Sunday, June 4, 2017

वंशवाद की सिंहासन-बत्तीसी का सच

आज़ादी के बाद सबसे अद्भुत सियासी-काइयांगिरी अगर कुछ हुई है तो ‘नेहरू-गांधी’को राजनीतिक वंशवाद का प्रतीक चिह्न बनाने की। व्यक्तियों और उनके वंशों द्वारा अनवरत सत्ता संचालन लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में अगर हिकारत की नज़र से देखा जाता है तो इस पर हाय-तौबा क्यों हो? लेकिन यह सवाल तो उठना ही चाहिए कि भारतीय राज-काज की वंशावलियों के लिहाज़ से नेहरू-गांधी परिवार पर लगाई जाने वाली तोहमत कितनी वाजिब है?
424 ईसा-पूर्व एक नंद वंश ने भारत पर क़रीब सौ बरस राज किया। फिर मौर्य वंश आया, कण्व वंश आया और सतवाहन वंश आया। चोला, कुषाण और गुप्त वंश आए। चालुक्य, राजपूत, परमार, यादव और सोलंकी आठवीं से बारहवीं सदी तक आए-गए। फिर उन्नीसवीं सदी तक मुगल, मराठा, त्रावणकोर, वगैरह-वगैरह राज करते रहे। वंश-राज के इस भारतीय धारावाहिक में नेहरू-गांधी वंश की सिंहासन-बत्तीसी की असलियत क्या है?
जवाहरलाल नेहरू के दादा गंगाधर नेहरू दिल्ली के कोतवाल थे। वे महज 34 बरस ही जिए। स्वाधीनता के लिए 1857 में हुई स्वाधीनता की पहली क्रांति के तीन साल बाद उनका निधन हो गया था। जवाहरलाल के पिता मोतीलाल नेहरू, गंगाधर के तीसरे बेटे थे। सबसे बड़े बंसीधर न्यायिक सेवा में थे और जगह-जगह स्थानांतरण की वजह से अपने कुनबे से जिंदगी भर दूर ही रहे। दूसरे बेटे नंदलाल नेहरू खेतरी राज्य के दीवान थे। उन दिनों राजपुताना और अब राजस्थान के खेतरी की शोहरत इसलिए है कि दुनिया को उसने विवेकानंद दिया। खेतरी के महाराज अजित सिंह ने नरेंद्र का नामकरण विवेकानंद किया और उन्हें शिकागो के उस धर्म-सम्मेलन में भेजा, जिसके बाद संसार में विवेकानंद की धूम मच गई।
कांग्रेस पार्टी जब अस्तित्व में आई तो मोतीलाल नेहरू 24 साल के भरे-पूरे जवान थे और भारत के स्वाधनता आंदोलन में बरसों से सक्रिय थे। 1919 के अमृतसर अधिवेशन में जब वे कांग्रेस के अध्यक्ष बने तो कांग्रेस का गठन हुए 34 साल बीत चुके थे और मोतीलाल की उम्र हो गई थी 58 बरस। तब अध्यक्ष एक साल के लिए बना करता था। 1928 के कलकोत्ता अधिवेशन में उन्हें जब एक बार फिर अध्यक्ष चुना गया तो वे 67 साल के हो रहे थे। तीन बरस बाद 70 की उम्र में उनका निधन हो गया। यानी कांग्रेस के बनने के बाद 34 साल तक तो कोई नेहरू-गांधी कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष बना ही नहीं था।
जवाहरलाल नेहरू 1929 के लाहौर अधिवेशन में पहली बार कांग्रेस अध्यक्ष बने। छह साल के अंतराल के बाद 1936 के लखनऊ अधिवेशन में वे फिर अध्यक्ष चुने गए और 1937 के फ़ैजपुर अधिवेशन में उन्हें तीसरी बार पार्टी अध्यक्ष बनने का मौक़ा मिला। यानी भारत की आज़ादी के पहले नेहरू-गांधी परिवार के सिर्फ़ दो लोग कांग्रेस के अध्यक्ष बने और सो भी कुल मिला कर छह साल के लिए। इस दौरान 45 लोग कांग्रेस अध्यक्ष बने। 1885 से 1947 तक के 61-62 वर्षों में से 55 साल तक कोई गै़र-नेहरू ही कांग्रेस का अध्यक्ष रहा। जब भारत आज़ाद हो रहा था तो कांग्रेस की कमान जे. बी. कृपलानी के पास थी।
आज़ादी के बाद के 70 साल में से भी क़रीब आधा समय कांग्रेस की कमान नेहरू-गांधी परिवार के हाथ में नहीं रही। इस दौरान 16 लोग कांग्रेस के अध्यक्ष बने और उनमें से सिर्फ़ चार नेहरू-गांधी परिवार के हैं। 132 साल के कांग्रेस इतिहास में सिर्फ़ 42 साल ही कांग्रेस की कमान नेहरू-गांधी ने संभाली है। पिछले 28 साल में नेहरू-गांधी नाम का कोई प्रधानमंत्री भी देश में नहीं हुआ, जब कि इस दौरान 15 साल कांग्रेस की सरकारें रहीं।
अब ज़रा दूसरे राजनीतिक दलों की वंशावली पर नज़र डालिए। भारतीय जनता पार्टी 1980 में बनी। इसके पहले वह जनसंघ थी, जिसकी स्थापना 21 अक्टूबर 1951 को श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने की थी। 1977 में जनसंघ का जनता पार्टी में विलय हो गया। जनता पार्टी टूटी तो 1980 में जनसंघ भाजपा के नए रूप में अवतरित हो गई। 37 साल में भाजपा का कमान दस लोगों ने संभाली है। इन 37 वर्षों में से 13 साल लालकृष्ण आडवाणी अध्यक्ष रहे। 6 साल अटल बिहारी वाजपेयी मुखिया रहे और 5 साल राजनाथ सिंह।
इससे पहले जब 26 साल तक भाजपा, जनसंघ थी तो 14 लोग उसके अध्यक्ष बने। उनमें से दो थे वाजपेयी और आडवाणी। वाजपेयी ‘68 से ‘73 तक पांच साल अध्यक्ष रहे और आडवाणी ‘73 से ‘77 तक चार साल। जनसंघ-भाजपा के 63 साल के संयुक्त इतिहास में 39 साल तक वाजपेयी-आडवाणी ने इस दक्षिणपंथी पार्टी पर राज किया है। यानी पूरे दो तिहाई समय।
वामपंथी सियासत की दास्तान भी कोई अलग नहीं है। मार्क्सवादी पार्टी 1964 में बनी थी और इन 53 वर्षों में पांच ही लोग उसके मुखिया हुए हैं। पी. सुंदरैया ने पार्टी पर 14 साल राज किया और ई. एम. एस. नंबूदिरिपाद ने भी 14 साल। हरकिशन सिंह सुरजीत 13 साल महासचिव रहे और प्रकाश करात 10 साल। कम्युनिस्ट पार्टी का 92 बरस का इतिहास भी ऐसी ही स्थितियों और बी. टी. रणदिवे, अमृत डांगे और इंद्रजीत गुप्ता जैसी दिग्गज हस्तियों को आठ-आठ आंसू रुलाने की घटनाओं से भरा हुआ है।
द्रविण राजनीति का हाल भी बेहाल रहा है। पेरियार और अन्नादुरई की सियासी छांह से निकल कर 1969 में द्रमुक और 1972 में अन्नाद्रमुक ने आकार लिया। पिछले 48 साल से एम. करुणानिधि द्रमुक के कर्ताधर्ता हैं। एम. जी. रामचंद्रन 15 साल अन्नाद्रमुक के मुखिया रहे। उनके बाद 1987 से ‘89 तक पार्टी पर कब्जे की छीना-झपटी चलती रही। जब जयललिता उस पर काबिज़ हो गईं तो 27 बरस तक वे ही सिंहासन पर जमी रहीं।
राममनोहर लोहिया की शपथ ले-ले कर अपने को धरती-पुत्र कहने वालों की हालत यह रही है कि 1992 में समाजवादी पार्टी का गठन होने के बाद से पूरी चौथाई सदी तो मुलायम सिंह यादव ने अपनी अध्यक्षीय कुर्सी किसी को छूने ही नहीं दी। अब दो-एक साल से कुनबाई मार-धाड़ में भी यह कुर्सी घर में ही इधर-उधर पेंग भर रही है। बहुजन समाज पार्टी कांशीराम ने 1984 में बनाई थी। 1990 तक वे खुद बसपा के मुखिया रहे। बाद में 13 साल तक मायावती ने उनकी बीमारी के नाम पर खड़ाऊं-राज चलाया और 2003 में कांशीराम के निधन के बाद बसपा की बाक़ायदा अध्यक्ष हो गईं। यानी 27 साल से बसपा उनके और सिर्फ़ उनके कब्जे में है।
शिवसेना का गठन बालासाहब ठाकरे ने 51 साल पहले किया था। 38 साल वे खुद उसके प्रमुख रहे। 13 साल से उनके बेटे उद्धव ठाकरे शिवसेना प्रमुख हैं। नवीन पटनायक ने बीजू जनता दल की स्थापना 20 साल पहले की थी और तब से वे ही उसके अध्यक्ष हैं। शरद पवार ने राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी 18 साल पहले बनाई थी और तब से किसी और को उसकी कमान नहीं सौंपी है। नेशनल कांफ्रेंस की कमान पिछले 78 साल में शेख अब्दुल्ला, फारूख और उमर के अलावा कब किसके हाथ में रही? पीडीपी को मुफ़्ती मुहम्मद सईद और महबूबा मुफ़्ती के अलावा 29 साल से कब किसी और की सरपरस्ती मिली?

इतने पर भी अर्धशिक्षित नवजात प्रवक्ताओं के हरावल दस्ते जब अपनी गर्दन मचका-मचका कर टेलीविजन के परदे पर नेहरू-गांधी वंशवाद को लानत भेजते हैं तो मुझे जनतंत्र की इस जमूरेबाज़ी पर तरस आता है। अतिशय व्यक्तिवादिता से सराबोर राजनीतिक दलों के लिए ज़रूरी हो गया है कि वे वंशवाद की नई परिभाषाएं रचें और लोकतंत्र के विमर्श को नाहक उन पटरियों पर न ठेलें, जो खाई की तरफ़ जाती हैं। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।)

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