इस बार गणतंत्र दिवस की परेड देखते हुए मैं सोच रहा था कि पिछले 67 साल से राजपथ पर जिस भारत का दर्शन हम करते हैं और दुनिया को कराते हैं, क्या वक़्त नहीं आ गया कि उसका स्वरूप अब बदल दिया जाए? सेना, अर्द्धसैनिक बलों, पूर्व-सैनिकों और एन.सी.सी. की कदमताल; रक्षा उपकरणों का प्रदर्शन; मोटर साइकिल सवारों की संतुलन दक्षता; राज्यों, सरकारी विभागों और सार्वजनिक उपक्रमों की झांकियां; बहादुर बच्चों की प्रतीक उपस्थिति; स्कूली बच्चों की सांस्कृतिक प्रस्तुतियां; और, सैन्य विमानों का उड़ान कौशल। क्या भारत के विभिन्न पहलुओं को दिखाने का यह तरीका आज की डिजिटल दुनिया के लिहाज़ से बहुत ज़्यादा घिस नहीं गया है? भारतीय गणतंत्र का उत्सव मनाने का जज़्बा सिर-माथे। अगर अपनी आज़ादी और गणतंत्र के त्योहार भी हमारे भीतर तरंगें पैदा नहीं करेंगे तो होली-दीवाली-ईद भी हमारे लिए रस्म-अदायगी ही हो जाएंगे। इसलिए राजपथ तो हर गणतंत्र दिवस पर ऐसे ही थिरकना चाहिए, लेकिन इसे सरकारी ठूंठपन के चंगुल से बाहर निकाल कर अगर अब हम जीवंत समाज को नहीं सौंपेंगे तो घोर पाप करेंगे।
वो ज़माना गया, जब चिठियां हफ़्तों में एक से दूसरी जगह पहुंचती थीं, फोन पर लाइटनिंग कॉल भी तीसरे दिन जा कर जुड़ पाती थी और रेडियो पर फौजी भाइयों के मनपसंद गीत सुन कर देश हर रात सोने जाता था। भारत की विविधता में एकता दिखाने के लिए राजपथ के सालाना जलसे का यह स्वरूप तब क्रांतिकारी था। सिनेमा हॉल में फ़िल्म के पहले न्यूज़रील में गणतंत्र दिवस की परेड के अंश देख कर हम सब को भी अपना सीना छप्पन इंच का लगने लगता था। लेकिन अब दिन-रात हाथ में डिजिटल संसार लिए घूम रहे, देश-दुनिया की हर सही-ग़लत सूचनाओं से रू-ब-रू हो रहे और हर मतलब-बेमतलब की बात में अपने विचारों की चोंच लड़ा रहे किशोर-किशोरियों और युवक-युवतियों को राजपथ का गणतंत्र-मंचन एक औपचारिक कर्मकांड ही ज़्यादा लगता होगा।
गणतंत्र के मौजूदा आयोजन में राष्ट्रीय उपलब्धियों के आधे-अधूरे संग्रह की झलक और देश पर गर्व का आग्रह तो है, लेकिन उम्मीदों, स्वप्नों, अवसरों और भरोसे के वे गलियारे उतने स्पष्ट नहीं हैं, जिनसे गुज़र कर हमें आने वाले दिनों की चुनौतियों से दो-दो हाथ करने हैं। इसलिए गणतंत्र का उत्सव सिर्फ़ सरकार ही क्यों मनाए? जिस निजी क्षेत्र ने भारत की सार्वजनिक संपत्ति को तमाम तरह की तिकड़में रच कर अपनी मुठी में भींच कर बंद कर लिया है, वह हर साल राजपथ पर आ कर देश को अपनी असली झांकी क्यों नहीं दिखाता है? मुल्क़ की स्वास्थ्य सेवाओं, स्वास्थ्य बीमा योजनाओं और दवा कारोबार के ज़रिए हर रोज़ अपने बदन की चर्बी बढ़ा रहे संस्थानों और अस्पतालों को अपनी बाज़ीगरी की प्रस्तुति राजपथ पर क्यों नहीं करनी चाहिए? शिक्षा और कोचिंग की बड़़ी-बड़ी दुकानों के हथकंडों की झलकियां भी राजपथ पर पूरा देश क्यों न देखे? बहादुर चेहरों के साथ शोषण और अनाचार के मारे चेहरे भी शामिल क्यों न हों?
हमारी रक्त-शिराओं में बह रहा बीज-मंत्र हमें हर हाल में अपने देश पर गर्व करना सिखाता है। सो, बावजूद इसके कि बिना पैसे के आमतौर पर हमारे बच्चे का प्रवेश किसी स्कूल में नहीं हो पाता; कि बिना पैसे के अस्पताल से स्वजन का पार्थिव शरीर भी बहुत बार नहीं मिल पाता; कि राज्यों के परीक्षा मंडल और नियुक्ति आयोग पैसा ले कर अयोग्य को योग्य और योग्य को अयोग्य बनाने के काम में निर्लज्जता से लगे रहते हैं; बावजूद इसके कि हमें अपनी ही मेहनत की कमाई बैंक से लेने के लिए भिखारी बनने पर मजबूर होना पड़ता है; हम अपने देश पर गर्व करते हैं। जब हम ऐसा करते हैं तो उसे किसी व्यक्ति-विशेष या एक ख़ास शासन-व्यवस्था को सलामी समझना भूल है। भारत का एक-एक नागरिक यह सलामी अपने देश की उस अंतर्निहित शक्ति को देता है, जिसके बूते, हर कमी-बेसी के बाद भी, हम यहां तक पहुंचे हैं और आगे जाएंगे।
भारतीय समाज के अंक-गणित पर अपनी सियासत की बहियां संजोए बैठे आज के राजनीतिक अगर देश के बीज-गणित को समझ लें तो फिर रोना ही किस बात का? लेकिन गणतंत्र का तो दुर्भाग्य ही यह है कि पूरा सत्तातंत्र–पक्ष, विपक्ष, सरकारी अमला और कॉरपोरेट गिरोह–लोक जन-जीवन की असलियत से जानबूझ कर विमुख है। असली सच्चाइयों से मुह फेर कर बैठे सामाजिक, सांस्कृतिक, व्यावसायिक और राजनीतिक नेतृत्व के बावजूद अगर भारत के क़दम नहीं डगमगा रहे हैं तो इसलिए कि ऊबड़-खाबड़ पंगडंडी पर चल रहे हर देशवासी के पास खुद के संयम और धैर्य की वह नैसर्गिक लाठी है, जो उसे सहारा दे रही है। यह लाठी उसे 70 साल से राजपथ पर अर्रा कर विचरण कर रहे वर्ग के सौजन्य से नहीं, भारत की संपन्न आध्यात्मिक विरासत से मिली है। उस विरासत से, जिसमें वेदों, पुराणों, उपनिषदों और सूफ़ी परंपरा की शाश्वत झांकी है।
वेद अपुरुषेय हैं। वे श्रुति साहित्य हैं। हमारी श्रुति और स्मृति परंपरा ने ही मनुष्य को अपनी ज़ुबान पर जान तक दे देने की नैतिक ताक़त दी। ‘प्राण जाहिं, पर वचन न जाहिं’ जैसे बीज-वाक्य आज के ज़ुमलों के दौर की उपज नहीं हैं। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद की रचना तो अब दोबारा क्या होगी? अब तो वेदों की संहिताओं और अरण्यकाओ का मोटा मर्म समझने वालों को हमसे विदा लिए भी दशकों बीत गए। ताम्र युग के उत्तरार्द्ध और लौह युग के आसपास हमारे पूर्वज अगर ऐसे प्रखर और विवेकवान थे तो इक्कीसवी सदी में हमारे रहनुमाओं की मति ऐसी क्यों मारी गई है?
ऋग्वेद के 1028 मंत्रों और 10600 श्लोकों में से अगर दस-पांच भी आज के कर्ताधर्ताओं ने गांठ बांध लिए होते तो क्या हम ये दिन देख रहे होते? 18 महापुराणों में चार लाख श्लोक हैं। महापुराण और उपपुराण गूगल आने के बाद नहीं लिखे गए हैं। वैसे तो कोई 200 उपनिषद होंगे, लेकिन एक दर्जन मुख्य उपनिषद तो भारतीय समाज की हज़ारों बरस से जीवनी-शक्ति हैं। किसी को नहीं मालूम कि उन्हें याज्ञवल्क्य ने लिखा या शांडिल्य ने या फिर श्वेतकेतु या किसी और ने। इसलिए आज अपने हर अल्पजीवी प्रयास की शिलापट्टिका पर खुद का नाम उकेरने को आतुर नश्वर नेतृत्व की कतार देख कर ब्रह्मा भी अपना सिर पीटते होंगे।
कहां वे, जो हज़ारों बरस पहले मानवता के लौह-युग में भी सृष्टि शास्त्र, ब्रह्मांड विज्ञान, खनिज शास्त्र, खगोल विज्ञान, औषधियों और व्याकरण पर ध्यान लगा रहे थे और कहां ये, जो चुनावों के जातिगत आंकड़ों के विश्लेषण को अपनी राजनीतिक-प्रतिभा का चरम मानते हैं; जमुना-तीरे विश्व संस्कति महोत्सव के आयोजन को अपनी आध्यात्मिक-प्रतिभा की पराकाष्ठा समझते हैं; देखते-ही-देखते पचास हज़ार करोड़ रुपए का उत्पादन साम्राज्य खड़ा कर देने को अपनी यौगिक-प्रतिभा का शिखर बताते हैं; और सार्वजनिक बैंकों के लाखों करोड़ रुपए अंटी कर देश को उंगलियों पर नचाने की अपनी वणिक-प्रतिभा पर इतराते हैं! अग्नि पुराण से ले कर वायु पुराण तक, भागवत पुराण से ले कर विष्णु पुराण तक, पद्म पुराण से ले कर स्कंद पुराण तक और सत्व पुराण से ले कर राजस पुराण तक में जिन देवताओं, संतों और तीर्थों की वंशावली दर्ज़ है, उनका अगर एक भी पन्ना हमारे आज के रहनुमाओं ने पलटने की ज़हमत उठाई होती तो उन्हें अपने दौर के देवताओं और असुरों को समझने की कूवत मिलती। लेकिन सृष्टि के तानाबाना तो दूर, अब तो भारत की खोज करने का सोच रखने वाले भी कब के चले गए! अब जो बचे हैं, उनके रहते तो हमारा गणतंत्र बचा रहे, यही बहुत है। गणतंत्र दिवस की परेड जैसी भी सही, होती रहे। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)
No comments:
Post a Comment