नदी किनारे अपनी बहन के साथ बैठ कर उकता रही एलिस, कोट पहने और घड़ी लटकाए एक सफेद खरगोश का पीछा करते हुए, अलग-अलग आकार के दरवाज़ों वाले जिस कक्ष में पहुंच जाती है, उनके पीछे छिपे अफ़साने एलिस को उसके असली मुक़द्दर का अहसास कराते हैं। कैसे एक शीशी में रखी दवा पीकर वह एकदम बौनी हो जाती है, कैसे केक का एक टुकड़ा खाने से उसका बदन इतना बड़ा हो जाता है कि सिर छत से टकराने लगता है, कैसे उसके रोने से कमरा आंसुओं से भर जाता है, कैसे वह अपने ही आंसुओं में डूबती-उतराती है और फिर कैसे वह राजा के दरबार में एक न्यायिक प्रक्रिया का हिस्सा बनती है! अपने तेज़ी से बढ़ते क़द को लेकर न्यायिक अधिकारियों का एतराज़ एलिस नकार देती है और राजा जब उसे दरबार से बाहर जाने को कहता है तो वह इनकार कर देती है। राजा एलिस का सिर काट देने का हुक़्म सुना देता है, मगर वह अब भी निर्भय है। सिर कटने का मौक़ा आने के पहले एलिस की बहन उसे हिला कर नींद से जगा देती है और सपना वहीं टूट जाता है।
एलिस की कहानी उकताई ज़िदगी में रंग भरने की कहानी है। वह रंग-बिरंगी ज़िंदगी की भावी सच्चाइयों से रू-ब-रू होने की कहानी है। वह उस दौर की कहानी है, जब आश्चर्यलोक हुआ करते थे। वह उस ज़माने की कहानी है, जब लोग आश्चर्यचकित होने के लिए ज़रूरी संवेदना संजो कर रखे हुए थे। आश्चर्यलोक तो अब भी होते हैं। लेकिन अब हमें कोई चीज़ आश्चर्यचकित करती ही नहीं है। अब हम उस ज़माने में रहते हैं, जहां पकी-अनपकी सूचनाओं के बोघि-वृक्ष की कृपा सभी को प्रतिदिन परमज्ञानी बनाए रखती है। सबने विश्वव्यापी वेब-अंतरजाल की वह कर्ण-पिशाचिनी सिद्ध कर ली है, जो जानकारियों के कूड़े-कर्कट का प्रवाह कभी थमने नहीं देती है।
मैं नहीं जानता कि कितने ऐसे होंगे जो ‘सार-सार को गहि लिहैं, थोथा देहिं उड़ाय’ की कूवत रखते होंगे। मुझे तो कई बार लगता है कि भेड़ों का एक रेवड़ है, जो चला जा रहा है और चला ही जा रहा है। हम चाहे-अनचाहे इस रेवड़ का हिस्सा हैं। मन से या मन मारे अनुगमन को अभिशप्त हैं। हमें न यह मालूम है कि आगे की भेड़ हमें कहां ले जा रही है और न हम यह जानते हैं कि हमारे पीछे और कितनी भेड़ें चली आ रही हैं। एलिस की तरह अपने हक़ों का सामान्य-बोध तक हमारे पास नहीं हैं। अपने अधिकार की रक्षा के लिए बाल-सुलभ दलीलें भी हम देने को तैयार नहीं हैं। और, बादशाह के अनुचित फ़रमान को बिना डरे अस्वीकार करने का तो हम सोच भी नहीं सकते। हम अपने-अपने बादशाहों से भयभीत व्यक्तियों का समूह हैं। हमारे ये बादशाह हर गली-मुहल्ले, सरकारी-ग़ैरसरकारी दफ़्तर, शहर, ज़िलों और प्रदेशों में बैठे हैं। वे देश की राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक चौपालों पर आसीन हैं।
हमारी आश्चर्यविहीन मनोदशा का ही नतीजा है कि हमें इस पर कोई हैरत नहीं होती है कि जलीकट्टू पर पाबंदी क्यों लगी? हमें इस पर भी हैरत नहीं है कि यह पाबंदी क्यों हटी? हमें इस पर कोई आश्चर्य नहीं है कि नोटों पर पाबंदी क्यों लगी? हमें इस पर भी कोई हैरत नहीं है कि पचास दिन मांगने वाले प्रधानमंत्री पचास दिन बाद हमें कुछ बता क्यों नहीं रहे? हमें इस पर कोई आश्चर्य नहीं है कि आमिर खान और शाहरुख खान की फ़िल्में पांच अरब रुपए देखते-ही-देखते कैसे कमा लेती हैं? हमें इस पर भी हैरत नहीं है कि हमारी लोक-कलाएं अपनी ऐड़ियां क्यों रगड़ रही हैं? हमें 270 खरब रुपए से ज़्यादा के खर्च वाली भारत की बजट-पंचमी पर भी कोई आश्चर्य नहीं है और इस बात पर भी कोई हैरत नहीं है कि देश को 700 खरब रुपए का कर्ज़ चुकाना है। हमारी आंखें हर मसले पर उनींदी हैं। वह ज़माना अब नहीं रहा, जब कभी-कभार तो ऐसा हो ही जाता था कि आंखें फटी-की-फटी रह जाएं।
फतेहपुर में ददुआ का मंदिर बन गया, हमें कोई आश्चर्य नहीं हुआ। एक मसखरा कई साल से अपने टेलीविजन कार्यक्रम में अपनी पत्नी और उसके रिश्तेदारों का मखौल उड़ा रहा है और मनोरंजन की इस विधा पर हम हैरत में नहीं पड़ते। आपसी चुहलबाज़ियों में चलते-चलाते उग जाने वाले विचार देश की नीतियां बन जाते हैं और हमें कभी आश्चर्य नहीं होता। शिखर पर विराजे लोक-नायक संजीदा विचारों की जगह ज़ुमलों की बरसात करते हैं और हमें हैरत नहीं होती। पूंजीवाद की फर्राटा मारती यारबाज़ी की रफ़्तार हमें आश्चर्यचकित नहीं कर रही। पैसा नहीं होने की वजह से इलाज़ के अभाव में गुज़र गई अपनी पत्नी का शव अस्पताल से घर तक कंधे पर ले जाते बेबस का चेहरा भी हमें आश्चर्य में नहीं डालता। ये तमाम अंतर्विरोध और अतिरंजनाएं हमारे मन में कोई चिंता नहीं जगातीं, क्या यह चिंता की बात नहीं है?
भारत की आधी आबादी कोई औपचारिक काम नहीं करती है। जो बहुत छोटे हैं, वे काम नहीं कर नहीं सकते। जो बहुत बूढ़े हैं, वे भी कैसे काम करें? लेकिन इनके अलावा करोड़ों लोग ऐसे भी हैं, जो काम कर सकते हैं, लेकिन जिनके पास काम नहीं है। जो 40-45 करोड़ लोग काम करते हैं, उनमें से क़रीब 20 करोड़ खेती-किसानी से जुड़े कामों में लगे हैं। इनमें से, आधे से कुछ ज़्यादा, 11 करोड़ खेतिहर मज़दूर हैं। साढ़े चार करोड़ लोग छोटे-बड़े कारखानों में काम करते हैं। डेढ़ करोड़ लोग भवन-सड़क निर्माण जैसे कामों में लगे हैं। साढ़े तीन करोड़ लोग दुकान, रेस्तरां, ढाबा चलाने जैसा छोटा-मोटा कारोबार करते हैं। दो करोड़ लोग घरेलू और कुटीर उद्योगों में काम कर रहे हैं।
औपचारिक कामकाज में लगे लोगों में एक चौथाई से ज़्यादा महिलाएं हैं। क्या हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि सरकार ने अपने ताज़ा बजट में इन सबकी कुछ ख़ास चिंता नहीं की है। वह अगले दो साल में एक करोड़ परिवारों को ग़रीबी की सीमा रेखा के ऊपर लाने का वादा कर रही है। यानी पचास लाख परिवार प्रति वर्ष। यानी क़रीब 14 हज़ार परिवार प्रतिदिन। ग़रीबी की सीमा रेखा है क्या? गांवों में जो 32 रुपए रोज़ और शहरों में 47 रुपए रोज़ से ज़्यादा कमाता है, सरकार के लिए वह ग़रीब नहीं है। फिर भी 31 करोड़ से ज़्यादा लोग ग़रीबी की सीमा रेखा के नीचे हैं। क्या अपनी सरकार के इस लक्ष्य पर हमें आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए? अपने दीये को चांद बताने के लिए पूरी बस्ती का चिराग़ बुझाने की करतूतों पर भी जिन्हें हैरत नहीं हो रही, वे अपने लिए कैसी दुनिया रच रहे हैं, वे नहीं जानते! जब वे जानेंगे, तब आश्चर्य का सदमा उन्हें ले बैठेगा। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।
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