फिर गंगा के तट पर जन्म लेने की चाह रखने वाले अमिताभ बच्चन 67 साल के हुए तो देश भर के टेलीविजन परदे खूब थिरके और अखबारों के पन्नों ने भी जश्र मनाया। मैं अमिताभ की अदाकारी का प्रशंसक हूं। लेकिन उनसे सहमत नहीं हो सकता, जो अमिताभ की कारोबरी कामयाबी को भारतीय समाज और संस्कृति का मूल-धन मान बैठे हैं। मैं ऐसे अमिताभवादियों को याद दिलाना चाहता हूं कि बात-बात पर अपने बाबूजी को याद करने वाले अमिताभ ने दो-ढाई बरस पहले जब अपने बेटे अभिषेक की शादी की थी तो इलाहाबाद के कटघर में अपने पिता हरिवंशराय बच्चन के छोटे-से घर और उसमें रहने वालों को वे पूरी तरह भूले हुए थे।
अमिताभ दरअसल एक नया समाजशास्त्र रच रहे हैं। उनका यह समाजशास्त्र आज के आर्थिक मूल्यों पर आधारित है। अमिताभ उस जमाने के तो कभी भी नहीं थे, जब तालपत्र पर मोर के पंख से श्लोक लिखे जाते थे। उन्हें बर्रू की कलम को खडिय़ा में डुबो कर गेरू से पुती तख्ती पर लिखने के संस्कार भी शायद ही मिले हों। इसलिए अभिेषक की शादी के मौके पर जिन टेलीविजन चैनलों और अखबारों की अमिताभ ने कोई परवाह नहीं की थी जो इस बात पर हाय-हाय कर रहे थे कि ठग्गू के लड्डू ले कर कानपुर से मुंबई गए बेचारे प्रकाश मामा भीतर भी नहीं घुस पाए और 36 किलो लड्डू 'जलसा’ के बाहर और 15 किलो लड्डू 'प्रतीक्षा’ के बाहर पत्रकारों और राह-चलतों को खिला कर वापस चले आए। बेगानी शादी के दीवाने इन अब्दुल्लाओं को तब भी यह समझ में नहीं आ रहा था कि अमिताभ के बेटे की शादी इसलिए नहीं हुई थी कि जो चाहे, खुश हो ले। वह दो आत्माओं के मिलन की नहीं, दो उत्पादों के विलय की गाथा थी। इस शादी के छह साल पहले तक कैनरा बैंक के पास गिरवी रखे 'प्रतीक्षा’ तक अपने बेटे की बारात ले कर गए हमारे महानायक जब दुल्हन लेकर लौटे तो उनके परिवार का उत्पाद-मूल्य यानी ब्रॉंड-वैल्यू रातों-रात 12 अरब रुपए की हो गई थी। बाजार के आकलन के मुताबिक बाप-बेटे दोनों की ब्रॉंड वैल्यू मिल कर तब तक 7 अरब रुपए की थी और अकेली ऐश्वर्या की ब्रॉंड-वैल्यू ने उसमें 5 अरब रुपए का इजाफा कर दिया था। इसलिए घोड़ी पर चढ़ कर अपनी दुल्हन के पास बारात ले कर जाते अभिषेक यूं ही बार-बार अपने दाहिने हाथ को गोल-गोल कर के नहीं नचा रहे थे। ताजा समाजवाद के सबसे बड़े प्रतीक अमर सिंह भी तब इसलिए अपनी टांगें नहीं थिरका रहे थे कि समाज के बुनियादी मूल्य इस विवाह से मजबूत हो रहे थे। वे सब इसलिए फूले नहीं समा रहे थे कि नई जुगल-जोड़ी के बाजार-मूल्य के सामने अब कौन टिकेगा?
आज के अमिताभ दो-ढाई दशक पुराने वाले अमिताभ नहीं हैं। एक जमाने में वे फोन पर खुद आ कर आपको मुंबई के परेल में कहीं हो रही अपनी फिल्म की शूटिंग के दौरान बातचीत के लिए बुला लिया करते थे। इलाहाबाद से लोकसभा में चुन कर आने के बाद अमिताभ दिल्ली में मोतीलाल नेहरू मार्ग के दो-ए नंबर के बंगले में अपना दफ्तर चलाते थे और दिन भर जब वे अपने काम या लोगों से मिलने-जुलने में मशगूल रहा करते थे तो जया बच्चन बगल भी कमरे में मौजूद रहती थीं। 1985 के अक्टूबर के दूसरे हफ्ते में एक गुनगुनी दोपहर इसी बंगले के लॉन में तब अमिताभ ने मुझ से कहा था कि राजनीति में आने के बाद उन्हें महसूस हो रहा है कि आखिर अब तक वे दुनिया की सच्चाइयों से कितने अनजान थे और समाज की बुनियादी चिंताओं की उन्हें कितनी कम वाकफियत थी। तब अमिताभ अपनी फिल्म 'मर्द’ का प्रीमियर इलाहाबाद में करना चाहते थे और उनका मन था कि उसकी आमदनी से वे वहां के गांवों में सामुदायिक केंद्र बनाने और सौर ऊर्जा की कुछ योजनाएं शुरू करें। यह तो मुझे नहीं मालूम कि वे अपनी यह छोटी-सी इच्छा कभी पूरी कर पाए या नहीं, लेकिन यह मैं जरूर जानता हूं कि अब से 25 बरस पहले भी अमिताभ की संजीदगी का आलम यह था कि इलाहाबाद के लोगों को अपने सांसद की 'गुमशुदगी’ का विज्ञापन अखबारों में छपवाना पड़ा था।
अब अमिताभ को शायद ही यह याद होगा कि उनकी मां तेजी बच्चन अक्सर कहा करती थीं कि अमिताभ अगर राजनीति में गया तो मेरी आत्मा हमेशा भटकती रहेगी। लेकिन अमिताभ राजनीति में आने के बाद इस बात का जवाब यह कह कर देना सीख गए थे कि जिंदगी में परिस्थितियां बदलती रहती हैं और मेरी माताजी ने जब यह कहा था तो हालात और थे, आज हालात और हैं। सो, इतना लंबा रास्ता तय कर आज इस मुकाम तक पहुंच गए अमिताभ की संजीदा अदाओं पर अपनी जान निछावार करने वालों की मासूमियत को सलाम करने का मन करता है। जो लोग इस बात से अभिभूत हैं कि अमिताभ ने अपनी कंपनी एबीसीएल बंद नहीं की और सबकी पाई-पाई चुका दी, उन्हें पूरा हक है कि वे इसके लिए अमिताभ के कसीदे पढ़ें। मैं भी मानता हूं कि अमिताभ चाहते तो हाथ खड़े कर सकते थे। लेकिन वे जानते थे कि इससे उनके आगे के सभी रास्ते पूरी तरह बंद हो जाएंगे। इसलिए अगर उन्होंने 90 करोड़ रुपए का अपना कर्ज उतारा तो किसी पर कोई एहसान नहीं किया।
दूरदर्शन का अमिताभ पर 33 करोड़ रुपए बकाया था। सबको नहीं, मगर कुछ लोगों को तो अब भी यह याद होगा कि किस तरह वे यह रकम चुकाने से कतराते रहे थे। उधर मैडम तुसाद के म्यूजियम में अमिताभ का मोम-पुतला बन रहा था और इधर हमारे महानायक सरकारी दूरदर्शन से कह रहे थे कि वे तैंतीस तो नहीं, नौ-दस करोड़ रुपए ही दे पाएंगे। यह नौ बरस पहले की ही तो बात है। जब छोटे भाई अमर सिंह ने बड़े भाई की इस मामले में मदद करने का बीड़ा उठाया और तय हुआ कि अमिताभ 33 की जगह 20 करोड़ रुपए दे देंगे। 9 करोड़ 65 लाख 50 हजार 583 रुपए का पहला चैक लेकर अमिताभ पहुंचे तो दूरदर्शन के तब के मुखिया राजीव रत्न शाह ने ऐसी भाटगीरी की, गोया कोई बकाएदार रकम चुकाने नहीं, दान देने आया हो। अमिताभ ने कहा कि बाकी की रकम अगले तीन बरस में किस्तों में देंगे और दूरदर्शन ने 'जो हुकुम’ मुद्रा में अपने को कृतार्थ किया। सार्वजनिक धन के चुकारे की इस अदा पर जिन्हें जान छिडक़नी हो, वे छिडक़ें। जो भूलना चाहें, वे यह भी भूल सकते हैं कि अमिताभ की कारोबारी गतिविधियों में उस केतन पारीख ने 70 करोड़ रुपए लगाए थे, जिसकी वजह से शेयर बाजार में आम निवेशकों के खरबों रुपए डूब गए। लोगों को यह भूलने की भी आजादी है कि किस तरह पूजा बेदी को दिया अपना इंटरव्यू अमिताभ ने बाद में स्टार टेलिविजन पर रुकवा दिया था और किस तरह प्रणव रॉय के एनडीटीवी ने दिल्ली के ग्रेटर कैलाश थाने में अमिताभ के खिलाफ विश्वास भंग की आपराधिक प्राथमिकी दर्ज कराई थी।
जिस दौर में 'भारत पर्व’की पहचान सहाराश्री से होने लगी हो और अमिताभ सहारा-गणवेश पहन कर वहां कतार में खड़े रहते हों, जब अमिताभ के जन्म दिन पर जाने के लिए मुलायम सिंह यादव अपने प्रणेता राम मनोहर लोहिया की पुण्य तिथि पर न पहुंच पाते हों, जब सदी के महानायक अपने मुंह-बोले भाई अमर सिंह के साथ बालासाहेब ठाकरे का आशीर्वाद लेने हुलक कर जाते हों; उस दौर में, अमिताभ के शतायु होने की कामना तो मैं कर सकता हूं, लेकिन हर साल उनके जन्म-दिन पर ठुमके लगाना बाकियों को ही मुबारक हो। मैं जानता हूं कि यह समय एक नए अर्थशास्त्र का है। यह समय एक नए समाजशास्त्र का है। अमिताभ को इस नए समाज का शास्त्र लिखने दीजिए। उन्हें अपने दोस्तों के साथ कारोबारी कामयाबी की एक नई इबारत लिखने दीजिए। उनके लिखे को आप नहीं मिटा पाएंगे। जब मिटाएगा, समय ही मिटाएगा।
Tuesday, October 20, 2009
[+/-] |
लौट जाती है उधर को भी नज़र, क्या कीजै |
Wednesday, October 14, 2009
[+/-] |
नोबेल पगड़ी की लाज ओबामा के हाथ |
अर्ध-श्वेत बराक ओबामा को शांति का नोबेल पुरस्कार इतनी जल्दी मिलने से अचकचा कर हाय-तौबा मचा रहे लोग यह भूल रहे हैं कि ओबामा जब वाशिंगटन के श्वेत भवन पहुचे थे तो अमेरिकी जमीन से अरसे बाद उस लोक संगीत की धुनों ने जोर पकड़ा था, जिनकी स्वर-लहरियों पर चढ़ कर कोई ओबामा दुनिया के राजनीतिक-सामाजिक आसमान का रंग बदलने का काम कर सकता है। अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव की दौड़ के वक़्त फिलाडेल्फिया के संविधान केंद्र में ओबामा की कही बातों ने अमेरिकियों को झकझोर दिया था। अमेरिकियों को शायद पहली बार लग रहा था कि भले ही उन सबकी कहानियां अलग-अलग हों, उनकी उम्मीदें तो एक-सी हैं, भले ही वे सब एक ही जगह से न आए हों, मगर अब उन सबको जाना तो एक ही दिशा में है और इसके लिए पूरे राजनीतिक-सामाजिक ताने-बाने को पूरी तरह उधेड़ कर फिर से बुनने के दिन आ गए हैं। अभी से इस नतीजे पर पहुंच जाना कि दुनिया में शांति का राज कायम करने के ओबामा के इरादे में कोई खोट है, ठीक नहीं होगा। नोबेल की पगड़ी पहने ओबामा की निगाहों को अब इतनी शर्म तो करनी ही होगी कि उनके हाथ से अमन-चैन का कहीं कत्ल न हो।
ओबामा के उदय का समाजशास्त्र समझने के लिए ज्य़ादा दूर जाने की ज़रूरत नहीं है। पिछले बरस जब वे श्वेत भवन की तरफ एक-एक कदम बढ़ रहे थे तो दुनिया को ओबामा की इन बातों में सच की परछाईं नजर आ रही थी कि वे अमेरिका का मुखिया बनने की दौड़ में इसलिए शामिल हुए है कि उन पर अमेरिकी समाज को और ज्यादा न्याय-प्रिय, और ज्यादा समानतावादी और एक-दूसरे का ख्याल रखने वाला बनाने की धुन सवार है। केन्या से आए अश्वेत पिता और कन्सास की रहने वाली श्वेत मां की संतान ओबामा के चुनावी भाषण सुनने की नहीं, गुनने की चीज बन गए थे। भारत के चुनावी माहौल और भाषणों का लंबा अनुभव हमें यह अंदाज लगाने लायक भी नहीं छोड़ता है कि चुनावी प्रचार करते वक्त बुनियादी सामाजिक मुद्दों को इतनी गहराई से भी कोई उठा सकता है। ओबामा ने अमेरिकी गिटार के उस तार को छेड़ दिया था, जिससे सबसे दर्दीले सुर का जन्म होता है।
अपने भाषणों में ओबामा जब यह इशारा करते थे कि किस तरह उनकी अश्वेत पत्नी की रगों में एक गुलाम और उस गुलाम के मालिक का खून दौड़ रहा है तो उनके होठों पर एक दर्द भरी मुस्कान होती थी। वे अपनी चादर पर दिल की गहराइयों से निकले विचारों की कतार बिछाते जाते थे और बार-बार इशारा करते थे कि अनेकता में एकता की जरूरत अमेरिका के समाज को जितनी है, दुनिया के किसी भी समाज को उतनी नहीं। समानता के तमाम अमेरिकी दावों के बावजूद वहां के राष्ट्रपति के चुनाव में पूरी संजीदगी से दौड़ रहे ओबामा जब नस्लीय भेदभाव की तरफ संकेत देते थे तो अमेरिका भर में उनके कहे की ताईद में हिलने वाले सिरों की कमी नहीं थी। वे अपने भाषणों में कहते थे कि कोई कहता है कि मैं जरा ज्यादा ही अश्वेत हूं और कोई कहता है कि मैं पूरी तरह अश्वेत नहीं हूं। ओबामा आहत थे कि नस्लीय नजरिया समाज को श्वेत-अश्वेत ही नहीं, अश्वेत और गेहुंए के बीच भी बांटने लगा है। 47 वर्षीय ओबामा की गीली आंखें अमेरिका की राजनीतिक दीवारों पर एक नई इबारत के लिखे जाने के ठोस संकेत दे रही थीं।
इसलिए मुझे अब भी पूरी उम्मीद है कि ओबामा ओवल-ऑफिस और अपने आसपास की व्यवस्था से बेपरवाह रह कर अपना काम कर पाएंगे। उनके कार्यकाल के चार बरस पूरे होने पर आप देखेंगे कि अमेरिका की शक्ल तो बदल ही रही है, दुनिया की शक्ल भी तब्दील होती जा रही है। इसलिए कि 221 बरस के अमेरिकी इतिहास में यह अपनी तरह का पहला मौका है, जब एक ओबामा के बहाने खुल कर ऐसे मसलों पर औपचारिक सोच-विचार शुरू हुआ है, जिन्हें खामोशी से गलीचे के नीचे खिसका कर चेहरों पर नकली मुस्कान ओढ़ ली जाती थी। ओबामा ने इराक से ले कर अफगानिस्तान तक पसरी अमेरिकी खामियों को मंजूर करने में कोई हिचक नहीं दिखाई है। वियतनाम से ले कर चेचैन्या और कसोवो तक के मुद्दों पर ओबामा के अपने स्वतंत्र विचार हैं। यही उनकी पूंजी है।
यह मान लेना कि ओबामा की बातों से गदगद हो रहे अमेरिका में दिलजले गायब ही हो गए होंगे--मासूमियत होगी। यह मान लेना भी बचपना होगा कि ओबामा के पास को तिलस्मी गलीचा है, जिस पर बैठ कर वे जिस दिशा में उड़ेंगे, आसमान गुलाबी होता चला जाएगा। क्योंकि बदलाव की राह पर चलना कोई आसान काम नहीं है। बदलाव की बयार का दोनों हाथ फैला कर स्वागत भला कितने लोग करते हैं? ऐसा होता तो गांधी डरबन के स्टेशन पर ट्रेन से बाहर नहीं फैंके जाते। ऐसा होता तो सत्ता के दलालों को बियाबान में भेजने की शपथ लेने वाले राजीव गांधी की श्रीपेरुम्बुदूर में ऐसी अलविदाई न हुई होती। इसलिए ओबामा की बातों पर थिरकने वाले बहुत हैं तो उनकी बातों पर नथुने फुलाने वालों की भी कमी नहीं है। सो, यह कहानी भी खलनायक-विहीन कैसे हो सकती है?
मैं नहीं जानता कि ओबामा कितना बदलाव ला पाएंगे? लेकिन मैं इतना जानता हूं कि अगर ओबामा के बाद किसी गैर-ओाबामा को भी बाकी दुनिया से जुगलबंदी के रास्ते पर ही आगे चलना होगा। ओबामा के बहाने एक नए युग की शुरुआत के बीज अमेरिका की मिट्टी में अब पड़ गए हैं। ओबामा की इतनी ही सार्थकता बहुत है। इसलिए मुझे तो उन्हें मिले नोबेल से खुशी ही हुई है।
Thursday, October 8, 2009
[+/-] |
राम-राज्य के स्वयंभू संस्थापक के बारे में |
दो साल पहले चंद्रास्वामी ने ऐलान किया था कि अब उनका तन-मन-धन श्रीराम सेतु की रक्षा के लिए अर्पित है। वह 2007 के मार्च का आखिरी बुधवार था और चंद्रास्वामी बनारस में दोपहर ढाई बजे केदारघाट के विद्या मठ में शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती के कमरे में घुस कर सवा तीन बजे बाहर आए। बातचीत का मुद्दा था कि रामेश्वरम के श्रीराम सेतु को कैसे बचाया जाए? अरसे बाद चंद्रास्वामी को फिर चौधराहट करने का बहाना मिला गया था। अपने को हमेशा किसी-न-किसी तरह सुर्खियों में बनाए रखने के लिए छटपटाते रहने वाले चंद्रास्वामी ने श्रीराम सेतु की रक्षा के लिए इन दो सालों में क्या किया, यह तो वे जानें, लेकिन जानने वाले इतना ज़रूर जानते हैं कि अब वे फिर मंच की तमाम रोशनियों का रुख अपनी तरफ़ करने का कोई मौका तलाश रहे हैं।
श्रीराम सेतु की बात मैं फिर कभी करूंगा। अभी चंद्रास्वामी की बात करें। मैं चंद्रास्वामी से डेढ़-दो दशक पहले सिर्फ एक बार मिला हूं। दिल्ली से मुंबई जा रही उड़ान के दौरान चंद्रास्वामी के एक नजदीकी पत्रकार ने मेरा परिचय उनसे कराया था। चंद्रास्वामी उस जमाने में आसमान पर उड़ रहे थे और उनके आश्रम में जाने वालों की लंबी कतार रहा करती थी। उन्होंने मुझ से भी किसी दिन अपने आश्रम आने को कहा, लेकिन मुझे उनके पास जाने की कभी इच्छा नहीं हुई। इसलिए अब जब चंद्रास्वामी को देश में राम-राज्य की स्थापना का फितूर फिर सवार हुआ है, आपको यह याद दिलाना जरूरी है कि उनका कोई भी सामाजिक-धार्मिक अभियान राजनीतिक कोण रखे बिना कभी शुरू होता ही नहीं है। राम जन्मभूमि आंदोलन के दौरान जिन्होंने चंद्रास्वामी की भूमिका पर गहराई से निगाह रखी होगी, वे जानते होंगे कि भगवा वस्त्रों से लिपटी इस काया की खोपड़ी किस कदर राजनीति में पगी हुई है। चंद्रास्वामी की समर्थक शक्तियां भले ही अब वैसी मजबूत नहीं हैं, भले ही अब देश में ऐसा प्रधानमंत्री नहीं है, जिसके घर में उनकी कार बेरोक-टोक कभी भी घुस जाए और भले ही चंद्रास्वामी का अंतरराष्ट्रीय जलवा अब वैसा नहीं रहा है, मगर मौका मिलते ही गुलाटी खाने का जज्बा अब भी चंद्रास्वामी में उसी तरह बरकरार है। ज्योतिष और तंत्र विद्या के आधे-अधूरे जानकार चंद्रास्वामी अपने सितारों की चाल बदलने को बेताब हैं।
मैं नहीं जानता कि चंद्रास्वामी ने राजीव गांधी की हत्या के लिए इस्राइल के एक भाड़े के हत्यारे को दस लाख डॉलर देने की पेशकश की थी या नहीं? मैं नहीं जानता कि हैरॉड्स पर कब्जे को ले कर जब मुहम्मद अल फयाद और टोनी रॉलैंड के बीच तलवारें खिंची हुई थीं तो चंद्रास्वामी ने रॉलैंड को कैसे काबू किया था? मुझे यह भी नहीं मालूम कि तब चंद्रास्वामी ने रॉलैंड से बातचीत टेप की थी या नहीं और ये टेप तब के बेहद बदनाम बैंक बीसीसीएल की मोंटे कार्लो शाखा के लॉकर में छुपा कर रखे थे या नहीं? मुझे यह भी पता नहीं कि बोफोर्स कंपनी के मुखिया मॉर्टिन आर्डबो से मिल कर चंद्रास्वामी ने उनसे यह कहा था या नहीं कि वे उन्हें बु्रनेई का सलाहकार बनवा सकते हैं और इसके बदले में चंद्रास्वामी आर्डबो से क्या चाहते थे? मैं यह भी नहीं कह सकता हूं कि दो दशक पहले ज्ञानी जैल सिंह को दोबारा राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ऩे के लिए चंद्रास्वामी ने उन्हें चालीस करोड़ रुपए देने का प्रस्ताव रखा था या नहीं? जब मुझे यह सब नहीं मालूम तो फिर यह मालूम होने का तो सवाल ही नहीं है कि नागार्जुन सागर स्रेयाप आयरन स्केंडल में क्या चंद्रास्वामी को महज 23 साल की उम्र में ही न्यायिक हिरासत में रहने का सौभाग्य मिल गया था?
पामुलपर्ति वेंकट नरसिंह राव राजनीति में कितने बड़े संत थे, ये बाकी संत जानते होंगे। मैं तो इतना जानता हूं कि चंद्रास्वामी जैसे संत से उन दिनों नरसिंह राव को खासी ताकत मिलती थी और चंद्रास्वामी की सबसे बड़ी ताकत नरसिंह राव थे। राजस्थान के अलवर जिले के बहरोड़ गांव से चल कर नेमिचंद्र जैन कोई यूं ही चंद्रास्वामी नहीं बन गए। उनका परिवार आंध्र प्रदेश जा कर न बस गया होता और वहां नरसिंह राव से नेमिचंद का संपर्क न हुआ होता तो वे भी लाखों जटाधारियों की तरह रेलवे के किसी प्लेटफॉर्म पर पड़े होते। इसलिए चंद्रास्वामी का यह चमत्कार तो आपको मानना ही पड़ेगा कि ललित नारायण मिश्र, यशपाल कपूर, चरण सिंह, राजनारायण, जगजीवनराम, नानाजी देशमुख और देवीलाल तक कौन है, जिससे उन्होंने कभी न कभी अपनी शागिर्दी न कराई हो। एक जमाना था कि कुर्सी पाने के लिए और अपनी कुर्सी बचाने के लिए देश भर से अपने हवाई जहाज ले कर राजनेता चंद्रास्वामी के आश्रम में पहुंचते थे और हाथ जोड़े कतार में खड़े रहते थे। चंद्रास्वामी अब से तेरह-चौदह बरस पहले लंदन जाते थे तो ब्रिटेन के प्रधानमंत्री जॉन मेजर उनसे मिलने को उत्सुक रहा करते थे और श्रीचंद हिंदूजा से ले कर सरोश जरीवाला तक बिचौलिए की भूमिका अदा करते थे। दिनेश पांड्या जैसे किसी हीरा व्यवसायी के निजी निमंत्रण पर अगर चंद्रास्वामी बैंकाक पहुंच जाते थे तो थाइलैंड की सरकार के बड़े-बड़े मंत्री उनकी अगवानी के लिए विमानतल पहुंचने की होड़ लगाया करते थे। अब से दस बारह साल पहले तक किसी सोमचाई चाईश्री चावला के लिए यह हिम्मत करना महंगा पड़ जाता था कि वह चंद्रास्वामी को विश्वास में लिए बगैर कर्नाटक की सरकार के साथ दस अरब रुपए के सौदे का सहमति पत्र हासिल कर ले।
मैंने चौदह साल पहले का वह वक्त नजदीक से देखा है, जब हमेशा हिम्मत से सराबोर रहने वाले राजेश पायलट ने चंद्रास्वामी को गिरफ्तार करने के निर्देश सीबीआई को दे दिए थे। नरसिंह राव प्रधानमंत्री थे। पायलट उनके आंतरिक सुरक्षा मंत्री थे। तब कानपुर की जेल में बंद बबलू श्रीवास्तव ने रहस्य उजागर किया था कि चंद्रास्वामी के दाऊद इब्राहीम से रिश्ते हैं। मुंबई में दाऊद के कराए बम विस्फोटों के बारूद की बदबू हवा में बाकी थी। बबलू का कहना था कि दीवान भाइयों--विपिन और संदीप—ने चंद्रास्वामी को दुबई में दाऊद से मिलवाया था और बाद में दाऊद ने ही चंद्रास्वामी को दुनिया के सबसे बड़े हथियार सौदागर अदनान खाशोगी से मिलवाया। जाहिर है कि 1995 के सितंबर महीने में तब हवा बेहद गर्म हो गई और पायलट ने सीबीआई से चंद्रास्वामी के खिलाफ कार्रवाई करने को कह दिया। चंद्रास्वामी के सबसे बड़े खैरख्वाह नरसिंह राव परेशान थे। चंद्रास्वामी अपने आश्रम में भीतर से सहमे और ऊपर से उबलते बैठे थे। मिलने वालों की कतार गायब थी। सितंबर के दूसरे सप्ताह के उस सूने शुक्रवार को नरसिंहराव का सिर्फ एक मंत्री चुपचाप चंद्रास्वामी से मिलने उनके आश्रम पहुंचा था। उस शुक्रवार की शाम आते-आते पायलट की गृह मंत्रालय से विदाई हो गई। उन्हें आंतरिक सुरक्षा की जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया गया और पर्यावरण मंत्रालय में भेज दिया गया। यह थी हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में संत-महात्माओं को सताने की सजा। शंकरराव चह्वाण गृह मंत्री थे। पायलट की गृह मंत्रालय से छुट्टी के बाद सीबीआई ने दिखाने के लिए दो-एक बार चंद्रास्वामी से पूछताछ की और बात आई-गई हो गई।
इसलिए दो दशक से भी ज्यादा वक्त से हवा में तैर रहे कई सवाल आज भी जिंदा हैं। सवाल है कि अदनान खाशोगी से चंद्रास्वामी की दोस्ती कैसे हुई थी? खाशोगी जब दिल्ली आए तो चंद्रास्वामी के आश्रम में उनसे कौन-कौन मिलने गए थे? बु्रनेई के सुल्तान से चंद्रास्वामी की ऐसी गहरी दोस्ती क्यों हो गई थी? पामेला बोर्डेस किस्से की सच्चाई क्या थी? भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार में चंद्रास्वामी के किस-किस से क्या संबंध थे? इन तमाम सवालों के कुहासे में घिरे चंद्रास्वामी के राम-राज्य स्थापना अभियान से आपको चिंता होती हो या नहीं, मुझे तो होती है। चंद्रास्वामी भले कितने ही कमज़ोर हो गए हों, मेरे जैसों को तो वे अब भी चुटकियों में उड़ा सकते हैं। इसलिए अगर मेरी यह चिंता मेरे लिए मुसीबत बन जाए तो आप चिंता मत करना।