पंकज शर्मा
दिल्ली में विधानसभा के औचित्य और ज़रूरत पड़ने पर इस व्यवस्था को समाप्त कर देने भी पर विचार करने की तैयारी रखने की बात कहने वाले उप-राज्यपाल नजीब जंग का अब कहना है कि सवाल चूंकि काल्पनिक था, इसलिए उन्होंने जवाब भी यूं ही दे दिया था। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को तो अब पूरा देश ही ऐसे व्यक्ति के तौर पर जानने-मानने लगा है, जो बिना सोचे-समझे कुछ भी कह सकते हैं, लेकिन जंग भी ऐसे हैं, यह किसी को इसलिए नहीं मालूम था कि देश की राजधानी में कोई उन्हें ठीक से जानता ही नहीं है। लोग सिर्फ़ इतना जानते हैं कि वे उप-राज्यपाल हैं और देखने-सुनने में विद्वान मालूम होते हैं। कुछ को लगता है कि केजरीवाल से चल रही सियासी लड़ाई में वे शायद केंद्र की सरकार के इशारे पर काम कर रहे हैं।
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जब जंग ने केजरीवाल की तूतूमैंमैंई का जवाब देने के लिए दिल्ली को मिले एक संवैधानिक हक़ पर पुनर्विचार की संभावना से इनकार नहीं किया तो मुझे लगा कि अब उनके पैर इतने लंबे हो गए हैं कि लोकतंत्र की चादर में नहीं समा रहे हैं। राजनीतिक प्रक्रिया से गुज़र कर इस पद तक पहुंचा कोई भी व्यक्ति मज़ाक में भी यह संभावना ज़ाहिर नहीं कर सकता था कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र को मिली विधानसभा-व्यवस्था ख़त्म कर देने पर सोच-विचार हो सकता है। लेकिन जंग जनतंत्र की उपज नहीं हैं। वे बौद्धिक लबादे में लिपटे कारकूनी हथकंडों के ज़रिए राजनीतिक पद हासिल करने के पथ पर चल कर राजभवन पहुंचे हैं। जंग मुझे नहीं जानते। लेकिन मैं उन्हें चार दशक से जानता हूं और मानता हूं कि अगर अपनी अकादमिक क्षमताओं को संवारने की राह से वे भटके न होते तो आज जितने बड़े हैं, उससे कई गुना बड़े होते।
भारतीय प्रशासनिक सेवा में चुने जाने के बाद अलग-अलग सरकारी महक़मों का ज़मीनी प्रशिक्षण जंग ने मध्यप्रदेश के आदिवासी इलाक़ों में लिया था। तब मैं कॉलेज में पढ़ता था और देखता था कि इलाक़े के छोटे सरकारी अफ़सर उनके नायकत्व से किस तरह अभिभूत रहा करते थे। बाद में वे छत्तीसगढ़ की आज की राजधानी रायपुर और बगुलामुखी साधना स्थली के लिए ख्यात दतिया के कलेक्टर रहे। दतिया सिंधिया राजघराने का हिस्सा रहा है। 1985 में जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने माधवराव सिंधिया को रेल मंत्री बनाया। माधवराव नजीब जंग को अपना निजी सचिव बना कर दिल्ली ले आए। तब तक मुझे भी दिल्ली के नवभारत टाइम्स में आए छह बरस हो गए थे।
सेंट
कोलंबिया स्कूल, सेंट स्टीफन्स कॉलेज और लंदन स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स में पढ़े अफ़सरों और राजनीतिकों का बिरादराना उन दिनों तो दिल्ली की और भी ज़्यादा ख़ासियत थी। सो, जंग इस मंडली के सराहनीय सदस्यों में थे। राजधानी के अंतःपुर को देखने का जो मौक़ा जंग को माधवराव सिंधिया के सौजन्य से मिला, उसने उनके चमकीले भविष्य की आधारशिला रख दी। स्पर्धी दुनिया में आगे बढ़ने के लिए प्रतिभा, बुद्धि और परिश्रम के साथ जिस संपर्क-महारत और समायोजन की ज़रूरत होती है, उसका मर्म जंग को शायद तभी समझ में आ गया था। जिस ज़माने में कप्तान सतीश शर्मा केंद्र में पेट्रोलियम मंत्री थे, मैं पत्रकार के नाते वह मंत्रालय कवर करता था। जंग तब उस मंत्रालय में संयुक्त सचिव थे और तेल उत्खनन के प्रभारी थे। यह वह दौर था जब प्रधानमंत्री पामुलपर्ति वेंकट नरसिंहराव निजी क्षेत्र को अथाह बढ़ावा देने में दिन-रात लगे थे और मुक्ता-पन्ना और ताप्ती जैसे सरकारी तेल क्षेत्रों को रिलायंस और ब्रिटिश गैस को सौंपा जा रहा था। भारतीय तेल और प्राकृतिक गैस कंपनी (ओएनजीसी) इन धरोहरों को अपने हाथ से जाते टुकुर-टुकुर देख रही थी।
यह
काम होने के फ़ौरन बाद भारतीय प्रशासनिक सेवा से अवकाश ले कर जंग एशियन डेवलपमेंट बैंक में काम करने मनीला चले गए। पांच साल ऊर्जा विशेषज्ञ के तौर पर काम करने के बाद वहां से 1999 में लौटे और आते ही भारतीय प्रशासनिक सेवा से इस्तीफ़ा दे दिया। लंदन चले गए और कई विदेशी कंपनियों के लिए सलाहकार की भूमिका अदा करने लगे। रिलायंस-यूरोप भी इनमें एक थी। कुछ बरस उन्होंने ऑक्सफोर्ड के ऊर्जा शोध संस्थान में भी काम किया।
मैं
उन लोगों को जानता हूं, जो उस दौर में जंग को लगातार यह सलाह देते थे कि उन्हें भारत वापस आ कर सियासत में हाथ आज़माना चाहिए। उनके पास सब है। प्रशासनिक गलियारों की घुमावदार गलियों का अनुभव है। विदेशी अर्थशास्त्र की समझ है। देसी-परदेसी संपर्क सूत्र हैं। फिर वे अल्पसंख्यक भी हैं। मुझे याद है कि भविष्य की ऊहापोह से गुज़र रहे जंग ने 2007 में किस तरह ओनजीसी का चेयरमेन बनने की कोशिश की थी। यह अलग बात है कि सार्वजनिक उपक्रम चयन बोर्ड ने इंटरव्यू के बाद उन्हें नहीं चुना। मगर इसके कुछ ही महीने बाद जंग भारत लौट आए और रिलायंस उद्योग द्वारा संचालित ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के मुखिया बन गए।
एकाध
बरस बाद 2009 के सितंबर में नजीब जंग जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के तेरहवें कुलपति बन गए। मैं मानता हूं कि जामिया को उनसे बेहतर कुलपति नहीं मिल सकता था और वहां रहते जंग ने कई उल्लेखनीय काम भी किए, लेकिन यह कहने वालों का मुंह कौन पकड़ सकता है कि तब के मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल ने जंग को यह ज़िम्मा इसलिए दिया था कि उन्होंने सिब्बल को लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिए पुरानी दिल्ली का अपना घर निर्वाचन कार्यालय बनाने को दिया था। ऐसा कहने वालों को यह तक नहीं पता कि दोनों के संबंध तब के हैं, जब सेंट स्टीफंस के दिनों में जंग ने सिब्बल के निर्देशन में ‘‘चे ग्वेवारा’’ नाटक में अभिनय किया था। जिन लोगों ने उन दिनों ‘मचेंट ऑफ वेनिस’ में जंग को शॉयलाक की भूमिका में देखा है और जिन्हें ‘चे ग्वेवारा’ की याद है, वे जंग की अभिनय प्रतिभा के आज तक कायल हैं।
छह
साल पहले बाबरी मस्ज़िद-राम जन्मभूमि मामले में जब इलाहाबाद हाइकोर्ट का यह फ़ैसला आया कि पूरे विवादित क्षेत्र को तीन हिस्सों में बांट दिया जाए तो नजीब जंग ने इसकी ताईद करने में कोई वक़्त नहीं लगाया और उनकी इस हिम्मत की मैं आज भी क़द्र करता हूं। दो अक्टूबर 2010 को टाइम्स ऑफ इंडिया में छपे उनके लेख की कतरन अपनी फाइल से निकाल कर अभी मैं ने फिर पढ़ी। जंग ने इस लेख में कहा था कि मुसलमानों को मौका मिला है कि इतिहास के साए से बाहर आएं, विभाजन के कलंक को पोंछ डालें और कट्टरता के कांटों को निकाल फेंकें। लेख के आख़ीर में जंग ने अल्लामा इक़बाल की ये पंक्तियां उद्धृत कींः ‘‘वतन की फिक्र कर नादां, मुसीबत आने वाली है; तेरी बरबादियों के मश्वरे हैं आसमानों में; न संभलोगे तो मिट जाओगे ऐ हिंदोस्तां वालों; तुम्हारी दास्तॉ तक भी न होगी दास्तानों में।’’
इसके
ढाई बरस के भीतर नजीब जंग 2013 की जुलाई में दिल्ली के बीसवें उप-राज्यपाल बन गए और अब तक हैं। वे कांग्रेस की सरकार के दिनों में फले-फूले उन बिरले प्रतिभावानों में हैं, जो कांग्रेसी ज़माने की हर एक याद को चुन-चुन कर दीवार में चिन देने का संकल्प उठाए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तिरछी नज़रों का शिकार नहीं बने। जंग को मैं ऊर्जा के क्षेत्र में उनकी व्यवहारिक विशेषज्ञता के अलावा शिक्षा और समाज से ले कर कश्मीर, पाक़िस्तान और अफ़गानिस्तान तक के मसलों पर उनकी गहरी समझ के लिए जानता था। सऊदी अरब की ज़मीन से जन्मी उनकी पितृ-श्रंखला और तुर्क-मुगल संस्कृति से निकली मातृ-श्रंखला ने जंग को विचारों का पराक्रम दिया है। लेकिन मुझे यह अंदाज़ नहीं था कि ‘फ़िक्र-ओ-आग़ाही’ की नब्ज़ पर जिनकी उंगलियां होती हैं, वे भी किसी लोकतांत्रिक संस्था के अस्तित्व पर पुनर्विचार का इरादा रखते होंगे। मैं जानता हूं कि अपनी इस बात से जंग को प्रधानमंत्री की फटकार के बाद पलटना पड़ रहा है, क्योंकि मोदी इस तरह के संकेतों की उलटबांसी को खूब समझते हैं।
लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।
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