फरवरी की शुरुआत में जब राहुल गांधी बिहार गए थे, तभी ये संकेत साफ हो गए थे कि बीस बरस से अलसाई पड़ी कांग्रेस यह साल विदा होते-होते वहां करवट लेने वाली है। बिहार को लेकर राहुल गांधी का उत्साह फिलहाल जिन लोगों को हकीकत से परे लग रहा है, उनकी शतुरमुर्गी सोच आने वाले नवंबर में ही असलियत का अहसास कर पाएगी। कोई चाहे तो आसानी से यह भूल सकता है कि पांच बरस पहले के बिहार ने भी न तो कांग्रेस को सिरे से नकारा था और न ही कांग्रेस-विरोधी राजनीतिक दलों की बलैयां ली थीं। लेकिन दो हजार पांच से दस के बीच तो कोसी में बहुत पानी बह गया है और अब इतना तो सब मान रहे हैं कि इस बार बिहार न तो नीतीश कुमार और उनके साथ खड़ी नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी का स्वागत करने को तैयार है और न ही उसे लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान की मतलबी-जोड़ी पर यकीन हो पा रहा है।
और, पांच साल पहले भी इन सबकी असली हालत क्या थी? 2005 में बिहार में दो बार विधानसभा के चुनाव हुए थे। उस साल फरवरी में हुए चुनाव में ऐसे लटकनपच्चू नतीजे आए कि कोई सरकार ही नहीं बन पाई और विधानसभा भंग हो गई। अक्टूबर-नवंबर में चार चरणों में दोबारा चुनाव हुए। लोगों ने लालू-राबड़ी के पंद्रह बरस से आजिज आ कर सिंहासन नीतीश कुमार को सौंप दिया। इस बात से क्या मुंह चुराना कि फरवरी में हुए चुनाव में कांग्रेस को 10 सीटें मिली थीं और अक्टूबर में चुनाव हुए तो सीटें 9 रह गईं। लेकिन क्या यह भूल जाएं कि फरवरी में कांग्रेस ने 84 उम्मीदवार उतारे थे और अक्टूबर में सिर्फ 51 ही? फरवरी में कांग्रेस को करीब 15 प्रतिशत वोट मिले थे। अक्टूबर में वे बढ़ कर 29 प्रतिशत हो गए। 84 सीटों पर लड़ने के बावजूद फरवरी में कांग्रेस को 12 लाख 23 हजार वोट मिले और आठ महीने बाद 33 उम्मीदवार कम उतारने के बावजूद उसे 14 लाख 35 हजार वोट मिल गए। पांच बरस पहले के बिहार में आठ महीने के भीतर सवा दो लाख वोटों की यह बढ़ोतरी भी जिन्हें 2010 के नवंबर की हवा का संकेत नहीं देती हो, उनकी राजनीतिक समझ को प्रणाम करने के अलावा क्या किया जा सकता है?
2005 की असलियत यह है कि तब फरवरी और अक्टूबर-नवंबर के बीच बिहार में कांग्रेस के अलावा सिर्फ भारतीय जनता पार्टी और युनाइटेड जनता दल की ही राजनीतिक जमीन मजबूत हुई थी। लालू प्रसाद, रामविलास पासवान, वाम दलों और निर्दलियों के नीचे से जमीन खिसक गई थी। लालू को फरवरी में 75 सीटें मिली थीं और नवंबर आते-आते वे 54 पर रह गए थे। पासवान को फरवरी में 29 सीटें मिली थीं, नवंबर में तकरीबन सभी सीटों पर लड़ने के बावजूद वे 10 पर झूल रहे थे। फरवरी में 17 सीटें जीत गए निर्दलीय नवंबर में 10 पर सिमट गए थे। लालू के राश्ट्रीय जनता दल को फरवरी में 61 लाख से ज्यादा वोट मिले थे, अक्टूबर आते-आते वे 55 लाख रह गए। उन्हें सात महीनों में सात लाख वोटों का घाटा हो चुका था। पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी को फरवरी में 31 लाख वोट मिले थे और अक्टूबर में वह 26 लाख पर आ टिकी। पासवान भी इस बीच पांच लाख वोट खो चुके थे। मार्क्सवादी पार्टी को इस बीच हजारों वोटों का नुकसान हो चुका था और कम्युनिस्ट पार्टी के हाथ से भी 65 हजार वोट फिसल चुके थे। हां, भाजपा की सीटें जरूर 37 से 55 हो गई थीं और जदयू 55 से बढ़ कर 88 पर पहुंच गई थी। यानी सेकुलर पार्टियों में से अगर किसी पर बिहार के मतदाता का भरोसा तब बढ़ा था तो वह कांग्रेस ही थी।
अक्टूबर-नवंबर ’05 के चुनाव की कुछ सच्चाइयां और जान लीजिए। कांग्रेस के तब सिर्फ नौ उम्मीदवार ही विधानसभा की दहलीज तक पहुंच पाए थे, मगर 33 विधानसभा क्षेत्र ऐसे थे, जहां कांग्रेसी उम्मीदवार बहुत कम वोटों के अंतर से दूसरे क्रम पर रहे थे और उन्हें 30 से 45 हजार तक वोट मिले थे। कोलगोंग में पड़े वोटों का 36 प्रतिशत से ज्यादा कांग्रेस को मिला, लेकिन 45 हजार से ज्यादा वोट पा कर भी कांग्रेसी उम्मीदवार पिछड़ गया। बगहा में 35 प्रतिशत से ज्यादा वोट कांग्रेस को मिले, लेकिन 42 हजार से अधिक वोट भी उसे जिता नहीं पाए। सिमरी बख्तियारपुर में कांग्रेस को साढ़े 37 प्रतिशत वोट मिले, लेकिन सीट फिसल गई। मांझी में कांग्रेस को 40 प्रतिशत वोट मिले, लेकिन सीट हाथ से निकल गई। वारसलीगंज में 41 प्रतिशत से ज्यादा वोट पा कर भी कांग्रेसी उम्मीदवार नहीं जीता। पांच बरस पहले किनारे पर डूबी कांग्रेसी किश्ती का यह किस्सा बेतिया, चनपतिया और बचवाड़ा से ले कर बरगिहा, फतुआ और पटना-पश्चिम तक पसरा पड़ा है।
2005 में बाकी राजनीतिक दलों की हालत क्या थी? जदयू के 51 उम्मीदवार हारे थे और उनमें से 9 की तो जमानत जब्त हो गई थी। भाजपा के 47 उम्मीदवार घर बैठ गए थे और उसके भी 9 प्रत्याशियों ने जमानत खो दी थी। लोजपा के तो 193 उम्मीदवार बुरी तरह हारे थे और उनमें से 141 जमानत भी नहीं बचा पाए थे। राजद के 121 उम्मीदवार लालू की माला जपने के बावजूद हारे थे और 8 की जमानत जब्त हुई थी। मायावती की बहुजन समाज पार्टी भी मैदान में थी और उसके 208 उम्मीदवार बेहद बुरी हालत में हारे थे। इनमें से भी 201 की तो जमानत भी नहीं बची थी। मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी भी इतराते हुए बिहार के मैदान में उतरी थी और उसने 158 उम्मीदवार मैदान में उतार दिए थे। 156 हार गए और उनमें से 150 की जमानत भी जाती रही। कम्युनिस्ट पार्टी का तब सिर्फ एक उम्मीदवार जीता था और मार्क्सवादी पार्टी के महज तीन। आज अपने को सूरमा बता रहे राजनीतिक दलों की हालत तो पांच बरस पहले के बिहार में भी यह थी कि बहुत-सी सामान्य सीटों पर राजद की भद्द पिट गई थी। मसलन, मुजफ्फरपुर में उसके उम्मीदवार को महज पौने तीन हजार वोट मिले थे। लोजपा को भी ज्यादातर सीटों पर दो-एक हजार वोट ही मिले थे। मसलन, धनाहा जैसी सीट पर भी उसे सिर्फ तेरह सौ वोट से संतोश करना पड़ा था। बसपा की हालत तो यह थी कि उसके उम्मीदवार को दरभंगा में 860 और आदापुर में 926 वोट मिले। भोर, भैरवा, राजौली, राजगीर और बरबिगहा जैसी आरक्षित सीटों तक पर बसपा इतनी बुरी तरह हारी कि उसे एक से दो हजार के ही बीच वोट मिले। लोजपा और सपा भी ज्यादातर आरक्षित सीटें बुरी तरह हारे। सपा की झोली में तो बहुत-सी जगह पांच-सात सौ वोट भी मुश्किल से पड़े। मोतिहारी जैसे निर्वाचन क्षेत्र में भी उसे 692 वोट ही मिले। पटना-पूर्व, दिनारा और पालीगंज में भी सपा का आंकड़ा पांच सौ के आसपास ही झूलता रहा।
हारे तो कांग्रेस के उम्मीदवार भी। उनमें से कुछ की जमानतें भी जब्त हुईं। लेकिन फर्क यह है कि बारसलीगंज में 36 हजार 851 वोट पाने के बाद भी कांग्रेस हार गई। रक्सौल में 23 हजार, घुरैया में 21 हजार, चकई में साढ़े 18 हजार और भैरवा में 15 हजार वोट पा कर भी कांग्रेस के उम्मीदवार नहीं जीत पाए। हरसिद्धी में कांग्रेसी उम्मीदवार की जमानत 13 हजार से ज्यादा वोट पाने के बाद भी जब्त हो गई। ऐसी और भी कई मिसालें हैं। कांग्रेस को छोड़ कर कोई ऐसा राजनीतिक दल नहीं था, जिसके उम्मीदवार की जमानत किसी-न-किसी आरक्शित सीट पर 2005 में जब्त नहीं हुई। लेकिन कांग्रेस के किसी भी अनुसूचित जाति-जनजाति प्रत्याशी ने अपनी जमानत नहीं गंवाई। कांग्रेसी उम्मीदवारों की हार भी काफी कम अंतर से हुई थी। मांझी, बनियापुर, मसरख, गरखा और वैशाली जैसे कई इलाकों में कांग्रेस बहुत ही कम फर्क से हारी। इनमें से हर जगह जदयू या भाजपा जीती। और, जहां-जहां कांग्रेस जीती, काफी वोटों से जीती। बहादुरगंज में कांग्रेस 43 हजार वोटों से जीती। अमौर में साढ़े 14 हजार और कोरहा, शेखपुरा और सिंघिया में 12 हजार से ज्यादा वोटों के अंतर से कांग्रेसी प्रत्याशी जीते थे।
बिहार में पंद्रह बरस के लालू-कुराज में करीब आधा वक्त लालू ने राज किया और बाकी आधा वक्त उनकी अर्धांगिनी राबड़ी देवी ने। अब पांच साल से लोग नीतीश-भाजपा की नटबाजी भी देख रहे हैं। बिहार की राजनीतिक रस्सी पर चलने का दोनों का संतुलन पिछले कुछ महीनों में पूरी तरह गड़बड़ हो गया है। पांच साल पहले बिहार के जिन लोगों ने लालू और पासवान को आपस में तू-तू-मैं-मैं करते अपनी आंखों से देखा है, क्या वे आसानी से उनकी गलबहियों पर ऐतबार कर लेंगे? इसलिए, बिहार के बदलते मत-समीकरण के ताजा दौर में, राहुल गांधी वहां कांग्रेस की सीटों को तीन अंक तक पहुंचाने का ब्लू-प्रिंट अगर तैयार कर रहे हैं, तो आज उसे मजाक में उड़ा देने वाले, इस साल की सर्दियां आते-आते अपने को राजनीतिक बर्फ में बुरी तरह ठिठुरता हुआ भी पा सकते हैं। पिछले पांच साल में बिहार का माहौल बहुत बदल गया है। युवा और दलित वर्ग में राहुल गांधी की पैठ ने समाजशास्त्रियों को भी आंखें मसलने पर मजबूर कर दिया है। बिहार का अल्पसंख्यक लालू-पासवान की टोपियों की असलियत समझ गया है। उसे नीतीश के ताजा मुखौटे पर भी यकीन नहीं हो रहा है। 2010 में राहुल के मिशन-बिहार को संजीदगी से लेना इसीलिए जरूरी है।
Thursday, July 8, 2010
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राहुल गांधी और मिशन-बिहार |
Thursday, March 18, 2010
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कैसे थमे खबरों का कारोबार ? |
अच्छा हुआ कि मई 2009 में हुए लोकसभा चुनाव के दौरान ज्यादातर मीडिया-समूहों ने नंगई की सारी हदें पार कर दीं। अगर ऐसा न होता तो अंधेरे कोनों में पेड-न्यूज का बिस्तर अभी पता नहीं कितने अरसे इतनी ही बेशर्मी से गर्म होता रहता? लेकिन क्या यह धंधा इसी चुनाव से शुरू हुआ था और क्या पेड-न्यूज की कारस्तानी सिर्फ राजनीतिक दुनिया तक ही सीमित है? क्या सिर्फ यह हल्ला मचा लेना ही काफी है कि पेड-न्यूज के काले धंधे को बंद किया जाए? आखिर वह मट्ठा कौन-सी हांडी में रखा है, जिससे इस धंधे की जड़ें चौपट हो सकती हैं?
खबरों को प्रभावित करने की कोशिशें जमाने से होती रही हैं। इसमें कुछ भी नया नहीं है। मुझे नहीं लगता कि कभी ऐसा जमाना रहा होगा, जब यारी-दोस्ती के नाम पर, खाने-पीने के नाम पर, होली-दीवाली के नाम पर, खबरों में तोड़-मरोड़ नहीं होती रही होगी। तीस साल पहले जब मेरे जैसे लोग पत्रकारिता में आए थे तो पैसे के लेन-देन की बातें सुनने को नहीं मिलती थीं, लेकिन अपनी-अपनी राजलीलाओं या रामलीलाओं की खबरें और तसवीरें छपवाने के लिए संपादक या संवाददाता के घर खारी बावली से चावल-मसाले भिजवाने के किस्से दबे-छिपे तब भी सुनने को मिलते रहते थे।
उस जमाने के राजनीतिक अखबारनवीसों से अपने संबंध बनाए रखने के लिए अगर ज्यादा से ज्यादा कुछ करते थे तो रात्रि-भोज और रस-पान का थोड़ा-बहुत इंतजाम। हां, व्यापार-जगत, खेलों की दुनिया और फिल्म-जगत कवर करने वाले पत्रकारों को तब शायद थोड़ी ज्यादा सहूलियतें मिल जाया करती थीं। पत्रकारिता में लिफाफा-संस्कृति की शुरुआत अगर कहीं से हुई तो फिल्म-पत्रकारिता से और फिर व्यापार-पत्रकारिता से। मुझे याद है कि किस तरह ऐन वक्त तक लिफाफा नहीं मिलने पर एक नामी फिल्म समीक्षक ने उस जमाने में आई रेखा की हिट फिल्म "खूबसूरत" की अपने अखबार में रेड़ पीट दी थी। इस दौर में व्यापार-पत्रकारिता करने वाले संवाददाताओं में से ज्यादातर ने अपने गुट बना रखे थे और उन्हें प्रेस कांफ्रेंस में लिफाफे मिलने शुरू हो गए थे।
लेकिन दुनिया तेजी से बदलने लगी थी। 1985-86 आते-आते प्राथमिकता के आधार पर बड़ी-बड़ी कंपनियों के शेयर नामी संपादकों और संवाददाताओं को मिलने की बातें होने लगीं। जिनके दर्शन कर मुझ जैसे कस्बाई बालक अपने को दिल्ली-मुंबई में धन्य समझते थे, उनके बारे में ऐसी-ऐसी बातें सुनने को मिलने लगीं कि मानने को मन नहीं करता था। अस्सी-नब्बे के दशक में तेजी से अपना विस्तार कर रही निजी कंपनियों ने अपने झोले से शेयर निकाल-निकाल कर मीडिया-जगत में बांटने शुरू कर दिए और जिन्हें शेयर-कारोबार की समझ थी, उनमें से शायद ही किसी ने तब बहती गंगा में हाथ धोने से गुरेज किया होगा। उस दौर में जीन्स पहन कर पत्रकारिता में नई आचार संहिता की शुरुआत करने वाले दिग्गज तो खैर कई कंपनियों के शेयर-धारक हो ही गए थे, मगर इंदिरा गांधी से अपनी करीबी को ले कर इतराने वाले और बाद में भारतीय जनता पार्टी का भगवा थाम कर प्राण दे देने वाले एक परंपरावादी बुजुर्ग संपादक भी अपने सामने नाचते शेयर-पत्र देख कर ऐसे स्खलित हुए कि बड़े-बड़े हकबका गए।
अब कैसे मान लिया जाए कि तब के धन्ना सेठों की कंपनियों को अपने हाथ-पैर पसारने में मीडिया जगत की तत्कालीन हस्तियों से मदद नहीं मिली होगी? और, आजादी के बाद देश का मीडिया कब इतना आजाद था कि अपने मालिक के इशारे पर खबरों में जोड़-घटाव का काम नहीं करता होगा? बावजूद इसके कि संपादकों और पत्रकारों की आंखों का पानी काफी बाकी था, क्या ऐसे संपादकों की कोई कमी थी जो हर सुबह मालिक या उसके रिश्तेदारों के पैर छूने जाया करते थे? क्या ऐसे मालिकों की कोई कमी थी, जो गैर-मीडिया कारोबार करने वाले अपने मित्रों को अपने अखबार के जरिए हर तरह की मदद मुहैया कराया करते थे? आखिर इसे किस पेड-न्यूज के दायरे में रखेंगे आप?
विज्ञापनों की दुनिया से अपना जलवा शुरू करने के बाद संपादक बन गए और बाद में शिवसैनिक तक की गति को प्राप्त हुए एक नामी-गिरामी चेहरे ने तो कला की दुनिया तक को नहीं बख्षा था। आज हुसैन समेत तमाम कलाकारों की कृतियां यूं ही करोड़ों में नहीं बिक रही हैं। इस शख्स ने तब अपनी पत्रिका के पन्नों पर मुहिम चलाई थी कि कलाकृतियों में निवेश से जितना फायदा भविष्य में होगा, न जमीन में निवेश से होगा, न सोने में निवेश से। उस दौर में जिन कलाकारों का महिमा-मंडन हुआ, उनके पीछे कौन-सी आर्ट-गैलरियां थीं? कलाकारों और कला-दीर्घाओं के बीच कलाकृतियों की कीमत के बंटवारे का बीजगणित जिन्हें मालूम है, वे तय करें कि इस सबको पेड-न्यूज की किस श्रेणी में रखा जाए?
सरकारी और निजी कंपनियां पत्रकारों को अपने समारोह कवर कराने के लिए विमानों से ले जाने लगीं। राज्य सरकारें नामी पत्रकारों को अपने विकास कार्यों का जायजा लेने बुलाने लगीं। विदेशी सरकारें प्रभावशाली पत्रकारों को अपने देश घुमाने लगीं। पर्यटन का सिरमौर बनने के इच्छुक देशों का निजी क्षेत्र पत्रकारों के दल आमंत्रित करने लगा। अप्रत्यक्ष पेड-न्यूज का धंधा दीवाली के चांदी के सिक्के से बहुत आगे निकल गया। अमेरिका से नए-नए सीख कर आए एक नौजवान मीडिया-मुगल ने अपने समूह के संपादकों को पहले तो हुक्म दिया कि वे प्रायोजित दौरे पर गए संवाददाताओं की रपटों के नीचे यह सूचना छापें कि रपट प्रायोजित है। फिर उसने हुक्म सुनाया कि सभी संवाददाता पत्रकार सम्मेलनों में मिले तोहफे कंपनी के स्टोर में जमा कराएं। हाल यहां तक पहुंचा कि देश के मीडिया शिखर पर बैठी इस कंपनी ने अपने अखबारों के संवाददाताओं को खुद के खर्च पर कहीं भी भेजना ही बंद कर दिया और उन्हें सिर्फ प्रायोजित दौरों पर ही जाने की इजाजत दी जाने लगी।
बाद में मुद्रित शब्द को बाकायदा बेचने की संस्थागत शुरुआत अपने को ”अखबार की कीमतों का चैकीदार” घोषित करने वाले इसी मीडिया-समूह ने की। निजी किस्म के सामाजिक समारोहों की खबर और तसवीर शुल्क ले कर छापने से यह धंधा आरंभ हुआ। पेज-थ्री खुलेआम बिकने लगा और इन रपटों में कहीं इस बात का जिक्र नहीं होता था कि खबर छापने के लिए पैसे लिए गए हैं। कंपनी के मालिक ने एक अलग विभाग बनाया और खबरों को छापने का रेट-कार्ड छापा। अब तक प्रायोजित फीचर और विशेष परिशिष्टों का ही जमाना था और उनके बारे में पाठक जानते थे कि इस सामग्री के प्रकाशन के लिए भुगतान लिया गया है। मगर अब खबरों को बेचने का धंधा शुरू हो गया था और पाठक को यह मालूम ही नहीं होता था कि किस फ्लॉप फिल्म को लाजवाब बताने के लिए, किसकी शादी-पार्टी की तसवीरें छापने के लिए और किस उत्पाद के लांच की खबर के लिए बाकायदा एक रेट-कार्ड के आधार पर पैसा वसूला गया है। और इस सबके पीछे मालिक की दलील क्या थी? दलील यह थी कि जब विभिन्न कंपनियों और व्यक्तियों के जनसंपर्क अधिकारियों तथा संवाददाताओं की मिलीभगत से इस तरह की खबरें और तसवीरें उनके अखबारों में छपती ही रहती हैं तो फिर इसका सीधा लाभ कंपनी को ही क्यों न मिले? कंपनी के मालिक अपने को आज भी इसलिए दूध का धुला मानते हैं कि वे सिर्फ मनोरंजन और जीवन-शैली से संबंधित पन्नों को ही बेचते हैं।
चंद बरस पहले इस कंपनी ने एक और काम शुरू किया। उसने एक-एक कर पचासों कंपनियों के साथ यह समझौता किया कि वे उसके अखबारों में विज्ञापन के बदले उसे पैसे देने के बजाय एक निश्चित संख्या में अपने शेयर दे दें। विज्ञापनदाता कंपनी को लगा कि आज के भाव पर शेयर देने में फायदा है और मीडिया कंपनी जानती थी कि शेयर बाजार का धंधा किस तरह चलता है। अब आम पाठक को कौन यह बताएगा कि किस-किस कंपनी से मीडिया समूह का सीधा हित जुड़ा है और उन कंपनियों के उत्पादों के बारे में उसके अखबारों में छपने वाली खबरों से शेयर की कीमतों पर कैसा असर पड़ रहा है? इसे पेड-न्यूज की श्रेणी में रखा जा सकता है या नहीं? यह मीडिया-समूह देश का सबसे बड़ा आर्थिक अखबार भी निकालता है। हाल ही में उससे एक डिप्टी एडीटर को मुंबई में एक कंपनी से उसके खिलाफ खबर नहीं छापने के लिए सात लाख रुपए लेते हुए पुलिस ने हिरासत में ले लिया। आरोप है कि एक करोड़ रुपए मांगे गए थे, पच्चीस लाख में सौदा तय हुआ और सात लाख पहली किस्त थी।
लब्बोलुआब यह कि खबरों की तोड़-मरोड़ का खेल राजनीति के मैदान से कहीं बहुत आगे बढ़ कर दूसरे मैदानों में खेला जा रहा है। राजनीति की दुनिया में तो इसकी शुरुआत उन लोगों ने की, जो एक धक्का और देने का नारा लगा कर तमाम मूल्यों को जमींदोज करने को ही सच्चा हिंदुत्व मानते हैं और जो समाजवाद के नाम पर पूंजी के डांस-बार में नंगे नाच रहे हैं। सियासत को आमोद-प्रमोद-रंजन-मनोरंजन में तब्दील करने वालों ने मीडिया का इस्तेमाल करने के लिए पैसे लुटाने शुरू किए और स्वाधीनता संग्राम के दिनों में तोप का मुकाबला करने के लिए अपने दादा-पड़दादाओं द्वारा निकाले गए अखबारों को उनके बेटों-पोतों ने इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में अपनी टपकती लार सुड़कते हुए कुछ राजनीतिकों की कलाई का गजरा बना दिया। पैकेज और री-चार्ज पैकेज ने अच्छे-अच्छों को डिगा दिया। चुनावी सर्वे के नाम पर टेलीविजन के परदों पर चल रहे खेल को भी सब समझ गए। अच्छा है कि आज सब पेड-न्यूज के खिलाफ एक सुर में आलाप लगा रहे हैं। मार्क्सवादी प्रकाश करात और भाजपा की सुषमा स्वराज मिल कर पेड-न्यूज पर पाबंदी के लिए कानून लाने की बात कर रहे हैं। सभी राजनीतिक दल अब इस सोच में डूब गए हैं कि 32 साल पहले बनी प्रेस कौंसिल आखिर कर क्या रही है और उसे और ज्यादा अधिकार दिए जाने जरूरी हैं। कुछ को लग रहा है कि जन-प्रतिनिधित्व कानून में ऐसे संषोधन किए जाने चाहिए कि पेड-न्यूज की कालिख से छुटकारा मिले। कहा जा रहा है कि निर्वाचन आयोग को इस मामले में कुछ अधिकार दे दिए जाने चाहिए।
जब जागो, तब सवेरा। लेकिन निवेदन यह है कि पेड-न्यूज के सिर्फ राजनीतिक मैदान को देखने से ही काम नहीं चलेगा। इस मैदान से भी कई बड़े मैदान हैं, जहां की चीयरगर्ल्स ज्यादा सनसनीखेज जलवे दिखा रही हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि राजनीतिकों पर चुनाव के वक्त पड़ने वाले मीडिया के दबाव ने उनकी चीख निकाल दी है और बाकी मैदानों के खिलाड़ी खुशी-खुशी मीडिया के साथ हैं। लेकिन पेड-न्यूज तो पेड-न्यूज है। हमला तो जड़ पर होना चाहिए। इसलिए किसी भी समाज या सरकार को तय तो यह करना होगा कि कैसे सब अखबार मालिक यह सार्वजनिक घोषणा करें कि मीडिया-समूह के अलावा उनके व्यापारिक हित और कहां-कहां जुडे हैं? उनके परिवारजन के व्यवसाय क्या हैं? वे किस राजनीतिक दल की किस कुर्सी पर विराजमान हैं? किस कंपनी में उनके कितने शेयर हैं? कहां किस निर्माण कार्य की ठेकेदारी उनकी किस कंपनी ने ले रखी है? उनके मीडिया-समूह में किस-किस की कितनी पूंजी लगी है? अगर सरकार ने उन्हें मीडिया गतिविधि के लिए रियायती जमीन दी है तो उसके कितने प्रतिशत हिस्से का वे मीडिया गतिविधि के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं और कितने का बाकी किसी और व्यवसायिक गतिविधि के लिए? ऐसी ही सार्वजनिक घोषणा अखबारों और चैनलों के संपादक करें, बाकी पत्रकार करें। प्रार्थना कीजिए कि कभी ऐसा दिन आए!