Monday, August 22, 2016

ढोल-मजीरे और सिसकता बलूचिस्तान


modi-red-fortलालकिले से बलूचिस्तान का ज़िक्र करते वक़्त जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि ‘‘जिस धरती को मैं ने देखा नहीं है, जिन लोगों के विषय में मेरी कभी मुलाक़ात नहीं हुई है..’’ तो वे ’विषय में’ कहने के बाद हलका-सा ठिठके थे और मुझे लगा कि अपनी बात बदल रहे हैं। वे शायद कहने वाले थे कि जिन लोगों के विषय में मैं ज़्यादा नहीं जानता…। लेकिन फिर वे संभले और बोले कि जिन लोगों के विषय में मेरी कभी मुलाक़ात नहीं हुई है।
नरेंद्र भाई अगर बलूचिस्तान के बारे में सचमुच जानते होते तो लालकिले पर गिलगित और पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के लोगों द्वारा उनका आभार व्यक्त करने का ज़िक्र करते समय बलूचिस्तान को नत्थी कतई नहीं करते। अगर भारत की विदेश नीति के मर्म को वे ज़रा भी समझे होते तो सीना-ठोकू जोश में राजनयिक मर्यादाओं का होश खोने की यह ग़लती उनसे नहीं होती। मगर विदेशों में घूमने से ही अगर विदेश नीति की गहरी समझ पैदा हो सकती होती तो फिर विजय माल्या जैसे अंतरराष्ट्रीय धुमक्कड राजनय के सबसे बड़े मर्मज्ञ होते।
मोदी के लालकिले की सीढ़ियां उतरने से पहले ही टेलीविजन के परदों पर बैठे सूत्रधारों और गाल-बजाऊ बुद्धिजीवियों ने बलूचिस्तान के ज़िक्र के ऐसे-ऐसे आयाम देश-दुनिया को बता दिए कि हल्ला मच गया। भारतीय विदेश नीति में एक नए अध्याय की शुरुआत का ऐलान हो गया। जिन्हें यह भी नहीं पता होगा कि बलूचिस्तान पाकिस्तान के दक्षिण-पश्चिम में है या उत्तर-पूर्व में और अरब सागर उसके दक्षिण में पड़ता है कि पूरब में, वे सब हमारे प्रधानमंत्री के पराक्रम पर ऐसे लट्टू थे कि देखते-ही-देखते सोशल-साइट्स की लहरें आसमान छूने लगीं।
किसी ने यह नहीं सोचा कि बलूचिस्तान को वैश्विक मुद्दा बनाने के मोदी-प्रयासों की रूमानियत और ज़मीनी यथार्थ के बीच कोई पुल बनाने की तकनीक क्या इतनी आसान है? परमाणु शक्ति सिर्फ़ हम होते और पाकिस्तान आज भी दुनाली बंदूकों से काम चला रहा होता तो शायद बात कुछ और होती। आज तो हमें एक सिरफिरे परमाणु संपन्न मुल्क़ से दो-दो हाथ होना है। इसलिए बलूचिस्तान तो छोड़िए, गिलगित और बालतिस्तान तक के लिए भारत को दुनिया की महाशक्तियों का साथ चाहिए। क्या वे इतनी आसानी से नरेंद्र मोदी के साथ हो जाएंगी ?
बलूचिस्तान में पाकिस्तान की फ़ौज कितने ही ज़ुल्म करे, क्या चीन की आंखों में इससे ऑसू आएंगे? उप-राष्ट्रीयता का विचार ही चीन के लिए अछूत है। फिर जो चीन बलूचिस्तान में कई सुरक्षा और विकास परियोजनाओं का भागीदार हो और ग्वादर से ले कर पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर तक एक गलियारा बनाने में लगा हो, वह बलूचिस्तान में मानव-अधिकारों के मसले पर भारत का साथ देने के बजाय पाकिस्तान की पीठ क्यों नहीं थपथपाएगा? रूस को भी बलूचिस्तान के क़ुदरती संसाधनों भले ही मन-मन भा रहे हों, लेकिन वहां के लोगों के दर्द से उसे इतना लेना-देना क्यों होगा कि वह मरहम ले कर भारत के साथ चल दे? नरेंद्र भाई के दोस्त बराक ओबामा के अमेरिका ने भी पाकिस्तान में मानव-अधिकारों की स्थिति पर ऐसी ठोस चिंता कभी नहीं दिखाई है कि बलूचिस्तान पर हम उसका आंख मूंद कर भरोसा कर लें। और-तो-और, पाकिस्तान के पश्चिम में बसे ईरान को भी लगता है कि अगर पाकिस्तानी-बलूचिस्तान का मुद्दा अंतरराष्ट्रीय सरोकार बन गया तो वृहद्-बलूचिस्तान की आज़ादी का आंदोलन ज़ोर पकड़ लेगा।
ऐसे में मोदी के लालकिला-उवाच ने देश के भीतर भले ही उन्हें क्षणिक वाहवाही दे दी हो, मगर दुनिया में उनकी राजनयिक समझ पर प्रश्नचिह्न ही लगवाया है। बलूचिस्तान के गृह मंत्री सरफ़राज़ बुग्ती ने पिछले साल जून में भारत पर बलूचिस्तान के बागियों की मदद का आरोप लगाया था। बाद में उन्होंने संयुक्त राष्ट्रसंघ को भी एक फ़ाइल भेजी और कहा कि इसमें भारत द्वारा दी जा रही मदद के सबूत हैं। भारत की दखल का ख़्वाब देखने का हक़ बलूचिस्तानी हुक्मरानों से कोई नहीं छीन सकता। लेकिन असलियत यह है कि वहां की जंगे-आज़ादी के हिमायतियों को तो यह शिक़ायत है कि बलूचिस्तान के अवाम पर इतने ज़ुल्म हो रहे हैं और भारत एक अच्छे पड़ोसी की भूमिका नहीं निभा रहा है।
वर्ल्ड बलोच वीमन फोरम की अध्यक्ष नाएला कादरी इस अप्रैल में जब दिल्ली आई थीं तो रह-रह कर यही अफ़सोस ज़ाहिर कर रही थीं कि पाकिस्तान के अत्याचारों से बलूचिस्तान में हाहाकार है और भारत है कि ख़ामोश बैठा है। वे जिस-जिससे मिलीं, बोलीं कि भारत और अफ़गानिस्तान दोनों को अपनी नैतिक ज़िम्मेदारी का निर्वाह करना चाहिए। उनका कहना था कि बलोच, पख़्तून, ब्राहुइस, हाजरा, सिंधी, पंजाबी–सब भारत की तरफ़ आस भरी निग़ाहों से देख रहे हैं।
बलूच रिपब्लिकन पार्टी के अध्यक्ष ब्रह्मदाग बुग्ती तो चाहते हैं कि 1971 में जिस तरह इंदिरा गांधी ने पूर्वी-पाकिस्तान की मदद की थी, मोदी आज वैसा ही बलूचिस्तान में करें। ब्रह्मदाग 34 बरस के हैं। छिप कर जिनेवा में रह रहे हैं। छिप कर इसलिए कि स्विट्जरलैंड में शरण हासिल करने का जो आवेदन उन्होंने 2011 में दिया था, वह इस साल जनवरी में नामंज़ूर कर दिया गया है। ब्रह्मदाग जब बच्चे थे, उनके पिता रेहान खान बुग्ती चल बसे। सो, बलूचिस्तान की जंगे-आज़ादी में लगे उनके दादा अकबर बुग्ती ने उन्हें पाला-पोसा। 2006 में पाकिस्तान की सैन्य-कार्रवाई में दादा मारे गए। उनके घर पर पाकिस्तानी फ़ौज ने बम गिराए। ब्रह्मदाग पहाड़ों में भाग गए और क़रीब चार बरस छिपे रहे। फिर वे चुपचाप अफ़गानिस्तान पहुंच गए और वहां के पहाड़ों में भी चार साल छिप कर रहे। पाकिस्तान ब्रह्मदाग की पार्टी को बलूच रिपब्लिकन आर्मी मानता है और उसे आतंकवादी संगठन घोषित कर रखा है। अफ़गानिस्तान पर पाकिस्तान का यह दबाव जब बहुत बढ़ गया कि वह ब्रह्मदाग को उसके हवाले करे तो वे 2010 में किसी तरह स्विट्जरलैंड पहुंच गए। ब्रह्मदाग का कहना है कि उनका बस चले तो वे कल भारत आ जाएं और बलूचिस्तान को आज़ादी मिलने तक यहीं रहें।
इस पृष्ठभूमि के मद्देनज़र हमारे प्रधानमंत्री को लालकिले पर खड़े हो कर बलूचिस्तान को गिलगित से खुलेआम इस तरह जोड़ना चाहिए था या नहीं, इस पर तो बहस हो सकती है। लेकिन दुनिया भर में मानव-अधिकारों के लिए होने वाले संघर्षों के साथ खड़े रहने वाले देश के तौर पर जिस भारत की पहचान हो, उसके प्रधानमंत्री से बलूचिस्तान की चिंता करने का हक़ हम कैसे छीन सकते हैं? आख़िर परताराजा और कुषाण के ज़माने से हमारा बलोच-जगत से संबंध है। जब अंग्रेज़ आए, तब भी बलूचिस्तान में चार सल्तनतें थीं–मकरान, खारान, लासबेला और कलाट। ठीक 140 साल पहले हुई एक संधि ने इन चारों रियासतों को अंग्रेज़ों की गोद में डाल दिया। भारत की आज़ादी के समय इन चारों सल्तनतों ने पाकिस्तान में शामिल होने का फ़ैसला किया। कलाट के खान ने तब इस शर्त पर अपना विलय पाकिस्तान में किया था कि सुरक्षा, विदेश नीति, मुद्रा और वित्त संबंधी मामलों को छोड़ कर बाकी सब में वह पूरी तरह स्वायत्त रहेगा।

हमारे प्रधानमंत्री ने सवा दो साल पहले नवाज शरीफ़ को अपने शपथ समारोह में बुलाया। फिर विदेश सचिव और विदेश मंत्री स्तर की बातचीत होती रही। आठ महीने पहले नरेंद्र भाई नवाज के जन्म दिन पर अचानक लाहौर भी पहुंच गए और इस बीच शॉल-साड़ी के शगुन भी आते-जाते रहे। अपने प्रधानमंत्री की हर अदा पर हमने हर बार मजीरे बजाए। लेकिन उनकी ताज़ा अदा पर ज़्यादा ढोल पीटना दुनिया में भारत की छवि को भारी पड़ेगा। इसलिए ढोल-मजीरे बजाना अब बंद कीजिए।

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