गौरी लंकेश से मैं कभी नहीं मिला। वे मुझे नहीं जानती थीं। मैं भी उन्हें नहीं जानता था। उन्होंने कभी मेरा लिखा नहीं पढ़ा होगा और मुझे भी कभी उनका लिखा पढ़ने का मौक़ा नहीं मिला। उनकी हत्या से पता चला कि वे किस सोच की थीं और कैसा लिखती थीं। अपने इस अनजानेपन के बावजूद मैं पुख़्ता तौर पर मानता हूं कि गौरी को तीन गोलियां मारने वालों ने वैचारिक प्रवाह के खा़त्मे का जो रास्ता चुना है, वह उस क़ब्रगाह तक जाता है, जहां हमारे तहज़ीब की रूहें नहीं, हमारे बुनियादी संस्कारों के मुर्दे बसते हैं।
गौरी लंकेश के विचारों से सहमत होना ज़रूरी नहीं है। उनके विचारों को सुनना और गुनना भी ज़रूरी नहीं है। लेकिन जब तक कोई गौरी गाली-गलौज पर उतारू नहीं है और भाषाई मयार्दाओं के भीतर अपने विचारों का छिड़काव करती है, तब तक उसे प्रताड़ित करने वाले आप होते कौन हैं? और, अगर गौरी भाषाई शिष्टाचार की हदें पार भी कर रही है तो उसे दंडित करने का काम कोई शासन-व्यवस्था करेगी या कबीलाई-पहलवान? क्या किसी को भी सिर्फ़ इसलिए गोली मारी जा सकती है कि उसकी कही बातें कुछ लोगों को रास नहीं आ रही हैं?
मुखर पत्रकारों, साहित्यकारो और कलाकारों की अक़्ल ठिकाने लगाने के लिए हंटर-पिस्तौल ले कर घूमने की ऐसी ताब आख़िर कुछ लोगों के भीतर पैदा कैसे होती है? एक-दूसरे से उलट राय रखने वाले अपनी हिंसक अभिव्यक्ति के इस चरम तक पहुंचते कैसे हैं? असहमति में उठे हर हाथ को काटने के लिए उनकी म्यानों से तलवारें क्या यूं ही एकाएक निकल आती हैं? नहीं। यह तब होता है, जब शक्तिशाली व्यवस्थाएं चीज़ों की तरफ़ देखने का एक विशेष-नज़रिया प्रदान करती हैं। वे इस नज़रिए को बोती हैं, पालती-पोसती हैं और फिर उसकी फ़सल काटती हैं। जब देश के सिरमौर मीडिया को अपने भाषणों में बाज़ारू और पत्रकारों को बिकाऊ कहते हों तो उन्हें रास्ते से हटाने का ज़िम्मा अपने हाथ में ले लेना कइयों को अपना फ़र्ज़ लगने लगना स्वाभाविक है।
ऐसे में, पनसारे हों या डाभोलकर हों या कालबुर्गी--वे आंखों में इतने चुभने लगते हैं कि उनसे अंतिम निज़ात पाने का हुक़्मनामा आंखों-ही-आंखों में ज़ारी हो जाता है। गौरी लंकेश न पहली हैं न आख़िरी। बिहार में सीवान के राजदेव रंजन से लेकर सासाराम के धर्मेंद सिंह, गुजरात में जूनागढ़ के किशोर दवे, कोलकाता के इंद्रदेव यादव, उत्तर प्रदेश के तरुण मिश्रा, हेमंत यादव, जागेंद्र सिंह और संजय कुमार, मध्यप्रदेश के संदीप कोठारी और राजेश मिश्रा, छत्तीसगढ़ के उमेश राजपूत और साईं रेड्डी, मुंबई के ज्योतिर्मय डे, श्रीनगर के प्रदीप भाटिया और हैदराबाद के जगदीश बाबू तक बीसियों पत्रकारों के रक्त की बूंदें अभिव्यक्ति-विरोधियों के भाले पर आज भी दूर से दिखाई देती हैं।
दुनिया भर में भारत को पत्रकारिता के पेशे के लिए तीसरा सबसे खतरनाक देश ऐसे ही नहीं माना जाता है। पिछले पच्चीस वर्षों में पचासों पत्रकार अपनी पत्रकारीय अभिव्यक्ति की वजह से जान गंवा चुके हैं। अलग-अलग प्रशासनिक व्यवस्थाओं और निजी संगठनों/गिरोहों के हाथों प्रताड़ित होने वाले पत्रकारों की तादाद भी हज़ारों में हैं। जिसे हम सोशल मीडिया कहते हैं, उस पर हर रोज़ गालियां खाने वाले और धमकियां पाने वाले पत्रकारों-लेखकों-कलाकारों की तो गिनती ही कर पाना मुश्क़िल है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मामले में भारत दुनिया के 180 देशों में 136वें क्रम पर ऐसे ही नहीं पड़ा हुआ है।
बीसवीं सदी ने राष्ट्रीय आंदोलन से जो सकारात्मक ऊर्जा पाई थी, उसे बचाए रखने में हम पूरी तरह नाकाम रहे। अपने सामाजिक मूल्यों को हमने खुद तिरोहित कर दिया। अपनी सहिष्णुता को हम खुद ज्वालामुखियों के हवाले कर आए। अपने सद्भाव को हमने खुद तार-तार किया। मूल्यों के इस छीजते संसार में हमारा प्रवेश तो पता नहीं कब हो गया था, लेकिन इसकी नियोजित-बदशक़्ली का एक नया दौर तीन-चार बरस से देख-देख सब बेहाल हैं। लगता है, जैसे पूरा समाज दुनिया से जी भर जाने और जीते जी मर जाने की भंवरों में हिचकोले खा रहा है।
मीडिया की पक्षधरता अगर कुछ समय से सत्ता की तरफ़ नहीं, जनतंत्र की तरफ़ होती तो हालात इतने बुरे नहीं होते। आज गौरी लंकेश की हत्या पर फफक रहे पत्रकारों से यह कहे बिना मैं कैसे रहूं कि गौरी को सहानुभूति नहीं, समानुभूति चाहिए। यह दो-चार दिनों की नहीं, युगों-युगों की लड़ाई है। सत्ता-युग आते-जाते रहते हैं। लेकिन भेड़िए से एक बकरी को तो हमेशा लड़ते रहना होता है। उदार सत्ताएं भी आई हैं और आएंगी। अनुदार सत्ताएं भी आई हैं और आएंगी। लेकिन खूंखार सत्ता कभी-कभार आती है। ऐसी सत्ता के दौर में जो पत्रकार समानुभूति के अहसास को जाने-अनजाने अपने से दूर रखेंगे, इतिहास उन्हें आंसू बहाने की इजाज़त भी नहीं देगा। उन्हें आज यह तय करना होगा कि वे दरबारों में अपनी पूंछ का कत्थक दिखा कर इतराएंगे या जीने का सलीका और मरने का करीना सीखेंगे!
आज जो भी सौहार्द बचा हुआ है, आम लोगों की वजह से बचा हुआ है। सरकार के आधे काम अगर हम-आप न करते होते तो अब तक तो हम पता नहीं कहां होते? अगर हम एक ऐसा समाज बना लेंगे, जहां कोई किसी का नहीं होगा और सबको अपने दर्द अकेले ही झेलने होंगे तो फिर कौन-सी शक्ति हमें सर्वनाश से बचा पाएगी? चांदनी रात को मरने से बचाने के लिए खुद चांद तो ज़मीन पर उतरेगा नहीं। अपने हिस्से की चांदनी तो हमें ही बचा कर रखनी होगी। अगर हम ऐसा नहीं करेंगे तो हमारे दब्बूपन के लिए क्या कोई हमें कभी माफ़ करेगा?
मेरी टांगें इस कंपकंपाते माहौल के बीच भी इसलिए नहीं थरथरा रही हैं कि अब तक चुप बैठे लोगों के विवेक पर मेरा विश्वास अभी डिगा नहीं है। जो कन्नड़ जानते हैं, वे गौरी तक पहुंच गए। आपकी-मेरी क़िस्मत है कि बहुत-से लोग ठीक से हिंदी नहीं जानते हैं। उन्हें हिंदी अगर आती तो मुझको-आपको कच्चा चबा जाते। हंटर लहरा कर पूछते कि लिखा तो लिखा क्यों और पढ़ा तो पढ़ा क्यों? कुछ लोगों को ख़ामख़्याली है कि वे अपनी फूंक से सब-कुछ बुझा सकते हैं। इन्हें इतना तो हमें समझाना ही होगा कि शक्तियां जितनी ही आसुरी होने लगती हैं, उतनी ही अल्पायु होती जाती हैं। अब वह वक़्त क़रीब आ गया है, जब मुंह बंद करने वालों के मुह बंद हों।
मुझे नहीं मालूम कि गौरी लंकेश कितनी महान थीं? जो सोचते हैं कि वे कौन-सी ऐसी महान थीं कि सब छाती पीट रहे हैं, मुझे उनसे कोई शिकवा नहीं है। वे महान भले ही नहीं थीं, लेकिन वे मेरी उस पत्रकार-बिरादरी का प्रतीक-चिह्न बन गई हैं, जो हर तरह से खा़कनशीन होते हुए भी ‘कटते भी चलो, बढ़ते भी चलो’ की कठीमाला गले में डाले हुए है। ऐसे में डेरे मंज़िल पर ही डाले जाते हैं। इस बिरादरी के पास बाज़ू भी बहुत हैं और सिंर भी बहुत। लेकिन बहुमत तो पूंछों का है। बहुमत उनका है, जो अपनी क़श्तियां सजाए बैठे हैं। उन्हें इस बात का इल्म ही नहीं है कि वे संवेदनाओं की नदियों को सुखाने के अभियान का हिस्सा बन गए हैं। उन्हें फ़िक्र ही नहीं है कि जब ये नदियां पूरी तरह सूख जाएंगी तो उनकी क़श्तियों का होगा क्या?
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