राष्ट्रीय नज़रबंदी में कल के बाद हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी को कुछ-न-कुछ राहत तो इसलिए देनी पडेगी कि बिना ठीक-ठाक तैयारी के उठाए गए इस क़दम ने देश को अजब-गज़ब हालात में फंसा दिया है। घर के सारे बल्ब एकबारग़ी बदल डालने की उनकी हसरत बीच-बीच में ऐसा ज़ोर पकड़ती है कि वे रात को आठ-नौ बजे छोटे परदे पर नमूदार होते हैं और एक बड़े फ़ैसले का ताबड़तोड़ ऐलान कर डालते हैं। पहले वे ज़्यादा सोचे-समझे एक चक्रव्यूह में पूरे मुल्क़ को घुसा देते हैं और फिर जब उन्हें लगता है कि मामला ज़रा ज़्यादा ही गड़बड़ हो गया है तो उस से निकलने की रंग-बिरंगी जुगत भिड़ाते हैं।
यही नरेंद्र भाई ने साढ़े तीन बरस पहले नोटबंदी कर के किया था। किसी ने समझा दिया कि पिछली सरकारों में भाग्यविधाता बने बैठे सियासी-मुस्टंडों ने नोटों के गोदाम बना रखे हैं। किसी ने बता दिया कि कइयों ने तो ट्रक भर-भर कर नोट पास-पड़ोस के देशों तक में भेज रखे हैं। बस, काले धन को बाहर निकालने का नारा बुलंद कर नरेंद्र भाई ने ऐसा हल्ला बोला कि भारतीय अर्थव्यवस्था का भट्ठा बैठ गया। एक भी काली छदाम बैंकों में वापस नहीं आई। नकली नोटों से निज़ात नहीं मिली। लोग अपने ही पैसे की भिक्षा मांगते-मांगते क़तारों में मर गए। लेकिन सब की ज़ुबान पर देशभक्ति का ऐसा ताला जड़ दिया गया कि जो मुंह खोले, देशद्रोही बन जाए। सो, अपनी देशभक्ति कौन दांव पर लगाए?
अब यह विषाणु आ गया। कैसे आया, कौन लाया–इसे या तो रहस्यलोक के मालिक शी जिनपिंग जानते होंगे या इंद्रलोक के देवता डोनाल्ड ट्रंप। नरेंद्र भाई ने गुजरात बुला कर ट्रप को नमस्ते करने के बाद अखिल भारतीय तालाबंदी का फ़रमान ज़ारी कर दिया। यह बहुत बड़ा काम था। चूंकि हमारे प्रधानमंत्री छोटे-मोटे काम भी किसी और पर नहीं छोड़ते हैं तो यह घोषणा तो उन्हें ख़ुद परदे पर आ कर करनी ही थी। छह साल में जब-जब ज़रूरत पड़ी, देशवासियों ने अपने प्रधानमंत्री का साथ दिया है। इस बार तो देशभक्ति इसलिए भी गहरी हो गई कि हम सभी को अपने प्राणों की फ़िक्र भी लग गई। जब आपको यह बता दिया जाए कि घर से बाहर निकले नहीं कि मरे तो कौन ड्योढ़ी लांघेगा? अगर ऊपर से देश के दिमाग़ में यह भी भर दिया जाए कि जो बाहर घूम रहा है, वह ख़ुद मरे-न-मरे, अपने विषाणु से आपको ज़रूर मार देगा तो फिर सरकारी डंडे से ज्यादा मजबूत तो आपके पड़ोसी का लट्ठ हो ही जाएगा।
तो अपने प्राणों की चिंता को लेकर भीतर से बेतरह भयभीत देश ने मजबूर मुस्कान के साथ ताली बजाई, थाली बजाई, दीया जलाया, मोमबत्ती जलाई। यह सोच कर सब किया कि एक बार इस विषाणु की लाई मुसीबत से जान तो छूटे। अब सवा महीने बाद सवा अरब के देश में क़रीब 35 हज़ार लोगों के ज़िस्म में विषाणु होने की बात हमारी सरकार हमें बता रही है और यह भी कि क़रीब 1200 लोग अब तक इससे अपनी जान गंवा चुके हैं। सरकार ने ही हमें यह भी बताया है कि देश के 300 ज़िले पूरी तरह कोरोना-मुक्त हैं और क़रीब 200 ज़िलों में कोरोना का एक भी दागी-स्थल यानी हॉटस्पॉट नहीं है। देश में कुल तक़रीबन 750 ज़िले हैं। तो क्या हम यह मानें कि उनमें से सिर्फ़ 250 ही ऐसे हैं, जहां कोरोना-प्रकोप है। तो फिर पूरा मुल्क़ क्यों ठप्प पड़ा है?
चलिए, मैं यह मान लेता हूं कि नरेंद्र भाई न होते तो यह विषाणु सारे-के-सारे ज़िलों की गर्दन पर सवार होता। यह तो प्रधानमंत्री का ही पराक्रम था कि उन्होंने कोरोना का गला शुरू में ही पकड़ लिया। उसे ऐसे न दबोचते तो अब तक तो पता नहीं भारत की कितनी आबादी साफ हो गई होती। आख़िर पूरी दुनिया में ढाई लाख लोग इससे मर ही गए ना! अकेले अमेरिका में 65 हज़ार की जान गई है। एक अमेरिकी तो वैसे भी सवा क्या, ढाई लाख के बराबर होता है। अब इससे क्या होता है कि अमेरिका में हर साल क़रीब तीस लाख लोग मरते हैं; कि वहां मृत्यु-दर कम नहीं हो रही, हर साल बढ़ रही है; कि मरने वालों में एक चौथाई दिल की बीमारियों से मरते हैं; कि बीस फ़ीसदी केंसर की वजह से मरते हैं; और, डेढ़-पौने दो लाख लोग सांस संबंधी रोगों से प्राण गंवाते हैं। मगर 33 करोड़ की आबादी के सबसे सुविधा-संपन्न और शक्तिशाली देश अमेरिका के बारे में यह इस तरह के कुतर्कों का वक़्त नहीं है। वहां भी अगर दादा-ट्रंप न होते तो पता नहीं क्या हाल होता!
यह बात तो हमारे नरेंद्र भाई भी हमें बता चुके हैं कि चिकित्सा सुविधाओं के मामले में अमेरिका के सामने भला हमारी क्या हैसियत? जब घरों में बंद रहने के बावजूद वहां विषाणु ने इतनों को निपटा दिया तो हम अगर घर से बाहर निकले तो सोच लीजिए कि कैसी तबाही आ सकती है? कोरोना को जाने दीजिए भाड़ में, भारत से हर साल वैसे भी 97-98 लाख लोग बैकुंठ धाम जाते हैं। मौत जब आती है तो बहाना तो कुछ-न-कुछ बन ही जाता है। ख़स्ताहाल चिकित्सा सहूलियतों वाले भारत की आबादी अमेरिका से तो चार गुनी है। बावजूद इसके स्वर्गवासी होने वालों की सालाना तादाद तो अमेरिका से चार गुनी नहीं है। यानी कोकिलाबेन, मेदांता और अपोलो के लिए पैसे न होने के बावजूद और एम्स के लिए सिफ़ारिशी चिट्ठी को तरसते हम भारतीय, अपने बूते पर ज़िंदा रहने के मामले में, अमेरिकियों से तो लाख दर्ज़े बेहतर हैं। अमेरिका को वहां की सरकारों ने अगर लालटेनी अस्पतालों और झोला-डॉक्टरों के भरोसे छोड़ दिया होता तो उसे तो तैंतीस करोड़ तक पहुंचने में भी अभी तैंतीस साल और लग जाते।
इसलिए हमें सावधान रहने की ज़रूरत तो है, मगर अमेरिका और इटली की तरफ़ देख कर थर-थर कांपने की कोई ज़रूरत नहीं है। आधे हिंदुस्तान में जब एक-एक कमरे में पांच-पांच सात-सात लोग भरे पड़े हैं तो शारीरिक दूरी के किस गणित से आप कोरोना को हराने की बात कर रहे हैं? खुले में एक-दूसरे से पचास-पचास फुट दूर घूमने वालों के सिर पर ड्रोन लहरा कर उन्हें फिर अपनी कोठरी में अगल-बगल बैठने के लिए भेज देने से कोरोना कैसे भागेगा? कोरोना क्या बसें न चलने से भागेगा? रेलें थमने से भागेगा? हवाई जहाज खड़े कर देने से भागेगा? दुकानें-कारखाने बंद कर देने से भागेगा? पूरी धरती को ऐसे ठप्प कर कोरोना को भगा भी लिया तो उस धरती का आप करेंगे क्या?
सो, कोरोना से तो खेतों, कारखानों, दफ़्तरों और दुकानों में काम करते हुए लड़ना होगा। इस लड़ाई का कोई नक्शा हो तो बताइए, नरेंद्र भाई! आफ़त आती देख कर दरवाज़े बंद कर घरों में घुस जाना तो सब से आसान लगता है। लेकिन वह मुसीबत का समाधान नहीं है। घरों के दरवाज़े अनंत काल तक बंद नहीं रह सकते। मैं मानता हूं कि आप से तो कभी कोई ग़लती हो ही नहीं सकती और जानता हूं कि ग़लतियों की सार्वजनिक स्वीकारोक्ति की हिम्मत बिरलों में ही होती है। ग़लतियों पर अड़े रहने वाले पराक्रमियों के किस्से भी हम ने बहुत सुने हैं। अब तो सब ने मान लिया है कि आप हैं तो देश बच गया। मगर अब इस नज़रबंदी की रस्सी खोलने का ठोस तरीका जल्दी खोजिए। ढपोरशंखी बातों के दिन अब गए!
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