गुजरात में नरेंद्र मोदी को पसीना-पसीना कर देने के बाद इस पूरे साल राहुल गांधी को शिलांग, कोहिमा, अगरतला, बंगलूर, ऐजवाल, रायपुर, भोपाल और जयपुर के विधानसभा भवनों पर अपनी छाप छोड़ने के लिए दिन-रात एक करने हैं। ठीक है कि पिछले दो बरस से कांग्रेस का पूरा कामकाज एक तरह से राहुल ही पूरी तरह देख रहे थे लेकिन तकनीकी तौर पर 2018 में होने वाले आठ विधानसभा चुनाव वे पहली बार अध्यक्ष के नाते कांग्रेस को लड़ा रहे होंगे। चुनावों में जा रहे राज्यों में कर्नाटक, मेघालय और मिजोरम को छोड़ कर कहीं भी कांग्रेस की सरकारें नहीं हैं। सो, राहुल को इन राज्यों में अपनी सरकारें अमित शाह की तिकड़मों से सहेज कर रखनी हैं, नगालैंड और त्रिपुरा में अपना वजूद यथासंभव पुख़्ता करना है और मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी को पटकनी देनी है।
अगर यह हो गया तो कांग्रेस 2019 की तरफ़ सरपट दौड़ने लगेगी। मेघालय, नगालैंड और त्रिपुरा में चुनाव फरवरी के आख़ीर में होंगे, कर्नाटक में मई की शुरुआत में और मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और मिजोरम में दिसंबर के मध्य में। कुल 964 विधायक इन चुनावों में चुन कर आने हैं। इनमें 289 आदिवासी होंगे और 125 दलित। यानी क़रीब 48 प्रतिशत। इसलिए कांग्रेस के पारंपरिक दलित-आदिवासी आधार की कसौटी पर खरा उतरने का इम्तहान भी राहुल को इस साल देना है।
राहुल गांधी के अध्यक्ष बनने के बाद खुद के कायाकल्प का मंत्रोच्चार प्रारंभ करने की जिस घड़ी का कांग्रेस इतज़ार कर रही थी, वह कल दोपहर से शुरू हो जाएगी। सूर्य देवता रविवार को उत्तरायण हो जाएंगे और उनके मकर राशि में प्रवेश करते ही कांग्रेस का यज्ञोपवीत संस्कार भी शुरू हो जाएगा। यह साफ है कि राहुल सोच-समझ कर चरणबद्ध तरीके से कांग्रेस का नया आकार गढ़ना चाहते हैं। उन्होंने इसके लिए जून तक का वक़्त तय कर रखा है। तब तक विधानसभा चुनावों का एक दौर पूरा हो चुका होगा और हिंदी हृदय-भूमि में चुनावी-दुंदुभी सुनाई दे रही होगी। यह संधि-काल आते-आते राहुल गांधी की कांग्रेस का चेहरा भी देश के सामने होगा।
यही चेहरा तय करेगा कि 2019 में मतदाता उस पर कितना रीझते हैं। कांग्रेस की नीतियों को तो वे दशकों से परखते रहे हैं। उसके सिद्धांतों को भी वे अरसे से जानते-मानते हैं। राहुल के इरादों और नेकनीयती पर भी मतदाताओं का भरोसा पिछले दिनों तेज़ी से बढ़ा है। मगर वे राहुल के संदेश को पगडंडियों तक पहुंचाने वाले हरकारों के मंसूबों और नीयत का आकलन करने के इंतज़ार में हैं। राहुल जिन चेहरों को अपना संदेशवाहक बनाएंगे, उनकी प्रवृत्तियां कांग्रेस का भविष्य तय करेंगी। इसलिए उनके चयन की यह अग्नि-परीक्षा राहुल को क़दम-ब-क़दम फूंक-फूंक कर पार करनी होगी।
नरेंद्र मोदी और अमित शाह के सियासी-हथकंडों का सामना करने के लिए कांग्रेस को तपे-तपाए चेहरों की भी ज़रूरत है और ऊर्जा से लबरेज़ मुट्ठियों की भी। इस वक़्त पूरे देश में कांग्रेस के सिर्फ़ 766 विधायक बचे हैं। भाजपा के विधायकों की संख्या इससे तक़रीबन दुगनी है। इस लिहाज़ से इस साल हो रहे आठ राज्यों के चुनाव बेहद अहम हैं। मोदी ने देश को विकास के एक नकली आख्यान में जोत दिया है। इस थोथे विकास की परतें उधेड़ने के लिए कांग्रेस को चौपाल-चौपाल जाना होगा। यह काम खुरदुरे हाथों से ही मुमकिन है। नफ़े को तोलने के काम में लगे चिकने-चुपड़े चेहरों के भरोसे यह नहीं होगा। सेंधमारों के भरोसे तो यह और भी नहीं होगा। सो, यह राहुल के चौकन्नेपन के इम्तहान का दौर भी है।
मैं मानता हूं कि राहुल में इन तमाम खंदकों को लांघने का माद्दा है। वे वैचारिक असहमति की भाषा और निजी महत्वाकांक्षाओं के पूरा न होने से उपजी भाषा के बीच फ़र्क करना जानते हैं। वे जानते हैं कि अपना कमरा बंद कर के बैठे रहने वाले कभी मंज़िल पर नहीं पहुंचते हैं। इसलिए वे वर्षों से कांग्रेस के दरवाज़े खोलने की जुगत कर रहे हैं। जिस दिन यह काम पूरा हो जाएगा, कांग्रेसी-बहाव नहर-नहर पहुंच जाएगा। मैं उम्मीद करता हूं कि राहुल दरवाज़ों पर जमे पहरेदारों के भाले छीन पाएंगे। वे खुद का खेत खाने वाली बागड़ उखाड़ फेंकेंगे।
मोदी का विजय-जुलूस अब थमने तो लगा है, लेकिन उसके अपने-आप तिरोहित हो जाने की कल्पना व्यर्थ साबित होगी। यह ठीक है कि मोदी संसदीय राजनीति के जटिल समीकरणों को नहीं समझ पा रहे हैं, लेकिन इस वज़ह से उनके जल्दी वानप्रस्थगामी होने की उम्मीद पालना भी व्यर्थ ही साबित होगा। क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की प्रतिस्पर्धी महत्वाकांक्षा के इस युग में राहुल को अब से ले कर 2019 तक एक लंबा रास्ता पार करना है। यह रास्ता पार करने के लिए उनके पास पंद्रह महीने ही तो बचे हैं। संघर्षों के जेठ की और भी कड़ी धूप राहुल को अभी झेलनी है। इसके लिए उन्हें अपने आसपास बबूल के नहीं, गुलमोहर के पेड़-पौधे लगाने होंगे। कांग्रेसी-सत्ता के सावन में हरे-भरे हुए पेड़ों की टहनियां भविष्य का बोझ पता नहीं कितना संभाल पाएं! इस बीहड़ रास्ते पर तो राहुल को उन कहारों की ज़रूरत पड़ेगी, जिनके पैरों के तलवे चल-चल कर सख़्त हो चुके हों और जिनके कंधे रंगड़ खा-खा कर मज़बूत बन गए हों।
भाजपा इस बात पर इतरा सकती है कि देश की 68 प्रतिशत आबादी आज उसके राज-तले है, देश का 78 प्रतिशत भू-भाग आज उसके राज-तले है और देश के सकल घरेलू उत्पाद का 69 प्रतिशत जहां-जहां से आता है, वहां-वहां उसका झंडा लहरा रहा है। मगर शासन करने जो तमीज़ होती है, उसे भाजपा भूल चुकी है। ग़रीब और लाचार व्यक्ति को अपने फ़ैसलों की कसौटी बनाने की जिस गांधीवादी सीख को कांग्रेस ने अपनाया, पिछले साढ़े तीन साल में उसे भाजपाई कारसेवकों ने अपनी कुदालियों से खंड-खंड कर दिया है। राहुल गांधी पर एक एंसी कांग्रेस बनाने का ऐतिहासिक ज़िम्मा है, जो इन कुदालों से भारत को बचा सके। छह महीने में कांग्रेस को जो विश्वसनीय चेहरा वे देना चाहते हैं, उसे कोई बाहरी काजल, मस्करा, आई-शैडो और लिपग्लोज़ नहीं सजा सकता। उसकी सुंदरता तो भीतर से ही जन्म लेगी।
इसके लिए राहुल को एकदम नए सिरे से विचारवान, संस्कारवान, भाव-भरी और श्रम-जीवी कांग्रेस की रचना करनी होगी। सोचना होगा कि वे कौन-सी चीजें हैं, जो रास्ते में कहीं छूट गई हैं और कैसे उन्हें फिर कांग्रेसी शिराओं में पिरोया जाए। उन्हें पारंपरिक लय पर आधारित एक नए संगीत की रचना करनी है। उन्हें सच्चाई के आंगन और मैदान तक नहीं, सच्चाई के बीहड तक पहुंचना है। उन्हें कांग्रेसी तालाब को ऐसे दरिया में बदलना है, जो दूर तक पहुंच सके। राहुल को कांग्रेस के बुनियादी मूल्यों का धर्म-पुत्र बन कर खड़ा होना है। जिस दौर में सियासी-नाखूनों की लंबाई बेतरह बढ़ती जा रही है, उस दौर में राहुल को देश के बेज़ुबानों की जु़बान बनना है। उत्तरायण का सूर्य उन्हें यह शक्ति दे! (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)
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