Saturday, October 7, 2017

मुद्दा अब यशवंत सिन्हा नहीं हैं

PANKAJ SHARMA 
07 September 2017

इस गुरुवार की शाम यशवंत सिन्हा ने जो कहा और जैसे कहा, वह वही व्यक्ति कर सकता है, जिसके भीतर गंवई संवेदना का झरना, तमाम सियासी शुष्कता के बावजूद, बाकी हो। कांग्रेस के मनीष तिवारी की क़िताब विमोचन के मौक़े पर आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल की मौजूदगी में भारतीय जनता पार्टी के यशवंत सिन्हा को सुनने वाले अपने को उस दौर में पा रहे होंगे, जब राजनीति जुमलों की बौछार नहीं, कविता की धारा हुआ करती थी; जब राजनीति दूसरों की नीचा दिखाने के लिए नहीं, मुल्क़ को ऊंचाइयों पर ले जाने के लिए हुआ करती थी; और, जब अहसासों की सारी नदियां आज की तरह सूखी नहीं थीं।
कोसने वाले यशवंत सिन्हा को पिछले कुछ दिनों से जम कर कोस रहे हैं। ठीक एक महीने बाद, छह नवंबर को, वे 80 साल के हो जाएंगे। मुझे लगता है कि दो दशक पहले अगर एक सुबह वे अपना रास्ता भूल कर भाजपाई कुएं में न गिर गए होते तो आज भारतीय समाजवादी विचारधारा के सबसे बड़े पुरोधा होते। लेकिन सुबह का भूला अगर देर सांझ ही सही, वापस अपने घर की दीवारों के नीचे नींव का पत्थर ढूंढने निकल पड़ा है तो आप जो चाहें करें, मैं तो सिन्हा को नमन ही करूंगा। देर-सबेर ही सही, हर दीवार तोड़ने का साहस कितने लोग कर पाते हैं? खुद पर ताने कसने वालों को गुरुवार की शाम जब सिन्हा ने बताया कि उनका जन्म बिहार की उस धरती पर हुआ है, जहां वीर कुंवर सिंह ने 1857 में स्वाधीनता आंदोलन की पहली लड़ाई में हिस्सा लिया तो उनकी उम्र 80 साल की थी, तो सभागार देर तक तालियों से गूंजता रहा। सिन्हा ने कहा कि नौकरी के लिए आवेदन करने की उम्र होती होगी, स्वाधीनता का संघर्ष शुरू करने की कोई उम्र नहीं होती।
इशारों-इशारों में सिन्हा ने उस शाम इतनी ऊष्मा बिखेर दी कि लोग हुलक रहे थे। देश के मौजूदा आर्थिक हालात पर एक लेख लिखने के बाद भाजपाई हमलावरों ने सिन्हा की तुलना महाभारत के पात्र शल्य से की है। सो, सिन्हा ने भी कौरवों का ज़िक्र किया और बताया कि हालांकि वे सौ थे, मगर ऐसा क्यों है कि उनमें से सिर्फ़ दो--दुर्योधन और दुःशासन--ही कुख्यात थे? कौरव-समूह के तीसरे भाई तक का भी नाम लोगों का याद नहीं, बाकियों की तो बात ही क्या? सिन्हा के इस संकेत पर, ठहाके थे कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। बरखा दत्त ने जब सिन्हा से पूछा कि ऐसी बातें करने के बाद अगर भाजपा आपको निष्कासित कर देगी तो? सिन्हा तपाक से बोले, वह मेरी ज़िंदगी का सबसे बेहतरीन दिन होगा। उन्होंने यह भी कहा कि भले ही भय और सियासी मजबूरियों के कारण लोग अभी ख़ामोश हों, मगर भाजपा के भीतर ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो उनकी कही एक-एक बात से सहमत हैं।
सिन्हा की कही छह बातों का सिलसिलेवार ज़िक्र करना ज़रूरी है। एक, हमने कभी ऐसा ज़माना नहीं देखा, जब यह-मुक्त या वह-मुक्त की बात की गई हो। हम सब जनतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा हैं और लोकतंत्र सिर्फ़ गिनती बड़ी होने के अहंकार से नहीं, सर्वानुमति से चलता है।
दो, मैं ने चंद्रशेखर और अटल बिहारी वाजपेयी के साथ राजनीति सीखी है। मेरे गुरुओं ने मुझे सिखाया कि अपने-अपने राजनीतिक विचारों पर अडिग रहते हुए हमें अपने राजनीतिक विरोधियों से निजी संबंधों में हमेशा सौहार्द बनाए रखना चाहिए। सियासत प्रतिशोध से नहीं चलती। डर और डेमोक्रेसी एक घर में नहीं रह सकते।
तीन, भाजपा के भीतर बहुत बेचैनी है। एक मथनी लोगों को मथ रही है। अगले आम चुनाव में बीस महीने भी नहीं बचे हैं। पंद्रह महीने बाद टिकट तय होने लगेंगे। लोग डरते हैं कि कुछ बोलेंगे तो उनका टिकट कट जाएगा। इसलिए अभी वे उल्टे लटकने को भी तैयार हैं। लेकिन आगे-आगे देखते जाइए।
चार, आज राजनीति में जो हो रहा है, वह एक गुज़रता लमहा है। यह अस्थाई है। बेहद अल्पजीवी है। कुछ लोगों को यह समझ ही नहीं है कि व्यक्ति तो बीतता क्षण होता है। स्थाई तो वे मूल्य और सिद्धांत होते हैं, जिनकी बुनियाद पर कोई संगठन खड़ा होता है। ये मूल्य खो जाएं तो व्यक्ति कितना ही पराक्रमी हो, एक दिन ढह जाएगा।
पांच, आप कहें कि गालियों और गोलियों से बात नहीं बनेगी तो आप तो महान हैं। मगर जब मैं कहूं कि अपनी इस बात पर अमल करिए तो मैं देशद्रोही हो गया। यह कैसे चलेगा? हमने तो अटल जी से इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत की बात सीखी थी। कैसे चुप रहें?
छह, देश की इतनी बुरी आर्थिक हालत के लिए वित मंत्री ज़िम्मेदार हैं। चूंकि हमारे संविधान में मंत्रिमंडल की सामूहिक ज़िम्मेदारी का प्रावधान है, इसलिए पूरी सरकार ज़िम्मेदार है। सरकार के मुखिया के नाते प्रधानमंत्री ज़िम्मेदार हैं, क्योंकि हर महत्वपूर्ण फ़ैसला उन्हीं की मंजूरी से लिया जाता है। सबकी जवाबदेही एक-न-एक दिन तो तय होगी ही।
सरकार और संगठन चलाने की मोदी-शैली से असहमत लोगों ने जब विकल्प की चिंता को अपने सवालों में पिरोया तो अरविंद केजरीवाल ने भी कुछ बुनियादी बातें कहीं। उन्होंने कहा कि विपक्ष ज़रूर कोई-न-कोई शक़्ल लेगा, लेकिन उसका आकार-प्रकार कुछ भी रहे, इससे कोई फ़र्क़ इसलिए नहीं पड़ने वाला है कि अगला आम चुनाव यशवंत सिन्हा जी के नेता और जनता के बीच सीधे होने वाला है। चुनाव जनता लड़ेगी। यह चुनाव नरेंद्र मोदी बनाम बाकी सब के बीच होगा। केजरीवाल ने कहा कि जनतंत्र में विपक्ष को दुश्मन समझने की मानसिकता ज़्यादा दिन नहीं चल सकती है। इसलिए जनता अपना जवाब तैयार कर रही है। केजरीवाल ने कहा कि मथनी सिर्फ़ भाजपा के भीतर ही लोगों की नहीं मथ रही है। मंथन तो अब पूरे देश में शुरू हो गया है। राज-काज का यह तरीका किसी को भी रास नहीं आ रहा है। लाखों लोगों की नौकरियां चली गई हैं। हज़ारों उद्योग बंद हो गए हैं। पूरे देश में भय का ऐसा माहौल कभी किसी ने नहीं देखा और यह वह मुल्क़ है, जहां लोग अपना पेट काट कर तो जी लेते हैं, लेकिन अपनी आज़ादी में कटौती कभी स्वीकार नहीं करते।
ये बातें भले ही राजधानी के एक बंद सभागार में हुई हों, लेकिन इन्हें आपके सामने मैं ने इसलिए रखा कि इनका संदेश साफ़ है। इस संदेश में एक अखिल भारतीयता है। संदेश यह है कि राजा के दिन जाते दिखाई दे रहे हैं। जनता के अभिषेक का वक़्त नज़दीक आता जा रहा है। तेज़ होती हवा के इस दौर में जिन शुतुरमुर्गों को अपनी गर्दन रेत में घुसाए रखनी है, वे घुसाए रखें। मुद्दा यशवंत सिन्हा नहीं हैं। मुद्दा यह है कि उनके जैसे जो हाथ जनतंत्र के मंदिर का दीप जलाए रखने को अब एक-एक कर अपनी जेबों से बाहर निकलने लगे हैं, वे 2019 की एक नई इबारत लिखेंगे। जिन्हें लगता है कि उनकी फूंक से मशालें बुझ जाती हैं, क्या वे इन टिमटिमाते दीयों को बुझा पाएंगे? इसलिए दीयों और तूफ़ान की इस कहानी पर निग़ाह रखिए और हो सके तो इन दीयों की फड़फड़ाती बाती को अपनी हथेलियों की आड़ दीजिए। जनतंत्र की मुंडेर पर रखे ये दीये नहीं होंगे तो हमारी दीवाली हमेशा काली रहेगी। लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।

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