearth of people who feel that Trump's inaugural address sounded like any speech at his election rally and the scene at the oath taking ceremony was a campaign event writ large, with a massive cheering crowd of white people wearing "Make America Great Again" red caps. They feel President Trump drew a dark picture of a country under siege from foreign trade competitors, Muslim terrorists, and Washington insiders and there were no grace notes. But, I feel that Trump played his cards well and his base no doubt loved it. He, after calling the Obamas "magnificent," deliberately showed overt rudeness to them, portraying a do-nothing Washington that had betrayed the people and enriched itself keeping his constituency well in mind. That is the reason that his strongest critics say that from the white bodies in the crowd to the white faces of the performers, to the intended white audience for his words, Trump's inauguration was a blatant moment of white reconciliation.
I do not know how serious Trump's nods to lack of prejudice were. Was his call that "when you open your heart to patriotism there is no room for prejudice" stoking Islamophobia? Did he really mean the same when he said that "whether we are black or brown or white, we all bleed the same red blood"? What could have Democratic leaders from Bernie Sanders to Hillary Clinton sitting there, silently, done than granting legitimacy to what their newly elected President wanted American citizens to believe?
Most of the world's great strongmen give great speeches. "Every day, the people will rule more," promised Hugo Chavez in 2011. "The people will be the ones who decide," said Nicolás Maduro last year. "There is no power higher than the power of the people," said Erdogan. Let the Americans hope that Trump will fulfil his commitment that he "will never let you down". But has he already done it by bringing more billionaires into the Washington establishment than any other President, with a Cabinet worth $14bn combined? These include CEOs and officials of the very banks that profited off of the misery of those ordinary Americans that Trump promises will rule again. Trump sounded like he was not taking over a first world country with its share of problems that needed to be addressed, but a developing world basket case. India witnessed a similar phenomenon in May 2014 when the nation was told that nothing had been done in past 70 years and here comes the man who will set everything right.
Saturday, January 21, 2017
[+/-] |
चरखावतार, कबीलावाद व फटा कुर्ता |
BY: PANKAJ SHARMA
राहुल गांधी ने ऋषिकेश में जब अपने कुर्ते की फटी जेब सार्वजनिक तौर पर दिखाई तो इस घटना का मोटी बुद्धि से विश्लेषण करने वाले कम नहीं थे। लेकिन ऐसे लोग मौजूदा राजनीति की इस विडंबना का मर्म समझ ही नहीं पाएंगे कि मुख्य-विपक्ष के एक नौजवान नेता को यह क्यों करना पड़ रहा है? सब जानते हैं कि ऐसा नहीं है कि राहुल इतने मोहताज हैं कि उन्हें फटा कुर्ता पहन कर घूमना पड़े। अगर कोई जानबूझ कर काइंयागीरी न करना चाहे तो वह इतना भी समझ सकता है कि राहुल जानबूझ कर फटी जेब वाला कुर्ता पहन कर ऋषिकेश नहीं पहुंचे होंगे। अनायास जब उनका हाथ कुर्ते की जेब में गया होगा और उन्होंने पाया कि जेब फटी है तो उन्हें यह बताने में कोई हिचक नहीं हुई कि इससे उन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता है कि वे तन ढंकने के लिए क्या पहने हुए हैं। राहुल यह बताना चाहते थे कि अपने पहनावे को लेकर उनका दिमाग़ दूसरों की तरह इतना अति-अलंकृत नहीं हैं कि हर वक़्त कपड़ों की सिलवटों का ही ख्याल रखता रहे।
राहुल इन दिनों अपने ही राजा से सहमे हुए देश की घुटन से जूझ रही मुक्ति-वाहिनी के नायकत्व का प्रतीक बन कर उभर रहे हैं। लोकतांत्रिक प्रक्रिया के कान उमेठ कर प्रधानमंत्री पद पर आसीन हो गए एक स्वेच्छाचारी को वे अपने विनम्र अंदाज़ में ललकार रहे हैं। नए साल की शुरुआत होते ही भारतीय जनतंत्र के ललाट पर राहुल ने जिस रोली से तिलक करना शुरू किया है, वसंत-पंचमी के बाद उसका रंग दूर से दिखाई देने लगेगा। आज यह बात भांड़गीरी ही लगेगी कि राहुल की सियासी सादगी के सिंगार को जो अब तक उनका तुतलाता बचपन समझते थे, वे पिछले चंद हफ़्तों से अपनी आंखें मसल रहे हैं। राहुल-विरोधियों को अब यह अहसास हो रहा है कि जब नम्र निवेदन निष्फल हो जाते हैं तो एक दृढ़-निश्चयी व्यक्तित्व का संकल्प और कितना गहरा हो जाता है।
इसलिए राहुल गांधी ने इस बात की परवाह किए बिना कि उनकी कांग्रेस का व्यावहारिक वजूद उत्तर प्रदेश के चंद ज़िलों तक सिमट जाएगा, अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी का चुनावी अनुगामी बनना मंजूर किया। वे जानते हैं कि जब रास्ते में अंधेरा थोड़ा घना हो तो व्यापक देशहित के लिए हाथ में हाथ डाल कर चलना और ज़रूरी होता है। यह मौक़ा सिर्फ़ इतना भर सोचने का है कि भाजपा के नथुनों में नकेल कैसे डले! सपा-कांग्रेस के तालमेल ने भारतीय जनता पार्टी के माथे पर चिंता की ऐसी लकीरें उकेर दी थीं कि सायंकालीन सत्रों में उसके कई नेताओं का मन रोने-रोने को हो आता है। भाजपा की मातृ-संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आंतरिक आकलन देख कर मोहन भागवत को भी लगने लगा था कि उत्तर प्रदेश में क्या जाने क्या होने को है? लालू प्रसाद यादव और ममता बनर्जी के भी उत्तर प्रदेश के मैदान में मोदी को ललकारते घूमने की संभावनाओं से भाजपा के हाथ-पैर सुन्न होने के आसार और बढ़ गए थे। लेकिन सपा ने शुक्रवार की सुबह अपनी पहली सूची में पिछली बार कांग्रेस द्वारा जीती सीटों पर भी अपने उम्मीदवारों का ऐलान कर के मालूम नहीं क्यों सकपकाई भाजपा को राहत के पल दे दिए?
सपा ने कांग्रेस को उसके हक़ की 54 सीटें देने और 30-35 सीटें और उसके लिए बराए-मेहरबानी छोड़ने की बात कह कर तालमेल की चाशनी में ऐसा मट्ठा डाल दिया है कि अब अगर बात बनी भी तो यह कसैलापन राहुल-अखिलेश की गलबहियों को कृत्रिम बना देगा।
पूरे एक साल चली घनघोर मोदी-लीला के बाद मई-2014 में सियासत की टोपी से निकले खरगोश ने उत्तर प्रदेश में भी बाकी सबको कछुओं मे तब्दील कर दिया था। ऐसे में नरेंद्र भाई दामोदर दास मोदी और उनके आलम-बरदार अमितभाई अनिलचंद्र शाह इतने अति-आत्मविश्वासी हो जाएं कि सोचने लगें कि उनकी भाजपा उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों की आगामी सप्तपदी में तीन सौ सीटों का आंकड़ा पार करेगी, तो इसमें उनकी कोई ग़लती नहीं है। पौने तीन साल पहले आखि़र भाजपा ने राज्य की 328 सीटों पर बाकी सबको दूर खदेड़ ही दिया था। अगर भाजपा अपने पाश््रव-गायकों के उन्हीं सुरों को आगामी उत्सव का भी शीर्षक-गान मान कर चल रही है तो कोई क्या करे! लेकिन असलियत तो यह है कि इस बीच सरयू में बहुत पानी बह गया है और लोग मोदी पर आज उस तरह रीझे हुए नहीं है, जैसे वे 2014 में थे।
तीन-साढ़े तीन बरस पहले इंटरनेट की सामाजिक दीवारों पर मोदी और उनकी भाजपा को लेकर छींटाकशी करने को सोचना भी पाप था और सोनिया-राहुल और उनकी कांग्रेस हर रोज़ गढ़े जाने वाले लतीफ़ों की मूसलाधार से कराहती रहती थी। आज इंटरनेट-आंगन पूरी तरह उलट गया है। मोदी-शाह की जुगलजोड़ी जिस तरह के हा-हा-हू-हू का सामना कर रही है, अगर वह कोई संकेत है तो उत्तर प्रदेश तो उत्तर प्रदेश, पूरे देश में आने वाले दिन भाजपा के लिए अच्छे नहीं हैं। विमुद्रीकरण के पत्थर बरसा कर नरेंद्रभाई ने जितनी ज़िंदगियों को टूटन के कगार पर ला खड़ा किया है, उनकी आह से भाजपाई राजनीति की मोटी खाल दरकनी शुरू हो गई है। इस एक फ़ैसले की चिरचिराहट रफू करने के लिए मोदी की पूरी सरकार के पास कोई धागा ही नहीं है। इसलिए भारत की बुनियाद में बिछी एक-एक ईंट पर पर चस्पा हो गई भाजपा की इस रामकथा की चैपाइयां ही अगले सवा दो बरस में उसकी फ़जीहत कराने वाली साबित होंगी।
ऐसे में अगर भाजपा-विरोधी शक्तियों ने अपनी बिसात ठीक से बिछा ली, एक ही दस्तरखान पर बैठने से उन्होंने परहेज़ नहीं किया और अपना-तेरी के टीलों को वे लांघ सके तो हम आज के जुगनुओं को 2019 में भारत की आकाशगंगा का सौर-मंडल बनते भी देख सकते हैं। आज की धुध में जब इन जुगनुओं की टिमटिमाहट भी लोगों को राहतदायी लग रही है तो अब समय के साथ इस धुध को तो छंटना ही है। अपनी पूरी कोशिशों के बावजूद आखि़र संघ-मंडली आज का कोहरा कब तक नहीं छंटने देगी? विपक्ष के सामूहिक प्रयासों ने पिछले एकाध महीने में लोगों की आंखों का ‘मोदियाबिंद’ काफी हद तक दूर कर दिया है। लेकिन सामूहिक विपक्ष अगर अपनी साख से खुद ही इस तरह खेलता रहेगा तो आने वाले महीनों की आर्थिक मंदी, बेरोज़गारी और बैंकिंग व्यवस्था के प्रति घर कर गए अविश्वास के बावजूद मोदी की बेदखली का सपना वह भूल ही जाए।
नरेंद्रभाई यह भूल रहे हैं कि वे उस देश के प्रधानमंत्री हैं, जिसकी कुल संपत्ति का 58 फ़ीसदी हिस्सा सिर्फ़ चंद लोगों के पास है। ऐसे मुल्क़ में अच्छे दिन लाने के लिए 86 प्रतिशत मुद्रा को रातोंरात चलन के बाहर कर देने से बड़ा पाप और कुछ नहीं हो सकता था। अपनी पाई-पाई के लिए डेढ़ महीने तक कतार में खड़े रहे 99 फ़ीसदी लोग डिज़ाइनर-वस्त्रों से लकदक मोदी के सायास ‘चरखावतार’ पर भरोसा करेंगे या राहुल गांधी के मुड़े-तुड़े कुर्ते की अनायास उधड़ी सिलाई पर? यह इस पर निर्भर करेगा कि जनतंत्र पर आई मुसीबत के पर्वत को सामूहिक विपक्ष चढ़ कर पार करता है या उसके बगल से गुजरने में ही अपने को धन्य समझ लेता है! राहुल इस इम्तहान के पहले चरण की अपनी भूमिका में एकदम खरे उतर रहे हैं। लेकिन कांग्रेस की निजी आकांक्षाओं की आहुति को बाकी विपक्षी दलों की महत्वाकांक्षाओं के लिए मिसाल बनाने में राहुल अब और क्या करें? जिन्हें उत्तर प्रदेश के इस चुनाव की राष्ट्रीय अहमियत के बनिस्बत अपने निजी कबीलेवाद की ज़्यादा फ़क्र है, क्या इतिहास उन्हें कभी माफ़ करेगा?
Sunday, January 15, 2017
[+/-] |
Not a marketing gimmick |
Pankaj Sharma
16 January 2017
16 January 2017
Wearing designer clothes and weaving Khadi on Gandhi’s charkha!
A half-nude saint is replaced by a linen-clad fashion icon of today’s vulgar politics. Nothing could be more disgraceful and distasteful than to grab Mahatma Gandhi’s charkha in the name of marketing Khadi. Imagine Narendra Modi sitting with Gandhi’s Charkha and weaving Khadi thread while wearing designer’s clothes. It is painful to watch the audacity with which Prime Minister Narendra Modi went on to become the poster boy of Gandhi’s khadi by replacing the Mahatma. It surely needs a 56-inch chest, without a heart and a zero sensing brain on the top of it.
I thought fancy dress events are things of childhood, and when grown-ups indulge in such activities, they become laughing stock. But, nonetheless, India has a Prime Minister who cares little for such ideas and finds himself fit for the job of imitating the acts of the great souls without realising that it needs much more than to steal the symbols to reach the level of greatness the icons like Gandhi commands. Modi does not bother for the adverse opinion his photos on the calendar and diary produced by Khadi and Village Industry Commission (KVIC) has generated across the country.
Modi’s lieutenants have no hitch in going one step ahead and defend the replacement of Gandhi on KVIC calendar. A senior minister of Haryana’s Bharatiya Janata Party (BJP) government, Anil Vij, has openly said that it is good that Mahatma Gandhi’s image has been removed from the calendar as PM Modi is a better brand than the father of the nation. “Ever since Mahatma Gandhi’s name has been associated with Khadi, Khadi has not been able to make any progress. The sale of Khadi products went down. Removing Gandhi and placing Modi’s photo on the khadi calendar, therefore, is a good step. Since Modi’s photo on the khadi calendar the sale of khadi products has gone up by 14 per cent,” Vij said.
The minister does not stop here. He wants Gandhi photo to be removed from the notes of Indian currency also. Amidst the controversy Vij deliberately kicked up another storm by claiming that Mahatma Gandhi’s image is responsible for the devaluation of notes. He said, “Ever since Mahatma Gandhi’s name has been on the rupee note, it has devalued.” He also claimed that “slowly Mahatma Gandhi will disappear from the notes”. The idea of removing Mahatma is an indication of the mindset Modi’s BJP has for the real icons of India. Wiping all of them out from the thought process of Indian psyche is what the current ruling clan led by Modi desires.
KVIC Chairman Vinai Kumar Saxena, in his wisdom, has argued that this is not the first time the image of Mahatma Gandhi is not on the calendar and diary. He is silent about the calendars but emphasised that KVIC diaries did not have Gandhi on its cover page in 1996, 2002, 2005, 2011, 2013, and 2016. But his pointing out the fact tells us that even the diaries used to carry Gandhi’s image on the cover usually. As if it was not enough for the country to listen to KVIC Chairman’s views, the Prime Minister’s Office (PMO) had to remind us that the controversy was “unnecessary” as “there is no rule in KVIC that its diary and calendar should have only Gandhiji’s photo.” Nothing could be more amusing than the arguments put forward by PMO, “Those stoking the controversy over the issue should realise that during Congress rule of 50 years, the sale of khadi remained restricted to 2 per cent to 7 per cent but in last two years, the sale has seen an unprecedented jump of 34 per cent. This is because of PM’s efforts to popularise khadi,” it said. The PMO also added, “Modi is an icon of the youth and the growing popularity of khadi in the world is a testimony to this.”
Alas! Poor Mahatma paying for not being a brand for his Khadi as he is not with us to perform at the Times Square, he is not with us to show his skills to change the single cloth he used to wear three times a day and he is not with us to realise that Khadi is no more a symbol of simplicity for which he and his followers sacrificed their lives. Times have changed. They have certainly changed in Modi regime for which Khadi is no more ‘a fabric of Indian Independence’. Modi-era wants us to forget that Khadi was a strong sign of resistance and change. The key role played by Khadi in freedom struggle is something that cannot be realised by those political outfits which played no role in India’s Independence.
Clothes have always been integral to human identity. Gandhi played an indispensable role in making Khadi a powerful symbol of our freedom struggle, in elevating it to the status of the national fabric and injecting it into the veins of the country as an effective sense of pride. The Khadi was not the result of a whim like demonetisation, it was a well-thought-out decision of Gandhi. Khadi was the result of Gandhi’s own sartorial choices of transformation from that of an Englishman to that of one representing India. Those who are trying to become Englishman these days have no sensitivity and intellect to understand the philosophy behind Khadi. Gandhi’s Khadi recrafted the then existing politico-economic critiques with its distinctive qualities. Gandhi could convert it into a material to which people from diverse backgrounds could relate to. Khadi was the embodiment of an ideal that represented freedom from colonialism, a feeling of self-reliance and economic self-sufficiency. It embodied the national integrity, communal harmony, spiritual humility, and freedom of expression. If current ruling dispensation finds Narendra Modi a better and bigger brand for Khadi than Mahatma Gandhi, I can only sympathise with them.
[+/-] |
‘डरो मत’ के गान में छिपा राहुल का ताबी |
BY: PANKAJ SHARMA
इस बार राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर उन्हीं के तीलीलीली अंदाज में जो मूसल बरसाए, सो तो बरसाए ही, राहुल की बातों ने भारत के राजनीतिक दर्शनशास्त्र के बारे में गहरी होती उनकी समझ की ठोस झलक भी दिखाई। अब तक अपने भाषणों को दस-बारह मिनट से लंबा न खींच पाने वाले राहुल पिछले कुछ महीनों से जनसभाओं के मंचों पर आधा घंटे आराम से जमे रहने लगे हैं और कांग्रेस के जन-वेदना सम्मेलन की शुरुआत और अंत में तो कुल मिला कर वे एक घंटे से भी ज़्यादा समय तक अपनी बातों को विस्तार से समझाते रहे। मोदी, भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कार्यशैली पर राहुल के तीरों ने छप्पन इंच की छाती में इतने गंभीर घाव पहले नहीं किए होंगे। अब तक राहुल को गुस्से से तिलमिलाते देखने पर हंसने वाले अब राहुल की हंसी पर गुस्से से तिलमिला रहे हैं।
राहुल ने जब-जब अपने भाषण में चुटकियां लीं तो एक संजीदा संदेश भी छोड़ा। उन्होंने मोदी की उछल-कूद वाली शैली पर निशाना साधा और बताया कि कैसे ढाई साल पहले नरेंद्र भाई आए और उन्होंने पूरे देश के हाथ में झाड़ू पकड़ा दिया। फैशन के चलते चार-छह दिन प्रधानमंत्री और उनके मंत्रियों ने झाड़ू लगाने के फोटो-अवसर मीडिया को मुहैया कराए और यह भी नहीं देखा कि खुद झाड़ू ठीक से पकड़े भी हैं कि नहीं। राहुल ने बताया कि कैसे फिर मोदी मेक इन इंडिया, स्टार्टअप इंडिया, स्किल इंडिया और कनेक्ट इंडिया की एक-एक डाल पर कूदते रहे और इनमें से किसी का भी आज तक कोई नतीजा नहीं निकला। राहुल बोले कि जब नरेंद्र भाई ने इंडिया गेट पर योग किया तो ठीक से पद्मासन भी नहीं लगा पाए। फिर सर्जिकल स्ट्राइक करने के बाद प्रधानमंत्री ने भारत की पूरी अर्थव्यवस्था पर झाड़ू फेर दी–बिना सोचे-समझे विमुद्रीकरण कर डाला और पूरे मुल्क को कतार में खड़ा कर दिया।
नोट-बंदी पर राहुल ने विस्तार से अपनी बात समझाई। चुटकियां लेते हुए भी और संजीदगी के साथ भी। राहुल ने कहा कि विमुद्रीकरण की पूरी अवधारणा की बुनियाद ही यह है कि बड़े नोटों को चलन के बाहर किया जाए। लेकिन मोदी तो हज़ार-पांच सौ के नोट बंद करने के बाद दो हज़ार रुपए का नोट लेकर आ गए। दर्द भरी मुस्कान के साथ राहुल ने कहा कि इससे पहले भारत के किसी भी प्रधानमंत्री का अंतरराष्ट्रीय जगत में ऐसा उपहास नहीं हुआ, जैसा विमुद्रीकरण के बाद मोदी का। दुनिया का कोई बड़ा अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री और राजनीतिशास्त्री ऐसा नहीं है, जिसने इस फ़ैसले को विवेकहीन और अमानवीय न बताया हो और इस क़दम से आने वाली आर्थिक मंदी और बेरोज़गारी के खतरों से तो भारतवासियों का साबका अब पड़ेगा।
राहुल ने वे परतें भी उधेड़ीं, जिनमें नोट-बंदी के लिए बताई गई वजहों–आतंकवाद, काले धन और नकली नोट–की असलियत छिपी है। उन्होंने बताया कि किस तरह इन तीनों बिंदुओं पर नोट-बंदी की नाकामी के बाद मोदी अपनी लक्ष्य-पताका बदलते रहे और आख़िरकार बोले कि नगदी-विहीन समाज की स्थापना करनी है। राहुल ने कहा कि पता नहीं नरेंद्र भाई किस दुनिया में रह रहे हैं? वे शायद यह नहीं जानते कि आज भी जर्मनी में 80 फ़ीसदी लेनदेन नगद होता है और अमेरिका में 46 प्रतिशत। इतनी उन्नत अर्थव्यवस्थाएं जब इक्कीसवीं सदी में अपने देशों को नगदी-विहीन नहीं कर पाईं तो साढ़े छह लाख गांवों वाला भारत चंद लाख बैंकों के ज़रिए ऐसा कैसे कर लेगा? विमुद्रीकरण की भौतिक बदनीयती की तरफ इशारा करने के बाद राहुल ने मोदी-मानस पर सीधा हमला किया और बताया कि किस तरह यह क़दम समाज में भय फैलाने के उस दर्शन का नतीजा है, जो सदियों से ग़रीबों और वंचितों के शोषण का माध्यम बना हुआ है।
हर महीने अपने प्रधानमंत्री के मन की बात की यांत्रिकता से गुजरने के बाद कांग्रेस के जन-वेदना सम्मेलन के आरंभिक और समापन सत्र में राहुल की बातों की प्राकृतिकता ने जिसे भीतर तक न भिगोया हो, उसकी बुद्धि के खुरदुरेपन पर मैं क्या कहूं! लेकिन मैं तो यह देख कर चमत्कृत था कि जिन राहुल गांधी को लोग सियासत के किनारे बैठ कर सूर्य-स्नान करने वाला समझते थे, वे राजनीतिक दर्शन की नदी में इस बीच इतने गहरे पानी पैठ चुके हैं कि अब उन सभी के चेहरों पर अवाक्-भाव है। जिस सादगी से राहुल ने भारतीय परंपरा के शाश्वत अभय-दर्शन की व्याख्या की और बेहद सलीके से ‘डरो मत’ का ताबीज देश की बाहों पर बांध दिया, वह पांडित्य से लबरेज़ बड़े-से-बड़ा कर्मकांडी भी नहीं कर सकता था। नरेंद्र मोदी हमारे समय के सबसे बड़े सियासी कर्मकांडी हैं, लेकिन इस बुधवार राहुल ने अपनी बैष्णवी शैली से मोदी की आसुरी आक्रामकता को मीलों पीछे छोड़ दिया।
राहुल ने बताया कि किस तरह सदियों से दो विचारधाराओं का संघर्ष दुनिया देख रही है, भारत देख रहा है। एक विचारधारा है, जो कहती है कि डरो मत। किसी से भी मत डरो, अपने अतीत से मत डरो, अपने वर्तमान से मत डरो, अपने भविष्य से मत डरो। हर तरह के डर को मिटाने की इस विचारधारा का प्रतिनिधित्व कांग्रेस करती है। दूसरी विचारधारा है, जो कहती है डरो। भय फैलाने से होने वाले फ़ायदे की फ़सल काटने वाली इस विचारधारा का प्रतिनिधित्व भाजपा और उसका मातृ-संगठन करते हैं। राहुल ने एक निर्भय समाज की रचना के लिए सामाजिक हित के कांग्रेसी फै़सलों को इस दर्शन में पिरोया और बताया कि महात्मा गांधी रोज़गार गारंटी योजना, भोजन का अधिकार, भूमि अधिग्रहण क़ानून और सूचना का अधिकार किस तरह ‘डरो मत’ के राष्ट्र-गान हैं और कैसे इन सभी फ़ैसलों की अवहेलना कर मोदी-राज में भारतीय मानस को अज्ञात भय की खाई के हवाले करने की साज़िशें रची जा रही हैं। विमुद्रीकरण इस डर को और गहरा करने वाला वह हंटर है, जिसके ज़रिए भारत का प्रधानमंत्री अपने देशवासियों से कह रहा है कि मुझसे डरो। मैं और सिर्फ़ मैं ही तुम्हें सुनहरा भविष्य दे सकता हूं। मैं कल क्या करूंगा, उसे छोड़ों, लेकिन अपना वर्तमान मुझे सौंप दो।
जब अपनी इसी रौ में राहुल ने डर के मौजूदा माहौल में समाचार-माध्यमों को भी ‘डरो मत’ का मंत्र सुनाया तो वे अपने सियासी-तबलावादन के चरम पर थे। उन्होंने मीडिया की मजबूरियों का अहसास करते हुए आहिस्ता से यह भी बता दिया कि कांग्रेस समाचार माध्यमों की स्वतंत्रता का कितना सम्मान करती रही है। राहुल ने जब मीडिया से मुख़ातिब हो कर कहा कि आप मेरे बारे में चाहे जो लिखो, जो कहो, मैं कभी आपको डराऊंगा नहीं, क्योंकि मैं आपसे नफ़रत नहीं करता तो ढाई बरस का मोदी-काल सबकी आंखों में तैर गया। दशकों के खून-पसीने से खड़े हुए लोकतांत्रिक संस्थानों की बुनियाद में आज पड़ रहे मट्ठे के खिलाफ़ जनसंचार माध्यमों को उनकी जिम्मेदारियों की याद राहुल ने जिस अंदाज़ में दिलाई, वह उस प्रतिबद्धता से उपजता है, जिसके बीज भारत के गर्भ-गृह में हैं।
जिस दौर में पूंजी से लेकर नरेंद्र भाई के सत्ता-तंत्र तक सब अपनी मनमर्जी का देश और समाज गढ़ने में लगे हैं, देश की जनता को मूक-उपभोक्ता और शासित बना कर रखने के लिए दिन-रात एक कर रहे हैं, मीडिया की पक्षधरता लोकतंत्र से उलटी दिशा में ठेली जा रही है, उस दौर में राहुल गांधी का ताजा सार्थक हस्तक्षेप पूरी सियासत को नए सिरे से परिभाषित करने का माद्दा रखता है। दूसरे तो जो करेंगे, सो, करेंगे, हम उम्मीद करें कि राहुल के हमजोली इस नदी को रास्ते में नहीं सूखने देने का संकल्प लेंगे। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)
Monday, January 9, 2017
[+/-] |
Mamata’s idea no day-dream |
Pankaj Sharma
9 January 2017
9 January 2017
Running a party is an internal affair but running the government requires transparency
Those who are trying to brush aside lightly the idea of a ‘National Government’ mooted by Bengal Chief Minister Mamta Banerjee “to save the country from Narendra Modi” might realise after few months that political developments are actually taking a turn towards a point where it can become a reality. Although not apparent on the surface, the internal turmoil in Bharatiya Janata Party (BJP) and its parent organisation Rashtriya Swayamsevak Sangh (RSS) after demonetisation, is bound to make Prime Minister Modi’s path difficult once the results of five state Assembly elections are announced in March.
Mamata had been an important part of Prime Minister Atal Bihari Vajpayee’s Cabinet 18 years back when Modi was one of the general secretaries of BJP. Her know-how about the activities within the BJP and RSS, allied with her straightforwardness, puts her in the position to float the idea of a national government at this point when apart from the sister organisations, the whole nation is disgusted with the outcome of the past two months. The address to the nation by Modi on New Year’s Eve and the recent warning-cum-advise to the Union government by President Pranab Mukherjee have prompted Mamata to raise the flag for a national government minus Modi.
Mamata knows that a sizable chunk of BJP MPs and a prominent section of RSS and its affiliates find Modi’s style of functioning counterproductive. Most parties in the National Democratic Alliance (NDA) also feel uncomfortable with the single handed governance of Modi and the political treatment they receive from BJP President Amit Shah. Many of NDA allies are of the opinion that running the party organisation could be BJP’s internal affair but running the government certainly requires more inclusive and transparent approach. There is growing feeling among BJP MPs that the very Modi-phenomenon which paved their way to great success in 2014 would prove to be the biggest hurdle in their electoral battle in 2019.
Mamata seems to be strategising on these factors to build an opinion through a serious debate on the issue of replacing Modi. By raising the demand for a national government, she hopes for a situation to take shape shortly where a majority of BJP MPs decide to break out of the shadow of Modi. Whether she hoping against hope or her dream might come true will be determined by the results of Assembly elections in five states, especially in Uttar Pradesh (UP). If BJP’s efforts to form its government in UP by hook or crook do not yield results, Prime Minister Modi will have to fight hard to save his crown. In such a situation Mamata’s choice to name Lal Krishna Advani to head the national government will acquire weightage. While suggesting the names of Rajnath Singh and even Arun Jaitley to lead such a government, Mamata has actually signalled that she is open for any name if Modi is removed. She knows that once the idea mooted by her gains momentum, there will be no dearth of convincing faces beginning from Nitin Gadkari, Manohar Parrikar, Sushma Swaraj, Murli Manohar Joshi to Sumitra Mahajan.
It might look like a far-fetched possibility, but I am sure, Mamata’s mind is working full time for a probable split in BJP this summer. By that time all the worst effects of a slowed-down economy will surface in their entirety. She is mature enough a politician to lay the foundation of a situation where people have to choose between survival of the nation and survival of a government led by a particular person or a party. When it comes to that, there are leaders such as Nitish Kumar, Chandrababu Naidu, Naveen Patnaik, and Mamata Banerjee herself who can head an intermediary national government with the help of formal or informal participation of other political parties.
The ‘split’ in BJP is a technical impossibility as the provision of paragraph 3 of the Tenth Schedule to the Constitution by the Fifty-Second Amendment Act 1985 has been omitted in 2003 when the Parliament passed Ninety-first Amendment Act. Therefore, it is not permissible now to claim a split in the parliamentary party. The only possibility that remains is ‘merger’ or ‘formation of a new political party. “No member will be disqualified from the membership of the House where his original political party merges with another political party and he claims that he and any other members of his original political party have become members of the other political party or of the newly formed political party provided not less than two-third of the members of the legislature party concerned have agreed to such merger,” says the current law.
I cannot visualise a situation where two-third, that means 189 BJP MPs raise their hands against Narendra Modi when next general election is still two years away. But it is not to say that there cannot be any change in the leadership of BJP-led government at the Centre before 2019. Modi can be replaced, but he can be replaced only through internal exercise within BJP. He can be replaced if the RSS so decides. But for initiating any such step RSS would need to assess its strength in the Modi-era. RSS would be committing a mistake by indulging in any act of over adventurism. Modi is not one of those who removes themselves from a position if they find that they are now intolerable. I feel, despite the complexities, Mamata’s idea must become an issue of serious national debate and any efforts to limit the spectrum of acceptable opinion must not be allowed. If there are voices, not against the rule of a party with a particular ideology, but against the autocracy of a person ruling the country, they are also entitled to a decent space. Settling a question without debating it is not a symptom of a mature democracy.
[+/-] |
होलिका-दहन पर प्रहलाद बचेंगे या नहीं? |
दो महीने बाद, मार्च के दूसरे शनिवार को, जब हम होलिका-दहन कर रहे होंगे, तब पांच विधानसभाओं के चुनाव नतीजों की नई फ़सल भी हमारे हाथों में होगी। सो, आने वाले दिन इन सवालों की दंड-बैठक के हैं कि नरेंद्रभाई दामोदर दास मोदी और अमितभाई अनिलचंद्र शाह की जुगल-जोड़ी की पिचकारियों से निकला रंग भारतीय जनता पार्टी के चेहरे को और गुलाबी बनाएगा या उसकी आज की चमक भी जाती रहेगी? पांच राज्यों, और ख़ासकर उत्तर प्रदेश, में भाजपा का क्या होगा? क्या ये चुनाव नोट-बंदी के फ़ैसले पर रायशुमारी माने जाने चाहिए? और, क्या इन चुनावों के नतीजे अपने प्रधानमंत्रित्व कार्यकाल का आधा सफ़र पूरा कर रहे नरेंद्रभाई की लोकप्रियता में उठाव-गिरावट का पैमाना भी तय करेंगे?
नोट-बंदी की मोदी-तरंग इस वक़्त भाजपा की साख से सीधी-सीधी जुड़ी हुई है। इसलिए देश की चूलें हिला देने वाले इस फ़ैसले का पांच राज्यों के चुनाव पर असर कैसे नहीं पड़ेगा? समुदायवाद, जातिवाद, बिरादरीवाद और गलीज़ मतलबपरस्ती से जुड़े निजी मसले मतदान को कितना ही प्रभावित करें, नोट-बंदी का हाहाकार पूरी तरह दफ़न होने से तो रहा! बावजूद इसके कि पूरी सरकार और भाजपा का सांगठनिक कुनबा मन-बेमन से नरेंद्रभाई को क्रांतिदूत बताने पर तुला हुआ है, दो महीने से अपनी एक-एक पाई के इंतज़ार में कतारों में खड़े आम लोगों के दिलो-दिमाग में यह बात घर कर गई है कि नोट-बंदी की तरकश का एक भी तीर अपने निशाने पर नहीं लगा है। ऐसे-ऐसे अहम निशानों की चूकने वाले तीरंदाज़ को क्या मतदाता ऐसे ही माफ़ कर देंगे?
गोआ और मणिपुर यूं भले ही छोटे राज्य हैं, मगर दोनों की भौगोलिक-सामाजिक स्थिति उन्हें इन चुनावों में विशेष भूमिका निभाने का मौक़ा दे रही हैं। 40 निर्वाचन क्षेत्रों वाले गोआ में भाजपा की सरकार है और वहां के मुख्यमंत्री लक्ष्मीकांत पार्सेकर विवादों के घोड़े पर सवार रहने में शान महसूस करते हैं। रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर जब गोआ में भाजपा की ताक़त रहे होंगे, तब रहे होंगे। अब तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सुभाष वेलिंगकर तक की बग़ावत का स्वाद पर्रिकर और उनकी भाजपा चख चुकी है। इसके अलावा जुआघरों और खनन से लेकर भाषा के सवालों तक से जूझ रहे गोआ की भाजपा को अपनी मौजूदा 21 सीटें बैठे-बिठाए तो मिलने वाली हैं नहीं। यूं भी वह अब तक एक सीट के तकनीकी बहुमत के बूते गोआ में राज कर रही है। कांग्रेस के 9 समेत बाकी 10 और विधायकों का विलोम-गीत इस चुनाव में गोआ के राजनीतिक संगीत को उलट-दिशा में मोड़ने का माद्दा रखता है।
60 सीटों वाले मणिपुर में कांग्रेस की सरकार है और उसके 49 विधायक हैं। ज़मीन पर उनकी जमावट का अंदाज़ इससे ही लगा लीजिए कि मुख्यमंत्री ओकराम इबोबी पिछले पंद्रह साल से अपनी कुर्सी पर जमे हुए हैं। भाजपा के पास तो मणिपुर में नाम के लिए सिर्फ़ एक विधायक है। पूर्वोत्तर भारत को हर हाल में अपनी मुट्ठी में करने के लिए भाजपा की योजना में हर तरह के साम-दाम-दंड-भेद की खुली झलक पिछले ढाई बरस से सब देख रहे हैं, मगर भाजपा की किसी भी मोहिनी-मुद्रा पर मणिपुर इस चुनाव में तो रीझता नहीं दीखता।
पंजाब की सियासी-हवा के संकेत शिरोमणि अकाली दल के खिलाफ़ अब तक़रीबन साफ़ हो गए हैं। 117 सीटों वाली विधानसभा में पिछली बार भी अकाली दल को बहुमत से सिर्फ़ एक ही सीट ज़्यादा मिली थीं। भाजपा के 12 विधायक चुन कर न आ गए होते तो प्रकाश सिंह बादल को ये पांच बरस निकालने भी भारी पड़ जाते। नशे के कारोबार से लेकर यमुना-सतलज नहर तक के मसलों ने सत्ता-विरोधी लहर को और परवान चढ़ा दिया है। इसलिए पंजाब के देहाती इलाक़ों में अकाली-लाठियों के मंडरा रहे बादलों के बावजूद इस बार मतदाताओं को वैकल्पिक हाथों में जाने से रोकना मुमक़िन नहीं होगा। आम आदमी पार्टी अपने शुरुआती हो-हल्ले के बाद अब चुनावी-दौड़ में बेहद पिछड़ गई है। इसका पूरा फ़ायदा कप्तान अमरिंदर सिंह की कांग्रेस को मिल रहा है। सो, संभावना यही है कि पंजाब अपने कप्तान को नतीजों का प्लेटिनम-उपहार दे दे। चुनाव नतीजों के दिन, 11 मार्च को, अमरिंदर सिंह 75 साल के हो जाएंगे।
उत्तराखंड की 70 सीटों पर कांग्रेस और भाजपा के बीच यू तो ‘डाल-डाल, पात-पात’ वाला रिश्ता है। वहां कांग्रेस के 28 और भाजपा के 25 विधायक हैं। लेकिन पिछले दिनों की सियासी उठापटक के दौरान भाजपा की आंख में तीतर का ऐसा बाल लोगों को नज़र आया कि वे भीतर तक सुलगे बैठे हैं। मुख्यमंत्री हरीश रावत को जांच एजेंसियों के ज़रिए ज़लील होते देख कर भी उत्तराखंड के मतदाता उद्वेलित हैं। बेरोज़गारी और बर्बाद हो रहे पर्यटन को नोट-बंदी ने और गंभीर बना दिया है। ऐसे में पहाड़ों की थकान से उबरना भाजपा के लिए आसान नहीं होगा।
लेकिन सबसे बड़ी तलवार तो भाजपा के सिर पर उत्तर प्रदेश में लटकी है। 403 सीटों वाली विधानसभा में पिछले चुनावों में भाजपा को भले ही 41 सीटें मिली थीं, लेकिन 2014 में लोकसभा के चुनावों के दौरान 80 में से 71 सीटें जीतने से इस विधानसभा चुनाव में उस के लिए जो स्पर्श-रेखा तय हो गई है, उसे तो वह तभी छू सकती है, जब कोई आसमानी-सुल्तानी हो जाए। समाजवादी कुनबे के पिता-पुत्र खेमों ने अपनी फ़जीहत कराने में कोई कमी नहीं रखी, लेकिन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को कोयले की इस कोठरी से फिर भी काफी धवल वस्त्रों में बाहर निकलते हम देख रहे हैं। इसलिए समाजवादी पार्टी की सीटें 229 से घट कर कोई 29 तो होने वाली हैं नहीं। मायावती भी बहुजन समाज पार्टी की 80 सीटों में कुछ जोड़ती ही दिखाई दे रही हैं। कांग्रेस को उसकी मौजूदा 28 से ज़्यादा सीटें न देने वालों की इच्छा अगर पूरी भी हो जाए तो भी आज का गुणा-भाग उत्तर प्रदेश की सरकार भाजपा की गोद में तो डाल नहीं रहा। ऐसे में सपा के अखिलेश, कांग्रेस के राहुल गांधी और राष्ट्रीय लोकदल के जयंत चौधरी को एक मंच से हाथ हिलाते देखने पर नोट-बंदी से बिलबिलाए मतदाता भाजपा के साथ पता नहीं क्या करें! यूं भी 18 फ़ीसदी मुस्लिम, 21 प्रतिशत दलित और 41 प्रतिशत पिछड़ी जातियों वाले उत्तर प्रदेश में नरेंद्रभाई और अमितभाई महज हाथ मटकाते हुए तो भाजपा को सिंहासन पर नही पहुंचा सकते हैं।
जब हिरण्यकश्यप पूरी पृथ्वी के राजा हो गए तो उन्होंने फ़रमान जारी किया कि उनके राज में सिर्फ़ उन्हीं की पूजा होगी, किसी और की नहीं। लेकिन उनका पुत्र प्रहलाद भी कम ज़िद्दी नहीं था। उसने हुक़्म मानने से इनकार कर दिया और भगवान विष्णु की पूजा करने लगा। होलिका-दहन की घटना इसी कथा का अंतिम पन्ना है, जिसकी याद हम सदियों से हर साल करते हैं। नोट-बंदी की ओखली में जिस भारतमाता का सिर आज तक मूसलें खा रहा है, अनिश्चितता और अविश्वास के थपेड़ों ने जिसे फ़िलहाल कहीं का नहीं छोड़ा है और भावी मुसीबतों के टूटते आसमान की आशंकाओं से जिस मुल्क़ की रूह कांप रही है, अगर फरवरी-मार्च की मशक्क़त के बाद होलिका-दहन के दिन हमउ से प्रहलाद की तरह अग्नि से जीवित बाहर निकाल कर नहीं ला सके तो हमारे फूटे कर्मों पर कोई और तो आ कर रोने से रहा! (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)
Tuesday, January 3, 2017
[+/-] |
Biggest show the year flopped |
Pankaj Sharma
3 January 2017
3 January 2017
The greatest danger before the country in the coming days would be tax terrorism.
Modi was heard thundering away at 8 pm on November 8, while announcing his government's demonetisation initiative to the nation. At 7.30 pm on December 31, he was somewhat bleating with efforts to keep a brave face. Elements of stubbornness, vanity and autocracy in his personality often make it impossible for Modi to accept the reality of the total failure of his ill-conceived policy. On New Year's Eve, however, his body language and the content of his speech indicated that this realisation had dawned on the Prime Minister.
Soul-stirring was absent from Modi’s speech. The speech lacked cerebral inputs. The whole country was waiting eagerly to watch the biggest show of the year, but it proved an empty vessel. It was not what the nation expected after such a massive disruption caused by the government's demonetisation measure. Modi’s honey tongue was unable to generate any positive impact on the disturbed psyche of the masses who now have realised that how the great cry about withdrawing currency did not yield any wool. The experiment Modi imposed on the common man was not even a nine days' wonder.
The welfare schemes Modi announced have nothing new in them and are a drop in the ocean. His efforts at repackaging the social schemes which are already in place with few modifications are not what people of India had been expecting from their Prime Minister after going through the unprecedented lifetime humiliation, the dark shadow of which is still looming large on their heads. Modi did not clarify in his speech that how much his brainwave has adversely affected the foreign portfolio investments, the index of industrial production, credit growth, gross non-performing assets situation and exports.
Now when 50 days that Modi sought from the nation are over, let the people of India demand a referendum on demonetisation. All the efforts to remonetise the economy within the stipulated period have failed, and citizens are still waiting for their money in long queues before the banks. If 2017 is beginning with the deep imprints of what the last 53 days of 2016 witnessed and there seems no change in the situation for some more months, the sufferers must get the right to exercise their choice to say Yes or No to a policy that was so callously implemented. The sun which has risen on the economic horizon of 2017 is muddy, surrounded by scary dark clouds, and with its energy squeezed. Those who failed to make an adequate assessment of the situation and instead of realising their blunder still trying to justify it must not be allowed to go scot-free.
A state is always equipped with numerous weapons to control the insanity of its citizens. But if a state wigs out what can its citizens do? The only way they can remove the set of people misgoverning the nation is on the ballot. When elections are not near, and there is no provision to recall the elected representatives in our Constitution, a referendum could be one such remedy that could give some relief to a bleeding nation. The following days are bound to helplessly witness a sliding economy, increasing unemployment, decreasing growth in all sectors and a stressed society.
Nothing could have been more disastrous than this single step of compelling 1.25 billion people of India to sigh for their own hard earned money. Modi is under the impression that both—his government and the people—are on the same side in this battle, but the outcome of forthcoming elections in five states will tell him how correct he is. Though the Panchayat elections are not contested on party symbols, everyone in every village knows about the leanings the winner has with a certain political party and the massive loss Bharatiya Janata Party faced in the elections of Panchayat heads in Gujarat last week should be enough to open the eyes of Modi and his man Friday Amit Shah, the party president.
The biggest danger before the country in coming days would be tax terrorism. Modi’s rhetoric of teaching a lesson to the dishonest has armed tax authorities with a killing instinct that is going to be more harassing for honest people than the real culprits. The country has bitter experience of the discretionary behaviour of the tax officials, and in the absence of any administrative reforms, Prime Minister’s repeated lessons might instigate dishonest officials to spread their wings. The revival of trust in the currency, banks and the government’s intentions at large must be on priority than creating an atmosphere of fear, terror, and uncertainty. The sooner Modi realises this, the better for him and the country.
India ultimately belongs to its people. It is not anyone’s fiefdom. Therefore, no government or Prime Minister is allowed to act on whims. The politics of polarisation and alienation, the distortion of the economy, blatantly ignoring the privacy laws, curbing the independence of citizens and destroying the foundations of institutions will unseat India from its global position. The challenges of 2017 include the safeguarding of the fundamental principles that course through the veins of this nation. No one, however big he or she may be, should be given a free hand to make India a guinea pig to conduct experiments on. Bowing down to someone’s whims or ignorance is not what we deserve. This is the time to define ourselves and to refuse to fall victims. India cannot disappoint its future generations by allowing a situation that is going to swallow the fruits of achievements earned with great efforts in past decades.
Subscribe to:
Posts (Atom)