Wednesday, May 1, 2019

भस्मासुरी कलियुग से सनातनी सतयुग की ओर



Pankaj Sharma
20 April, 2019

आम चुनाव के दूसरे चरण में 95 लोकसभा क्षेत्रों में हुए मतदान के बाद केंद्र से भारतीय जनता पार्टी की विदाई के हर्फ़ सियासी आसमान में और सुर्ख़ हो गए हैं। अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दोबारा सत्तासीन करने की कोई जबरदस्त हुलक मतदाताओं के मन में होती तो इस चरण में 12 राज्यों में से 9 में, पिछली बार से भी कम लोग, मतदान केंद्रों तक नहीं पहुंचे होते। सिर्फ़ मणिपुर, उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ में मतदान का प्रतिशत 2014 से ज़रा-सा ज़्यादा रहा। ओडिशा में तो पिछले चुनाव की तुलना में सवा 14 प्रतिशत कम मतदान हुआ। सो, यह सन्नाटा मुझे तो सुनार की सौ के जवाब में लुहार की एक घन्नाहट के आसार दिखाता दीख रहा है।दोनों चरणों में मिला कर 186 सीटों पर मतदान हो चुका है। 2014 में भाजपा ने इनमें से 59 जीती थीं। कांग्रेस को तब सिर्फ़ 19 मिली थीं। मेरा आकलन है कि इस बार भाजपा इन 186 लोकसभा क्षेत्रों में से अपने 27 से ज़्यादा सांसद जिता कर नहीं ला पाएगी। दूसरी तरफ़ कांग्रेस के 57 सांसद इन दोनों चरणों में हुए चुनाव में जीत कर आ रहे हैं। पहले चरण की 91 सीटों में से भाजपा 8 और कांग्रेस 31 जीत रही है। दूसरे चरण में भाजपा को 19 और कांग्रेस को 26 सीटें मिलेंगी। 2009 के चुनाव में इन 186 सीटों में से कांग्रेस ने 80 और भाजपा ने 27 जीती थीं। कांग्रेस एक दशक पहले के गुलाबी-युग में भले ही नहीं लौट रही है, मगर भाजपा को चुनावी सांप-सीढ़ी दस बरस पहले की बावड़ी में ले जा रही है।
दूसरे चरण में जिन 95 सीटों पर मतदान हुआ है, उनके 2009 और 2014 में आए नतीजों के गणित पर ग़ौर कीजिए। भाजपा को 2009 में 20 सीटें मिली थीं। 2014 में नरेंद्र भाई की लाई आंधी में भी वे सिर्फ़ 7 ही बढ़ पाईं थीं। कांग्रेस को 2009 में 24 सीटें मिली थीं, लेकिन जब नरेंद्र भाई के अंधड़ ने 2014 में उसे कुल मिला कर एक बटा पांच पर पटक दिया था, तब भी दूसरे चरण के इन लोकसभा क्षेत्रों में वह अपना आधा बदन सलामत रखने में क़ामयाब रही और 12 सीटें जीत गई थी।
दूसरे चरण की इन सीटों पर बाकी राजनीतिक दलों की 2009 और 2014 की स्थिति के पेंच समझना भी 2019 के लिए ज़रूरी है। तमिलनाडु में सियासत का पेंडुलम द्रमुक और अन्नाद्रमुक के बीच झूलता रहता है। 2009 के चुनाव में द्रमुक को 18 और अन्नाद्रमुक को 9 सीटें मिली थीं। 2014 के चुनाव में द्रमुक पूरी तरह साफ़ हो गई और अन्नाद्रमुक राज्य की 39 में 36 सीटें जीत गई। अब अन्नाद्रमुक का दिल टुकड़े-टुकड़े हो कर ‘एक यहां गिरा, एक वहां गिरा’ हो गया है। दूसरे चरण में तमिलनाडु की एक को छोड़ कर बाकी सभी सीटों पर मतदान हो गया है। दक्षिण की हवा इस बार बहुत अलग है। मुझे नहीं लगता कि अन्नाद्रमुक के दिल के सभी टुकड़े चार-छह से ज़्यादा सीट जीतने की हालत में हैं। 
इस चरण की 95 सीटों में से बीजू जनता दल के पास 2009 में 3 और 2014 में 4 थीं। शिवसेना के पास दोनों बार चार-चार सीटें थीं। जनता दल सेकुलर के पास पिछले चुनाव में 2 और उससे भी पिछले में 3 सीटें थीं। लालू प्रसाद यादव के राजद ने 2009 में 3 सीटें हासिल की थीं और 2014 में भी वह 2 पर जीती थी। पिछले चुनाव की मोदी-लहर में इन 95 लोकसभा क्षेत्रों में से 56 भाजपा और कांग्रेस से इतर दलों ने जीती थीं। इससे अंदाज़ लगा लीजिए कि इस बार की उलट-लहर कैसे नतीजे ले कर सामने आएगी।
चरण में जम्मू-कश्मीर के श्रीनगर में भी मतदान हुआ है। वहां सिर्फ़ 14 प्रतिशत वोट पड़े हैं। पिछले चुनाव में वहां 26 प्रतिशत मतदान हुआ था। इस चरण का सब से कम मतदान जम्मू-कश्मीर में ही हुआ है। सिर्फ़ साढ़े 45 प्रतिशत। लेकिन अगर ऊधमपुर में तो 2014 की तरह ही 70 प्रतिशत मतदान हो और श्रीनगर में महज़ 14 फ़ीसदी तो भारतीय लोकतंत्र के लिए हम इसमें कौन-सा संदेश ढूंढें?  
11 अप्रैल को हुए पहले चरण के मतदान में भी 2014 के मुकाबले 6 प्रतिशत वोट कम पड़े हैं। पांच साल पहले जब नरेंद्र भाई दनदनाते हुए दिल्ली की तरफ़ बढ़ रहे थे तो 2009 की तुलना में 4 प्रतिशत ज़्यादा मतदान हुआ था। अब अगर पहले चरण में वह 6 प्रतिशत घट गया और दूसरे में ना के बराबर बढ़ा है तो क्या इससे हमें यह समझना चाहिए कि इस बार नरेंद्र भाई भनभनाते हुए ड्योढ़ी के बाहर जा रहे हैं? भाजपा कहती तो यही रही है कि जब मतदान ज़्यादा होता है तो उसे फ़ायदा होता है। हमने दो-एक बार से ऐसा ही होते देखा भी है। जब 2014 में 4 प्रतिशत ज़्यादा मतदान हुआ था तो 10 राज्यों में भाजपा को 9 सीटों का फ़ायदा हुआ था और कांग्रेस को 37 का नुक़सान। सो, इस बार का कम मत-प्रतिशत क्या भाजपा के लिए शोक-पत्र ले कर आ रहा है?
समर के पांच चरण अभी शेष हैं। इस बार का सियासी-समर जनतंत्र की पाठ-पट्टी को नए सिरे से पोतने-चमकाने का यज्ञ है। यह ठोस पक्षधरता के आग्रह का समय है। इसलिए जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध! जिनकी आंखों में लुंज-पुंज गठबंधन की तरफ़ जाते देश को देख कर आंसू आ रहे हैं, उन्हें रोने दीजिए। आपकी सहानुभूति का रूमाल उनके लिए नहीं है। आपके रूमाल को तो उन माथों के पसीने की बूंदें पोंछनी हैं, जिनकी अनवरत दृढ़ता के चलते भारत एकाधिकार के श्राप से मुक्त होने की दिशा में चल पड़ा है। लोकतंत्र के चेहरे को लहूलुहान करती मुट्ठी से तो उसकी पीठ सहलाती अलग-अलग उंगलियां ही बेहतर!
जनतंत्र की वापसी का दिन महीने भर बाद आ रहा है। तब तक उसके रास्ते में बिछाने को इस कड़कती धूप में हमें साये इकट्ठे करने हैं। पांच बरस से हम-आप जहां एड़ियां रगड़ रहे हैं, अगले महीने की गर्मियों में मीठे पानी का झरना वहीं से निकलेगा। इसलिए अब एक-एक दिन पहरेदारी का है। इस दौर में नफ़रत का जितना तेज़ बहाव हम ने देखा, हमारी पीढ़ी ने कभी नहीं देखा था। इस अंधेरे को अब तक रोके खड़े हम क्या किनारे पर पहुंचते-पहुंचते लड़खड़ाने का ख़तरा मोल ले सकते हैं? 
रिआया साहिबे-तख़्त बदल रही है। इसका घर्घर नाद जिन्हें मतदान के दो चरणों में सुनाई नहीं दिया, वे अगले पांच चरणों में भी अपने कानों में उंगलियां ठूंसे रहेंगे। उन्हें ऐसा ही करने दीजिए। मगर हम-आप अपने आंख-कान खुले रखें। यह हस्तिनापुर में सम्यक् दर्षन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र की पुनर्स्थापना का पर्व है। इस पर्व के दो प्रक्षाल संपन्न हो गए हैं। बाकी के पांच प्रक्षालों के कलश हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। अगर हमने जनतंत्र की प्रतिमा को पूरे मन से स्नान कराने में कोताही नहीं की तो इस बार जेठ के महीने में, कृष्ण-पक्ष की पंचमी को, एक ऐसे शुक्ल-पक्ष का आरंभ होगा कि भारतीय राजनीति के पंचांग का पूरा अर्थ ही बदल जाएगा। तब हम सब एक भस्मासुरी कलियुग  को पीछे छोड़ सनातनी सतयुग में प्रवेश कर रहे होंगे। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)

No comments: