मेरे इस सप्ताह की शुरुआत मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की नर्मदा परिक्रमा पैदल-यात्रा में शामिल होने से हुई। जब मैं धार ज़िले के मनावर-बांकानेर इलाक़े में सुबह-सुबह उनकी यात्रा में पहुंचा तो वे अपनी परिक्रमा के 3300 किलोमीटर के बीच-मुक़ाम पर थे। क्रिसमस के पूरे दिन मैं उनके साथ था। वे एक-एक डग भर कर 86 दिनों में 1500 किलोमीटर से ज़्यादा की दूरी तय कर चुके थे और 87वें दिन तेज़ क़दमों से आगे बढ़ रहे थे।
नरसिंहपुर ज़िले के बरमन घाट से 30 सितंबर को चिर-कुंवारी नर्मदा नदी के किनारे-किनारे शुरू हुई उनकी पैदल परिक्रमा अगले बरस होली और नवरात्रि के बीच जिस दिन अमरकंटक में संपन्न होगी, दिग्विजय अपने उस प्रदेश के तक़रीबन सवा सौ विधानसभा क्षेत्रों से होकर गुज़र चुके होंगे, जहां पिछले पंद्रह बरसों से भारतीय जनता पार्टी का कमल खिल रहा है और अगले पांच साल भी उसकी झोली से अपनी गोद में उलेंच पाना कांग्रेस के लिए खाला जी का खेल नहीं है।
पिछले साढ़े तीन दशक से ज़्यादा वक़्त में दिग्विजय सिंह और उनके राजनीतिक गुरू अर्जुन सिंह के बीच डाल-डाल-पात-पात की छटाएं मैं ने कम नहीं देखी हैं। मैं यही मानता हूं कि दिग्विजय पूरी तरह गए अपने सियासी-उस्ताद पर ही हैं। मैं यह सोच कर उनकी नर्मदा परिक्रमा का हिस्सा बनने गया था कि जब एक-से-बढ़कर-एक प्रादेशिक दिग्गज उनके साथ परिक्रमा की क़दमताल कर आए हैं तो मुझ नाचीज़ को भी उनके अश्वमेध में अपनी आहुति देने जाना चाहिए। अगर दिग्विजय की परिक्रमा में अच्छे-अच्छों को आगत के राजनीतिक आसार नजर नहीं आ रहे होते तो क्या वे यूं दौड़-दौड़ कर उनके कंधे से कंधा मिलाने जा रहे होते? सो, ऐसी परिक्रमा को अपनी आंखों से देखने जाए बिना मैं कैसे रहता!
लेकिन हज़ार क़दम भी मैं दिग्विजय सिंह के साथ पैदल नहीं चला होउंगा कि दिल्ली-भोपाल की दूरबीन से उनकी परिक्रमा के आसपास लिपटी दिखने वाली सारा राजनीतिक सांवलापन पिघल कर नर्मदा की मंद-मंद लहरों में बह गया। इतने ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर सांस फुलाती धूल, पैर लीलती दलदली मिट्टी, खरोंच लगाती कंटीली झाड़ियों, पैर तोड़ते रेतीले ढूहों और घुटने-घुटने पानी से होते हुए गुजरना उतना रूमानी नहीं है, जितना तस्वीरों में लगता है। फिर यह कोई दो-चार क़दम चलने या दो-चार दिन बिताने की बात हो तो बात है। इसलिए परिक्रमा के पहले घंटे में ही मेरे मन पर यह सवाल दस्तक देने लगा कि अगले महीने 71 साल के हो रहे दिग्विजय के मन में अगर अपनी राजनीतिक ज़मीन पुनर्स्थापित करने की लालसा इतना ज़ोर भी मार रही थी तो उन्हें इसके लिए इतनी दुरूह नर्मदा-परिक्रमा जैसा झंझट मोल लेने की क्या ज़रूरत थी? इतनी हरफ़नमौलाई तो उनमें आज भी है कि वे बिना हिले-डुले कांग्रेसी सियासत का अपना हिस्सा अपने नाम कराने की शतरंज बिछा लें। मैं पूरी तरह आश्वस्त हूं कि इसके लिए उन्हें नर्मदा किनारे बाबा बन कर घूमने की कोई ज़रूरत नहीं थी।
अगर फिर भी वे ऐसा कर रहे हैं तो इसका एक ही मतलब है। दिलखींचू बाहरी मुस्कान के साथ भीतर की सियासी बेदर्दी से आहिस्ता-आहिस्ता किसी की भी राजनीतिक तरक़्की की रफ़्तार क़लम करने की महारत रखने के लिए मशहूर रहे दिग्विजय की बुनियादी जीवन-शिराओं में कहीं कोई ऐसा आसमानी अंश है, जो अब उनकी पूरी विचार-प्रक्रिया पर हावी होता जा रहा है। वे भीतर से धार्मिक हैं, यह मैं बरसों से जानता हूं। अपनी राजनीतिक जीवन यात्रा के चढ़ाव चढ़ने के लिए उनके किए कई धार्मिक अनुष्ठानों की मुझे निजी जानकारी है। व्रत, त्यौहारों और मुहूर्तों में उनकी गहरी आस्था तक़रीबन चालीस वर्षों में मैं ने चालीसों बार देखी है। बावजूद इस सबके, मैं मानता हूं कि, नर्मदा की परिक्रमा का विचार दिग्विजय के दिमाग़ में महज राजनीतिक कारणों से आ ही नहीं सकता। जो भीतरी संकल्प इस यात्रा के लिए चाहिए, वह किसी के भी, और खा़सकर दिग्विजय के मन में, तब तक जन्म ही नहीं ले सकता, जब तक सबके संसार का रचियता कोई नई रचना न रच रहा हो।
मैं यह भी जानता हूं कि नर्मदा मैया दिग्विजय को किसी संन्यास की राह पर नहीं ले जा रही है। अपनी परिक्रमा पूरी करने के बाद वे हिमालय कतई नहीं जाने वाले हैं। लेकिन इतना ज़रूर मैं देख रहा हूं कि नर्मदा के उद्गम स्थल पर जिस दिन यह परिक्रमा पूरी होगी, दिग्विजय का राजनीतिक नज़रिया इस क़दर सूफ़ियाना हो चुका होगा कि लोग ताज्जुब करेंगे। नर्मदा परिक्रमा से उपजी आंतरिक दृढ़ता उनकी सियासी-शैली को परिष्कृत करेगी तो सबका भला होगा--मध्यप्रदेश का, कांग्रेस का, उनका खुद का और उनके अनुगामियों का। स्कंद पुराण, वायु पुराण, रामायण और महाभारत ने नर्मदा के बारे में हमें जितना बताया है, अगर उसका ज़रा-सा भी अंश परिक्रमा-पथ पर निकले लोगों में जा घुलता हो तो दिग्विजय अब बाकी के दिन मार-काट की सियासी दुनिया से दूर अपने राजनीतिक धर्म का पालन करने में बिताएंगे। ध्यान-मग्न शिव की तपस्या से उपजे पसीने की जिन बूंदों ने नर्मदा को आकार दिया है, कहते हैं कि उसका मर्म कलियुगी कुहासे को काटने का ऐसा माद्दा रखता है, जिसे नर्मदा किनारे साधना-रत चंद पहुंचे हुए संत ही जानते हैं।
नर्मदा की इस परिक्रमा में दिग्विजय के साथ हर रोज़ सैकड़ों लोग लगातार चल रहे हैं। इनमें से बहुत-से पहले दिन से उनके साथ हैं और यात्रा की समाप्ति तक साथ चलते रहेंगे और बहुत-से ऐसे हैं, जो रोज़ पहुंचते हैं, चंद घंटे या एकाध दिन साथ चलते हैं और चले जाते हैं--जैसे मैं। मगर परिक्रमा के आरंभ से अंत तक उनके साथ चलने वाले दो चेहरों का ज़िक्र किए बिना यह रेवा-खंड अधूरा है। पहली हैं दिग्विजय की धर्म-पत्नी अमृता। पत्रकार के नाते उन्होंने राजनीति देखी-परखी है, मगर वे सियासत की उस सख़्त ज़मीन पर कभी नहीं चलीं, जिस पर दिग्विजय चलते रहे हैं। सो, अपने राजनीतिक-पति के इस आध्यात्मिक सफ़र में साथ देने के उनके जज़्बे का मैं तो सचमुच अभिनंदन करता हूं। नर्मदा परिक्रमा दिग्विजय के लिए जितनी दुरूह है, अमृता के लिए उससे कई गुना ज़्यादा दूभर है। मगर लोकगीत गाती महिलाओं का समूह जब अमृता के साथ क़दम बढ़ाता है तो नर्मदा की लहरें उन पर निछावर-सी होने लगती हैं।
दूसरे हैं रामेश्वर नीखरा। परिक्रमा में जब वे मिले तो मुझे अंदाज़ नहीं था कि वे शुरू से पैदल चल रहे हैं और यात्रा की समाप्ति तक चलते रहेंगे। नीखरा जी को मैं तब से जानता हूं, जब वे 1980 में पहली बार लोकसभा में चुन कर आए थे। उन सरीखे भले-मानस सांसद आजकल कम ही दिखते हैं। उम्र में वे दिग्विजय सिंह से सात-आठ महीने बड़े ही हैं और उनके हृदय की शल्य-चिकित्सा भी हो चुकी है। बावजूद इसके नर्मदा परिक्रमा में उनका उत्साह देख कर मैं तो दंग रह गया। मैं ने नीखरा जी को पूरी शिद्दत, मगर उतनी ही गरिमा के साथ, कई बरस दिग्विजय-विरोधी राजनीति करते भी देखा है। सो, दोनों की आध्यात्मिक-गलबहियां भी मेरे लिए सुखद आश्चर्य का मसला थीं। दिग्विजय की यात्रा ने इतना तो किया ही है कि समूचे मध्यप्रदेश के अलग-अलग कांग्रेसी-समूहों को परिक्रमा के आंगन में एक साथ ला खड़ा किया है। यह भाव परिक्रमा के बाद अगर नहीं बिखरा तो अगले साल भोपाल के आसमान का रंग आज जैसा नहीं रहेगा। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)
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