राहुल गांधी ने ऋषिकेश में जब अपने कुर्ते की फटी जेब सार्वजनिक तौर पर दिखाई तो इस घटना का मोटी बुद्धि से विश्लेषण करने वाले कम नहीं थे। लेकिन ऐसे लोग मौजूदा राजनीति की इस विडंबना का मर्म समझ ही नहीं पाएंगे कि मुख्य-विपक्ष के एक नौजवान नेता को यह क्यों करना पड़ रहा है? सब जानते हैं कि ऐसा नहीं है कि राहुल इतने मोहताज हैं कि उन्हें फटा कुर्ता पहन कर घूमना पड़े। अगर कोई जानबूझ कर काइंयागीरी न करना चाहे तो वह इतना भी समझ सकता है कि राहुल जानबूझ कर फटी जेब वाला कुर्ता पहन कर ऋषिकेश नहीं पहुंचे होंगे। अनायास जब उनका हाथ कुर्ते की जेब में गया होगा और उन्होंने पाया कि जेब फटी है तो उन्हें यह बताने में कोई हिचक नहीं हुई कि इससे उन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता है कि वे तन ढंकने के लिए क्या पहने हुए हैं। राहुल यह बताना चाहते थे कि अपने पहनावे को लेकर उनका दिमाग़ दूसरों की तरह इतना अति-अलंकृत नहीं हैं कि हर वक़्त कपड़ों की सिलवटों का ही ख्याल रखता रहे।
राहुल इन दिनों अपने ही राजा से सहमे हुए देश की घुटन से जूझ रही मुक्ति-वाहिनी के नायकत्व का प्रतीक बन कर उभर रहे हैं। लोकतांत्रिक प्रक्रिया के कान उमेठ कर प्रधानमंत्री पद पर आसीन हो गए एक स्वेच्छाचारी को वे अपने विनम्र अंदाज़ में ललकार रहे हैं। नए साल की शुरुआत होते ही भारतीय जनतंत्र के ललाट पर राहुल ने जिस रोली से तिलक करना शुरू किया है, वसंत-पंचमी के बाद उसका रंग दूर से दिखाई देने लगेगा। आज यह बात भांड़गीरी ही लगेगी कि राहुल की सियासी सादगी के सिंगार को जो अब तक उनका तुतलाता बचपन समझते थे, वे पिछले चंद हफ़्तों से अपनी आंखें मसल रहे हैं। राहुल-विरोधियों को अब यह अहसास हो रहा है कि जब नम्र निवेदन निष्फल हो जाते हैं तो एक दृढ़-निश्चयी व्यक्तित्व का संकल्प और कितना गहरा हो जाता है।
इसलिए राहुल गांधी ने इस बात की परवाह किए बिना कि उनकी कांग्रेस का व्यावहारिक वजूद उत्तर प्रदेश के चंद ज़िलों तक सिमट जाएगा, अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी का चुनावी अनुगामी बनना मंजूर किया। वे जानते हैं कि जब रास्ते में अंधेरा थोड़ा घना हो तो व्यापक देशहित के लिए हाथ में हाथ डाल कर चलना और ज़रूरी होता है। यह मौक़ा सिर्फ़ इतना भर सोचने का है कि भाजपा के नथुनों में नकेल कैसे डले! सपा-कांग्रेस के तालमेल ने भारतीय जनता पार्टी के माथे पर चिंता की ऐसी लकीरें उकेर दी थीं कि सायंकालीन सत्रों में उसके कई नेताओं का मन रोने-रोने को हो आता है। भाजपा की मातृ-संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आंतरिक आकलन देख कर मोहन भागवत को भी लगने लगा था कि उत्तर प्रदेश में क्या जाने क्या होने को है? लालू प्रसाद यादव और ममता बनर्जी के भी उत्तर प्रदेश के मैदान में मोदी को ललकारते घूमने की संभावनाओं से भाजपा के हाथ-पैर सुन्न होने के आसार और बढ़ गए थे। लेकिन सपा ने शुक्रवार की सुबह अपनी पहली सूची में पिछली बार कांग्रेस द्वारा जीती सीटों पर भी अपने उम्मीदवारों का ऐलान कर के मालूम नहीं क्यों सकपकाई भाजपा को राहत के पल दे दिए?
सपा ने कांग्रेस को उसके हक़ की 54 सीटें देने और 30-35 सीटें और उसके लिए बराए-मेहरबानी छोड़ने की बात कह कर तालमेल की चाशनी में ऐसा मट्ठा डाल दिया है कि अब अगर बात बनी भी तो यह कसैलापन राहुल-अखिलेश की गलबहियों को कृत्रिम बना देगा।
पूरे एक साल चली घनघोर मोदी-लीला के बाद मई-2014 में सियासत की टोपी से निकले खरगोश ने उत्तर प्रदेश में भी बाकी सबको कछुओं मे तब्दील कर दिया था। ऐसे में नरेंद्र भाई दामोदर दास मोदी और उनके आलम-बरदार अमितभाई अनिलचंद्र शाह इतने अति-आत्मविश्वासी हो जाएं कि सोचने लगें कि उनकी भाजपा उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों की आगामी सप्तपदी में तीन सौ सीटों का आंकड़ा पार करेगी, तो इसमें उनकी कोई ग़लती नहीं है। पौने तीन साल पहले आखि़र भाजपा ने राज्य की 328 सीटों पर बाकी सबको दूर खदेड़ ही दिया था। अगर भाजपा अपने पाश््रव-गायकों के उन्हीं सुरों को आगामी उत्सव का भी शीर्षक-गान मान कर चल रही है तो कोई क्या करे! लेकिन असलियत तो यह है कि इस बीच सरयू में बहुत पानी बह गया है और लोग मोदी पर आज उस तरह रीझे हुए नहीं है, जैसे वे 2014 में थे।
तीन-साढ़े तीन बरस पहले इंटरनेट की सामाजिक दीवारों पर मोदी और उनकी भाजपा को लेकर छींटाकशी करने को सोचना भी पाप था और सोनिया-राहुल और उनकी कांग्रेस हर रोज़ गढ़े जाने वाले लतीफ़ों की मूसलाधार से कराहती रहती थी। आज इंटरनेट-आंगन पूरी तरह उलट गया है। मोदी-शाह की जुगलजोड़ी जिस तरह के हा-हा-हू-हू का सामना कर रही है, अगर वह कोई संकेत है तो उत्तर प्रदेश तो उत्तर प्रदेश, पूरे देश में आने वाले दिन भाजपा के लिए अच्छे नहीं हैं। विमुद्रीकरण के पत्थर बरसा कर नरेंद्रभाई ने जितनी ज़िंदगियों को टूटन के कगार पर ला खड़ा किया है, उनकी आह से भाजपाई राजनीति की मोटी खाल दरकनी शुरू हो गई है। इस एक फ़ैसले की चिरचिराहट रफू करने के लिए मोदी की पूरी सरकार के पास कोई धागा ही नहीं है। इसलिए भारत की बुनियाद में बिछी एक-एक ईंट पर पर चस्पा हो गई भाजपा की इस रामकथा की चैपाइयां ही अगले सवा दो बरस में उसकी फ़जीहत कराने वाली साबित होंगी।
ऐसे में अगर भाजपा-विरोधी शक्तियों ने अपनी बिसात ठीक से बिछा ली, एक ही दस्तरखान पर बैठने से उन्होंने परहेज़ नहीं किया और अपना-तेरी के टीलों को वे लांघ सके तो हम आज के जुगनुओं को 2019 में भारत की आकाशगंगा का सौर-मंडल बनते भी देख सकते हैं। आज की धुध में जब इन जुगनुओं की टिमटिमाहट भी लोगों को राहतदायी लग रही है तो अब समय के साथ इस धुध को तो छंटना ही है। अपनी पूरी कोशिशों के बावजूद आखि़र संघ-मंडली आज का कोहरा कब तक नहीं छंटने देगी? विपक्ष के सामूहिक प्रयासों ने पिछले एकाध महीने में लोगों की आंखों का ‘मोदियाबिंद’ काफी हद तक दूर कर दिया है। लेकिन सामूहिक विपक्ष अगर अपनी साख से खुद ही इस तरह खेलता रहेगा तो आने वाले महीनों की आर्थिक मंदी, बेरोज़गारी और बैंकिंग व्यवस्था के प्रति घर कर गए अविश्वास के बावजूद मोदी की बेदखली का सपना वह भूल ही जाए।
नरेंद्रभाई यह भूल रहे हैं कि वे उस देश के प्रधानमंत्री हैं, जिसकी कुल संपत्ति का 58 फ़ीसदी हिस्सा सिर्फ़ चंद लोगों के पास है। ऐसे मुल्क़ में अच्छे दिन लाने के लिए 86 प्रतिशत मुद्रा को रातोंरात चलन के बाहर कर देने से बड़ा पाप और कुछ नहीं हो सकता था। अपनी पाई-पाई के लिए डेढ़ महीने तक कतार में खड़े रहे 99 फ़ीसदी लोग डिज़ाइनर-वस्त्रों से लकदक मोदी के सायास ‘चरखावतार’ पर भरोसा करेंगे या राहुल गांधी के मुड़े-तुड़े कुर्ते की अनायास उधड़ी सिलाई पर? यह इस पर निर्भर करेगा कि जनतंत्र पर आई मुसीबत के पर्वत को सामूहिक विपक्ष चढ़ कर पार करता है या उसके बगल से गुजरने में ही अपने को धन्य समझ लेता है! राहुल इस इम्तहान के पहले चरण की अपनी भूमिका में एकदम खरे उतर रहे हैं। लेकिन कांग्रेस की निजी आकांक्षाओं की आहुति को बाकी विपक्षी दलों की महत्वाकांक्षाओं के लिए मिसाल बनाने में राहुल अब और क्या करें? जिन्हें उत्तर प्रदेश के इस चुनाव की राष्ट्रीय अहमियत के बनिस्बत अपने निजी कबीलेवाद की ज़्यादा फ़क्र है, क्या इतिहास उन्हें कभी माफ़ करेगा?
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