Thursday, June 29, 2017

सियासी-नंदलालों से घिरे पनघट पर गणतंत्र


नरेंद्र भाई मोदी ने ऐसी बनैटी घुमाई कि सब ओंधे पड़े हैं। लालकृष्ण आडवाणी भीतर-ही-भीतर लाल-पीले होकर हाथ मल रहे हैं। मुरली मनोहर जोशी अवाक हैं। सुमित्रा महाजन ठगी-सी बैठी हैं। सुषमा स्वराज की आस टूट गई है। वेंकैया नायडू की चाल-ढाल में वह हुमक नहीं रही। थावरचंद गहलोत खिसियाए-से बैठे हैं। राम नाईक की आंखों में सूनापन है। द्रौपदी मुर्मू मन मसोसे बैठी हैं। किसे अंदाज़ था कि सबके आगे लटकी गाजर दरअसल रामनाथ कोविंद के नसीब में थी? नरेंद्र भाई ने एक झटके में कइयों की उम्मीदों पर ऐसा पानी फेरा कि सब पानी मांग रहे हैं।
प्रधानमंत्री ने ऐसा क्यों किया होगा? आडवाणी से ले कर मुर्मू तक उन्होंने सबको उदास क्यों किया होगा? कोविंद को ही उन्होंने क्यों चुना होगा? 
20 मई 2014 को संसद के केंद्रीय कक्ष में नरेंद्र भाई को अपने एक शब्द ‘कृपा’ के तीर से रुला देने वाले आडवाणी के बारे में बीच में यह लगने लगा था कि शायद वे राष्ट्रपति बन जाएं, लेकिन मोदी के मन-मस्तिष्क की बुनावट जानने वाले जानते थे कि उस दिन के बाद वे आडवाणी को आठ-आठ आंसू रुलाए बिना मानने वाले नहीं थे। सो, कोई भी अग्नि-परीक्षा आडवाणी को नरेंद्र भाई के लायक पवित्र बना ही नहीं सकती थी। आखि़र मोदी यह कैसे भूल सकते थे कि आडवाणी ने भाजपा का प्रधानमंत्री-दावेदार बनते वक़्त कैसे खुलेआम उनका विरोध किया था?
मुरली मनोहर जोशी से तो नरेंद्र भाई की पटरी यूं भी कभी नहीं बैठी। जब उनके बनारस पर भी मोदी ने जबरन कब्जा कर लिया तो जोशी के मन की गांठ और भी पक्की हो गई। मगर फिर भी कहीं एक कोने में यह आस उन्हें बाकी थी कि शायद भगवान मोदी को सद्बुद्धि देंगे और वे उन्हें राष्ट्रपति भवन पहुंचा देंगे। मगर गाहे-ब-गाहे रो पड़ने वाले नरेंद्र भाई सियासत की ऐसी गिलहरी भी नहीं हैं कि क्षणिक भावनाओं में आ कर ऐसा कर बैंठें कि बाद में ता-ता-थैया करनी पड़े।
सुषमा स्वराज की किडनी प्रत्यर्पण के बाद कईयों को मोदी पिघलते लगे और लगने लगा था अब मोदी सुषमा को राष्ट्रपति बना देंगे। लेकिन मोदी भला यह कैसे भूल सकते थे कि जब 2013-14 में वे भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को इस बात के लिए मजबूर कर रहे थे कि उन्हें प्रधानमंत्री के तौर पर पेश किया जाए तो सुषमा कौन-सी गोटियां खेल रही थीं? सुमित्रा महाजन की विनम्रता से और कोई भी प्रभावित होता हो, मोदी लोकसभा में इक्का-दुक्का मौक़ों पर उनकी दृढ़ता का स्वाद चख चुके थे। सो, वे जानते थे कि ताई कब ताऊ बन जाएं, भरोसा नहीं। इसलिए सुमित्रा महाजन का नाम भी बस हवा में ही उछलता रह गया।
वेंकैया नायडू राष्ट्रपति बनने के लिए खुल्लमखुल्ला आतुर थे। कहते नहीं थे, मगर उनकी जीभ पर दिखता पानी सब कह देता था। नरेंद्र भाई के कसीदे पढ़ने में उन्होंने दिन-रात एक कर रखे थे। मोदी की सियासी-बुनकरी में चपलता नकारात्मक गुण है। इसलिए नायडू का सपना उसी दिन टूट गया जब उन्हें राष्ट्रपति-प्रत्याशी चुनने की समिति में शामिल कर दिया गया। जब मोदी प्रधानमंत्री पद की दावेदारी करते सबको रौंद रहे थे, तब भाजपा अध्यक्ष के नाते राजनाथ सिंह ने उनकी राह में जो कंकर बिखेरे थे, वे तो आज तक उन्हें चुभते हैं। ऐसे में राजनाथ को भी चयन-समिति में ही शामिल होना था। राजनाथ अगर इतनी-सी बात मान जाते कि वे उत्तर प्रदेश की सकल-देखभाल प्रधानमंत्री कार्यालय को करने देंगे तो वे योगी आदित्यनाथ की जगह मुख्यमंत्री हो गए होते। ज़ाहिर है कि मोदी जानते हैं कि नरम पड़ जाने के बावजूद वह मिट्टी ज़रा अलग है, जिससे राजनाथ बने हैं। ऐसी मिट्टी नरेंद्र भाई को अपने खेत में नहीं चाहिए।
थावरचंद गहलोत के राष्ट्रपति बनने की उम्मीद उनके अलावा किसी को भी गंभीरता से नहीं थी। चलने को नाम चल रहा था, सो, कुछ दिन थावरचंद भी राष्ट्रपति की तरह चलने-फिरने लगे थे। मगर सब जानते थे कि उनका नाम, नाम भर को था। राम नाईक को छह महीने पहले इस तरह के संकेत दिए गए थे कि वे अगले राष्ट्रपति हो सकते हैं। संघ-प्रमुख मोहन भागवत को भी वे ठीक लग रहे थे। लेकिन गुरुवर-परंपरा पर पूर्ण-विराम के युग में कभी का प्रवेश कर चुके नरेंद्र भाई अब इस परंपरा को पुनर्जीवित करने का जोखिम मोल ही क्यों लेते!
मगर इन सबका जवाब कोविंद ही क्यो? इसलिए नहीं कि वे दलित हैं। इसलिए भी नहीं कि उन्होंने अपना पुश्तैनी मकान कभी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को दान कर दिया था। इसलिए कि कोविंद को अब तक कोई नहीं जानता था। इसलिए कि कोविंद अब तक किसी को नहीं जानते थे। भाजपा के बाहर उनका कोई परिचित नहीं रहा। उद्योग जगत ने उन्हें कभी जानने लायक नहीं समझा। विदेशी राजनयिकों या राजनेताओं से उनका दूर-दूर तक कोई नाता नहीं। मीडिया, साहित्य जगत और बुद्धिजीवियों से उनके कोई रिश्ते नहीं। अफ़सरशाही में उनका कोई ताना-बाना नहीं। इससे पहले इतना अनाम व्यक्ति कभी राष्ट्रपति बना था? जैसा कि नरेंद्र भाई मानते हैं कि वे 2024 तक तो प्रधानमंत्री रहेंगे ही; तो 2022 तक उनकी राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सक्रियता की घर बैठे बलैयां लेते रहने वाला इससे बेहतर राष्ट्रपति वे और कौन-सां लाते?
नरेंद्र भाई के इस चयन पर भाजपा भले ही भीतर-भीतर कुनमुनाए। भले ही भाजपा के बाकी सहयोगी-दलों को भी मन-ही-मन कोविंद न भाएं। मगर झख मार कर समर्थन में अपना हाथ उठाने के अलावा अब वे कर क्या सकते हैं? भीतर की सच्चाई यही है कि कोविंद के नाम पर मोदी तो मोदी, अमित शाह तक ने, अपने सहयोगी दल तो छोड़िए, भाजपा के वरिष्ठ नेताओं तक को पहले से विश्वास में लेना ज़रूरी नहीं समझा। लेकिन मोदी-शाह की धमक ऐसी है कि कोविंद के नाम का ऐलान होने के बाद उनकी पालकी ढोने के लिए सब कतार में लग गए। नखरा दिखा रही शिवसेना भी और पिछले कुछ वक़्त से विपक्षी राजनीति की सूरमाई कर रहे नीतीश कुमार भी।

संयुक्त विपक्ष के 17 राजनीतिक दलों की राष्ट्रपति-उम्मीदवार मीरा कुमार का दलित और महिला होना भी उनके पलड़े को अगर भारी नहीं बना पाएगा तो इसे जनतंत्र का दुर्भाग्य नहीं, सियासत की हर बिसात पर अपने बौने पांसे बिखेरने की क्षुद्र ललक का उत्सव मानिए। अपनी विचारधारा को भारत की जड़ों में अंतिम गहराई तक ठूंस देने की जब कोई ठान ही ले तो उससे गणतांत्रिक मर्यादाओं के पालन की उम्मीद लगाने वाले मूर्ख नहीं तो क्या हैं? जिन्हें लगता है कि वे इस अनवरत समर के तीन बरस पहले शुरू हुए चरण को छायावादी तरीकों से जीत लेंगे, उन्हें समझ लेना चाहिए कि उनका पाला उन लोगों से पड़ा है, जिनकी आंखों में पानी नहीं, शोले हैं। यह सियासत में मुहब्बत का नहीं, मुहब्बत में सियासत का दौर है। इस दौर के राजनीतिक समाज की दरारों को भरने का नहीं, उन दरारों को नंगा करने का काम कर रहे हैं। यह नई निर्ममताओं और नई बर्बरताओं का दौर है। इससे निबटने के लिए नए प्रतिरोधों की ज़रूरत है। ऐसे प्रतिरोधों की, जो महज प्रतीकात्मक न हों। लोकतंत्र अगर अपने भीतर झांकने की नैतिक ताकत खो देगा तो हर पनघट पर उसे सियासी-नंदलाल ऐसे ही छेड़ते रहेंगे। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।)

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