Wednesday, November 20, 2019

डूब मरो-डूब मरो, देशवासियों, डूब मरो


पंकज शर्मा
हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी ने विपक्ष के लिए ‘डूब मरो, डूब मरो’ का नारा बुलंद कर दिया है। मैं इसका फ़लक और व्यापक करते हुए उनके अ-सुर में अपना स्व-सुर मिलाता हूं–‘डूब मरो, डूब मरो’। बल्कि जहां चुल्लू भर पानी भी न मिले, वहां जा कर डूब मरो। देशवासियो, क्या-क्या देखोगे? क्या-क्या भुगतोगे? कब तक हाथ बांधे बैठे रहोगे? इससे तो डूब ही मरो। नरेंद्र भाई क्या ग़लत कह रहे हैं? भारत का प्रधानमंत्री इस बुरी क़दर धिक्कार रहा है और भारतवासी फिर भी डूब नहीं मरते!
विपक्ष को तो छोड़िए। उसकी तो हैसियत ही क्या है? इतनी भर है कि 2019 के आम चुनाव में जब 61 करोड़ लोग मतदान केंद्रों पर अपनी राय ज़ाहिर करने पहुंचे तो उनमें से 38 करोड़ लोग नरेंद्र भाई के ख़िलाफ़ वोट दे कर वापस आए। 63 प्रतिMत मतदाताओं ने विपक्ष के किसी एक राजनीतिक दल को वोट भले ही नहीं दिए, मगर उन्होंने भारतीय जनता पार्टी को तो सिरे से नकारा। फिर भी अगर सीटों के अंकगणित ने नरेंद्र भाई को प्रधानमंत्री की गद्दी दे दी तो इसमें उनका क्या कसूर है? ऐसे में अगर विपक्ष गुनाह करेगा तो उसे डूब मरने की सलाह देना देश के प्रथम सेवक का प्रथम कर्तव्य है।
विपक्ष इससे बड़ा गुनाह और क्या कर सकता है कि उसने कह दिया कि जिस महाराष्ट्र में डूब रहे बैंकों के मारे लोगों की हिचकियां नहीं थम रही हैं, वहां धारा-370 के हटने का आलाप उन्हें कौन-सा मरहम लगा देगा? बात पकड़ने, उसे अपने हिसाब से मरोड़ने और ढोल-नगाड़ा ले कर पिल पड़ने की महारत न होती तो क्या नरेंद्र भाई अपनी ही पार्टी की छाती पर चढ़ कर 2014 में रायसीना-पहाड़ी फ़तह कर लेते? अगर धराभीम ऊर्जा से वे सराबोर न होते तो क्या पांच साल में पूरे मुल्क़ को गऊ बना कर 2019 में वे दोबारा ‘थ्री-नॉट-थ्री जीत’ हासिल कर लेते? सो, नरेंद्र भाई ने ऐलान कर दिया कि विपक्ष कह रहा है कि महाराष्ट्र का कश्मीर से क्या लेना-देना और ऐसा कहने वालों को डूब मरना चाहिए।
नरेंद्र भाई के अनुचरों को छोड़ दें तो बाकी पूरा भारत पूछ रहा है कि आज की घनघोर आर्थिक मंदी क्या धारा-370 हटाने से दूर हो जाएगी? क्या यह भीषण बेरोज़गारी धारा-370 हटाने से दूर हो जाएगी? क्या नोट-बंदी के दुष्परिणाम धारा-370 हटाने से धुल जाएंगे? क्या ठप्प हो गए उद्योग-धंधे धारा-370 हटाने से वापस आ जाएंगे? पिछले पांच साल में हर साल भुखमरी के विश्व-सूचकांक में नीचे गिरते जा रहे भारत की समस्याएं क्या धारा-370 हटाने से दूर हो जाएंगी? नरेंद्र भाई का फ़रमान है कि ये सवाल उठा रहे सभी भारतवासी डूब मरें।नरेंद्र भाई के जम्मू-कश्मीर से धारा-370 हटाने का पुण्य अगर चित्रगुप्त के बहीखाते में दर्ज़ हो ही गया है तो फिर ऐसा क्या उद्विग्न होना कि ज़रा-सा कोई पूछे कि इसका हमारी दो जून की रोटी से क्या ताल्लुक़ तो ‘डूब मरो-डूब मरो’ चिल्लाने लगना! हिकारत का जैसा भाव अपने चेहरे पर लिए एक प्रधानमंत्री को मैं ने ‘डूब मरो, डूब मरो’ का शंखनाद करते देखा, मुझे भीतर से यह सोच कर ख़ुद पर इतनी घिन आई कि मैं 2014 की गर्मियों में ही क्यों नहीं डूब मरा? नहीं तो कम-से-कम चार महीने पहले इस साल की गर्मियों में तो मुझे डूब कर मर ही जाना चाहिए था।
लेकिन लोग इसलिए डूब कर नहीं मर रहे हैं कि जिन्हें डूब मरना चाहिए, वे तो लाज के किसी भी तालाब में डूब कर मरने को तैयार नहीं हैं। सो, उनकी उम्र बढ़ाने के लिए हमीं क्यों डूब मरें? जब देश को नोट-बंदी की खाई में धकेलने के बाद पचास दिन मांगने वाले 1075 दिन बाद भी डूब मरने को तैयार नहीं हैं तो डूबते बाज़ार और डूबते बैंकों में अपने पसीने की कमाई डूबती देख रहे देशवासी क्यों डूब मरें? किन्हें डूब मरना चाहिए? मुंह का निवाला छीनने वालों को या रोटी का सवाल उठाने वालों को? भूखे पेट भी तिरंगा लहराना भारतवासियों को किसी से सीखना नहीं है। इसीलिए तिरंगे की आड़ में बने अंतःकक्षों में क्या घट रहा है, यह जानने का हक़ भी हरेक देशवासी को है। यह पहली बार है कि जवाब देने वालों के बजाय सवाल पूछने वालों को डूब मरने की सलाह मिल रही है। जिन्हें करना हो, इस नए भारत का स्वागत करें, मैं इस शोर में डूबने से इनकार करता हूं।
बुनियादी प्रश्न खड़े करने से नहीं, विपक्ष तब बिना किसी के कहे भी डूब कर मर जाएगा, जब नागरिकों के असली सरोकार उसकी प्राथमिकता-सूची से बाहर हो जाएंगे। अभी ऐसा पूरी तरह नहीं हुआ है। मगर इतना ज़रूर हो गया है कि तरह-तरह के कारणों से सकल-विपक्ष अपनी बुनियादी भूमिका निभाने में आनाकानी कर रहा है। यह लड़ाई विपक्ष के किसी एक धड़े के बूते की नहीं रह गई है। जनतंत्र के उसूलों से लिपटे किसी अकेले चने में वह ताक़त नहीं बची है कि एकतंत्र की भाड़ फोड़ दे। इसके लिए तो समूचे विपक्ष को एकल-सेना बनानी होगी। ऐसा नहीं हुआ तो फिर कोई प्रधानमंत्री नहीं, पूरा देष नारा लगाएगा–‘डूब मरो, डूब मरो’।
राजनीति के मूल्यहीन होने का ऐसा दौर पहले कभी नहीं था। जब हम इस दौर से गुजरने को अभिशप्त हों तो उम्मीद भरी आंखें इसके अलावा क्या करें कि षब्दों की आहट का इंतज़ार करें। मगर अब यह इंतज़ार बहुत लंबा होता जा रहा है। यह इतना खिंच गया है कि टूटन के किनारे है। नए साल के पहले दिन अकेले दिल्ली में एक लाख लोग अपने आप इंडिया गेट पहुंच जाते हैं, ढाई लाख लोग ख़ुद-ब-ख़ुद हनुमान मंदिर चले जाते हैं, पांच लाख लोग बंगला साहिब गुरुद्वारा मत्था टेक आते हैं और चिड़ियाघर तक की सैर करने भी पचास हज़ार लोग पहुंच जाते हैं। ऐसे उत्साही मुल्क़ में अगर हज़ार-पांच सौ लोगों में भी राजनीतिक फूहड़पन के खि़लाफ़ कहीं इकट्ठे होने की इच्छा नहीं जागती तो आस्थाहीनता की इस स्थिति के लिए विपक्ष नही तो कौन ज़िम्मेदार है?
मगर फिर भी विपक्ष को नरेंद्र भाई के कहने पर तो क़तई डूब कर नहीं मरना चाहिए। उसे इसलिए ज़रूर डूब कर मरने के बारे में सोचना चाहिए कि आज के तांडवी-माहौल में भी वह देशवासियों की आस्था का चुंबक नहीं बन पा रहा है। राख सरीखे शोलों पर आस्था रख कर देशवासी क्या करें? अगर उन्हें सत्तालोलुपों में से ही किसी को चुनना है तो फिर नरेंद्र भाई की भाजपा ही क्या बुरी है? दशकों की अपनी वैचारिक तपस्या का गाना गाते रहने भर से अब बदलाव की अलख नहीं जगने वाली। विपक्ष के बंजारे अब तो जब तक बस्ती-बस्ती परबत-परबत गाते नहीं घूमेंगे, कोई उनकी सुनने वाला नहीं है।
इस बेतरह ऊबड़खाबड़ समय में भी मुझे नरेंद्र भाई ने उम्मीद की लौ से इसलिए गुनगुना कर रखा है कि मैं जानता हूं कि बाहर का खेल कितना ही मजबूत हो, भीतर को साधे बिना बात नहीं बनती है। और, नरेंद्र भाई की भीतरी साधना क्षरित होती जा रही है। इसके बगूले बीच-बीच में तेज़ी से कौंधते हैं। ऐसे में वे अपने पद की तमाम असाधारणताएं भूल कर निरे दोपाया प्राणी बन कर रह जाते हैं। भीतर की ये गांठें देर-सबेर व्यक्ति को उलझा ही देती हैं। इसलिए आज नहीं तो कल, उनका पैर उलझेगा। तब उन्हें डूबने से बचाने को कौन होगा?

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