परसों-तरसों जब मैं ने शक़्ल-पुस्तिका की अपनी दीवार (फेसबुक वॉल) पर यह इबारत लिखी कि ‘‘इतना छिछोरा तो प्रचंड भंडारी भी नहीं था। तू तो पत्रकारिता का कलंक है एकदम।’’ तो मुझे मालूम था कि यह तो कोई नहीं पूछेगा कि यह कलंक कौन है, क्योंकि सब जानते हैं। मगर मैं सोच रहा था कि कोई तो यह पूछेगा कि यह प्रचंड भंडारी कौन था? लेकिन लगता है, जैसे पूरी दुनिया उसे जानती है। किसी ने पूछा ही नहीं। इसलिए ख़ुद ही बता रहा हूं।
उसका असली नाम बृजमोहन भंडारी जैसा कुछ रहा होगा, क्योंकि वह बी. एम. भंडारी के नाम से जाना जाता था। टेब्लॉइड यानी गुटका-अख़बारों का तब देश में प्रचलन ज़्यादा नहीं था। ‘ब्लिट्ज’ निकलता था और बाद में ‘करंट’ निकला। भंडारी ने तब इंदौर से ‘प्रचंड’ निकाला। वह ख़ुद ही संपादक था, ख़ुद ही प्रकाशक और ख़ुद ही मुद्रक। बाद में उसने दिल्ली के पहाड़गंज में अपने अख़बार का दफ़्तर खोल दिया। एक छत पर दो कमरे थे। एक में दफ़्तर था, दूसरे में भंडारी अपनी पत्नी के साथ रहता था।
भंडारी कहां तक पढ़ा था, किसी को पता नहीं। इतना ज़रूर सब जानते थे कि वह चार अक्षर भी ख़ुद नहीं लिख पाता था। लेकिन उसके दिमाग़ में ख़बरों का अंबार रहता था। वह ठीक-ठाक लिख लेने वालों को पकडता, ख़बरें उन्हें बयां करता, भैया-दादा करता, थोड़ा पारिश्रमिक भी देता और समाचार-कथाएं लिखवा लिया करता था। ‘प्रचंड’ इसलिए ‘प्रचंड’ था कि भंडारी कब, क्यों और कौन-सी ख़बर छाप देगा, किसी को दूर-दूर तक भी इसका अंदाज़ नहीं रहता था। ख़बरों की सौदागिरी में वह आहिस्ता-आहिस्ता माहिर हो गया था।
भंडारी के अख़बार में आमतौर पर ‘शाजापुर में डॉक्टर नर्स को लेकर भाग गया’ और ‘नागदा में भैंस कुएं में गिर गई’ जैसी ख़बरें छपा करती थीं। उसके हॉकर ऐसी ख़बरों के रसीले शीर्षक चिल्ला-चिल्ला कर कस्बे-कस्बे ‘प्रचंड’ बेचा करते थे। चालीस साल पहले मध्यप्रदेश का तो कोई ऐसा नेता-अफ़सर नहीं था, जो भंडारी को नहीं जानता था। पत्रकार बिरादरी में तो वह अपनी पीत-पत्रकारिता को लेकर तरह-तरह की चर्चाओं के केंद्र में रहता ही था। संसद की पत्रकार-दीर्घा में कोई और रोज़ आए-न-आए, भंडारी ज़रूर मौजूद रहता था।
फिर एक दिन ऐसा हुआ कि भंडारी रातों-रात ‘पत्रकारीय स्वतंत्रता’ और ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी’ का, कुछ दिनों के लिए, प्रतीक-पुरुष बन गया। हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री के बारे में एक रसीली और चटखारेदार ख़बर कुछ तस्वीरों सहित भंडारी ने अपने ‘प्रचंड’ में छाप दी। इधर शाम को अखबार आया और उधर अगले दिन का सूरज उगने से पहले ही कुछ लोग भंडारी को उसके घर से लुगी-बनियान में ही उठा कर एक जीप में डाल कर ले गए। उसने लाख मिन्नतें कीं कि पैंट-कमीज़ तो पहन लेने दें, मगर कौन सुनता?
जैसे-जैसे सूरज चढ़ा, भंडारी के गायब होने की ख़बर पत्रकार-बिरादरी में पसरने लगी। जैसा भी था, था तो वह पत्रकार ही। ‘प्रचंड’ निकालता था तो क्या? सो, मन से, ना-मन से या अधूरे मन से सब इस पर एकमत थे कि बाकी सब बातें बाद में, अभी तो सबसे पहले ‘समाचार-जगत की आज़ादी’ की रक्षा करनी है। भंडारी को ले जाने वाले चूंकि सादे कपड़ों में थे तो पहले तो यही पता करना मुसीबत थी कि उसे ले कौन गया? उस जैसे बहुधंधी को कौन, कब, किस वज़ह से उठा ले जाए; कहना मुश्क़िल था।
शाम होते-होते मुख्यमंत्री वाली ख़बर से भंडारी की ग़ुमशुदगी का नाता जुड़ गया। मुख्यमंत्री की शोहरत में हर तरह के चांद जड़े थे। सो, बोरे में बंद कर के धुनाई तो बहुत ही मामूली आशंका थी। सो, पत्रकारीय स्वतंत्रता की हर कीमत पर रक्षा के लिए जन्मे हम सरीखे पत्रकार एक केंद्रीय मंत्री के घर की तरफ़ दौड़े। केंद्रीय मंत्री भी मध्यप्रदेश के थे। वे मामूली दिग्गज नहीं थे। उनके जलवों की शोहरत के सामने भंडारी को उठवा लेने वाले मुख्यमंत्री भी नन्हा-मुन्ना राही थे।
केंद्रीय मंत्री जी ने अपने सहायक से मुख्यमंत्री को फ़ोन लगाने को कहा। फिर हम सबकी तरफ़ मुख़ातिब हो कर बोले, ‘इतना ही वादा कर सकता हूं कि अगर अभी तक ज़िंदा होगा तो वापस बुलवा दूंगा’। सब हक्का-बक्का थे। मोबाइल तब होते नहीं थे। मुख्यमंत्री अपने दफ़्तर और घर पर थे नहीं। केंद्रीय मंत्री जी ने हम से कहा कि संदेश मिलते ही मुख्यमंत्री संपर्क कर लेंगे और उनसे बात होते ही वे हमें बता देंगे।
लौटते समय सब के कानों में ‘अभी तक ज़िंदा होगा तो…’ की सांय-सांय हो रही थी। सो, तय हुआ कि अगले दिन संसद में मसला उठाने के लिए कुछ सांसदों को राज़ी किया जाए। मध्यप्रदेश के सांसदों से बात की। किसी पत्रकार की आज़ादी पर इस तरह के हमले का उन्होंने भी पुरजोर विरोध करने की शपथ ली। देर रात केंद्रीय मंत्री जी का फ़ोन आ गया कि भंडारी ज़िंदा है और कल-वल आ जाएगा। लेकिन जब सुबह तक उसका कहीं अता-पता नहीं चला तो संसद में भी यह मसला गूंजा।
संसद में तब कोई बात उठ जाती थी तो आज की तरह नहीं था कि किसी के कानों पर जूं भी न रेंगे। शून्य काल में मुद्दा उठते ही बड़ो-बड़ों के दिमाग़ सुन्न पड़ जाते थे। वह तो ऐसा दौर था कि ‘पत्र संपादक के नाम’ स्तंभ में फोन खराब होने की शिक़ायत छपने भर से आपका फोन ठीक हो जाया करता था। सो, दोपहर में पत्रकारिता की स्वतंत्रता के सेनानी बन चुके भंडारी का मसला संसद में उठा और शाम होते-होते वह हरियाणा के एक अस्पताल के बिस्तर पर पड़ा मिल गया। कौन ले गया, क्या हुआ और अस्पताल कैसे पहुंचा–इसका सच्चा किस्सा अपने अख़बार में छापने की हिमाकत भंडारी ने कभी नहीं की।
अंत भला, सो, सब भला! हम सब भी इतने से ही बेहद ख़ुश थे कि समाचार पत्रों की आज़ादी हमने बचा ली थी और भंडारी साबुत लौट आया था। तुम्हारी भी जय-जय, हमारी भी जय-जय। भंडारी का पराक्रम संसद की कार्यवाही में दर्ज़ हो गया। वह चार-छह दिनों के लिए बाल गंगाधर तिलक हो गया। उसका ‘प्रचंड’ गोया ‘केसरी’ हो गया। पत्रकारिता के हम रणबांकुरों को इससे ज़्यादा और क्या चाहिए था? कुछ दिनों तक ‘आज-कल पांव ज़मीं पर नहीं पड़ते मेरे’ वाला माहौल रहा।
अब न भंडारी है और न ‘प्रचंड’। भंडारी पत्रकार था कि नहीं, मालूम नहीं। ‘प्रचंड’ अख़बार था कि नहीं, मालूम नहीं। लेकिन एक बात है कि भंडारी अपने ‘प्रचंड’ में पर्दाफ़ाश जैसा भी करता रहा हो, भाषा की पर्दादारी का उल्लंघन नहीं होने देता था। समाचार-कथाओं का मसाला मुहैया करते वक़्त अपने रसोइयों को वह यह ताईद पहले ही कर देता था कि ख़बर मज़ेदार और सनसनीखेज तो बने, मगर फूहड़ न हो। भंडारी की ख़बरों को आप ख़बर की श्रेणी में रखें-न-रखें, लेकिन उनमें निजी-छिछोरापन नहीं ढूंढ सकते थे। इसलिए भंडारी और जो भी था, पत्रकारिता के पेशे पर वैसा कलंक नहीं था, जैसा होने की होड़ में, आज स्वयं को एक व्यक्ति के बजाय समूचा भारत समझने वाले, भिड़े हुए हैं। ऐसे ही लोगों से पूछता है भारत कि भंडारी से भी गया-गुज़रा होने पर उन्हें लाज नहीं आती?
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