बड़प्पन की कमी दोनों में ही है। केंब्रिज विश्वविद्यालय की उपाधि गले में लटकाए घूम रहे 76 साल के मणिशंकर वैद्यनाथ अय्यर में भी और अपनी स्नातक उपाधि विवाद में डूब-उतरा रहे 67 साल के नरेंद्र दामोदर दास मोदी में भी। हमारा बेचारा जनतंत्र इन दोनों की धींगामुश्ती में लगे ज़ख़्मों से कराहने को अभिशप्त है। मणिशंकर को कौन समझाए कि नरेंद्र मोदी सिर्फ़ नरेंद्र मोदी नहीं हैं, वे देश के प्रधानमंत्री भी हैं और इस नाते उनकी गरिमा का ध्यान रखना ज़रूरी है। नरेंद्र भाई को भी कौन समझाए कि वे नरेंद्र मोदी ही नहीं, इस देश के प्रधानमंत्री भी हैं और इस नाते अपनी गरिमा का ध्यान रखना उनके लिए भी ज़रूरी है। लेकिन अपनी कुश्ती की झौंक में दोनों अगर इस बात की परवाह न करें कि लोकतंत्र की फ़सल किस क़दर बर्बाद हो रही है तो हम-आप भी कुछ करें या टुकुर-टुकुर देखते भर रहें?
मणिशंकर ने हिंदी शब्दों की ना-समझी में यह सब कहा या जानबूझ कर, वे जानें। लेकिन नरेंद्र भाई ने तो जानबूझ कर इसे अपने मनचाहे रंग में रंगा। मैं मणिशंकर की कही बात से इत्तफ़ाक नहीं रखता हूं, लेकिन पूरे प्रसंग पर संतुलित निग़ाह रखने वालों में से कोई भी यह नहीं मानेगा कि उन्होंने भारत के प्रधानमंत्री की जाति पर कोई टिप्पणी की है। वे एक व्यक्ति के बारे में अपनी राय रख रहे थे। यह राय कुछ प्रश्नों के जवाब में ज़ाहिर की गई थी। अपना मत व्यक्त करते हुए मणिशंकर ने ग़लत शब्द का प्रयोग किया। वे बेहतर शब्दों का चयन कर सकते थे। लेकिन वे जो कह रहे थे, उसका अर्थ कहीं से भी यह नहीं था कि प्रधानमंत्री का जन्म जाति-व्यवस्था से जकड़े भारतीय समाज के किस तबके में हुआ है। जो अर्थ था, वह सोच-विचार के छोटेपन की तरफ़ संकेत करता था, सामाजिक ऊंच-नीच की तरफ़ नहीं।
संदर्भ से काट कर सिर्फ़ एक शब्द के इस्तेमाल को देखेने वालों की हाय-तौबा स्वाभाविक है। लेकिन अगर आपसे भी पूछा जाए कि देश की राजधानी में आंबेडकर अंतरराष्ट्रीय केंद्र का उद्घाटन करते वक़्त भारत के मौजूदा प्रधानमंत्री ने कहा है कि उनके पूर्ववर्तियों ने राष्ट्रनिर्माण में बाबासाहब के योगदान को मिटाने की कोशिशें कीं तो आप क्या जवाब देंगे? यही न कि इस तरह की बातें छोटी सोच का नतीजा हैं। मैं भी यह मानता हूं कि कोई और कहे तो कहे, किसी और मौक़े पर कहे तो कहे, मगर देश के प्रधानमंत्री द्वारा, आंबेडकर की अंतरराष्ट्रीय पहचान स्थापित करने के मक़सद से हो रहे एक औपचारिक समारोह के मौक़े पर, भारत के पूर्व प्रधानमंत्रियों के बारे में ऐसा कहना ओछापन है।
मौक़ा हाथ से जाने देना अगर नरेंद्र मोदी का स्वभाव होता तो वे प्रधानमंत्री ही कैसे बनते? सो, उनसे इस बड़प्पन की उम्मीद करना व्यर्थ है कि मणिशंकर की बतौलेबाज़ी की गेंद जब उनके हाथ में आ गई तो वे उसकी गुगली नहीं फेंकेंगे। चुनाव चल रहे हों, अपने गृह-राज्य में मतदान के पहले चरण के प्रचार का अंतिम दिन हो और नरेंद्र भाई पूरे मसले को जाति-सूचक घुमाव न दें तो फिर वे नरेंद्र भाई कैसे? उन्होंने वही किया, जो उनकी रग-रग में है। मौक़े का फ़ायदा जो न उठाए, उसे हम क्या कहेंगे? जिन्हें जंग में भी उसूल निभाने की पड़ी हो, वे अपनी जानें। हमारे प्रधानमंत्री के लिए जंग में सब जायज़ है।
इसलिए गुजरात की चुनावी सभाओं में मोदी को मणिशंकर बातों में अंग्रेज़ियत या कुलीनता या सवर्णता के नहीं, मुगल-मानसिकता के दर्शन हुए। अगर यह मान भी लिया जाए कि मणिशंकर ने नरेंद्र भाई को निचली जाति का बता डाला तो हिंदू समाज की इस वर्ण-व्यवस्था की सड़ांध से ‘मुगल-मानसिकता’ का क्या लेना-देना? लेकिन गुजरात की मिट्टी का मर्म मोदी से बेहतर कौन समझता है? इसलिए मणिशंकर को मालूम हो-न-हो, हमारे प्रधानमंत्री को अच्छी तरह मालूम है कि कहां किस भाषा का प्रयोग करना है। वो ज़माना भी गया, जब अपनी विनम्रता की गरिमा में लिपटा हीरा खुद अपने मुंह से कभी नहीं कहा करता था कि उसका मोल क्या है। सो, हीरों की नगरी सूरत में नरेंद्र भाई ने खुल कर मुंह खोला और सबको बताया कि उनके संस्कार कितने ऊंचे हैं और किस तरह ज़िंदगी में उन्होंने ऊंचे काम किए हैं।
राहुल गांधी ने मणिशंकर के खिलाफ़ कार्रवाई कर अपनी मर्यादा-पुरुष भूमिका अदा की है। उन्हें यही करना चाहिए था। चुनाव न भी होता तो राहुल-सोनिया यही करते। सार्वजनिक जीवन में शाब्दिक और व्यावहारिक शिष्टाचार के सख़्त पालन पर कांग्रेसी-नेतृत्व का हमेशा ज़ोर रहा है। ना-समझी में भी अगर मणिशंकर से किसी अनुचित शब्द का इस्तेमाल हो गया तो वे पार्टी से निलंबन की मंझधार में जा गिरे। मगर दूसरों की धर्मपत्नी को पचास करोड़ की गर्लफ्रेंड कहने वाले, कांग्रेस के एक नेता को अंतरराष्टीªय लव-गुरु कह कर लव-अफेयर्स मंत्रालय का मुखिया बनाने की सलाह देने वाले और पूरी कांग्रेस को दीमक घोषित कर देने वालों को तो किसी ने भी अपने कहे पर लजाते नहीं देखा। जो अपने बड़़े-बूढ़ों को ही ‘विधवा बुआ’ और ‘बासी अचार’ का खि़ताब देने से बाज़ नहीं आए, उनसे सार्वजनिक जीवन की मर्यादाओं का पालन करने की उम्मीद जिन्हें पालनी हो पालें।
मैं नरेंद्र भाई को प्रधानमंत्री बनने के बाद उनकी ज़िंदगी में आए दो दिनों की याद दिलाना चाहता हूं। दोनों दिन मैं ने उनकी बातों को बड़े ध्यान से सुना था। पहली बार, जब वे 28 सितंबर 2014 को न्यूयॉर्क के मैडिसन स्क्वेयर पर बोले थे। उस रविवार उन्होंने कहा थाः ‘‘चुनाव जीतना सिर्फ़ पद-ग्रहण नहीं होता, सिर्फ़ कुर्सी पर विराजने का कार्यक्रम नहीं होता, यह एक ज़िम्मेदारी होती है। ..... लोकतंत्र हमारी सबसे बड़ी शक्ति है। यह सिर्फ़ एक व्यवस्था नहीं, हमारी आस्था है। ..... अमेरिका ने जो इज़्जत कमाई है, अपने व्यवहार, संस्कार और क्षमता से कमाई है। ..... गांधी ने हमें आज़ादी दी। हमने उन्हें क्या दिया? क्या हम उन्हें साफ़-सुथरा हिंदुस्तान दे सकते हैं? ..... अगर सरल चीज़ों को हाथ लगाना होता तो लोग मुझे प्रधानमंत्री नहीं बनाते। मुश्क़िल काम करने के लिए ही तो बनाया है। .....’’
फिर भारत छोड़ो आंदोलन की 75वीं सालगिरह पर मैं ने लोकसभा में नरेंद्र मोदी का भाषण सुना। 9 अगस्त 2017 के उस बुधवार को बीते आज ठीक चार महीने हो रहे हैं। हमारे प्रधानमंत्री ने कहाः ‘‘कई काम करते वक़्त हमें लगता ही नहीं कि मैं कुछ ग़लत कर रहा हूं। ..... यह नेतृत्व की ज़िम्मेदारी होती है कि समाज में कर्तव्य-भाव को जगाए। .....’’
ऐसी अच्छी-अच्छी बातें करने वाले अपने प्रधानमंत्री से आज मैं सिर्फ़ इतना जानना चाहता हूं कि क्या वे जानते हैं कि सफल होने और सम्माननीय होने में फ़र्क़ है? क्या उन्हें मालूम है कि लोकप्रिय होना और महान होना दो अलग-अलग बातें हैं? जिस दौर में, खुद को जितना गिरा सकते हैं, उतना गिराने की होड़ चल रही हो, अपने ख़्वाब टूटते देख क्या हम अपनी आंखें फोड़ लें? नरेंद्र भाई, कृपया समझिए कि मुन्नी की बदनामी और शीला की जवानी चाहे सारे रिकॉर्ड तोड़ देती हो, मल्लिकार्जुन मंसूर और कुमार गंधर्व के गायन से इनकी कोई तुलना नहीं हो सकती। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)
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