Sunday, July 30, 2017

महामहिम रामनाथ कोविंद का स्वागत-गान


PANKAJ SHARMA
तीस बरस में पहली बार पूरे बहुमत से चुनी हुई सरकार बनाने का करिश्मा दिखाने वाले नरेंद्र भाई मोदी की पसंद के रामनाथ कोविंद 44 साल में सबसे कम वोट पा कर राष्ट्रपति बन गए। मुझे उनके यहां तक पहुंचने की इसलिए खुशी है कि दिल्ली की बारिश में उन्हें अपने गांव का कच्चा घर याद आया। मेरी आंखों के सामने भी अपने गांव का फूस की छत वाला वह कच्चा घर घूमता रहता है, जिसकी दीवारों को हम बचपन में तालाब से मिट्टी ला कर लीपा करते थे। राजधानियां जैसे-जैसे नज़दीक आती हैं, पीछे छूटे गांव की याद सभी को और ज़्यादा सालती ही है। लेकिन इन क्षणिक भावुकताओं के बहाव के बीच व्यक्ति की असली पहचान तो तब होती है, जब राजपथ की भावी यात्रा शुरू होती है। सो, बचपन की लोरियों के संगीत की हिलोरें हमारे महामहिम के मन में कितनी गहराई तक मौजूद हैं, इसे देखने को देश के पास 2022 तक का वक़्त है।
महामहिम लाख निष्पक्ष होते हुए भी चूंकि दलगत सियासत की प्रक्रिया से ही उपजते हैं, इसलिए हमेशा धर्म-संकट से घिरे रहते हैं। कोविंद के लिए तो उनके आपद्-धर्म का यह संकट और भी गहरा रहने वाला है। उन्हें रस्में भी निभानी होंगी, कसमें भी निभानी होंगी और रिश्ते-नाते भी निभाने होंगे। जब मैं सोलह बरस के आसपास का था तो एक फिल्म आई थी ‘रोटी, कपड़ा और मकान’। उसमें तमाम मशक़्कतों से गुज़रते नायक-नायिका ‘मैं ना भूलूंगी, मैं ना भूलूंगा’ गाते हुए संघर्षों से पार पाने का जज़्बा संजोए रहते थे। यह गीत इसलिए याद आया कि आज इसे गाने वाले मुकेश का जन्म दिन है। यह गीत इसलिए भी याद आया कि सियासत कोई फिल्म नहीं है कि इतनी आसानी से एक महामहिम अपनी कसम कभी न भूलने का इरादा कर सके। मुकेश की दूर कहीं क्षितिज से आती आवाज़ जब इस गीत में कहती थी कि ‘चलो राहें मोड़ें...कभी न संग छोड़ें...’ तो भावनाओं की झनझनाहट अपने शिखर पर पहुंच जाती थी। मगर आज की सियासत में राहें मोड़ने को कौन अपने गांव से निकला है? आज तो सियासत में सबकी राह एक-सी हो गई है।
रस्मों और रिश्ते-नातों को कभी न भूलने के भाव को स्वर देने वाले मुकेश यह गीत गाने के दो बरस बाद तो चल ही बसे थे। मुझ जैसे पता नहीं कितने लोग तो तब बालिग ही हो रहे थे। लेकिन अब जब भारतीय राजनीति की 33 साल पुरानी आबो-हवा ने उलट-करवट ले ली है, कोविंद-प्रसंग के बहाने मुझे मुकेश चंद्र माथुर आज इसलिए याद आ रहे हैं कि उनके गाए गीत सुन और सियासत के बदलते रंगों को देख जो बड़े हुए हैं, उन्हें ‘जाने कहां गए वो दिन’ का अहसास कम परेशान नहीं करता होगा। तीन दशक पहले राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति कांग्रेस की मर्ज़ी के हुआ करते थे। आज भाजपा की मर्ज़ी के हैं। देश के जितने राज्यों मंा तब कांग्रेस की सरकारें हुआ करती थीं, आज उतने में भाजपा की हैं। जनतंत्र की इस उलटबांसी से पैदा हुई लू से, ज़रूरत पड़ने पर, देशवासियों को बचाने के लिए कब किस शर्बत की तजवीज़ कोविंद पेश करेंगे, यह देखना तो अभी बाकी है।
मुझे महामहिम कोविंद से इसलिए उम्मीद है कि उन्होंने भारत के ग़रीबों को यह भरोसा दिलाया है कि वे उनके नुमाइंदे के तौर पर राष्ट्रपति भवन में प्रवेश कर रहे हैं। मुझे लगता है कि उन्होंने भी वह गीत ध्यान से सुना है, जिसमें एक दिन माटी के मोल बिक जाने और जग में सिर्फ़ अपने बोल रह जाने का शाश्वत-दर्शन मुकेश ने गाया था। यह गीत हमें बताता है कि अनहोनी पथ में कांटे लाख बिछाए, लेकिन जो सचमुच दिल वाला है, वह काहे घबराए! आइए, हम सब कामना करें कि 42 साल पहले आई फिल्म ‘धरम-करम’ का यह गीत महामहिम के राज-धर्म और काज-कर्म के निर्वाह के दौरान उनके दिल की मज़बूती बनाए रखे।
सावन के जिस महीने में कोविंद महामहिम बने हैं, उसमें पवन हमेशा ही ‘सोर’ करती रही है। इस बार तो यह शोर रस्म-अदायगी भर ही रहना था। तो भी कोविंद को पिछले चार दशक में राष्ट्रपति चुनाव लड़े लोगों में सबसे कम वोट मिले। यह बताता है कि अपनी लोकप्रियता का एवरेस्ट छूने के दौर में भी भाजपा और उसके सहयोगी दलों की आधारशिला दरअसल कितनी ठोस है। इसलिए नरेंद्र भाई मोदी का जियारा अगर ऐसे झूम रहा हो, जैसे जंगल में मोर नाचते हैं तो वे ‘सावन का महीना...’ गीत में दी गई इस सलाह पर गौर करें कि ‘नैया संभालो, कित खोए हो खिवैया...’। यह गीत मुकेश ने तब गाया था, जब नरेंद्र भाई 17 साल के थे। यह क्रॉस-वोटिंग की अपवित्रता पर खुद की पीठ ठोकने का समय नहीं है। आज तो नदिया की धारा को उसके इस सवाल का जवाब देना है, जो पूछ रही है कि जाना कहां है?
मतवाली चालों पर फूलों की डाल झुकने के तराने हम बचपन से सुन रहे हैं। तीन साल से इन तरानों का पुनर्छायांकन भी हम देख रहे हैं। लेकिन सियासत एक अजब शै है। यह अपने को हर एक पल का शायर समझने वालों को एक झटके में पल-दो-पल का शायर बना देती है। इतिहास ऐसी मिसालों से भरा पड़ा है। अपने लिए बुने जाते सात रंग के सपने देख-देख यह देश यहां तक पहुंच गया। सो, मैं महामहिम कोविंद को यह याद दिलाना चाहता हूं कि बिहार के मुंगेर ज़िले में एक गांव है घोरघट। महात्मा गांधी यहां 1934 में पहुंचे तो गांव के लोगों ने उन्हें एक लाठी भेंट की। बापू ने यह लाठी आजीवन अपने साथ रखी। मुझे नहीं पता कि कोविंद को उनके परौख गांव के रहवासियों ने कभी कोई लाठी भेंट की या नहीं। लेकिन अपने गांव की बारिश के दिनों की यादों की लाठी अगर अब वे आजीवन अपने साथ रखेंगे तो यह देश वैतरिणी पार कर लेगा। यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि 2015 की फरवरी की वह शुरुआत आज भी मेरी रूह कंपा देती है, जब मैं ने सौ से ज़्यादा निजी कंपनियों के मुख्य-कार्यकारियों को भाजपा की सदस्यता लेते और अपनी इस ऐतिहासिक उपलब्धि पर भाजपा को खुद की पीठ थपथपाते देखा था।

कोविंद जब राष्ट्रपति भवन में बैठेंगे तो उनके सामने एक तरफ़ भारत के करोड़ों ग़रीबों की आकांक्षाएं होंगी और दूसरी तरफ़ अपने उन पुराने हमजोलियों की इच्छाएं, जो स्वयं को हिंदू हृदय सम्राट मान कर झूम रहे हैं। समावेशी विकास के अपने लक्ष्य से भटके हुए देश को सही दिशा में ले जाने की ज़िम्मेदारी कोविंद के कंधे अगर झेल गए तो भारत नए गीत गुनगुनाएगा। लेकिन अगर भ्रमजाल से मुक्ति के आगामी यज्ञ में आहुतियां डालने से महामहिम के हाथ हिचक गए तो हम संप्रभुता और जनतंत्र की पराजय के शोक-गीत सुन रहे होंगे। कोविंद उस दौर में हमारे राष्ट्राध्यक्ष बन रहे हैं, जिस दौर में हिंसक और उत्तेजक भाषा बोई जा रही है; जिस दौर में हमारी विदेश नीति की तटस्थता और स्वतंत्रता गुम हो रही है; जिस दौर में बराबरी और आत्म-सम्मान के दावे देशद्रोह घोषित कर दिए गए हैं। क्या हम उम्मीद करें कि जब-जब दिन ढलेंगे, हमारे महामहिम एक रौशन चिराग़ लिए हमारे लिए खड़े मिलेंगे! (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।)

No comments: