Saturday, February 18, 2017

जन्मपत्री तो हर पुरोहित के पास रही होंगी, हुजू़र!


अपनी त्रि-आयामी बौछारों के साथ 2013 में नरेंद्र भाई दामोदर दास मोदी भारतीय जनता पार्टी को लीलने के अश्वमेध पर निकले थे। उन्होंने तमाम झाड़ियों को रौंदते हुए पहले तो खुद को भाजपा का प्रधानमंत्री-चेहरा घोषित कर दिया और फिर मई-2014 की मई आते-आते देश की पगड़ी उठा कर अपने सिर पर रख ली। उसके बाद 33 महीनों से वे ही सरकार हैं और वे ही भाजपा। जिन्हें लगता था कि जैसे-जैसे दिन बीतेंगे, नरेंद्र भाई का नया-नया हुक़्मरानी अंदाज़ उदार होता जाएगा, वे अपने को ग़लत होता देख रहे हैं। आख़िर इतनी मशक़्कत नरेंद्र भाई ने इसलिए थोड़े ही की थी कि चीज़ों को चंगुल से बाहर होने दें! इसलिए पांच राज्यों के चुनावों का पूरा बोझ भी उन्होंने अपने ही कंधों पर उठा रखा है।
चंडीगढ़ से लखनऊ-देहरादून तक और इम्फाल से पणजी तक भाजपा का चेहरा सिर्फ़ नरेंद्र मोदी हैं। लोग भूल गए हैं कि इन राज्यों में भाजपा की राह किनारे किसी और ने भी कभी पेड़ लगाए थे। स्थानीयता को सम्मान के प्रति भाजपाई-आग्रह का वह अंतिम दिन था, जब नरेंद्र भाई गांधीनगर से दिल्ली पहुंचे। अब राज्यों की राजधानियों में भाजपा के कद्दावरों के वानप्रस्थ और शक़्ल-विहीन प्यादों के राजतिलक का ज़माना है। अपनी कद-काठी के भरोसे सूबेदारी संभाल रहे बचे-खुचे चेहरों की विदाई के सुर भी भाजपा की बांसुरी से निकलने लगे हैं। अगर कोई आसमानी-सुल्तानी हो गई और उत्तर प्रदेश मोदी-अमित शाह के हत्थे चढ़ गया तो बाकी जो होगा, सो, होगा, वे सब भी भाजपा के स्मृति-कोश से पूरी तरह बाहर हो जाएंगे, जिन्होंने सिर झुका कर चलना तो सीख लिया है, लेकिन अब भी अपनी टांगों पर खड़े हैं।
मगर अगर, जैसा कि तय-सा है, उत्तर प्रदेश ने भाजपा को ठेंगा दिखा दिया तो क्या होगा? क्या तब सरकार और संगठन में कसमसाते हुए दिन गुज़ार रहे लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को अपना ठेंगा दिखाने की ज़ुर्रत कर पाएंगे? भीतर-ही-भीतर खदक रही भाजपा की देगची से उफ़न कर कुछ बाहर आएगा या उसके ढक्कन पर इतने भारी पत्थर रख दिए जाएंगे कि सब अंदर ही सूख जाए? उत्तर प्रदेश के चुनावी मैदान में मोदी-शाह के माथे पर बड़ी-बड़ी सिलवटें देखने के बाद भाजपा के पुराने अश्वारोहियों की आस अपने पितृ-संगठन पर अभी से टिक गई है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया मोहन भागवत की तरफ़ लग गई टकटकियां अगले महीने होलिका-दहन के बाद अपने रंग बिखेरेंगी।
बावजूद इसके कि सियासी-भांग की तरंग में नोट-बंदी का फ़ैसला ले बैठने वाले नरेंद्र भाई के प्रति देश की श्रद्धा तलहटी को छू रही है, मैं मानता हूं कि अब भी उनका साया अपने असली आकार से इतना बड़ा है कि पांचों राज्यों में भाजपा का सफ़ाया भी उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा। किसी भी भागवत-कथा में अभी तो नरेंद्र मोदी के वनागमन का अध्याय जुड़ता मुझे नहीं दिखता। हां, अमित भाई अनिल चंद्र शाह पर ज़रूर मुसीबत मंडराएगी। लेकिन जब वे बिहार की हार के दो महीने के भीतर ही दोबारा भाजपा के अध्यक्ष बन बैठे तो उत्तर प्रदेश की आंच में झुलस जाएंगे, ऐसा हम कैसे मान लें? फिर, अपनी जुगल-जोड़ी के टूटने का अर्थ क्या मोदी को नहीं मालूम? वे आसानी से अमित शाह की विदाई कतई नहीं होने देंगे और ऐसे में अगर रास्ता यह निकला कि शाह को गुजरात का मुख्यमंत्री बना कर भेज दिया जाए तो इससे भाजपा का पिंजरा कौन-सा मुक्ताकाशी मंच बन जाएगा? इतना तो अब भागवत के भी वश का नहीं है कि किसी लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, यशंवत सिन्हा या राजनाथ सिंह को भाजपा-अध्यक्ष बनवा दें। नितिन गड़करी और मनोहर पर्रिकर जैसे किसी को वे कमान दिलवा दें तो भी मुझे तो ताज्ज़ुब ही होगा।
ख़ासकर उत्तर प्रदेश, और वैसे इन पांचों राज्यों के, चुनावी नतीजे अगर भाजपा में खलबली मचाएंगे तो कांग्रेस में क्यों नहीं? भाजपा को रोकना तो कांग्रेस का काम ही है, मगर मोदी-शाह की भाजपा को लक्ष्मण-रेखा में बांधना तो उसके लिए जीवन-मरण का प्रश्न है। इसलिए इस पवित्र राजनीतिक लक्ष्य ने राहुल गांधी को बिना शर्त अखिलेश यादव के साथ कर दिया। लेकिन अगर इसका मनचाहा नतीजा न निकला तो? उत्तर प्रदेश में मतदान के दो चरण पूरे हो जाने के बाद यह बात कल्पित लग सकती है, लेकिन राजनीति में संभावनाओं के नकार की गुंज़ाइश नहीं होती। इसलिए, नतीजे कुछ भी हों, राहुल-अखिलेश को भी अपने-अपने तालाबों का पानी खंगालने की तैयारी अभी से रखनी होगी। आख़िकार ऊबी हुई मछलियां हर ताल में हैं और उकताहट की अनदेखी करने वाले रहनुमाओं को गच्चा खाते इतिहास ने देखा है। भाजपा की बाढ़ थामने को पाल बांधने की ज़रूरत ने उत्तर प्रदेश के तीन सौ निर्वाचन क्षेत्रों में कांग्रेस और सौ में समाजवादी पार्टी की अनुपस्थिति को अभी तो सबके गले उतार दिया, लेकिन जब बाढ़ का यह पानी उतर जाएगा, तो एक दस्तरखान पर 2019 तक बैठे रहने के लिए राहुल और अखिलेश को अपने-अपने अंतःपुर के वास्तु-दोष भी तेज़ी से दूर करने होंगे।
नरेंद्र भाई को पक्का यक़ीन है कि देशवासियों को उनके शब्दों और इरादों पर भरोसा है। यह भरोसा 33 महीनों में कितना दरक गया है, इसका उन्हें अहसास ही नहीं है। उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद से जन-आचरण में आई तब्दीली उनका रोम-रोम पुलकित कर रही है। वे मुग्ध हैं कि बात-बात पर पुतले और बसें जला कर गुस्सा ज़ाहिर करने वाला देश ख़ामोशी से क़तार में खड़ा रहा। वे इसे अपने प्रति जन-विश्वास की मिसाल बताते हैं। उन्हें यह तक समझ में नहीं आ रहा है कि मुल्क़ तो मुल्क़, भाजपा में भी मेमने आंखों में आग लिए घूम रहे हैं। भाजपा की दीवारों के नीचे नींव के जो पत्थर थे, उन्हें तो मोदी-शाह मंडली ने पहले ही भुरभुरा कर खुद को गोवर्धन-धारी बना लिया। सो, दबी ज़ुबान से ये सवाल अब रिसने लगे हैं कि इन चुनावों के नतीजों ने अगर मोदी-शाह के कंधे तोड़ दिए तो भाजपा के भवन को भरभरा कर गिरने से कैसे रोका जाए? ज़रूरी प्रश्नों को टालने के गहन प्रशिक्षण से ओतप्रोत नरेंद्र भाई को अभी तो ये प्रश्न सुनाई भी नहीं दे रहे हैं।

भारत के लोग तो अपने सपनों के सहारे ज़िंदा रहते आए हैं। वे यह भी जानते हैं कि उन्हें अपने सपने स्वयं के भरोसे ही पूरे करने होते हैं। भारतीय समाज में अपने आसपास मोह के इतने वृक्ष उगा लेने की सदियों पुरानी रवायत है कि हमारा पूरा जीवन पीपल-परिक्रमा में कट जाता है। लेकिन यह अंतःशक्ति भी इसी भरतखंड में है कि एकदम निर्मोही हो कर अचानक एक सुबह वह उठ खड़ा होता है और हर तहरीर पर अपना ही नाम लिखने की ज़िद रखने वालों को टांगा-टोली कर के हिंद महासागर में फैंक आता है। राजनीति में आपसी कड़वाहट को जिस चरम पर हमारे आज के प्रधानमंत्री ने पहुंचाया है, वैसा कभी किसी ने नहीं किया। जन्म-पत्रिया तो हर राज-पुरोहित के पास रही होंगी, लेकिन उन पर अपने काले-तंत्र का प्रयोग करने की भभकी देते हमने अब तक तो किसी को नहीं देखा था। यही वजह है कि भारत की तवारीख़ आज सन्न खड़ी है और राजमहल के पुश्तैनी रखवाले भी भारतीय राष्ट्र-राज्य के बेहतर स्वास्थ्य की दुआएं मांग रहे हैं। आमीन! 

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