इतने पर भी अगर अश्वमेध का यह वाम-यज्ञ अधूरा रह जाए और उसकी लपटें नरेंद्र भाई की केसरिया होली खेलने की इच्छा पूरी तरह पूरी न होने दें तो ज़ाहिर है कि उन्हें अच्छा नहीं लगेगा। आख़िर इन चुनावों में उन्होंने अपनी पार्टी की ख़ातिर यह भाव तक तज दिया कि वे देश के प्रधान-सेवक भी हैं। उन्हें सिर्फ़ यह याद रहा कि वे महज एक स्वयं-सेवक हैं। ऐसे में तो ऐसी आंधी आनी चाहिए कि राजपथ पर चलते दूसरे सब क्षत-विक्षत पड़े हों। इससे कम कुछ भी हो तो सब किया-धरा बेकार है।
आज का सूरज डूबते-डूबते अगर भाजपा के विरोधियों का सूरज भी डूब गया तो नरेंद्र भाई के पसीने की खुशबू से लोगों को अच्छे दिन और नज़दीक आते लगने लगेंगे। वे अब तक आए या नहीं और आएंगे तो कब आएंगे, यह फिलहाल बेमानी हो जाएगा। नरेंद्र भाई की छप्पन इंच की छाती तब छियासठ की और उनके समर्थकों की छिअत्तर की हो जाएगी। भाजपा आज छाती पीट कर विलाप करती दिखे या ताल ठोक कर अट्टहास करती–दोनों ही स्थितियां मेरे माथे की सलवटें तो और ज़्यादा गहरी ही करेंगी। इसीलिए मैं मानता हूं कि आज के बाद जनमत की कसौटी पर, असल में तो, नरेंद्र भाई का, बड़ा-पन कसा जाना है।
आप भले न मानें, मगर खतरा यह है कि पराजित भाजपा भी उतनी ही खतरनाक साबित हो सकती है, जितनी विजयी भाजपा। पांच राज्यों, और ख़ासकर उत्तर प्रदेश के चुनाव को, अपनी आन-बान-शान का मदीना सकल-भाजपा ने कितना बनाया-नहीं-बनाया, मालूम नहीं, मगर नोट-बंदी के बाद नरेंद्र भाई की मूंछ का सवाल तो सिर्फ़ ये चुनाव ही थे। ऐसे में आज के नतीजों ने अगर उन पर फूल बरसाए तो क़तारबद्ध मुल्क़ के इस जयकारे से हुलस कर हमारे प्रधानमंत्री इस अनुशासन-पर्व के नए आयाम स्थापित करने में जुट जाएंगे। मतदान के नतीजों ने अगर भाजपा को लात मार दी तो वह एहसान-फ़रामोश देश को सबक़ सिखाने पर पिल जाएगी। ये दोनों ही मनोदशाएं भारत को जिस दिशा में ले जाने का माद्दा रखती हैं, वह उस उपवन तक नहीं जाती है, जिसमें तरह-तरह के फूल खिलते हैं, जहां मीठी बयार बहती है और जिसके पेड़ों पर आज़ाद पंछियों की चहचहाट गूंजती है।
मैं नहीं मानता कि नरेंद्र भाई उनमें हैं कि कोई मुखौटा लगा कर घूमें। वे जो हैं, सो, हैं। जैसे भीतर, वैसे बाहर। जैसे बाहर, वैसे भीतर। बावजूद इसके मैं मानता हूं कि इतिहास आज उन्हें खुद को बदलने का मौक़ा दे रहा है। वे चाहें तो अब अपना बड़प्पन दिखाएं। जीत में जोश न खोएं और हार में होश क़ायम रखे। भारत का जनतंत्र उन्हें इससे बड़ा अवसर इस जनम में शायद ही फिर कभी दे कि बराबरी पर छूटने के बाद भी वे अपनी भाजपा का पलड़ा भारी करने के लिए सियासत के भावी संतुलन की तराजू को तिरछा करने से खुद को बचाएं। अगर नरेंद्र भाई ऐसा कर पाए तो वे तर जाएंगे। अगर उन्होंने ऐसा नहीं किया तो हमारा प्रजातंत्र मर जाएगा।
कितना अच्छा हो कि हमारे प्रधानमंत्री के चेहरे पर हम आने वाले समय में किसी दिलजले या विजेता की तिरछी मुस्कान देखने के बजाय वह ताब देखें, जो उम्र भर तपने के बाद प्रस्फुटित होता है। पत्थरों से भी जानलेवा फ़ब्तियां सुनने के बजाय हम उनके मुंह से शांति-पर्व के श्लोक सुनें। वादों के गट्ठर अपने सिर पर रख कर घूमने वाले एक प्रधानमंत्री की जगह हम देशवासियों को सच्चाई से रू-ब-रू कराने और उनकी मुसीबतों का सच्चा समाधान निकालने में रात-दिन एक करने वाला रहनुमा देखें। भेड़ियों का झुंड पालने की जुगत भिड़ाते किसी सियासतदां को देख कर भयभीत होने वाले लोग भेड़ों का सिर सहलाने वाले किसी मसीहा की गोद में अपने को महफ़ूज समझें।
आज के चुनाव नतीजे किन महलों की नींव उखाड़ते हैं, कौन-से ताज़ हवा में उछालते हैं, इससे ज़्यादा अहमियत इस बात की है कि आज के बाद सेहरा बांध कर घूमने वाले अपनी असली बुनियाद का जायज़ा लेने के लिए खुद को हर रोज़ खोदेंगे या नहीं? क्योंकि एक बात साफ़ है। कोई कितना ही शतुरमुर्ग बने, मौजूदा सियासी-व्यवस्था के प्रति आम-जन के भीतर घुमड़ रहे बादल दिनों-दिन गहरे होते जा रहे हैं। बादल जब बहुत घने हो जाते हैं तो बरस पड़ते हैं। आज बरस गए तो ठीक, वरना कल वे बरसेंगे ही। इसलिए यह सोचने के दिन अब हवा हुए कि जब ऐब सिक्कों से तुल रहे हैं तो पुण्य करने की ज़रूरत ही क्या है? सो, किसी एक को नहीं, सियासत के सभी भागीदारों को अपनी भावी भूमिकाएं आज के बाद तय करनी होंगी।
श्रेष्ठता का अहंकार संवेदना की गहराई पर उलटा असर डालता है। व्यक्ति के चेहरे का दर्प बता देता है कि वह किस हद तक व्यक्तिवादी तालाब में डूबा हुआ है। महज़ नारेबाज़ी के नशे में चूर कर के हम किसी देश को नहीं चला सकते। फिर नारे चाहे इस तरफ़ से लगें या उस तरफ़ से। देश खींच-तान से नहीं, समन्वय से चलते हैं। प्रधानमंत्री को प्रशासक होना चाहिए, प्रचारक नहीं। जिस राजनीति से प्रतिपक्ष ग़ायब हो जाए, वह राजनीति किसी के लिए कुछ भी अर्थ रखे, है निरर्थक। इसलिए जो विपक्ष-मुक्त राजनीति में विश्वास रखते हैं, वे अंततः जनतंत्र का मृत्यु-पुराण लिख रहे होते हैं। आज के सूर्यास्त के साथ साफ़ होने वाला दृश्य नरेंद्र भाई को अवसर दे रहा है कि कल जब वे सूर्य-नमस्कार के बाद अपना दिन शुरू करें तो अपने को आमूल-चूल बदलने का संकल्प लें।
भारत के बेचारे लोग तो जो होता है, सह लेते हैं, मगर इसे अपना पराक्रम का परिणाम मान कर इतराने वालों से अपना रिश्ता तोड़ने में भी वे देर नहीं लगाते हैं। मुझे इससे कोई लेना-देना नहीं है, नरेंद्र भाई, कि आज के नतीजे आपके माथे पर जीत का केसरिया तिलक लगाते हैं या हार का काला टीका। मुझे तो सिर्फ़ इससे मतलब है कि आज के बाद आप नंगे पांव दौड़ कर उस धरती तक जाते हैं या नहीं, जो आपका इंतज़ार कर रही है? आप उस धरती में ऐसे सकारात्मक बीज बोते हैं या नहीं, जिनसे संसदीय लोकतंत्र की गरिमा हरी-भरी रहे? हार-जीत तो लगी रहेगी। यही अंतिम सत्य नहीं है। अंतिम सत्य तो लोकतंत्र की चिंरतनता है। इसलिए हमारे सभी शास्त्र राजा को तात्कालिक लाभ का मोह न पालने की सलाह देते हैं। यह सही समय है कि हमारे प्रधानमंत्री अपना बड़प्पन दिखाएं।
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