फिर गंगा के तट पर जन्म लेने की चाह रखने वाले अमिताभ बच्चन 67 साल के हुए तो देश भर के टेलीविजन परदे खूब थिरके और अखबारों के पन्नों ने भी जश्र मनाया। मैं अमिताभ की अदाकारी का प्रशंसक हूं। लेकिन उनसे सहमत नहीं हो सकता, जो अमिताभ की कारोबरी कामयाबी को भारतीय समाज और संस्कृति का मूल-धन मान बैठे हैं। मैं ऐसे अमिताभवादियों को याद दिलाना चाहता हूं कि बात-बात पर अपने बाबूजी को याद करने वाले अमिताभ ने दो-ढाई बरस पहले जब अपने बेटे अभिषेक की शादी की थी तो इलाहाबाद के कटघर में अपने पिता हरिवंशराय बच्चन के छोटे-से घर और उसमें रहने वालों को वे पूरी तरह भूले हुए थे।
अमिताभ दरअसल एक नया समाजशास्त्र रच रहे हैं। उनका यह समाजशास्त्र आज के आर्थिक मूल्यों पर आधारित है। अमिताभ उस जमाने के तो कभी भी नहीं थे, जब तालपत्र पर मोर के पंख से श्लोक लिखे जाते थे। उन्हें बर्रू की कलम को खडिय़ा में डुबो कर गेरू से पुती तख्ती पर लिखने के संस्कार भी शायद ही मिले हों। इसलिए अभिेषक की शादी के मौके पर जिन टेलीविजन चैनलों और अखबारों की अमिताभ ने कोई परवाह नहीं की थी जो इस बात पर हाय-हाय कर रहे थे कि ठग्गू के लड्डू ले कर कानपुर से मुंबई गए बेचारे प्रकाश मामा भीतर भी नहीं घुस पाए और 36 किलो लड्डू 'जलसा’ के बाहर और 15 किलो लड्डू 'प्रतीक्षा’ के बाहर पत्रकारों और राह-चलतों को खिला कर वापस चले आए। बेगानी शादी के दीवाने इन अब्दुल्लाओं को तब भी यह समझ में नहीं आ रहा था कि अमिताभ के बेटे की शादी इसलिए नहीं हुई थी कि जो चाहे, खुश हो ले। वह दो आत्माओं के मिलन की नहीं, दो उत्पादों के विलय की गाथा थी। इस शादी के छह साल पहले तक कैनरा बैंक के पास गिरवी रखे 'प्रतीक्षा’ तक अपने बेटे की बारात ले कर गए हमारे महानायक जब दुल्हन लेकर लौटे तो उनके परिवार का उत्पाद-मूल्य यानी ब्रॉंड-वैल्यू रातों-रात 12 अरब रुपए की हो गई थी। बाजार के आकलन के मुताबिक बाप-बेटे दोनों की ब्रॉंड वैल्यू मिल कर तब तक 7 अरब रुपए की थी और अकेली ऐश्वर्या की ब्रॉंड-वैल्यू ने उसमें 5 अरब रुपए का इजाफा कर दिया था। इसलिए घोड़ी पर चढ़ कर अपनी दुल्हन के पास बारात ले कर जाते अभिषेक यूं ही बार-बार अपने दाहिने हाथ को गोल-गोल कर के नहीं नचा रहे थे। ताजा समाजवाद के सबसे बड़े प्रतीक अमर सिंह भी तब इसलिए अपनी टांगें नहीं थिरका रहे थे कि समाज के बुनियादी मूल्य इस विवाह से मजबूत हो रहे थे। वे सब इसलिए फूले नहीं समा रहे थे कि नई जुगल-जोड़ी के बाजार-मूल्य के सामने अब कौन टिकेगा?
आज के अमिताभ दो-ढाई दशक पुराने वाले अमिताभ नहीं हैं। एक जमाने में वे फोन पर खुद आ कर आपको मुंबई के परेल में कहीं हो रही अपनी फिल्म की शूटिंग के दौरान बातचीत के लिए बुला लिया करते थे। इलाहाबाद से लोकसभा में चुन कर आने के बाद अमिताभ दिल्ली में मोतीलाल नेहरू मार्ग के दो-ए नंबर के बंगले में अपना दफ्तर चलाते थे और दिन भर जब वे अपने काम या लोगों से मिलने-जुलने में मशगूल रहा करते थे तो जया बच्चन बगल भी कमरे में मौजूद रहती थीं। 1985 के अक्टूबर के दूसरे हफ्ते में एक गुनगुनी दोपहर इसी बंगले के लॉन में तब अमिताभ ने मुझ से कहा था कि राजनीति में आने के बाद उन्हें महसूस हो रहा है कि आखिर अब तक वे दुनिया की सच्चाइयों से कितने अनजान थे और समाज की बुनियादी चिंताओं की उन्हें कितनी कम वाकफियत थी। तब अमिताभ अपनी फिल्म 'मर्द’ का प्रीमियर इलाहाबाद में करना चाहते थे और उनका मन था कि उसकी आमदनी से वे वहां के गांवों में सामुदायिक केंद्र बनाने और सौर ऊर्जा की कुछ योजनाएं शुरू करें। यह तो मुझे नहीं मालूम कि वे अपनी यह छोटी-सी इच्छा कभी पूरी कर पाए या नहीं, लेकिन यह मैं जरूर जानता हूं कि अब से 25 बरस पहले भी अमिताभ की संजीदगी का आलम यह था कि इलाहाबाद के लोगों को अपने सांसद की 'गुमशुदगी’ का विज्ञापन अखबारों में छपवाना पड़ा था।
अब अमिताभ को शायद ही यह याद होगा कि उनकी मां तेजी बच्चन अक्सर कहा करती थीं कि अमिताभ अगर राजनीति में गया तो मेरी आत्मा हमेशा भटकती रहेगी। लेकिन अमिताभ राजनीति में आने के बाद इस बात का जवाब यह कह कर देना सीख गए थे कि जिंदगी में परिस्थितियां बदलती रहती हैं और मेरी माताजी ने जब यह कहा था तो हालात और थे, आज हालात और हैं। सो, इतना लंबा रास्ता तय कर आज इस मुकाम तक पहुंच गए अमिताभ की संजीदा अदाओं पर अपनी जान निछावार करने वालों की मासूमियत को सलाम करने का मन करता है। जो लोग इस बात से अभिभूत हैं कि अमिताभ ने अपनी कंपनी एबीसीएल बंद नहीं की और सबकी पाई-पाई चुका दी, उन्हें पूरा हक है कि वे इसके लिए अमिताभ के कसीदे पढ़ें। मैं भी मानता हूं कि अमिताभ चाहते तो हाथ खड़े कर सकते थे। लेकिन वे जानते थे कि इससे उनके आगे के सभी रास्ते पूरी तरह बंद हो जाएंगे। इसलिए अगर उन्होंने 90 करोड़ रुपए का अपना कर्ज उतारा तो किसी पर कोई एहसान नहीं किया।
दूरदर्शन का अमिताभ पर 33 करोड़ रुपए बकाया था। सबको नहीं, मगर कुछ लोगों को तो अब भी यह याद होगा कि किस तरह वे यह रकम चुकाने से कतराते रहे थे। उधर मैडम तुसाद के म्यूजियम में अमिताभ का मोम-पुतला बन रहा था और इधर हमारे महानायक सरकारी दूरदर्शन से कह रहे थे कि वे तैंतीस तो नहीं, नौ-दस करोड़ रुपए ही दे पाएंगे। यह नौ बरस पहले की ही तो बात है। जब छोटे भाई अमर सिंह ने बड़े भाई की इस मामले में मदद करने का बीड़ा उठाया और तय हुआ कि अमिताभ 33 की जगह 20 करोड़ रुपए दे देंगे। 9 करोड़ 65 लाख 50 हजार 583 रुपए का पहला चैक लेकर अमिताभ पहुंचे तो दूरदर्शन के तब के मुखिया राजीव रत्न शाह ने ऐसी भाटगीरी की, गोया कोई बकाएदार रकम चुकाने नहीं, दान देने आया हो। अमिताभ ने कहा कि बाकी की रकम अगले तीन बरस में किस्तों में देंगे और दूरदर्शन ने 'जो हुकुम’ मुद्रा में अपने को कृतार्थ किया। सार्वजनिक धन के चुकारे की इस अदा पर जिन्हें जान छिडक़नी हो, वे छिडक़ें। जो भूलना चाहें, वे यह भी भूल सकते हैं कि अमिताभ की कारोबारी गतिविधियों में उस केतन पारीख ने 70 करोड़ रुपए लगाए थे, जिसकी वजह से शेयर बाजार में आम निवेशकों के खरबों रुपए डूब गए। लोगों को यह भूलने की भी आजादी है कि किस तरह पूजा बेदी को दिया अपना इंटरव्यू अमिताभ ने बाद में स्टार टेलिविजन पर रुकवा दिया था और किस तरह प्रणव रॉय के एनडीटीवी ने दिल्ली के ग्रेटर कैलाश थाने में अमिताभ के खिलाफ विश्वास भंग की आपराधिक प्राथमिकी दर्ज कराई थी।
जिस दौर में 'भारत पर्व’की पहचान सहाराश्री से होने लगी हो और अमिताभ सहारा-गणवेश पहन कर वहां कतार में खड़े रहते हों, जब अमिताभ के जन्म दिन पर जाने के लिए मुलायम सिंह यादव अपने प्रणेता राम मनोहर लोहिया की पुण्य तिथि पर न पहुंच पाते हों, जब सदी के महानायक अपने मुंह-बोले भाई अमर सिंह के साथ बालासाहेब ठाकरे का आशीर्वाद लेने हुलक कर जाते हों; उस दौर में, अमिताभ के शतायु होने की कामना तो मैं कर सकता हूं, लेकिन हर साल उनके जन्म-दिन पर ठुमके लगाना बाकियों को ही मुबारक हो। मैं जानता हूं कि यह समय एक नए अर्थशास्त्र का है। यह समय एक नए समाजशास्त्र का है। अमिताभ को इस नए समाज का शास्त्र लिखने दीजिए। उन्हें अपने दोस्तों के साथ कारोबारी कामयाबी की एक नई इबारत लिखने दीजिए। उनके लिखे को आप नहीं मिटा पाएंगे। जब मिटाएगा, समय ही मिटाएगा।
You are here: Home > राजनीति > लौट जाती है उधर को भी नज़र, क्या कीजै
Tuesday, October 20, 2009
लौट जाती है उधर को भी नज़र, क्या कीजै
Posted by Pankaj Sharma at Tuesday, October 20, 2009
Labels:
अमिताभ बच्चन,
राजनीति
Social bookmark this post • View blog reactions
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
4 comments:
लिखा तो कुछ मैंने भी था। पर आपके इस लेख के मुकाबले तो वो कुछ भी न होगा। आपने तो बाल की खाल ही खींच डाली। आज का सत्य लिख डाला।
http://filmichitchat.blogspot.com
बिलकुल सही बात है । कुलवन्त ने भी एक सवाल उठाया था मगर आपने विस्तार मे उसे लिखा है । धन्यवाद और शुभकामनायें
aap the kahan abhi tak? Chaliye der se hi sahi aapne shuruaat ki. Ummeed hai eisa hi likhte rahenge.
this post featured many satirical sketches about the electronic media and celebs.i really lykd d paragraph where u correlated the marriage of abhi and ash as merging of 2 companies for mutual benefit.
lookin frwd fr ur nxt post....
Post a Comment