मेरी तो समझ में ही नहीं आ रहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार और अमित शाह की अध्यक्षता वाली भारतीय जनता पार्टी को एतराज़ किससे था? राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी से या इफ़्तार से? जैसा कि होता है, राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने प्रधानमंत्री समेत केंद्रीय मंत्रिपरिषद् के सभी सदस्यों को इफ़्तार में आमंत्रित किया। भाजपा के सभी महत्वपूर्ण नेताओं को न्यौता भेजा। कौन किस मेज़ पर किस के साथ बैठेगा, तय किया। मगर कोई नहीं पहुंचा। यह ’न भूतो‘ तो था ही और ’भविष्यति‘ के संकेत भी इसमें साफ़ थे। प्रधानमंत्रियों और राष्ट्रपतियों के बीच पटरी न बैठना कोई नई बात नहीं है। लेकिन क़रीब-क़रीब ज़ाती-दुश्मनी के दौर में भी न तो किसी प्रधानमंत्री ने औपचारिक आचरण की मर्यादा को अब से पहले इस तरह ठेंगे पर रखा था और न किसी राष्ट्रपति ने। ज्ञानी जैल सिंह और राजीव गांधी के बीच चरम-तल्ख़ी के दौर में भी सार्वजनिक तौर पर सामूहिक बहिष्कार का ऐसा कोई दृश्य किसी ने नहीं देखा। फिर मोदी और मुखर्जी के बीच तो रिश्तों ने निजी-कड़वाहट की सीमा कभी छुई ही नहीं। उलटे, पिछले तीन बरस में ऐसे कई मौक़े आए हैं, जब दोनों ने एक-दूसरे की सचमुच मन से तारीफ़ की है। तो फिर ऐसा क्यों हुआ कि प्रधानमंत्री तो प्रधानमंत्री, कोई अदना-मंत्री भी, सरकार की तरफ़ से नुमाइंदगी करने राष्ट्रपति भवन नहीं पहुंचा? शाह तो शाह, कोई अनाम-सा पदाधिकारी भी भाजपा की हाज़िरी लगाने नहीं गया? यानी मोदी के मन में कहीं कोई तो गांठ है, जिसने उनकी सरकार और पार्टी को इफ़्तार के इस आयोजन से दूर रखा। ऐसा तो हो नहीं सकता कि मोदी इसलिए इफ़्तार में नहीं पहुंच पाए कि अगले दिन उन्हें विदेश यात्रा पर निकलना था, सारे मंत्री इसलिए नहीं पहुंच सके कि वे किसी-न-किसी ऐसी बैठक में व्यस्त थे कि उसे छोड़ नहीं सकते थे और भाजपा के सभी नेता जन-सेवा में इतने मशगूल थे कि कैसे वक़्त निकालते! पता नहीं, मोदी को मुखर्जी से अदावत थी या इफ़्तार से या इससे कि इफ़्तार का आयोजन मुखर्जी ने क्यों किया? जो हो, जो हुआ, उससे किसी का सिर नीचा हो-न-हो, लोकतंत्र का परचम ज़रूर आधा झुक गया। कोई नियम-क़ायदा सरकार और उसे चलाने वाले राजनीतिक दल के नुमाइंदों को राष्ट्रपति के हर आमंत्रण पर हाज़िर रहने का निर्देश देता हो, न देता हो, सर्वोच्च संवैधानिक आसंदी की इस तरह सरेआम अवहेलना करने की इजाज़त भी किसी आचार-संहिता में दर्ज़ नहीं है। मोदी अभी-अभी डोनॉल्ड ट्रंप से गलबहियां कर अमेरिका से लौटे हैं। लेकिन मुझे उनकी वह अमेरिका यात्रा याद आ रही है, जो उन्होंने प्रधानमंत्री बनने के चार महीने बीतते ही 2014 में की थी। जैसे सब ने सुना, मैं ने भी तब मेडिसन स्क्वेयर पर मोदी को यह बताते सुना था कि भारत तीन ऐसी शक्तियों का स्वामी है, जो दुनिया के किसी भी मुल्क के पास नहीं हैं। जब मोदी ने कहा कि, इन तीन ताक़तों में सबसे पहली है हमारा लोकतंत्र और यही हमारी सबसे बड़ी पूंजी है, तो तालियां थीं कि थमने का नाम नहीं ले रही थीं। मोदी बोले, ’भारत में लोकतंत्र सिर्फ़ व्यवस्था नहीं है, यह तो आस्था है‘। यह सुन कर तो उनके मुह से भी वाह निकल गया, जो मोदी की जीत पर आह भर रहे थे। लेकिन कौन जानता था कि मुंह-दिखाई के वक़्त का लिपा-पुता आकर्षक चेहरा तीन साल बीतते-बीतते लोकतंत्र के लिए ऐसा अनजाना हो जाएगा? अपने निर्वाचित प्रधानमंत्री को देख कर इस देश की टांगें पहले कब इस तरह कांपती थीं? मोदी के दिखाए सपनों का जैसा करुण-अंत हो रहा है, इसकी कल्पना उन्हें नहीं थी, जो 2014 में ’मोदी-मोदी‘ अलाप रहे थे। वे तो सोच रहे थे कि अच्छे दिन बस ये आए। उन्हें क्या मालूम था कि दो-तीन साल में ही उनका देश इस तरह हंटर-युग में प्रवेश कर जाएगा? नौजवान हाथों को कितना काम मिला, नौजवान जानें, लेकिन इतना ज़रूर हुआ है कि तमाम संवैधानिक संस्थान, अकादमियां, शोध इकाइयां और स्वायत्त संस्थाएं भाजपा के पितृ-संगठन के हवाले हो गई हैं। वर्तमान लोकतंत्र में एक व्यक्ति और उसका बैनर आगे है। लोक और तंत्र इतना पीछे चला गया है कि बिल्लौरी शीशे लगा कर भी किसी को दिखाई नहीं दे रहा। हालत यह हो गई है कि अपने हर करतब के महिमा-मंडन की होड़ में मोदी-मंडली को यह भी बचकाना नहीं लगा कि उसे एक नीतिगत फ़ैसले की तुलना देश के आज़ाद होने जैसी युगांतरकारी घटना से नहीं करनी चाहिए। आइए, हम सब उनकी समझ को सलामी दें, जिन्हें लगता है कि एक अखिल भारतीय टैक्स-प्रणाली को आधी रात संसद के केंद्रीय कक्ष से ठीक उसी तरह लागू किया जाना चाहिए था, जैसे 15 अगस्त 1947 को भारत की स्वतंत्रता का आगाज़ हुआ था। विपक्ष ने अपने को इस भोंडी नोटंकी से अलग कर देश की लाज रख ली। वरना इतिहास के पन्ने खुद पर दर्ज़ उन पंक्तियों की उपस्थिति से हमेशा शर्मसार होते, जो आने वाली पीढ़ियों को यह बताएंगी कि दो सौ बरस के संघर्ष के बाद गु़लामी से मुक्ति और भारत गणराज्य की स्थापना का महत्व सिर्फ़ इतना था गोया प्रादेशिक कर-व्यवस्थाओं की जगह एक पांच-स्तरीय संघीय कर-व्यवस्था अमल में आ गई हो। स्वतंत्र भारत की लोकतांत्रिक जड़ें ऐसे ही मजबूत नहीं हो गईं। यह बात वे नहीं समझ सकते, जिन्हें लगता है कि बहुसंख्यक समाज के एक बड़े वर्ग को उसके सशक्तिकरण के झूठे अहसास से सराबोर कर देना लोकतंत्र की मजबूती है। जो सोचते हैं कि देश के प्रतीक-व्यक्तित्वों को जानबूझ कर बौना बनाने से लोकतंत्र मजबूत होता है। जो समझते हैं कि परिधान और पगड़ियां बदल-बदल कर प्रस्तुति देने से लोकतंत्र मजबूत होता है। वे मानते ही नहीं कि लोकतंत्र तो तब मजबूत होता है, जब रहनुमाओं के मन में उदारता, समावेशिता और तटस्थता के भाव मजबूत होते हैं। इसलिए तय तो यह होना है कि छोटी-छोटी बातों में बंटते संसार को अपने छोटेपन से हम और भुरभुरा बनाना चाहते हैं या उसकी नींव में अपने बड़प्पन की फ़ौलाद भरना चाहते हैं। तय यह भी होना है कि जो भारत को भारत ही नहीं रहने देंगे, क्या लोग उन्हें अपना रहनुमा बना रहने देंगे? सियासत कितना ही मक्कारों का खेल हो, किसी भी मुल्क का अवाम मक्कारी को एक हद से ज़्यादा कब बर्दाश्त करता है? जिस देश के वासी अठारह महीने के आपातकाल को बयालीस साल बाद भी माफ़ नहीं कर पा रहे, क्या वे हेकड़ी और मनमानी के साए तले भारत के लोकतंत्र की जड़ों में बैठाए जा रहे भय को यूं ही भूल जाएंगे? जिन्हें लग रहा है कि चारों तरफ़ उनकी लोकप्रियता के गुलाब खिल रहे हैं, वे देश को चुभ रहे कांटों की अनदेखी कर रहे हैं। शासन करने की एक तहज़ीब होती है। विश्व-इतिहास के विद्यार्थी जानते हैं कि इस तहज़ींब की परवाह किए बिना बड़े-से-बड़े सूरमा भी कभी अपना राज लंबा नहीं चला पाए। मनुष्यलोक में वर्चस्व के विरुद्ध समानता की लड़ाई न बंद हुई है, न कभी होगी। फिर भारत तो मानवीय चेतना के चरम का उद्गम रहा है। इस चेतना को ऊपर से देख कर कुंद समझने वालों ने हमेशा गच्चा खाया है। इसलिए मौजूदा राज्य-व्यवस्था को यह समझने में देर नहीं करनी चाहिए कि हमारा देश आज एक व्यवस्था में नहीं, व्यवस्था के छद्म में जी रहा है और समय रहते अगर हम इससे नहीं उबरे तो यह आत्मघाती होगा। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।)
Saturday, July 1, 2017
रहनुमाओं के राज-काज की नई तहज़ीब
मेरी तो समझ में ही नहीं आ रहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार और अमित शाह की अध्यक्षता वाली भारतीय जनता पार्टी को एतराज़ किससे था? राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी से या इफ़्तार से? जैसा कि होता है, राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने प्रधानमंत्री समेत केंद्रीय मंत्रिपरिषद् के सभी सदस्यों को इफ़्तार में आमंत्रित किया। भाजपा के सभी महत्वपूर्ण नेताओं को न्यौता भेजा। कौन किस मेज़ पर किस के साथ बैठेगा, तय किया। मगर कोई नहीं पहुंचा। यह ’न भूतो‘ तो था ही और ’भविष्यति‘ के संकेत भी इसमें साफ़ थे। प्रधानमंत्रियों और राष्ट्रपतियों के बीच पटरी न बैठना कोई नई बात नहीं है। लेकिन क़रीब-क़रीब ज़ाती-दुश्मनी के दौर में भी न तो किसी प्रधानमंत्री ने औपचारिक आचरण की मर्यादा को अब से पहले इस तरह ठेंगे पर रखा था और न किसी राष्ट्रपति ने। ज्ञानी जैल सिंह और राजीव गांधी के बीच चरम-तल्ख़ी के दौर में भी सार्वजनिक तौर पर सामूहिक बहिष्कार का ऐसा कोई दृश्य किसी ने नहीं देखा। फिर मोदी और मुखर्जी के बीच तो रिश्तों ने निजी-कड़वाहट की सीमा कभी छुई ही नहीं। उलटे, पिछले तीन बरस में ऐसे कई मौक़े आए हैं, जब दोनों ने एक-दूसरे की सचमुच मन से तारीफ़ की है। तो फिर ऐसा क्यों हुआ कि प्रधानमंत्री तो प्रधानमंत्री, कोई अदना-मंत्री भी, सरकार की तरफ़ से नुमाइंदगी करने राष्ट्रपति भवन नहीं पहुंचा? शाह तो शाह, कोई अनाम-सा पदाधिकारी भी भाजपा की हाज़िरी लगाने नहीं गया? यानी मोदी के मन में कहीं कोई तो गांठ है, जिसने उनकी सरकार और पार्टी को इफ़्तार के इस आयोजन से दूर रखा। ऐसा तो हो नहीं सकता कि मोदी इसलिए इफ़्तार में नहीं पहुंच पाए कि अगले दिन उन्हें विदेश यात्रा पर निकलना था, सारे मंत्री इसलिए नहीं पहुंच सके कि वे किसी-न-किसी ऐसी बैठक में व्यस्त थे कि उसे छोड़ नहीं सकते थे और भाजपा के सभी नेता जन-सेवा में इतने मशगूल थे कि कैसे वक़्त निकालते! पता नहीं, मोदी को मुखर्जी से अदावत थी या इफ़्तार से या इससे कि इफ़्तार का आयोजन मुखर्जी ने क्यों किया? जो हो, जो हुआ, उससे किसी का सिर नीचा हो-न-हो, लोकतंत्र का परचम ज़रूर आधा झुक गया। कोई नियम-क़ायदा सरकार और उसे चलाने वाले राजनीतिक दल के नुमाइंदों को राष्ट्रपति के हर आमंत्रण पर हाज़िर रहने का निर्देश देता हो, न देता हो, सर्वोच्च संवैधानिक आसंदी की इस तरह सरेआम अवहेलना करने की इजाज़त भी किसी आचार-संहिता में दर्ज़ नहीं है। मोदी अभी-अभी डोनॉल्ड ट्रंप से गलबहियां कर अमेरिका से लौटे हैं। लेकिन मुझे उनकी वह अमेरिका यात्रा याद आ रही है, जो उन्होंने प्रधानमंत्री बनने के चार महीने बीतते ही 2014 में की थी। जैसे सब ने सुना, मैं ने भी तब मेडिसन स्क्वेयर पर मोदी को यह बताते सुना था कि भारत तीन ऐसी शक्तियों का स्वामी है, जो दुनिया के किसी भी मुल्क के पास नहीं हैं। जब मोदी ने कहा कि, इन तीन ताक़तों में सबसे पहली है हमारा लोकतंत्र और यही हमारी सबसे बड़ी पूंजी है, तो तालियां थीं कि थमने का नाम नहीं ले रही थीं। मोदी बोले, ’भारत में लोकतंत्र सिर्फ़ व्यवस्था नहीं है, यह तो आस्था है‘। यह सुन कर तो उनके मुह से भी वाह निकल गया, जो मोदी की जीत पर आह भर रहे थे। लेकिन कौन जानता था कि मुंह-दिखाई के वक़्त का लिपा-पुता आकर्षक चेहरा तीन साल बीतते-बीतते लोकतंत्र के लिए ऐसा अनजाना हो जाएगा? अपने निर्वाचित प्रधानमंत्री को देख कर इस देश की टांगें पहले कब इस तरह कांपती थीं? मोदी के दिखाए सपनों का जैसा करुण-अंत हो रहा है, इसकी कल्पना उन्हें नहीं थी, जो 2014 में ’मोदी-मोदी‘ अलाप रहे थे। वे तो सोच रहे थे कि अच्छे दिन बस ये आए। उन्हें क्या मालूम था कि दो-तीन साल में ही उनका देश इस तरह हंटर-युग में प्रवेश कर जाएगा? नौजवान हाथों को कितना काम मिला, नौजवान जानें, लेकिन इतना ज़रूर हुआ है कि तमाम संवैधानिक संस्थान, अकादमियां, शोध इकाइयां और स्वायत्त संस्थाएं भाजपा के पितृ-संगठन के हवाले हो गई हैं। वर्तमान लोकतंत्र में एक व्यक्ति और उसका बैनर आगे है। लोक और तंत्र इतना पीछे चला गया है कि बिल्लौरी शीशे लगा कर भी किसी को दिखाई नहीं दे रहा। हालत यह हो गई है कि अपने हर करतब के महिमा-मंडन की होड़ में मोदी-मंडली को यह भी बचकाना नहीं लगा कि उसे एक नीतिगत फ़ैसले की तुलना देश के आज़ाद होने जैसी युगांतरकारी घटना से नहीं करनी चाहिए। आइए, हम सब उनकी समझ को सलामी दें, जिन्हें लगता है कि एक अखिल भारतीय टैक्स-प्रणाली को आधी रात संसद के केंद्रीय कक्ष से ठीक उसी तरह लागू किया जाना चाहिए था, जैसे 15 अगस्त 1947 को भारत की स्वतंत्रता का आगाज़ हुआ था। विपक्ष ने अपने को इस भोंडी नोटंकी से अलग कर देश की लाज रख ली। वरना इतिहास के पन्ने खुद पर दर्ज़ उन पंक्तियों की उपस्थिति से हमेशा शर्मसार होते, जो आने वाली पीढ़ियों को यह बताएंगी कि दो सौ बरस के संघर्ष के बाद गु़लामी से मुक्ति और भारत गणराज्य की स्थापना का महत्व सिर्फ़ इतना था गोया प्रादेशिक कर-व्यवस्थाओं की जगह एक पांच-स्तरीय संघीय कर-व्यवस्था अमल में आ गई हो। स्वतंत्र भारत की लोकतांत्रिक जड़ें ऐसे ही मजबूत नहीं हो गईं। यह बात वे नहीं समझ सकते, जिन्हें लगता है कि बहुसंख्यक समाज के एक बड़े वर्ग को उसके सशक्तिकरण के झूठे अहसास से सराबोर कर देना लोकतंत्र की मजबूती है। जो सोचते हैं कि देश के प्रतीक-व्यक्तित्वों को जानबूझ कर बौना बनाने से लोकतंत्र मजबूत होता है। जो समझते हैं कि परिधान और पगड़ियां बदल-बदल कर प्रस्तुति देने से लोकतंत्र मजबूत होता है। वे मानते ही नहीं कि लोकतंत्र तो तब मजबूत होता है, जब रहनुमाओं के मन में उदारता, समावेशिता और तटस्थता के भाव मजबूत होते हैं। इसलिए तय तो यह होना है कि छोटी-छोटी बातों में बंटते संसार को अपने छोटेपन से हम और भुरभुरा बनाना चाहते हैं या उसकी नींव में अपने बड़प्पन की फ़ौलाद भरना चाहते हैं। तय यह भी होना है कि जो भारत को भारत ही नहीं रहने देंगे, क्या लोग उन्हें अपना रहनुमा बना रहने देंगे? सियासत कितना ही मक्कारों का खेल हो, किसी भी मुल्क का अवाम मक्कारी को एक हद से ज़्यादा कब बर्दाश्त करता है? जिस देश के वासी अठारह महीने के आपातकाल को बयालीस साल बाद भी माफ़ नहीं कर पा रहे, क्या वे हेकड़ी और मनमानी के साए तले भारत के लोकतंत्र की जड़ों में बैठाए जा रहे भय को यूं ही भूल जाएंगे? जिन्हें लग रहा है कि चारों तरफ़ उनकी लोकप्रियता के गुलाब खिल रहे हैं, वे देश को चुभ रहे कांटों की अनदेखी कर रहे हैं। शासन करने की एक तहज़ीब होती है। विश्व-इतिहास के विद्यार्थी जानते हैं कि इस तहज़ींब की परवाह किए बिना बड़े-से-बड़े सूरमा भी कभी अपना राज लंबा नहीं चला पाए। मनुष्यलोक में वर्चस्व के विरुद्ध समानता की लड़ाई न बंद हुई है, न कभी होगी। फिर भारत तो मानवीय चेतना के चरम का उद्गम रहा है। इस चेतना को ऊपर से देख कर कुंद समझने वालों ने हमेशा गच्चा खाया है। इसलिए मौजूदा राज्य-व्यवस्था को यह समझने में देर नहीं करनी चाहिए कि हमारा देश आज एक व्यवस्था में नहीं, व्यवस्था के छद्म में जी रहा है और समय रहते अगर हम इससे नहीं उबरे तो यह आत्मघाती होगा। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।)
Posted by Pankaj Sharma at Saturday, July 01, 2017
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