Monday, September 21, 2009

'बहन जी' का असली चेहरा

बहन मायावती का असली चेहरा दरअसल यही है। उन्होंने अपने चेहरे पर एक मुलम्मा चढ़ाने की कोशिश की थी, मगर राजनीति की पहली ही बारिश ने ही उसे धो डाला। पिछले बरस मई की गर्मियों में अपने हाथी पर सवार होकर मायावती सत्ता के महल में लौटीं तो कांग्रेस समेत सभी के हाथ-पैर फूल गए थे। तिलक, तराजू और तलवार को चार जूते मारने घर से निकली मायावती ने जब सर्वसमाज से नाता जोडऩे का नारा दिया और लखनऊ की गद्दी पर जा विराजीं तो सबको अपने पैरों तले की जमीन खिसकती नजर आने लगी। कुछ लोगों को लगा कि कांशीराम भले ही प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब मन में लिए ही दुनिया छोड़ गए, लेकिन मायावती दिल्ली की रायसीना पहाडिय़ों की तरफ तेजी से बढ़ रही हैं। मगर अब लखनऊ की राजगद्दी संभाले मायावती को ढाई साल हो गए हैं और उनके चेहरे की सर्वजन-मुस्कान पूरी तरह तिरछी हो गई है। भीतर की असलियत बाहर आ गई है और अब यह साफ होता जा रहा है कि कहने को मायावती कुछ भी कहें, उनके जेहन में पड़े पुराने बीज अभी बाकी हैं।
इस बीच राहुल गांधी के उत्तर प्रदेश के दौरों ने मायावती की पोल पूरी तरह खोल दी है। इन दौरों में वे दलितों से क्या मिले, उनकी झोपडिय़ों में रातें क्या बिताईं, उनके साथ बैठ कर रोटी क्या खाई, मायावती तिलमिला गईं। इसे कोई भी राजनीतिक छिछोरेपन की इंतेहा ही मानेगा कि कोई कहे कि दलितों से मिलने के बाद राहुल एक खास साबुन से नहाते हैं। आखिर मायावती ने ऐसा क्यों कहा? उन्होंने यह भी कहा कि दलितों की झोंपडिय़ों से लौट कर राहुल अपना शुद्घिकरण करते हैं। इस तरह की बातें करने के पीछे मायावती की कौन-सी मानसिकता काम कर रही है? इससे इतना तो पता चलता ही है कि मायावती के दिमाग की बुनियादी बनावट कैसी है?

ये वह मायावती हैं, जिन्हें कांशीराम और इस तरह आंबेडकर तक का वारिस होने का ढोल बजाने का शौक है। ये वह मायावती हैं, जिन्हें राहुल गांधी के साबुन का मनगढ़ंत किस्सा सुना कर दलित समाज को बरगलाने में तो दिलचस्पी है, लेकिन अपने इस समाज को यह बताने की फुरसत नहीं है कि वे सिद्घांत आखिर कहां चले गए, जिन्हें ले कर कांशीराम चले थे? कांशीराम का बताया रास्ता आज बहन जी के राज में शीर्षासन क्यों कर रहा है? जिन भीमराव आंबेडकर के रास्ते पर कांशीराम चले थे, उन आंबेडकर के पास कितने पैसे थे? कांशीराम की वारिस मायावती ने तो निर्वाचन आयोग को पिछले साल हलफनामा दे कर बताया कि उनके पास पचास करोड़ रुपए की संपत्ति है। अब तो उन्हें मुख्यमंत्री बने भी ढाई बरस हो गए हैं और उनकी संपत्ति पता नहीं कितनी हो गई होगी? बहन जी के जन्म दिन पर उनके गले में सजने वाले हीरों के हार जिन्होंने देखे हैं, उनमें से कौन ऐसा है, जिसकी आंखें न चुंधियाई हों? टोनी ब्लेयर दस साल ब्रिेटन के प्रधानमंत्री रहे। उनके पास महज 15 करोड़ रुपए हैं। दुनिया के सबसे बड़े चौधरी बने बैठे जॉर्ज बुश के पास सिर्फ 26 करोड़ रुपए हैं। बहन जी के पास अपनी दौलत को ले कर इतराने की पूरी वजह है, सो, वे खूब इतराएं। लेकिन राहुल गांधी के साबुन की चिंता करने वाली बहन जी से भला यह कौन पूछे कि वे ऐसे किस साबुन से नहाती हैं कि मन का मैल है कि जाता ही नहीं। बहन जी को यह मालूम होना चाहिए कि सर्वसमाज का इत्र ऊपर से मल लेने भर से भारतीय राजनीति के कोनों में बसी सड़ांध दूर नहीं हो जाएगी।

ये वही बहन जी हैं, जो उत्तर प्रदेश के 32वें मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठते वक्त यह कहते अघा नहीं रही थीं कि अब सर्वसमाज ही मेरा परिवार है। सबको नीले रंग में रंगने की ख्वाहिश मन में पाले बैठी मायावती इतनी जल्दी यह क्यों भूल गईं इस बार का सिंहासन उन्हें इसलिए मिला है कि उसकी बुनियाद समाज के सभी वर्गों के पसीने से गूंधी गई है। मायावती को लग रहा था कि उनका चुंबक इतना ताकतवर है कि समाज के बाकी वर्गों को अपनी तरफ ऐसा खींच लेगा कि बाकी राजनीतिक दल चरमराने लगेंगे। राहुल गांधी के दौरों ने उन्हें बताया कि दलित पारंपरिक तौर पर कांग्रेस के साथ थे और बाजी फिर पलटने लगी है। मायावती को लगा कि राहुल के दौरों का यह तेवर तो थोड़े दिनों में बहुजन समाज पार्टी के लिए अच्छी-खासी मुसीबत पैदा कर सकता है। उन्हें लगा कि अगर दलितों के मन में घुसाया गया यह अहसास कमजोर पड़ गया कि कांग्रेस उनकी अनदेखी करती है तो सारे किए-कराए पर पानी ही फिर जाएगा। बहन जी को महसूस हुआ कि सर्वसमाज की राजनीति करने के मामले में कांग्रेस के सामने वे तो टिकने से रहीं। सो, मायावती अब अपनी पुरानी गलियों में लौटने की तैयारी कर रही हैं। आप देखेंगे कि आने वाले दिनों में दलितों को उकसाने वाली उनकी भाषा और तीखी होती जाएगी। जल्दी ही वे सर्वसमाज को साथ ले कर चलने के अपने मुखौटे को पूरी तरह नोच कर फैंक देंगी। मगर अब उनके लिए देर हो चुकी है। दलित समाज भी यह जान गया है कि कंधा उसका है और बंदूक मायावती की और इस खेल में मायावती खुद भले ही मजबूत हो रही हैं, दलित तो पिस ही रहा है।

दुनिया में आखिर कहां की राजनीति सामाजिक सरोकारों से प्रभावित नहीं होती? फिर भारत की राजनीति में तो सामाजिक मसले पूरी तरह घुले-मिले हैं। इसलिए भावी राजनीतिक परिद़श्यों को कैनवस पर उकेरने से पहले मायावती और बसपा के बारे में चंद बातें दोबारा याद कर लेना सबके लिए जरूरी है। ये वही मायावती हैं, जिन्होंने साढ़े चार बरस पहले सर्दियों की हलकी शुरुआत होते-होते गुजरात में अपने को जीवित देवी घोषित किया था और नारा दिया था कि तुम मुझे पैसे दो, मैं तुम्हें राजनीतिक ताकत दूंगी। आजादी के लिए रक्त देने का आग्रह करने वाले सुभाषचंद्र बोस के मुल्क में तब हमने राजनीति का यह नया मुहावरा सुना। ये वही मायावती हैं, जिन्हें अपना हित साधने के लिए किसी के भी साथ बैठने से कभी कोई गुरेज नहीं रहा। ये वही मायावती हैं, जो तिलक, तराजू और तलवार को चार जूते मारने के नारे लगाया करती थीं और चंद महीने पहले तक चिल्ला-चिल्ला कर कह रही थीं कि हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्म, विष्णु, महेश है। और, ये वही मायावती हैं, जो हाथी के माथे पर लगे तिलक को सबसे पहले खुद अपने हाथ से पोंछेंगी।

कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी किसी भी मकसद से खड़ी की हो, मायावती का मकसद बेहद स्वकेंद्रित है। कांशीराम की राजनीति में शायद दलित पहले था और वे खुद कहीं बहुत बाद में थे। बहन जी की राजनीति में उनके अलावा कोई है ही नहीं। दलित तो दूर-दूर तक नहीं। दलित महज नाम को है। दलित राजनीति की बुनियाद में असल में तो मायावती का ताज है, उनके हीरे-जवाहरात हैं। 30 बरस पहले कांशीराम ने दिल्ली के करोलबाग में अपनी पार्टी का दफ्तर यह सोच कर नहीं खोला था कि एक दिन बसपा की राजनीति का केंद्र बिंदु एक प्रतीक के बजाय एक समुदाय की शक्ल ले लेगा। करोलबाग के हरध्यान सिंह रोड पर 5323 नंबर की वह इमारत आज भी मौजूद है और वह कमरा भी, जिसे किराए पर ले कर कांशीराम ने तब अपनी बामसेफ का काम शुरू किया था। इस दफ्तर के शुरू होने के पांच बरस बाद 1983 तक मायावती त्रिलोकपुरी के एक स्कूल में शिक्षिका थीं। उसके अगले बरस से इस दफ्तर में बैठ कर उन्होंने भी कामकाज देखना शुरू किया।

तब से बसपा के कई रंग जमाने ने देखे हैं। एक बात और याद रखने की है कि 1993 तक बसपा को कोई उल्लेखनीय कामयाबी भी हासिल नहीं हुई थी। पहली बार उसे उत्तर प्रदेश में 1993 में तब 66 सीटें मिलीं, जब वह समाजवादी पार्टी के साथ मिल कर चुनाव लड़ी। सपा और बसपा ने मिल कर सरकार बनाई। इस सरकार के जमाने में आपस में कैसे जूते चले, किसी से छिपा नहीं है। बसपा ने भारतीय जनता पार्टी से हाथ मिलाने में भी कोई हिचक कभी नहीं दिखाई। वह कभी इधर से और कभी उधर से हाथ मार कर अपनी राजनीति करती रही है। राष्टीय स्तर पर उसकी हालत यह रही कि 1984 के चुनाव में बसपा को एक भी सीट नहीं मिली। 89 में उसे सिर्फ दो सीटें मिलीं। 91 के चुनाव में उसे एक ही सीट हासिल हुई। इस हालत में रही बसपा 93 के बाद क्यों और कैसे बढऩे लगी—यह कभी फिर। अभी तो इतना ही कि इस चौथाई सदी में दलित-राजनीति की यमुना में कई बदलाव आ चुके हैं। पहले उसका पानी मटमैला हुआ, फिर गंदा और फिर वह दुर्गंध मारने लगा। अब वह पानी सूखने लगा है। इसलिए अगर मायावती को राहुल गांधी की चिंता सताने लगी है तो समझ लीजिए कि सर्वसमाज पर आधारित राजनीति नई करवट ले रही है और राहुल दलित-राजनीति के नए प्रतीक बन कर उभरने लगे हैं। समाज जिन्हें आदर देता है, उन्हें अपनी मूर्तियां खुद नहीं लगवानी पड़ती हैं। उनकी मूर्तियां तो लोगों के दिलों में होती हैं। और, लोगों के दिल कोई ऐसे ही नहीं जीत सकता।

4 comments:

sudhakar soni,cartoonist said...

haathi se vajni maya

Br.Lalit Sharma said...

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गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर said...

narayan narayan

वाणी गीत said...

समाज जिन्हें आदर देता है, उन्हें अपनी मूर्तियां खुद नहीं लगवानी पड़ती हैं। उनकी मूर्तियां तो लोगों के दिलों में होती हैं। और, लोगों के दिल कोई ऐसे ही नहीं जीत सकता।..बहुत सही कहा आपने..ये बहनजी कब समझेंगी ..!!
बहुत शुभकामनायें ..!!