BY: PANKAJ SHARMA
कौन किसका चेला था, कहना मुश्किल है, लेकिन दुनिया की निगाह में अदनान खाशोगी चंद्रास्वामी के चेले थे। अपने गुरू के दिल्ली में अंतिम संस्कार के तेरहवें दिन लंदन में खाशोगी भी चल बसे। गुरू 66 की उम्र में गए और शिष्य 82 की उम्र में इस मंगलवार को सिधारे। खाशोगी के जाने ने 26 बरस पहले 1991 की फरवरी के अंतिम दिनों की याद दिला दी, जब वे दिल्ली आए थे। हथियारों के अंतरराष्ट्रीय सौदागरी के उनके किस्सों की कुख्याति चंद्रास्वामी के सौजन्य से भारतीय गलियारों में भी अपने चरम पर थी। ऐसे में अपने दो बेटों–मुहम्मद और उमर–के साथ जब खाशोगी का निजी डीसी-10 विमान ठिठुरती दिल्ली में उतरा तो सियासी माहौल में लपटें उठने लगीं।
चंद्रशेखर प्रधानमंत्री थे। खाशोगी को विमानतल पर लेने तीन ख़ास लोग पहुंचे। चंद्रास्वामी के बगलगीर कैलाशनाथ अग्रवाल, चंद्रशेखर के निजी सचिव सी. बी. गौतम और भारतीय जनता पार्टी के नेता डॉ. जे. के. जैन। अग्रवाल मामाजी के नाम से मशहूर थे और चंद्रास्वामी की परछाईं थे। उनके बिना चंद्रास्वामी के रहस्यलोक में पत्ता भी नहीं हिलता था। गौतम चंद्रशेखर के साथ बरसों से जुड़े हुए थे, कहने को निजी सचिव थे, लेकिन सब-कुछ ही थे। जैन मेनका गांधी से उनकी पत्रिका ‘सूर्या’ खरीद कर वर्षों पहले ही अपनी खुराफ़ात का डंका बजा चुके थे और मीडिया-मुगल बनने के रास्ते पर तेज़ी से बढ़ रहे थे।
विमानतल से खाशोगी सीधे प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के पास पहुंचे। वे भोंडसी के अपने आश्रम में थे। चंद्रास्वामी पहले से उनके साथ थे। चंद्रशेखर के दौर में हालत यह हो गई थी कि पेट्रोल-डीजल और दूसरी ज़रूरी चीज़ों के आयात का उधार चुकाना मुश्किल हो गया था और सरकार 400 मिलियन डॉलर (आज के हिसाब से क़रीब पौने तीन सौ करोड़ रुपए) का कर्ज़ लेने के लिए बैंक ऑफ इंग्लैंड और बैंक ऑफ जापान के पास देश का 47 टन सोना गिरवी रखने की तैयारी कर रही थी। चंद्रशेखर से खाशोगी की लंबी बातचीत हुई और रिस-रिस कर बाहर आई ख़बरें तब कहती थीं कि खाशोगी ने अपनी मुलाकात में चंद्रशेखर से दो ख़ास बातें कहीं। एक तो यह कि वे सऊदी अरब से भारत को चार बिलियन डॉलर (आज के हिसाब से पौने तीन हज़ार करोड़ रुपए) का कर्ज़ दिलवा सकते हैं। और, दूसरी यह कि उन्हें मालूम है कि बोफोर्स तोप सौदे में दलाली की रकम जोर्डन होते हुए किस तरह कहां पहुंची और वे इसके सबूत जुटा कर उन्हें दे सकते हैं। खाशोगी ने अपना जाल फेंका। चंद्रशेखर कितना फंसे, कौन जाने! राजीव गांधी विपक्ष में थे। उनका सुरक्षा इंतजाम पहले की तरह मज़बूत नहीं रह गया था। खाशोगी की भारत यात्रा के ढाई महीने बीतते-बीतते श्रीपेरुंबुदूर में राजीव गांधी की हत्या हो गई।
खाशोगी दिल्ली में चार दिन रुके। उनसे खुल्लमखुल्ला और गुचपुच मिलने वालों की फे़हरिस्त लंबी है। लेकिन कुछ नाम जान लीजिए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नानाजी देशमुख, डॉ, सुब्रह्मण्यन स्वामी, फारूख अब्दुल्ला, ओमप्रकाश चौटाला, रोमेश भंडारी, विष्णु हरि डालमिया और उद्योगपति जयंत मल्होत्रा। नानाजी ग्रामीण अंचलों में कई सामाजिक परियोजनाएं चला रहे थे। खाशोगी ने उन्हें इस काम में आर्थिक सहयोग देने की पेशकश की। भाजपा के डॉ. जैन ने खाशोगी को अपने घर भोज दिया। खाशोगी पहुंचे तो जैन की पत्नी रागिनी ने आरती उतार कर उनकी अगवानी की। जैन की मॉ ने गुलाब की पंखुड़ियां बरसा कर खाशोगी का स्वागत किया। इस भोज में लालकृष्ण आडवाणी को भी पहुंचना था, मगर ऐन वक़्त पर वे किनारा कर गए। प्रधानमंत्री चंद्रशेखर भी इस भोज में पहुंचे। चंद्रास्वामी आधा दर्जन साधु-वेशधारियों के साथ रात्रिभोज में पधारे।
खाशोगी के पास एक फोन इस भोज के दौरान ही आना था, सो, आया और फौरन ऐसी खुस-पुस हुई, जो सब सुन लें कि खाशोगी को थोड़ी देर के लिए किसी एकांत कोने में जाना पड़ेगा, क्योंकि सऊदी अरब के राजा उनसे बात करना चाहते हैं। खाशोगी जैन-निवास के एक शयन-कक्ष में गए और ‘दूरभाषी-बातचीत’ के बाद लौट आए। संदेश साफ था कि वे दुनिया के किसी भी कोने में हों, संसार की तमाम हस्तियां उनसे बात किए बिना सोने नहीं जाती हैं।
चंद्रास्वामी के हरफ़नमौला ‘मामाजी’ ने भी एक दोपहर-भोज का आयोजन किया। वहां जामा मस्जिद के नायब इमाम अहमद बुखारी को, कहते हैं कि, खाशोगी ने समझाने की कोशिश की कि बाबरी मस्जिद को कहीं और बनाने में ही फ़ायदा है। बुखारी से कहा गया कि मस्जिद को हटा कर कहीं और बना लेने में कोई मज़हबी अड़चन नहीं है और जेद्दाह तक में मस्जिदों को कहीं और ले जाने की मिसालें हैं। खाशोगी ने यहां तक वादा किया कि अगर ज़रूरी हुआ तो वे इस बारे में सऊदी अरब के मौलवियों से फ़तवा तक जारी करा देंगे।
हथियारों के एक वैश्विक सौदागर से मिलने की ललक रखने वालों की कतार लगवाने में चंद्रास्वामी की कामयाबी पर हैरत होना इसलिए लाज़िमी है कि अमेरिका की न्यूयॉर्क फेडरल अदालत से बरी हुए खाशोगी को एक साल भी पूरा नहीं हुआ था और वे भारत की धरती पर थे। फिलीपीन्स के राष्ट्रपति मार्कोस फर्डिनेंड के 200 मिलियन डॉलर नकद ठिकाने लगाने से लेकर निकारागुआ में कोंत्रा बागियों को पैसा पहुंचाने के लिए सी.आई.ए. की मदद करने जैसे कारनामे खाशोगी दिखा चुके थे। मगर उनसे गलबहियां करने में अपने को धन्य समझने वालों की दिल्ली में कमी नहीं रही।
70-80 के दशक में आसमान की ऊंचाइयां छू रहे खाशोगी के खर्च का आकलन ‘इकानॉमिस्ट’ पत्रिका ने तब किया तो हल्ला मच गया था। आज अगर किसी को वैसी जीवन-शैली में रहना हो तो 15-20 करोड़ रुपए रोज़ लगेंगे। जी हां, हर रोज़। हालांकि ऐसा था नहीं, लेकिन लोग खाशोगी को दुनिया का सबसे अमीर आदमी समझने लगे थे। जानकार जानते हैं कि खाशोगी की दौलत जब अपने चरम पर थी तो उसका मूल्य क़रीब चार-साढ़े चार बिलियन डॉलर था। यानी आज के तक़रीबन तीन-सवा तीन हज़ार करोड़ रुपए। मगर खाशोगी के तीन बेड रूम वाले डीसी-8 और डीसी-10 विमान, बेडरूम में डेढ़-दो करोड़ रूपए के रूसी पलंग और शत्यॉ मार्गेक्स की वाइन बोतलों ने लोगों की आंखें ऐसी चुंधिया रखी थीं कि उस ज़माने में खाशोगी के बारे में जो कहा जाता था, उस पर कौन सवाल उठाता? शत्यॉ मार्गेस की सबसे सस्ती बोतल आज दो लाख रुपए में आती है। वैसे उसकी कीमत डेढ़ करोड़ रुपए बोतल तक जाती है।
मिस में स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद खाशोगी स्नातक करने अमेरिका क्या गए, उनकी किस्मत में चार चांद लग गए। सी.आई.ए. अधिकारियों, स्विस-बैंक प्रतिनिधियों, हथियार विक्रेताओं और वाशिंगटन के अंदरूनी सरकारी गलियारों के महारथियों के संपर्क में आ गए। निक्सन का नजदीकी चॉर्ल्स ‘बेबे’ रोबोजो खाशोगी का दोस्त बन गया। एक वक़्त ऐसा आया कि दुनिया में हथियारों की खरीद का एक बड़ा हिस्सा खाशोगी के ज़रिए संचालित होने लगा।
खाशोगी की संतानों में एक बेटी भी थी–नबीला। उसकी याद में खाशोगी ने लेज़र लैस 281 फुट लंबी अपनी यॉच का नाम नबीला रखा था। बाद में खाशोगी ने ‘नबीला’ डोनॉल्ड ट्रंप को बेच दी। खाशोगी नहीं चाहते थे कि ट्रंप नाव का नाम नबीला ही रखें। ट्रंप का भी ऐसा कोई इरादा नहीं था और वे तो उसका नाम बदल कर ‘ट्रप्स प्रिंसेस’ रखना तय भी कर चुके थे। लेकिन खाशोगी ने ‘नबीला’ नाम नहीं रखने के ऐवज में ट्रंप को भारी रियायत दी और 70 मिलियन डॉलर की ‘नबीला’ महज 29 मिलियन डॉलर में डोनॉल्ड ट्रंप की हो गई। वही ट्रंप आज अमेरिका के राष्ट्रपति हैं। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।)
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