हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी गुजरात के हैं तो क्या हुआ, गुजरात का हर व्यक्ति महात्मा गांधी तो होता नहीं, वरना साढ़े तीन बरस में अपनी कई ग़लतियां या तो नरेंद्र भाई ने की ही नहीं होतीं, या उनकी माफ़ी मांग ली होती। एक तो मुझे लगता है कि सत्ता की कुंभकर्णी ख़ुमारी प्रधानमंत्री की आंखों को असलियत देखने ही नहीं दे रही है, मगर अगर ऐसा नहीं भी होता और उन्हें अपनी ग़लतियों का अहसास हो भी जाता तो भी मुझे पूरा यक़ीन है कि वे अपने किए की माफ़ी कभी नहीं मांगते। इसलिए नहीं कि वे ज़िद्दी हैं। ज़िद्दी तो महात्मा गांधी भी थे। इसलिए कि नरेंद्र भाई अकड़ू हैं। अकड़ू होने में और ज़िद्दी होने में फ़र्क़ है। ज़मीन-आसमान का फ़र्क़। ज़िद, संकल्प की अनगढ़-पायदान है। अकड़ूपन, मनमानेपन की फूहड़ अभिव्यक्ति है।
सो, हमारे प्रधानमंत्री कभी नहीं मानेंगे कि नोट-बंदी की उनकी करतूत ने, उनके अपने आंकड़ों के हिसाब से, सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी की वृद्धि दर को तीन साल के सबसे निचले स्तर 5.7 प्रतिशत पर ला पटका है। यह तो वे बिलकुल भी नहीं मानेंगे कि अगर वृद्धि दर नापने का तराजू उन्होंने बदल ही नहीं दिया होता तो दरअसल यह आंकड़ा गिर कर 4.3 प्रतिशत पर पहुंच गया है। ऐसा बुरा हाल तो कभी हुआ ही नहीं था। 1951 से ले कर अब तक जीडीपी की सालाना वृद्धि दर औसतन 6.12 प्रतिशत बनी रही है। यह नरेंद्र भाई का कमाल है कि उन्होंने अर्थव्यवस्था के मंच पर लगाए अपने एक सियासी-ठुमके से ही उसे चारों खाने चित्त कर दिया।
खुदा भी आसमां से जब ज़मीं पर देखता होगा तो सोचता होगा कि नोट-बंदी की इतनी महबूब-प्रतिमा आख़िर कैसे गढ़ी गई होगी! जिस मूर्ति के आसपास नरेंद्र भाई और उनकी पूरी टोली तमाम मुमकिन ढोल-ताशे ले कर नाच-नाच थक गई, उसका ऐसा नतीजा? नए नोट छापने पर सरकार के यानी हमारे-आपके खर्च हो गए 21 हज़ार करोड़ रुपए और सरकार ने बचाए 16 हज़ार करोड़ रुपए। पांच हज़ार करोड़ रू का सीधा घाटा। नरेंद्र भाई तो दावा कर रहे थे कि उनका यह क़़दम काले धन को काल-कोठरी भेज देगा। लेकिन हुआ क्या? हुआ यह कि नोट-बंदी के पहले 15 लाख 44 हज़ार करोड़ रुपए की कीमत के जो नोट चलन में थे, उनमें से 15 लाख 28 हज़ार करोड़ रुपए के नोट बैंकों में वापस आ गए। सिर्फ़ 16 हज़ार 50 करोड़ के नोट वापस नहीं आए।
इनमें से हज़ारों करोड़ रुपए तो वे हैं, जिन्हें सहकारी बैंकों और सहकारी समितियों से सरकार ने लेने से ही इनकार कर दिया। जो लिए भी, अभी उनकी गिनती बाकी है। जाने-आने जमा कराने की अन्य झंझटों की वजह से भी छोटी-छोटी रकम देश-दुनिया के लोगों के पास रह गई। रिज़र्व बैंक के इने-गिने केंद्रों तक जा कर पैसा जमा कराने में उससे ज़्यादा पैसा खर्च हो जाता, सो, लोगों ने इल्लत नहीं पाली और इस तरह भी हज़ारों करोड़ रुपए अटके रह गए। तो काले धन को ले कर खुद के देश को संसार भर में बदनाम करती घूम रही सरकार अब तो बताए कि काला धन गया कहां? झेंप मिटाने को सरकार अब कह रही है कि नोट-बंदी का मक़सद सिर्फ़ काला धन बाहर लाना था ही नहीं।
नोट-बंदी के वक़्त ‘मर जाऊंगा, मिट जाऊंगा’ तेवर बरसाते हुए नरेंद्र भाई ने कहा था कि पड़ोसी देशों से आने वाले नकली नोट ख़त्म करने हैं। पूछा कि करने हैं कि नहीं करने हैं? कौन कहता कि नहीं करने हैं? पड़ोसी देश नकली नोट भेजते ही हैं। उन्हें चलन से बाहर न करने की बात कहने का देशद्रोह कैसे कोई करता? लेकिन अब पता चला है कि सिर्फ़ 41 करोड़ रुपए की कीमत के नकली नोट सामने आए हैं। हम धन्य हैं कि हमारे जांबाज़ प्रधानमंत्री नाक पर बैठी मक्खी उड़ाने के लिए तोप दागने से भी नहीं हिचके। नए नोट छापने के काम का इंतजाम देखने में उन्होंने सेना के 400 जवान लगाए। वायुसेना के 120 जवानों और पायलटों ने नोटों की खेप रात-दिन कर देश भर में पहुंचाई। 650 टन नोट इधर-उधर पहुंचाने के लिए वायुसेना के विमानों ने 40 उड़ाने भरीं।
सवा सौ लोग बैंकों के बाहर लगी कतारों में खड़े-खड़े मर गए। बैंक कर्मचारियों ने सवा लाख साल में करें, इतना अतिरिक्त काम किया। एक बैंक-कर्मी ने औसतन छह घंटे रोज़ अतिरिक्त काम किया। बाद में भी किया होगा, मगर कम-से-कम नोट-बंदी के पचास दिनों तक तो किया ही। बैंक-कर्मियों की तादाद के हिसाब से यह अतिरिक्त काम 36 करोड़ घंटे का है। यानी साढ़े चार करोड़ कार्यालयीन दिन। एक साल में पूरे 365 दिनों को भी कार्यालयीन मान लें तो एक लाख तेईस हज़ार साल। कहते हैं कि पूरे कलियुग की आयु 4 लाख 32 हज़ार साल की है। सो, नरेंद्र भाई ने पचास दिनों में इतना बैंक-कर्म करा दिया कि एक चौथाई कलियुग बीत जाए।
औपचारिक आंकड़े बताते हैं कि तीन साल में लाखों रोज़गार चले गए। लेकिन बारोज़गार-बेरोज़गार को गिनने की भारत में दरअसल कोई तय व्यवस्था ही नहीं है। इसलिए हमारे प्रधानमंत्री भले ही हर साल दो करोड़ नए रोज़गार सृजित करने का हसीन सपना देख या दिखा रहे थे, असलियत यही है कि करोड़ों रोज़गार ख़त्म हो गए हैं। ‘मेक इंन इंडिया’ की मरीचिका रच कर नरेंद्र भाई किसी परदेसी को तो अपने देश में ला नहीं पाए, देसी कारखाने ज़रूर एक-के-बाद-एक बंद होते जा रहे हैं। उनकी सरकार को लग रहा है कि मुद्रास्फीति अपनी निम्नतम दर पर है और देशवासी हैं कि बढ़ती महंगाई से हाय-हाय कर रहे हैं। अर्थव्यवस्था के पहियों को गति देने वाले हर उत्पाद की खपत बेतरह घटती जा रही है, फिर भी नरेंद्र भाई की सरकार को अच्छे दिन इतने नज़दीक दिखाई दे रहे हैं कि हाथ बढ़ा कर जब चाहें लपक लें।
सो, भारतीय शासन-व्यवस्था का मोदी-युग आईनों की हार का युग है। यह हर रोज़ एक नई कहानी परोस कर लोगों की उम्मीद जगाए रखने का युग है। हमारे देश को इसके दस्तूरों ने अब तक बचा रखा है। हमारे समाज में रोने-धोने के भी दस्तूर हैं। लोग खुद को दुनिया की निग़ाहों से बचा कर रोते हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे रोते नहीं हैं। आज उनका रोना न सुनने वाले कल आने वाली आंसुओं की सूनामी का अंदाज़ नहीं लगा पा रहे हैं। आम-जन के सियासी-फ़ैसले किसी के तर्कों से तय नहीं होते हैं। वे भीतर-ही-भीतर आकार लेते रहते हैं और वक़्त आने पर अपनी कूंची फेर देते हैं। साढ़े तीन साल से थोथा आत्मविश्वास टपकाते एक प्रधानमंत्री को देख-देख कर उकता गए लोगों की चुप्पी अब टूट रही है। देश की सूनी मुंडेर को झूठी आस दे कर बहलाने के दिन लद रहे हैं। लुंजपुंज विपक्ष के भरोसे खुद को पराक्रमी समझने वालों को कौन यह समझाए कि असली विपक्ष राजनीतिक समूहों की चारदीवारी से नहीं, जन-मानस की अवधारणाओं के बहाव से परिभाषित होता है। वह किसी चेहरे-मोहरे का मोहताज़ नहीं होता। जन-सोच की नदी का यह बहाव अब मोड़ ले चुका है। दिख रहा हो तो ठीक। न दिख रहा हो तो और भी ठीक।
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