Saturday, December 23, 2017

विपक्ष को सन्मति देने की राम-धुन गाने का समय


ऊपर-ऊपर से कुछ भी कहें, मगर भीतर-भीतर तो नरेंद्र भाई मोदी भी यह समझ गए हैं कि गुजरात तो उनके चंगुल से चला गया है। तकनीकी-रेखा से चूंकि सात सीटें भारतीय जनता पार्टी को ज़्यादा मिल गई हैं तो सरकार तो बन गई, लेकिन नाचता मोर अपने पंजों को देख कर खिसियाया घूम रहा है। जीत में हार और हार में जीत का जैसा गरबा गुजरात ने में हुआ, वैसा कब किसने देखा था? पछाड़ने वाले मायूस घूम रहे हों और पछाड़ खाने वाले मुस्करा रहे हों--ऐसा नज़ारा मुद्दतों में कभी देखने को मिलता होगा।
गुजरात के नतीजों का विश्लेषण हर कोण से हो चुका है। जबरन ढोल-मजीरे बजवा कर देख लिए, लेकिन किसी कोने से वह पायल नहीं खनकी, जो अमित भाई शाह का मन गदगद कर दे। भाजपा के पांव गुजरात नतीजों के बाद भारी हैं। थिरकने को उठ ही नहीं रहे। मन मार कर कब तक कोई ताताधिन्ना करे! सो, ओढ़ा हुआ ज़श्न चंद घंटों बाद ही ठंडा पड़ गया। नरेंद्र भाई की पेशानी पर पड़ी रेखाएं गहरा गई हैं। अमित भाई के माथे की सलवटें बेतरह हकबकाई हुई हैं।
चिंता स्वाभाविक है। कांग्रेस का मुंह बंद करने को तरह-तरह की दलीलें गढ़ लेने के लिए कौन-सा आर्यभट्ट होना है? मगर वह जमदाग्नि कहां से लाएं, जो अपने और सब के मन की अग्नि शांत कर सके? बहुत बार ऐसा वक़्त आता है कि सब-कुछ होते-सोते भी कहीं मन नहीं रमता। भाजपा की शिखर जुगल-जोड़ी इसी दौर से गुज़र रही है। ज़्यादातर भाजपाई ऐसे हालात देख कर बड़ी मुश्क़िल से अपनी हंसी फूटने से रोके हुए हैं। क़यामत का डर न होता तो होंठ भी खुल जाते, मगर मौक़ा पाते ही आपके कान में चुपचाप इतना वे ज़रूर कह देते हैं कि जो हुआ, अच्छा हुआ। भाजपा के अर्थवान लोगों को लग रहा है कि उन के शहसवारों की ऐंठन शायद अब कुछ कम हो।
हर घर से अफ़जल निकलने का डर न होता, पाकिस्तान को दी गई सुपारी का खौफ़ न होता और नासपीटों के खिलाफ़ छाती-पीट विलाप की बरगलाहट न होती तो अपने को गर्व से हिंदू कहने वाले ही इस बार गुजरात से भाजपा की एकमुश्त विदाई कर चुके होते। छप्पन इंच की छाती ठोक-ठोक कर आपको बेफ़िक्री बख्शने वाले को ही जब आप वही छाती पीट-पीट कर समर्थन की भिक्षा मांगते देखें तो कितनी देर नहीं पिघलेंगे? भगवान के नाम पर दे-दे की पुकार को अनसुना करने लायक पत्थर-दिल भी नहीं हैं लोग! सो, झींक कर ही सही, अपना वोट दे बैठे। ये कमज़ोर दिल वाले गरुण-पुराण का अंत आते-आते सुबकने न लगे होते तो पांच बरस और अभिशप्त रहने का उनका दुर्भाग्य टल जाता।
भाजपा अगर गुजरात से विदा हो जाती तब तो महासागर की लहरें हिमालय को लील ही लेतीं। लेकिन फिर भी गुजरात ने विपक्ष को ऐसा मौक़ा दिया है कि उसे कोई अभागा ही अब हाथ से जाने चाहेगा। नरेंद्र भाई जैसी मायावी शक्तियों के स्वामी का राज शुरू होने के साढ़े तीन साल में इतना हो जाना भी दैवीय कृपा ही समझिए। हाशिए पर पड़ी हार्दिक, अल्पेश और जिग्नेश जैसी ताक़तें देखते-ही-देखते पूरे पन्ने पर ऐसे ही नहीं पसर जाती हैं! बारह साल से पसीना बहा रहे राहुल गांधी कुछ महीनों से लोगों के दिल में इस तरह क्या यूं ही उतरने लगे! प्रकृति के इन संकेतों को समझने के लिए सियासत का पर्यावरणविद होना ज़रूरी है। कु़दरत भी अब चाहती है कि मौसम बदले। इसलिए वह झूले की पैंग संतुलनकारी शक्तियों की तरफ़ उछाल रही है। अगर विपक्ष इसे नहीं लपकेगा तो इसका एक ही मतलब है कि उसके भाग ही फूटे हैं।
इसलिए अब से ले कर 2019 की गर्मियों के बीच के ये 16 महीने जीवन-मरण के हैं। राहुल गांधी के लिए ही नहीं, उन सबके लिए, जो मौजूदा केंद्र सरकार के ढैया-राज को जनतंत्र की मौत का सौदागर मानते हैं। हुकूमत की मौजूदा ढाई तलवारें तो विपक्ष की बेरहम काट-छांट का अपना कर्तव्य निभाएंगी ही। मगर विपक्षी दिग्गज अगर अपनी-अपनी मीनारों से नीचे उतर कर एक चौपाल पर अब भी नहीं बैठे तो नवग्रहों का अच्छे-से-अच्छा संयोग भी नरेंद्र भाई के सिंहासन के सामने नतमस्तक ही खड़ा रह जाएगा। सो, ममता बनर्जी हों या मायावती और मुलायम-कुनबा हो या केजरीवाल-मंडली, सबको एक जाज़म पर जल्दी ही बैठना होगा।
मैं पहले ही कह चुका हूं कि 2019 आने दीजिए और आप देखेंगे कि 2014 में पूरे चुनावी-युद्ध को नरेंद्र मोदी-बनाम-राहुल गांधी का रंग देने में रात-दिन एक करने वाले दिन-रात कोशिश करेंगे कि इस बार यह लड़ाई राहुल गांधी-बनाम-नरेंद्र मोदी न हो पाए। गुजरात से और जो भी हुआ, हुआ; इतना ज़रूर हो गया कि राहुल को मोदी का गंभीर विकल्प मानने की शुरुआत हो गई है। इसलिए मैं आप सबसे, सबको सन्मति देने की राम-धुन, अब लगातार गाते रहने का अनुरोध करता हूं। विपक्षी एकजुटता के लिए इस शाश्वत राम-धुन का नगाड़ा इतने ज़ोर से बजाते रहने की ज़रूरत है कि कोई सुनने से इनकार न कर पाए। यह बात समझनी ज़रूरी है कि 2019 आसान तो होता जा रहा है, लेकिन वह इतना भी आसान नहीं है।
राजनीतिक भक्ति-काल का यह युग अपनी अंतिम हिचकियां ले रहा है। इसके पहले कि हरियाली पूरी तरह झुलस जाए और पुष्प पूरी तरह कुम्हला जाएं, प्रकृति मौसम के कायाकल्प के साधन हमारे लिए जुटा रही है। इस उबटन का इस्तेमाल करना-न-करना विपक्षी दलों की इच्छा पर है। विकास के जिस थोथे आख्यान में पूरे देश को जोत दिया गया था, गुजरात ने उसकी परतें उघाड़ दी हैं। अगर वहां भाजपा का वोट दस प्रतिशत घट सकता है तो देश भर में यह होना कौन-सा मुश्क़िल है? गुजरात के गांवों ने अगर भाजपा को नकार दिया है तो देश भर के गांव कौन-से उसके पीछे घूम रहे हैं? दूसरों को आपस में बांटे बिना भाजपा अपना पलड़ा कभी भारी कर ही नहीं सकती है। वह भी यह जानती है, इसलिए उसके सारे साम-दाम-दंड-भेद इसी के इर्दगिर्द मंडराते हैं। जिस दिन सारे कबूतर ठान लेंगे, वे पूरा जाल लेकर उड़ जाएंगे। नहीं ठानेंगे तो अलग-अलग छटपटा कर निढाल हो जाना ही उनकी नियति है।

राजनीति का स्वर्ण-युग राहुल गांधी का इंतज़ार कर रहा है। बाकी अब उन पर है। लोग कहते हैं कि उन्होंने अपने को जितना बदला है, कम लोग बदल पाते हैं। लेकिन मुझे तो वे पहले दिन से एक-से ही लग रहे हैं। बुनियादी मसलों को ले कर उनकी सोच जो पहले थी, वही अब भी है। कांग्रेस संगठन की संरचना की जो परिकल्पना उनके मन में पहले थी, वही अब भी है। हां, यह ज़रूर है कि जैसे-जैसे वे पहले से ज़्यादा अनुभवी होते जा रहे हैं, उनकी कार्य-शैली में बदलाव आता जा रहा है। इसका स्वागत होना चाहिए। हो भी रहा है। अब वे कांग्रेस के अध्यक्ष हैं। उस पार्टी के, जो उनकी उम्र से पौने तीन गुनी ज़्यादा उम्र की है। इसलिए इतिहास की इस विरासत का नेतृत्व करने के लिए राहुल को उन सबकी विदाई करनी होगी, जिन्हें नाहक दरबानी का शौक़ है। ऐसा होते ही वे उस तहखाने से बाहर आ जाएंगे, जिसकी सीलन उनके सियासी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)

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