Tuesday, July 5, 2016

छोटे परदे पर नग्न परिक्रमा !


पंकज शर्मा
शेर की खाल ओढ़ कर हर शाम छोटे परदे पर अपने से कमज़ोरों पर दहाड़ने वाले एक छद्म पराक्रमी को इस सप्ताह देश-दुनिया ने रायसीना हिल्स की नग्न परिक्रमा करते देखा। अपने बहस-मंचों पर किसी को न बोलने देने के लिए कुख्यात चेहरे की प्रधानमंत्री के सामने सिट्टीपिट्टी गुम देख कर आपको भले ही हंसी आई हो, मैं तो चुल्लू भर पानी को तरस गया। प्रधानमंत्री तो पहले भी ऐसे हुए हैं, जिन्होंने भारी बहुमत के साथ सरकारें बनाईं और पूरे दम-खम से चलाईं। लेकिन अब तीन दशक बाद दिल्ली की गद्दी पर पूरे बहुमत के साथ बैठे प्रधानमंत्री में ऐसा क्या है कि चैथे स्तंभ के तीसमारखां भी कसीदाकारी पर इस कदर उतारू हो गए?
दो बरस पहले तक हुए हर भारतीय प्रधानमंत्री के ज़माने में क़लमवीरों की क्रद रही है। इंदिरा गांधी के अठारह में से डेढ़ बरस के जिस दौर पर आज भी लोकतंत्र के दीवाने लानत मढ़ते हैं, उस आपातकाल में भी क़लम के किसी धनी ने न तो ऐसी मिमियाहट दिखाई थी और न इंदिरा गांधी ने ही उनमें से किसी को रेंगते देख अपनी पीठ थपथपाई थी। छोड़ने वालों ने तब भी आपातकाल के विरोध में अपने संपादकीय की जगह खाली छोड़ दी थी और दिखाने वालों ने उन दिनों भी निग़ाह बचा कर ऐसे विज्ञापन छपवा दिए थे कि सरकार माथा पीटती थी।
लेकिन वो दिन हवा हुए जब पसीना गुलाब था। अब वे प्रधानमंत्री नहीं रहे, जो पत्रकारों के सवालों का खुल कर सामना किया करते थे। अब ऐसे पत्रकार भी नहीं रहे, जो पूछे जाने वाले सवाल पहले से भेजना शान के खिलाफ़ समझा करते थे। क्या यह सियासत और ख़बरनवीसी की नूरा कुश्ती का नया दौर है? क्या हम “सवाल भी आपके, जवाब भी आपके“ की नई नियमावली के सामने नतमस्तक होने के युग में प्रवेश कर गए हैं? क्या सत्ता से संबंधों की अब एक अनिवार्य और पहली शर्त है बेबाकी-मुक्त अनुशासित प्रश्नावली?
मैं यह पहली बार देख रहा हूं कि अब तक प्रधानमंत्री की हर बात पर लट्टू होने वाले सोशल मीडिया पर इस बार उनके इंटरव्यू के बाद से इस संदेह के गहरे बादल छा गए हैं कि कहीं यह ताल से ताल मिलाने की जुगलबंदी की ऐसी चरम मिसाल तो नहीं है, जो इतिहास में दर्ज़ हो जाएगी? क्या इस इंटरव्यू-अनुदान के लिए ज़ुबान-वीर को इतने पापड़ बेलने पड़े कि उसकी गदगद और अनुग्रहीत मुद्रा देख कर सब चकित हैं? आमतौर पर सबको झिड़कते रहने वाले कुतर्क-वीर ने प्रधानमंत्री को पलकों पर बिठाने में कोई कसर आखि़र क्यों बाकी नहीं रखी?
पैंतीस-सैंतीस बरस काग़ज के पन्नों पर और गाहे-बगाहे छोटे परदे पर देश-विदेश की सियासी शिखर हस्तियों से सवाल-जवाब करने के मौके़ मुझे जैसों को भी मिले हैं। बातचीत में प्रधानमंत्री ही क्या, किसी से भी सवाल-जवाब करते समय उसका अनादर न करना तो पत्रकारिता का शाश्वत सिद्धांत है। लेकिन सवालों की भांड़गीरी करना और शालीनता के दायरे में रहना दो अलग-अलग बातें हैं। अगर सबको हिकारत भाव से देख कर तर्कों-कुतर्कों की सवालिया बौछार करना फूहड़ता है तो किसी शक्ति-पुंज के सामने दुम-हिलाऊ मुद्रा में आ जाना उससे भी बड़ी फूहड़ता है। ऐसा करने वाले शब्द संसार की मौजूदा और भावी पीढ़ियों को जिस राह पर चलने की प्रेरणा दे रहे हैं, वह पत्रकारिता के नरक की तरफ़ जाती है।
मुझ समेत कइयों ने आतंकवाद की घनघोर घटाओं के बीच अमृतसर के स्वर्ण-मंदिर जा कर भिंडरावाले से बातचीत की, लेकिन बेबाकी से सवाल करने से तो तब भी कोई बाज़ नहीं आया। मैं ने वाशिंगटन में खालिस्तान के स्वयंभू राष्ट्रपति से बातचीत की, लेकिन सवाल तो लंगड़े नहीं हुए। चंबल के बीहड़ों में सवाल उठाते हुए हमारे साथियों के दिल कभी नहीं कांपे। जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी से इंटरव्यू करने वालों की जु़बान क्या कभी लड़खड़ाती थी? अड़ियल-ज़िद्दी मोरारजी देसाई से बात करते समय क्या किसी के शब्द झोल खाने लगते थे? राजीव गांधी से सवाल करते वक्त किसी की टांगें मैं ने तो कंपती नहीं देखीं। चंद्रशेखर के जवाब जितने आक्रामक होते थे, करने वालों के सवाल उससे कम धाकड़ नहीं हुआ करते थे। अटल बिहारी वाजपेयी के ज़माने में क्या कोई सोच भी सकता था कि देश का प्रधानमंत्री सवालों की बारिश में भीगने से इसलिए डरता है कि कहीं गल न जाए!
लेकिन आज के हमारे प्रधानमंत्री को आखि़र हो क्या गया है? वे इस मिली-जुली कुश्ती के लिए किसके कहने पर तैयार हो गए? क्या किसी प्रधानमंत्री को एक इंटरव्यू-मंचन में ऐसी लचर भूमिका अदा करने के लिए तैयार हो जाना शोभा देता है? वह भी उस प्रधानमंत्री को, जिसे उसके अनुयायी आत्मविश्वास और साफ़गोई की प्रतिमूर्ति मानते हैं! अगर मैं उनका अनुयायी होता तो मेरा तो इस सदमे से बुरा हाल हो जाता। लेकिन फिर भी दो बरस में पहली बार मैं सन्न हूं। मेरी समझ में ही नहीं आ रहा है कि अगर कोई प्रधानमंत्री स्वस्फूर्त सवालों का सामना करने से कतराए तो हम क्या समझें? देश और दुनिया तो अब तक समझती थी कि भारत के मौजूदा प्रधानमंत्री किसी भी चुनौती का सामना करने को तैयार रहते हैं। देश-दुनिया ने यह तो पहली बार देखा कि उन्हें तो आड़े-तिरछे सवालों के जाल से बचने का भी यही तरीक़ा समझ में आता है कि सवालों का जामा अपने हाथ-पैरों के मुताबिक सिलवा लिया जाए और तब उसे ओढ़ा जाए।
अपनी बिरादरी के जिस प्रखर सदस्य की हरकतों पर पहले मेरा दिमाग़ चकराता रहता था, अब उसके कारनामे पर मेरा दिल रोता है। इसलिए उसे तो कोई सलाह देना बीन बजाने जैसा ही है। मुझे मालूम है कि प्रधानमंत्री को भी मेरी सलाह की ज़रूरत नहीं है। लेकिन फिर भी मैं इसलिए उनसे एक बात कहना चाहता हूं कि वे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री हैं, किसी कबीलाई व्यवस्था के मुखिया नहीं। सही है या ग़लत मैं नहीं जानता, लेकिन अगर भारत के प्रधापनमंत्री के बारे में दुनिया को यह संदेश जाए कि वे अपने मीडिया-इंटरव्यू के सवालों की संरचना में खुद इतनी दिलचस्पी लेते हैं, तो इस पर उनके अनुयायी भले ही अपना सीना फुलाएं, एक भारतवासी के नाते मेरा मन तो छटपटाएगा ही।
जीवन में कितनी चुनौतियों को हम अपने हिसाब से आकार दे सकते हैं? चुनौतियां क्या हमारे नाप से बन कर आती हैं? जिन्हें सवालों तक के स्वाद में एक-रसता चाहिए, उनसे सामाजिक सम-रसता की चुनौतियों का सामना करने की उम्मीद हम कैसे करें? और, जिन्हें जवाबों के अनुरूप सवाल रचने की अपनी कला पर गर्व होता है, क्या उनकी जगह हम शर्म से जा कर डूब मरें? जिस लोकतंत्र में उसके दो धुवों पर बैठी ताक़तें इतनी निर्लज्ज होती जा रही हों, वह लोकतंत्र कितने दिन सुर्ख-रू रह पाएगा? किसी को चुभता हो, न चुभता हो, मुझे तो प्रधानमंत्री का ताज़ा इंटरव्यू-प्रसंग भारत की तमाम जीवंत परंपराओं में अंतिम कील की तरह चुभ रहा है।

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