हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी को इससे कोई लेना-देना नहीं है कि संसद में ठीक से कामकाज होता है या नहीं। उन्हें सिर्फ़ अपनी ज़िद से मतलब है। सो, संसद का पूरा बजट-सत्र बिना कोई ख़ास काम निपटाए ही निपट गया। दिखने को दिखा कि विपक्ष ने संसद की कार्यवाही नहीं चलने दी। लेकिन जब सरकार अपनी सनक पर अड़ी रहे तो विपक्ष के पास विरोध का हर तरीका अपनाने के अलावा विकल्प भी क्या रह जाता है?
आज हमारे पास एक प्रधानमंत्री हैं, जिन्हें अपने ठेंगे पर गर्व है। एक राष्ट्रपति हैं, जो निराकार-मुद्रा अपनाए जड़वत् हैं। एक उप-राष्ट्रपति हैं, जो अब भी संसदीय-कार्य मंत्री के चोले से बाहर आने को तैयार नहीं हैं और कभी अभिनंदन-लेख और कभी निंदा-लेख लिखने में मग्न हैं। एक लोकसभा-अध्यक्ष हैं, जो बचा-खुचा समय गुज़ार लेना ही अपना संसदीय-दायित्व समझती हैं। एक मुख्य न्यायाधीश हैं, जिनके बारे में बहुत-से सांसदों को लगता है कि उन्हें महाभियोग लगा कर हटा दिया जाना चाहिए। एक सेनाध्यक्ष हैं, जो लाख समझाने पर भी अपने बयानों से विवाद पैदा किए बिना मानते नहीं हैं। अफ़सरशाही के एक अनाम मुखिया हैं, जिन्हें कैबिनेट सेक्रेटरी कहा जाता है और आजकल वे क्या करते हैं, कोई नहीं जानता। रिज़र्व बैंक के एक गवर्नर हैं, जो सोलह महीने बीतने के बाद भी रद्द हुए नोट नहीं गिन पाए हैं। निर्वाचन आयोग के एक कर्ताधर्ता हैं, जिन्हें इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों के बारे में उठाए जा रहे सवालों को हल करने से ज़्यादा चिंता इस बात की है कि एक व्यक्ति को दो जगह चुनाव लड़ने से कैसे रोका जाए।
भरत-भूमि के हस्तिनापुर में ऐसी शासन-व्यवस्था पहले कभी नहीं रही, जिसके मंत्रियों को उनके महकमे ही न पूछते हों। एक अरुण जेटली के वित्त मंत्रालय को छोड़ दे तो न गृह मंत्री गृह मंत्रालय चला रहे हैं, न रक्षा मंत्री रक्षा मंत्रालय चला रही हैं और न विदेश मंत्री विदेश मंत्रालय चला रही हैं। नोट-बंदी हुई तो वित्त मंत्री भी अंधेरे में थे। सारे मंत्रालय प्रधानमंत्री खुद अपने कार्यालय के ज़रिए चलाते हैं। और-तो-और, तमाम राज्यों के मुख्यमंत्रियों को भी प्रधानमंत्री का दफ़्तर ही “दिशा-निर्देश” देता है। अपने आप हिलने-डुलने की ऐसी मनाही का ज़माना स्वतंत्र भारत में पहली बार आया है।
हमें दिखाए गए रंगीन सपनों के रंग चार साल में पूरी तरह बदरंग हो गए हैं। अपने को इतिहास-पुत्र घोषित करने वाले इतिहास की निमर्मता के थपेड़े महसूस करने लगे हैं। अभी इस लू की झुलस को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार करने से वे कतरा रहे हैं, मगर समझ गए हैं कि पहिया उल्टा घूमने लगा हैं। इसलिए सामाजिक सहिष्णुता के नए परीक्षण शुरू हो गए हैं। अगले आम-चुनाव तक ये जारी रहेंगे। इसी गोलबंदी के सहारे अगली बार नैया पार लगाने की जुगत भिड़ाई जाएगी। इससे भी काम नहीं चला तो तरकश में मौजूद दूसरे ज़हर-बुझे तीरों के इस्तेमाल में भी कोई हिचक नहीं दिखाई जाएगी। आने वाले एक साल में हम ने फूंक-फूंक कर क़दम नहीं रखे तो हम गच्चा खाएंगे।
इसलिए चंद्राबाबू नायडू से ममता बनर्जी तक सब को अपनी उस बुनियादी ज़िम्मेदारी का निर्वाह करना होगा, जो लोकतंत्र के बीज बचाने के लिए ज़रूरी है। कांग्रेस के पीछे चलने में अपनी हेठी समझने वालों को यह समझने की ज़रूरत है कि कांग्रेस को आगे रखे बिना नरेंद्र भाई मोदी की भारतीय जनता पार्टी के ख़िलाफ़ ताल ठोकना मुमकिन ही नहीं है। शरद पवार, अखिलेश यादव, मायावती, लालू प्रसाद और वाम-दल इसे समझते हैं। इस सच्चाई को बाकी भी जितनी जल्दी स्वीकार कर लेंगे, नरेंद्र भाई की हुकूमत का विदा-गीत उतना ही तेज़ होता जाएगा। इस गीत के सुर मद्धम करने में जिन-जिन का योगदान होगा, उन-उन को पश्चात्ताप करने का मौक़ा भी बाद में शायद ही मिले।
इतने तूफ़ानी बहुमत से सत्ता में आने के चार साल के भीतर भाजपा की इतनी गई-बीती हो गई हालत के बावजूद अगर विपक्ष अपना-तेरी में ही पड़ा रहा तो उसे कौन माफ़ करेगा? अगर अब भी विपक्षी दलों ने अपने चटोरेपन पर काबू कर एक-दूसरे से शालीनता का व्यवहार नहीं किया तो कौन उन्हें सम्मान की निग़ाह से देखेगा? भाजपा-सरकार की गरिमाहीन कारस्तानियों से परेशान लोग विपक्ष से गरिमामयी उदारता की उम्मीद कर रहे हैं। उनकी इस आस्था का बिखराव विपक्ष के माथे पर ऐसा कलंक लगा देगा कि अनंतकाल तक माथा झुका कर चलने के अलावा उसके पास कोई चारा नहीं रहेगा।
प्रधानमंत्री निवास के दरवाज़े से नरेंद्र भाई के नाम की तख़्ती उतरने का वक़्त तो नज़दीक आता जा रहा है। अब यह सिर्फ़ विपक्षी दलों के रवैए पर है कि अगले साल की गर्मियों के बाद भी यह तख़्ती लटकी रहेगी या नहीं। इतना तो तय हो चुका है कि भाजपा को अगले आम चुनावों में लोकसभा की 215 सीटों से ज़्यादा किसी भी हालत में नहीं मिल पाएंगी। मेरा तो आकलन है कि अगर विपक्ष ने खुद अपनी डाल नहीं काटी तो भाजपा की सीटें 187 रह जाएंगी। ऐसे में उसके सहयोगी दलों का रुख गद्दी दोबारा नरेंद्र भाई के हवाले तो होने नहीं देगा। सो, देश में भाजपा-रहित सरकार बनने के पूरे-पूरे आसार होंगे। विपक्ष अपनी करतूतों से खुद ही यह मौक़ा खो दे तो हम-आप भी झींकने के अलावा क्या कर पाएंगे?
आज़ादी के बाद मुल्क़ ने पहली बार ऐसी सरकार देखी है, जो सब-कुछ रौंद देने में लगी है। इतिहास कुचला जा रहा है, परंपराएं कुचली जा रही हैं, समाज कुचला जा रहा है, संस्कृति कुचली जा रही है, राज-काज कुचला जा रहा है, अर्थव्यवस्था कुचली जा रही है। एक व्यक्ति चार साल से अपने सामने आने वाली हर चीज़ को रौंद देने में लगा है। उसने खुद के सहयोगियों को रौंद दिया है। उसने अपने सहयोगी दलों को रौंद दिया है। विपक्ष को रौंदना तो उसका सनातन धर्म है ही। असहमित को रौंदना तो उसका शाश्वत कर्म है ही। इस प्रवृत्ति के खि़लाफ़ जो एकजुट नहीं होंगे, उनकी बेईमानी क्या देश कभी भूलेगा?
इसलिए यह समय अपनी-अपनी ढपली पर अपना-अपना राग गाने का है ही नहीं। क़त्ल से बचने का अगर कोई जतन करने को भी हम तैयार नहीं हैं तो हम से ज़्यादा अभागा कौन होगा? विपक्ष का महागठबंधन बनाने का नैतिक दायित्व आज किसी एक पर नहीं, सब पर है। यह वैसा ही समय है, जिसमें तटस्थता भी अपराध मानी गई है। यह वह समय है, जब सब को अपना पक्ष तय करना है। यह वही समय है, जो निकल गया तो फिर लौट कर नहीं आएगा। यह वह समय है, जिसमें या तो हम सब-कुछ खो देंगे या हम सब-कुछ पा लेंगे। इसलिए इस समय को हाथ से जाने देने वाले बाद में अपने हाथ मसलेंगे। क्या हम उम्मीद करें कि विपक्षी रहनुमा इतने ना-लायक़ नहीं निकलेंगे? क्या हम उम्मीद करें कि वे रहज़नों से दुआ-सलाम नहीं करेंगे? उम्मीद पर मेरी तो दुनिया क़ायम है। आइए, प्रार्थना करें कि हमारी यह दुनिया क़ायम रहे। प्रभु विपक्ष के सभी क्षत्रपों को सन्मति दें! (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)
No comments:
Post a Comment