Tuesday, May 5, 2015

ये राहुल, वो राहुल नहीं लगते


पंकज षर्मा
जिन्हें लगता था कि राहुल गांधी पता नहीं कहां चले गए हैं और अब कांग्रेस का क्या होगा, वे राहुल के लौटने के बाद उनकी भाग-दौड़ और जुबानी सक्रियता देख कर ज़रा हकबकाए हुए हैं। क़रीब दो महीने के अपने अज्ञातवास से वापस आने के बाद राहुल ने दिल्ली के रामलीला मैदान से जो दौड़ षुरू की है, उसकी पदचाप केदारनाथ, पंजाब और विदर्भ तक ने सुन ली है। लोकसभा में भी राहुल भारतीय जनता पार्टी और ख़ास कर प्रधानमंत्राी नरेंद्र मोदी की चुटकी लेने का कोई मौक़ा हाथ से नहीं जाने दे रहे हैं। 2019 आने में अभी वक़्त है। लेकिन इतना तो तय है कि ये राहुल, वो राहुल नहीं हैं और अगर अपनी सियासी-त्वरा वे इसी तरह बनाए रखे तो कांग्रेस के दिन उतने भी बुरे नहीं हैं, जितने पिछले बरस की गर्मियों में दिखाई दे रहे थे।
राहुल की राह लंबी है। अपनी सोहबत पर अटूट विष्वास के चलते कांग्रेस के माथे पर लगा 44 का कलंक राहुल को ठीक से सोने नहीं देता होगा। वे यह भी जानते होंगे कि इसे धोने के पहले अगले चार साल में उन्हें जिस बाधा-दौड़ से रू-ब-रू होना है, वह काफी पसीना मांगती है। राहुल के मौजूदा तेवरों में यह ठोस संकेत तो दिखाई देता है कि वे हर कीमत चुकाने को तैयार हो कर आए हैं। कांग्रेस के षीषम से लिपटी पुरातन और नई-नवेली अमरबेलों से अगर वे बचे रह सके तो उनकी नई चेतना कांग्रेस को 2019 आते-आते पुनर्जीवन दे सकती है।
इसके लिए राहुल को अगले चार बरस में प्रादेषिक चुनावों के चक्रव्यूह से गुजरना होगा। इस दौरान देष भर में 3217 विधानसभा क्षेत्रों के चुनाव होंगे। दो दर्जन से ज़्यादा इन राज्यों में पिछले पांच वर्षों में हुए चुनावों में कांग्रेस को सिर्फ़ 828 सीटें मिली हैं। बावजूद इसके कांग्रेस की हालत इसलिए ठीक-ठाक मानी जाएगी कि अगर आधा दर्जन राज्यों को छोड़ दें तो बाकी सब में कांग्रेस को 35 से 50 प्रतिषत तक वोट मिले थे। जहां कांग्रेस को बुरी तरह मुंह की खानी पड़ी, उनमें से एक राज्य बिहार है और वहां इसी साल नवंबर में विधानसभा के चुनाव होने हैं। पिछली बार के चुनाव में कांग्रेस बिहार की सभी 243 सीटों पर लड़ी थी और महज 4 पर ही जीत पाई थी। उसे वोट भी सिर्फ़ 8.37 प्रतिषत ही मिला था। बिहार राहुल गांधी के लिए सबसे पहली चुनौती है। उनके मजमे में एकला चलो रे का इकतारा बजाने वाले भी हैं और समान विचार वाले राजनीतिक दलों के साथ चलने का समूह-गान गाने वाले भी। भाजपा-विरोधी वोटों को बंटने से रोकने के फ़र्ज़ और अपनी पार्टी की जड़ें गांव-गांव तक मजबूत करने के धर्म में से कोई एक राहुल को चुनना होगा।
बिहार विदा होगा तो 2016 में 824 विधानसभा क्षेत्रों के चुनाव राहुल के सामने होंगे। अगले साल मई में पष्चिम बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु और पुदुचेरी में कांग्रेस का रास्ता मखमली बनाना किसी के लिए भी आसान नहीं है। पिछले चुनावों में कांग्रेस ने इन राज्यों में 170 सीटें जीती थीं। यह आंकड़ा जितना कमज़ोर दिखता है, उतना है नहीं, क्योंकि कांग्रेस ने अपने उम्मीदवार सिर्फ़ 353 सीटों पर ही उतारे थे। असम की सभी 126 सीटों पर कांग्रेस ज़रूर लड़ी थी और उनमें से 78 उसने जीत भी लीं, लेकिन पष्चिम बंगाल में वह 294 में से सिर्फ़ 66 सीटों पर ही लड़ी और 42 पर जीती। केरल की 140 में से 81 सीटें कांग्रेस लड़ी और 38 जीती। तमिलनाडु की 234 में से कांग्रेस लड़ी तो सिर्फ़ 63 पर ही, लेकिन अपनी झोली में ला भी महज 5 सीटें ही पाई। राहुल के सामने इस बार वहां सबसे बड़ी दुविधा अपने हमजोली की तलाष की होगी।
2017 में राहुल गांधी को फिर 690 विधानसभा क्षेत्रों में अपना जौहर दिखाना होगा। इस बार उŸार प्रदेष और पंजाब जैसे राज्यों की चुनौती उनके सामने होगी। मार्च और मई के महीने में ही उŸाराखंड, गोआ और मणिपुर के चुनाव भी होंगे। इन पांच प्रदेषोें में पिछली बार हुए चुनावों में कांग्रेस को 157 सीटें मिली थीं। बावजूद इसके कि पिछली बार राहुल गांधी ने उŸार प्रदेष की खाक छानने में कोई कसर बाकी नहीं रखी थी और बावजूद इसके कि कांग्रेस ने राज्य की 403 सीटों में से 355 पर अपने उम्मीदवार खड़े किए थे, पार्टी 28 पर सिमट गई थी। राहुल को देखना होगा कि उन्हें डगर-डगर घुमाने वाले देष भर में और ख़ास कर उŸार प्रदेष में इस बार कोई कोताही न होने दें। 2017 में पंजाब भी कांग्रेस के लिए बेहद अहम होगा और वहां की सांगठनिक उथल-पुथल पर राहुल को वक़्त रहते लगाम कसनी होगी।
अगले लोकसभा चुनावों से एक साल पहले 2018 की षुरुआत गुजरात के विधानसभा चुनाव से होगी। गुजरात की 182 विधानसभा सीटों में से कांग्रेस पिछली बार 6 को छोड़ कर सभी पर लड़ी थी। नरेंद्र मोदी का जादू जब लोगों के सिर चढ़ कर बोल रहा था, तब भी कांग्रेस ने गुजरात में 61 सीटें जीती थीं और उसे 40.5 प्रतिषत वोट मिले थे। गुजरात की तैयारी अगर कांग्रेस अभी से कर ले तो वहां भाजपा को ता-ता-थैया कराना कोई बहुत मुष्क़िल भी नहीं है। 2018 में सात प्रदेषों की 694 विधानसभा सीटों पर चुनाव होंगे। पिछली बार इनमें से 300 सीटें कांग्रेस को मिली थीं। हिमाचल प्रदेष, कर्नाटक, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड और त्रिपुरा में कांग्रेस की हालत आज भी कमो-बेष ठीक-ठाक है और बिला नागा सियासी व्यायाम के ज़रिए उसे और बेहतर बनाए रखने में राहुल गांधी क्यों क़ामयाब नहीं रहेंगे? मध्यप्रदेष, छŸाीसगढ़ और राजस्थान की विधानसभाओं का कार्यकाल यूं तो 2019 के षुरू होते ही ख़त्म हो रहा होगा, लेकिन उनके चुनाव भी 2018 के दिसंबर में हो जाएंगे। इन तीन राज्यों की 520 सीटों में से कांग्रेस को पिछली बार सिर्फ़ 118 पर ही जीत हासिल हो सकी थी। राजस्थान में तो सभी 200 सीटें लड़ने के बाद भी उसे महज 21 सीटें मिली थीं। इस हार के बाद पहले दिन से ही राजस्थान पर कांग्रेस जिस तरह ध्यान दे रही है, उसने वहां के राजनीतिक आसमान को अनुकूल बनाया है। मध्यप्रदेष और छŸाीसगढ़ में भी राहुल गांधी अगर देर नहीं करेंगे तो कुहासा जल्दी ही छंटना षुरू हो जाएगा।
2019 की गर्मियां आते-आते पांच और राज्यों की विधानसभाएं भी काया-कल्प का इतज़ार कर रही होंगी। ज़्यादा संभावना यही है कि आंध्र प्रदेष, तेलंगाना, उड़ीसा, अरुणाचल प्रदेष और सिक्किम के विधानसभा चुनाव मई में लोकसभा के साथ ही होंगे। इसलिए इन राज्यों में तब चलने वाली लहरों का असर, ज़ाहिर है कि, पड़ेगा। मोदी-लहर तब कितनी उछालें लेगी, राहुल गांधी लहर तब कितना आसमान छुएगी, इसका आकलन अभी कौन कर सकता है? आज का तथ्य तो यह है कि इन प्रदेषों में कांग्रेस को पिछली बार 533 में से 100 सीटें ही मिली थीं। उड़ीसा में भी उसकी सांसें बुरी तरह फूल गई थीं। तेलंगाना के निर्माण से कांग्रेस ने वहां की जन-आकांक्षाओं को पूरा करने का अपना सामाजिक दायित्व भले ही निभा दिया, मगर यह संवेदना सियासी तौर पर उसे भारी पड़ी है। आंध्र प्रदेष और तेलंगाना की पारंपरिक कांग्रेसी ज़मीन को फिर सींचने की ज़िम्मेदारी भी राहुल को निभानी होगी, ताकि दोनों प्रदेषों में कांग्रेस घर की भी रहे और घाट की भी।
क्या यह सब इतना आसान होगा? क्या राहुल गांधी इतना पसीना बहा पाएंगे? क्या अब वे फिर उदास हो कर कहीं नहीं जाएंगे? क्या अब वे ता-जिं़दगी मैदान में डटे रहेंगे? ऐसे सभी सवालों के जवाब तो अगले कुछ महीनों में पूरी तरह साफ हो ही जाएंगे। राहुल का ताजा जज़्बा अगर कोई इषारा है तो इषारों को न समझने वाले आने वाले दिनों में आंखें फाड़े घूम भी रहे होंगे। लेकिन असली सवाल तो ये हैं कि क्या राहुल के साथ कांग्रेस भी इतना पसीना बहा पाएगी? जिनका पसीना सूख गया है, क्या वे समानांतर टहनियां उगने देंगे? बरसों से बोंषाई की खेती करने वाले अपनी कैंचियां सिराने को तैयार होंगे? मोबाइल-दस्तक से पूरी की गई दस करोड़ की सदस्य संख्या के बूते इतरा रही भाजपा तो इस जनम में कांग्रेस-मुक्त भारत का अपना ख़्वाब पूरा नहीं कर पाएंगी, मगर जो कांग्रेस में मुक्त भाव से टहल रहे हैं, उनका क्या होगा? इसलिए सवाल यह नहीं है कि राहुल गांधी कांग्रेस को कहां ले जाएंगे? सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि आज की कांग्रेस राहुल गांधी को कहां ले जाएगी? भट्टा-पारसौल से नियमगिरी पहाड़ियों तक राहुल क्या पहले नहीं घूमे? देहातों में रात बिताने से ले कर कुलियों तक से बतियाने का काम क्या राहुल ने पहले नहीं किया? तो राहुल के बोए बीजों की फ़सल कहां चली गई? क्या जिन पर खाद-पानी देने की ज़िम्मेदारी थी, जिन पर खर-पतवार हटाने की ज़िम्मेदारी थी, उन्होंने अपनी ज़िम्मेदारी ठीक से नहीं निभाई? राहुल गांधी को 2019 तक तीन हज़ार से ज़्यादा जो विधानसभाई डग भरने हैं, वे तो वे भर भी लेंगे, लेकिन उससे ज़्यादा ऊंचा पहाड़ तो उन्हें कांग्रेस के अंतःपुर में चढ़ना है। इस ऊबड़-खाबड़ रास्ते में उन्हें रहजनों से निपटना है। रहबरों की तलाष करनी है। यह अकेला ऐसा काम है, जिसे उन्हें खुद करना होगा। यह अकेला ऐसा काम है, जिसे दूसरों पर छोड़ने के नतीजे दोबारा भुगतने का समय अब नहीं है। यह एक काम वे जितनी नफ़ासत से कर पाएंगे, 2019 की राह पर कांग्रेस उतनी ही सरपट दौड़ पाएगी। 

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