राहुल गांधी के मंदसौर दौरे से उपजी ऊष्मा ने मध्यप्रदेश के कांग्रेसजन को जितना सराबोर किया है, उतना ही मुझे भी किया है। कमलनाथ-ज्योतिरादित्य सिंधिया-दिग्विजय सिंह-अजय सिंह-सुरेश पचौरी का पंचमुखी रुद्राक्ष मध्यप्रदेश में कांग्रेस को इस बार इसलिए सत्तासीन बनाने की कूवत रखता है, क्योंकि मतदाताओं का हर वर्ग शिवराज सिंह चौहान की सियासी वाम-साधना से बेतरह त्रस्त है। मगर बावजूद इसके कि मध्यप्रदेश-वासी अब भारतीय जनता पार्टी का मुंह भी नहीं देखना चाहते, मैं अपनी विजय-यात्रा पर निकल चुकी कांग्रेस से गुज़ारिश करना चाहता हूं कि वह नीचे दिए तथ्यों की सूची अगले छह महीने अपने गले में लटका कर घूमे।
पिछले, यानी 2013 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 36.3 प्रतिशत वोट मिले थे और उसके 57 विधायक जीते थे। इसके पहले 2008 में भी कांग्रेस को 36 प्रतिशत वोट मिले थे। इसका मोटा मतलब है कि गई-बीती हालत में भी कांग्रेस को एक तिहाई से ज़्यादा वोट तो मिल ही जाते हैं। लेकिन कांग्रेस को 2013 भूल जाना चाहिए और 2014 के मई में हुए लोकसभा चुनाव के दौरान मध्यप्रदेश में विधानसभावार नतीजों को गांठ बांध कर आगे बढ़ना चाहिए।
2014 की सच्चाई यह है कि जिन 57 सीटों पर कांग्रेस 2013 में जीती थी, उनमें से सिर्फ़ 18 पर ही उसकी बढ़त 2014 में क़ायम रह पाई थी। बाकी 39 में वह भाजपा से पिछड़ गई थी। यह सही है कि पिछले चार साल में नरेंद्र मोदी-अमित शाह की भाजपा कई पायदान नीचे लुढ़क गई है, मगर यह भी सही है कि मोदी-लहर ने जिन सीटों पर कांग्रेस की जीत को पीछे धकेल दिया था, वे कांग्रेसी-रुस्तमों के प्रभाव-क्षेत्र में थीं।
2014 के लोकसभा चुनाव के मतदान में कांग्रेस को मध्यप्रदेश में सिर्फ़ 35 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त मिली थी। भाजपा 195 सीटों पर आगे थी। 17 संसदीय क्षेत्र ऐसे थे, जहां कांग्रेस विधानसभा की एक भी सीट पर बढ़त हासिल नहीं कर पाई। कोई बुरा न माने तो कहूं कि दिग्विजय सिंह के राजगढ़ संसदीय क्षेत्र की सभी 8 विधानसभा सीटों पर कांग्रेस पीछे रही। अरुण यादव के खंडवा की आठों विधानसभा सीटें भी कांग्रेस ने गवांई। मीनाक्षी नटराजन के मंदसौर की सभी 8 विधानसभा क्षेत्रों में कांग्रेस पिछड़ी। सुरेश पचौरी के होशंगाबाद की आठों विधानसभा सीटों पर कांग्रेस पीछे रही। विवेक तनखा के जबलपुर की आठों सीटों पर भी कांग्रेस पिछड़ गई।
लोकसभा चुनाव के वक़्त कमलनाथ का छिंदवाड़ा अकेला ऐसा संसदीय क्षेत्र था, जहां कांग्रेस विधानसभा की सभी 7 सीटों पर आगे रही थी। सिंधिया के गुना में कांग्रेस 8 में से 6 और ग्वालियर में 8 में से 4 विधानसभा सीटों पर आगे थी। अर्जुन सिंह और अब उनके पुत्र अजय सिंह के प्रभाव वाले इलाक़े सतना में कांग्रेस 4 विधानसभा क्षेत्रों में आगे थी और सीधी में 2 विधानसभा क्षेत्रों में। दिग्विजय और सिंधिया के मिले-जुले प्रभाव वाले धार की 8 में से 4 सीटों पर कांग्रेस की बढ़त थी।
कांग्रेस के लिए यह भूलना भी ठीक नहीं होगा कि 2014 की मोदी-लहर ने जिन 17 संसदीय क्षेत्रों में कांग्रेस को हर-एक विधानसभा सीट पर मीलों पीछे छोड़ दिया था, उनमें अनुसूचित जाति के चारों संसदीय क्षेत्र--भिंड, टीकमगढ़, देवास और उज्जैन--शामिल थे। आदिवासियों के लिए आरक्षित लोकसभा की 6 सीटों में से 2 ऐसी थीं, जिनमें कांग्रेस को एक भी विधानसभा क्षेत्र में बढ़त नहीं मिली। इनमें से एक थी अरुण यादव के पिता सुभाष यादव की राजनीतिक जन्म-कर्मस्थली खरगोन। दूसरी थी बैतूल। अनुसूचित जनजाति के बाकी चार संसदीय क्षेत्रों में भी धार को छोड़ कर बाकी सभी जगह कांग्रेस की हालत बदतर ही थी।
जब अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिए आरक्षित इलाक़ों में ही कांग्रेस की हालत यह हो गई तो 2014 की लहर में सामान्य वर्ग की सीटों पर उसके गाल कहां से गुलाबी होते? लोकसभा की 19 सामान्य सीटों में सिर्फ़ 7 ऐसी थीं, जहां के विधानसभा क्षेत्रों में कहीं-कहीं कांग्रेस को बढ़त मिली। इन 19 संसदीय क्षेत्रों में भाजपा को कांग्रेस से क़रीब 36 लाख वोट ज़्यादा मिले। यह तथ्य भी ध्यान रखना कांग्रेस के लिए अच्छा रहेगा कि अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित क्षेत्रों को तो छोड़िए, सामान्य क्षेत्रों की इन सीटों पर बहुजन समाज पार्टी को साढ़े नौ लाख वोट मिले थे और समाजवादी पार्टी को पौने दो लाख। निर्दलीय और अन्य उम्मीदवार भी नौ लाख वोट बटोर ले गए थे। अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित लोकसभा की चार सीटों पर भाजपा को सवा 21 लाख से कुछ ज़्यादा, कांग्रेस को क़रीब 12 लाख, बसपा को 85 हज़ार और सपा को 52 हज़ार वोट मिले। अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित छह सीटों पर भाजपा को 35 लाख, कांग्रेस को साढ़े 23 लाख और बसपा को क़रीब एक लाख वोट मिले। निर्दलीय और अन्य उम्मीदवार सवा चार लाख से ज़्यादा वोट ले भागे। इसलिए मत-विभाजन के जाल-बट्टे का इस्तेमाल करने में माहिर भाजपा का मुक़ाबला करने के लिए कांग्रेस को इन सर्दियों के लिए अभी से व्यूह-रचना करनी होगी।
अपनी-अपनी सियासी-रियासत को लेकर सौतिया-डाह से लबरेज़ नेताओं से भरी कांग्रेस को यह भी याद रखना होगा कि चार साल पहले जब नरेंद्र मोदी अपनी बनैटी घुमाते हुए निकले थे तो उनके छर्रे भी कांग्रेस के रुस्तमों पर बेहद भारी पड़ गए थे। तब मंदसौर में मीनाक्षी नटराजन को 34 प्रतिशत वोट पर समेट कर न जाने कौन सुधीर गुप्ता 60 फ़ीसदी से ज्यादा वोट अपनी झोली में डाल कर चलते बने। खंडवा में अरुण यादव को 36 प्रतिशत वोट पर ढकेल कर नंदकुमार चौहान 57 प्रतिशत वोट ले भागे। दिग्विजय सिंह के छोटे भाई लक्ष्मण सिंह विदिशा में 28 प्रतिशत वोट पर सिमट गए थे और रीवा में सुंदरलाल तिवारी क़रीब 26 प्रतिशत पर। सिंधिया को भाजपा के उम्मीदवार से 12 प्रतिशत वोट ज़्यादा मिले थे और कमलनाथ को 10 प्रतिशत। मगर सबसे ज़्यादा मतों के अंतर से जीतने वाले उम्मीदवारों की सूची में सिंधिया 20वें क्रम पर थे और कमलनाथ 22वें पर। कुल 29 में से। यानी सिंधिया और कमलनाथ से भी अधिक वोटों के फ़र्क से जीतने वाले 19 ऐसे लोग थे, जिनके नाम आप जानते तक नहीं हैं।
सो, बावजूद इसके कि; मैं जानता हूं कि कांग्रेस मध्यप्रदेश में इस बार जीत रही है, कि विधानसभा का यह चुनाव भाजपा के खि़लाफ़ जनता खुद लड़ रही है, कि कोई मोदी-शाह लहर इस बार शिवराज की नैया पार नहीं लगा पाएगी; मैं कांग्रेस से अनुरोध करता हूं कि वह राहुल गांधी की मंदसौर यात्रा के बाद शुरू हुई चालीसा सुनने का आनंद लेने से बचे। रात तो पता नहीं क्या-क्या ख़्वाब दिखाती है। लेकिन असलियत तो वही है, जो सुबह हम जब नींद से जागते हैं, तो सामने आती है। इसलिए यह समय अपने घर की दीवारों के नीचे नींव के पत्थर को मज़बूत बनाए रखने का है। यह समय ‘जागते रहो’ की रट लगाए रखने का है। यह समय अतिशय व्यक्तिवादिता पर अंकुश लगाने का है। यह समय बैठक-बैठक खेलने के बजाय मैदान-मैदान दौड़ने का है। मध्यप्रदेश से भाजपा के जाने का समय आ गया है। कांग्रेस को अपना समय लाना है। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)
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