लोकसभा में नरेंद्र भाई ने नोटबंदी को ‘लड़ाई का मौसम’ बताया। कहा कि ‘‘एक तरफ़ देश को लूटने वाले थे और एक तरफ़ देश को ईमानदारी की तरफ़ ले जाने का मोर्चा लगा हुआ था। लड़ाई हर पल चल रही थी।’’ और, जब युद्ध हो रहा हो तो नरेंद्र भाई का हक़ था कि वे डाल-डाल पर बैठे लुटेरों को जवाब देने के लिए पात-पात साधते। इसलिए अगर उन्होंने नोटबंदी के पचास दिनों में सौ बार नियम बदले तो क्या ग़लत किया? अपने ही मुल्क़ से लड़ता और बात-बात पर ताल ठोकता प्रधानमंत्री हम पहली बार देख रहे हैं। उनका यही तेवर हमें अभी तब तक देखना है, जब तक वे सिंहासन पर आसीन हैं।
जिनके मन में हो, वे जानें, लेकिन नरेंद्र भाई के मन में कोई दुविधा नहीं है। लोकसभा में उन्होंने साफ़ कह दिया है कि अगर आप अपने अंतरपट में खोजेंगे तो उसमें छिपा हुआ खोट आपको नज़र आ जाएगा। और, यह काम आपको करना है, आपको। नरेंद्र भाई के पास अंतरपट है या नहीं, मालूम नहीं, लेकिन अगर है भी तो उन्हें अपने अंतरपट पर नाज़ है, क्योंकि उसमें कोई खोट छिपा हुआ नहीं है। इसीलिए उन्होंने दार्शनिक-भाव से लोकसभा में कहा कि ‘सरकार नियमों से चलती है, ज़िम्मेदारियों से चलती है। जो नियम आपके लिए थे, वही हमारे लिए भी हैं। लेकिन कार्य-संस्कृति का फ़र्क़ होता है।’ अब पुरानी और नई कार्य-संस्कृति में अंतर का अंदाज़ आप खुद लगाते रहिए। नरेंद्र भाई का मन तो इस संतोष से सराबोर है कि जो लोग पहले पूछा करते थे कि ‘कितना गया’ अब वे पूछते हैं कि ‘कितना आया’? इससे ज़्यादा संतोष नरेंद्र भाई को और क्या होगा जी?
नरेंद्र भाई ने लोकसभा में यह भी बता दिया कि आपको उनका ठीक से अध्ययन करने की ज़रूरत है। अपने देश के प्रधानमंत्री को अभी आप समझे ही कहां हैं? उन्होंने कहा कि ‘ऐसा मत सोचिए कि हड़बड़ी में कुछ होता है। इसके लिए आपको मोदी का अध्ययन करना होगा।’ नरेंद्र भाई इसलिए भीतर से इतने पुलकित हैं कि उनका देश अब अपने प्रधानमंत्री के बारे में कोई भी पूर्वानुमान नहीं लगा सकता। स्वतंत्र भारत को पहली बार ऐसा प्रधानमंत्री मिला है, जो कब क्या करेगा, पता नहीं। वह कब पहाड़ों में आए भूकंप के दर्द को झटक कर परे कर देगा और उसे सियासी खिल्ली का रूप दे देगा, आप सोच भी नहीं सकते। नरेंद्र भाई को चूंकि दूसरों के मैदान में खेलने का शौक है, इसलिए वे धरती मॉ के रूठने को सांसारिक सियासत से जोड़ने का संवेदनहीन काम करने को भी तैयार हैं।
इस बार राज्यसभा में तो हमारे प्रधानमंत्री की गुलेलबाज़ी ने उनके अंतरपट को पूरी तरह वस्त्रहीन ही कर दिया। पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा नोटबंदी को लूट और डकैती बताने की वज़ह से बिलबिला रहे नरेंद्र भाई ने अपना बदला चुकाने के लिए कह डाला कि ‘ पिछले सत्र में मनमोहन सिंह जी बोले थे। 70 साल में से 30-35 साल आर्थिक क्षेत्र में निर्णय से उनका सीधा संबंध रहा है। उनकी निर्णायक भूमिका रही है। देश में अर्थजगत का शायद ही अकेला कोई ऐसा व्यक्ति होगा जिसका हिंदुस्तान की 70 साल की आज़ादी में आधे समय इतना दबदबा रहा हो। इस बीच कितने ही घोटालों की बात सामने आई। हमारे राजनेताओं के लिए डॉक्टर साहब से बहुत कुछ सीखने जैसा है। इतना सारा हुआ, लेकिन उन पर एक दाग़ नहीं लगा। बाथरूम में रेनकोट पहन कर नहाना, इस कला को तो डॉक्टर साहब ही जानते हैं और कोई दूसरा नहीं।’
एक नीतिगत फ़ैसले पर पूर्व प्रधानमंत्री की सैद्धांतिक टिप्पणी के जवाब में इस तरह का निजी हमला करते हुए अपने किसी मौजूदा प्रधानमंत्री को हमारा देश शायद पहली बार ही देख रहा है। माधव गोड़बोले की किताब नरेंद्र भाई के दिमाग़ पर पिछले एक बरस से छाई हुई है। उन्होंने गोड़बोले के संस्मरणों का जिक्र इस बार भी संसद में किया। अगर ऐसे संस्मरणों का बखान प्रधानमंत्री के मुखारविंद से सुनना ही संसद की दीवारों के नसीब में लिखा है तो फिर आमोद-प्रमोद और रंजन-मनोरंजन के भाजपाई दौर के बारे में किताबी-संस्मरणों के जिक्र से हमारे सदन कब तक वंचित रह पाएंगे? चार्वाक के ‘ऋणम कृत्वा घृतम पीवेत’ के तीर बरसाने वाले नरेंद्र भाई को यह भूलने की आज़ादी क्यों है कि दिल्ली से ले कर गांधीनगर तक भाजपा के दिनों में कंबल ओढ़ कर कौन-कौन घी पीते रहे हैं? आज के राजनीतिकों को यह कला भी तो नरेंद्र भाई और अमित भाई से ही सीखनी होगी कि गुजरात में इतना सारा हुआ, लेकिन किस-किस पर लगे दाग़ किस तरह रगड़-रगड़ कर पोंछ दिए गए।
नरेंद्र भाई ने राज्यसभा में एक ही बात एकदम सही कही कि ‘शहर तुम्हारा, क़ातिल तुम, शाही तुम, हाक़िम तुम…’। ज़ाहिर है कि क़सूर तो हमारा ही निकलेगा। शिखर पर बैठे दिलों में अहसासों की नदियां जब सूख जाती हैं तो संसदीय चर्चा में एक प्रधानमंत्री की भाषा भी ऐसी हो जाती है, यह अब मालूम हुआ। लोकतंत्र के पर्वत पर बैठी हस्तियां जब दूसरों की हंसी उड़ाने के लिए किसी भी हद तक लुढ़कने का मन बना लें तो संसदीय विमर्श का छिछोरापन देखने के अलावा हम सबके पास और क्या चारा बचता है? छोटों के संकोच ने आज भी हमारे जनतंत्र की जड़ें जमा रखी है, लेकिन अगर बड़े अपने किए पर शर्मिंदा होना नहीं सीखेंगे तो लोकतंत्र का बरगद कब तक हरा-भरा रहेगा? श्रेष्ठता का इतना अहंकार किसी के लिए भी ठीक नहीं। व्यवस्था बनाना अलग बात है और व्यवस्था के छद्म में जीना एकदम अलग बात।
आसमान की तरफ़ जाती सीढ़ियां करुणा सिखाती हैं, लेकिन जो उन पर चढ़ते हुए भी कूररता सीखें, उन्हें शास्त्रों में अभागा माना गया है। हमारे पारंपरिक चिंतन में परिवार, समाज और राज्य के मुखिया को रक्षक और सखा-भाव से आचरण करने की सलाह दी गई है। मैं जानता हूं कि आप किसी की भी सलाह लेना अपनी शान के खिलाफ़ समझते हैं। लेकिन एकांत के क्षणों में कम-से-कम खुद से तो मशवरा करना सीखिए, नरेंद्र भाई! हमने तो आपको प्रधानमंत्री बना दिया। लेकिन हम तो अब तक उस दिन का इंतज़ार ही कर रहे हैं, जब आप खुद भारत के प्रधानमंत्री बनेंगे। ( लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)
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