Saturday, January 20, 2018

बंद होते रोशनदानों के दौर का हठ-योग


सुमित्रानंदन पंत की तरह मैं ने अपने छुटपन में छुप कर न तो पैसे बोए और न यह सोचा कि पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे। सो, न तो मैं ने हताश हो कर बाट जोही और न मेरे सपने तब धूल हुए। सपने तो मेरे अब धूल हो रहे हैं। ज़िंदगी भर क़लम के पसीने की एक-एक बूंद से मिली जो एक-एक पाई मेरी गुल्लक में इकट्ठी हुई थी, इन दिनों मैं मरे मन से उसकी अंतिम आहुतियां राष्ट्रवाद के हवन में डाल रहा हूं।
नरेंद्र भाई मोदी के रायसीना-पर्वत पर अवतरण के पहले अपनी राष्ट्रवादी-वर्दी की धुलाई, कलफ़ और इस्तरी पर मुझे कभी इतना ध्यान नहीं देना पड़ा। वह मेरे अंतरमन से अ-प्रयास लिपटी हुई थी। मगर अब मुझे उसे स-प्रयास अपने ज़िस्म पर लिपटाए रखना पड़ता है। इस तरह कि उसकी कड़क क्रीज़ दूर से ही सब को ऐसे नज़र आ जाए कि उनके हाथ सलामी में उठ जाएं। मेरे अंतरमन की सहज धड़कन अब एक ज़िस्मानी फड़कन बन गई है। सुगम-स्वचलित श्वांस-क्रियाओं के चलते अपनी रवानी में बह रहा मेरा शरीर अब हर रोज़ राष्ट्रवाद के जिम में जाए बिना स्वस्थ ही नहीं रह पाता है।
11 साल पहले जब मैं ने पत्रकारिता का नियमित रोज़गार छोड़ा और कांग्रेस पार्टी की स्वांतः-सुखाय बेगारी शुरू की तो मन में अजब हुलस थी। सोचा था, रहने को मक़ान है, चलने को गाड़ी है और चौथाई सदी की पत्रकारिता के भरोसे लिख-पढ़ कर चना-चबैना भी चल जाएगा। तब किसे पता था कि राष्ट्रवाद का ऐसा उद्दाम दौर भी आएगा कि लिख कर कुछ कमाने की सोचना तो दूर, अपने लिखे को छपवाना तक मुश्क़िल हो जाएगा। यह तो भला हो हरिशंकर व्यास जी का वे जस-का-तस छाप देते हैं। वरना राष्ट्रवाद के बादल ऐसे फट पड़े हैं कि किसी के शब्दों को ज्यो-का-त्यों धर देने में अच्छे-अच्छों को कंपकंपी छूट रही है।
कलियुगी राजनीति का यह चरण शुरू होने के बाद मैं ने दो-ढाई साल तक अपने एक और मित्र के अख़बार में भी नियमित साप्ताहिक लेखन किया। इस मित्र की पीठ सुनती है कि डेढ़ साल तक वह बिना आगा-पीछा देखे मेरे लेख छापता रहा और मुझे अहसास भी नहीं होने दिया कि वह कितने दबावों के बीच डटा हुआ है। लेकिन अगले कुछ महीनों में उसने आदरपूर्वक यह संकेत देने शुरू कर दिए कि अगर मैं चाहूं तो ग़ैर-सियासी लेखन तो उसके अख़बार के पन्नों पर जारी रख सकता हूं, पर राजनीतिक चौके-छक्कों की गेंदों से लहुलुहान होते रहना अब उसके बस में नहीं। हम दोनों ने अपने पेशेवर-रिश्ते को एक ख़ूबसूरत मोड़ दे कर अजनबी बन जाना तय कर लिया। उस अख़बार में लिखने वाले और भी कुछ लोग जाते रहे।
अब जा कर मुझे भवानी दादा का दर्द समझ आया। हुज़ूरों के लिए क़िसिम-क़िसिम के गीत बेचने का हुनर भवानी प्रसाद मिश्र जानते होते तो उनके गीतों की जगह वे ख़ुद पहाड़ी चढ़ गए होते। क़लम और दवात ले कर हर क्षण फ़रमाइशी शब्द कतारबद्ध करने को कतार में लगे लोगों का यह भयावह युग तो आज आया है, मगर भवानी दादा के ये आंसू तो तीसियों साल पहले लुढ़कते हमने देखे थे कि ‘‘है गीत बेचना वैसे बिलकुल पाप, क्या करूं मगर लाचार, हार कर गीत बेचता हूं, जी हां हुजू़र मैं गीत बेचता हूं’’। राष्ट्रवाद एक नए तरह की क़लम-फ़रोशी को जन्म देने पर भी मजबूर करता है, यह समाज-विज्ञानियों ने पहले शायद इस तरह नहीं समझा होगा। सत्ता के भाले पहले शायद इतने पैने नहीं होते थे। 
राजनीति में जब मैं आया तो खूब जानता था कि वह एक अंधेरी कोठरी है। मगर रोशनदानों की भूमिका पर अपने अथाह विश्वास की वज़ह से मैं ने छलांग लगा दी। बीच-बीच की विचलन के बावजूद इन रोशनदानों पर मेरा विश्वास अब भी डिगा नहीं है। मगर पत्रकारिता ऐसी अंधेरी कोठरी कभी नहीं थी, जैसी आज है। उस पर भी दुर्भाग्य यह है कि इसके बचे-खुचे रोशनदान भी बंद होते जा रहे हैं। खुली खिड़कियों को बंद करने के लिए आंधियों ने कब कोई कोताही रखी है? लेकिन खड़कती खिड़कियों ने भी आंधियों का सामना करने में कब अपना सब-कुछ नहीं झोंका? अपना-अपना धर्म दोनों ने हमेशा निभाया। यह तो पहली बार हो रहा है कि पत्रकारीय-बस्ती के रहवासी खुद ऐसे घर बनाने में जुट गए हैं, जिसकी किसी दीवार में कोई रोशनदान न हो। 
अब यह मानने वाले इक्का-दुक्का ही बचे हैं कि लोकतंत्र सार्वजनिक विचार का तंत्र है। लोकतंत्र में जन महत्वपूर्ण है या व्यक्ति? लेकिन आज लोकतंत्र के सभी स्तंभ व्यक्ति-पूजा के मजीरे बजा रहे हैं। हर स्तंभ एक-दूसरे पर गिर कर जनतंत्र की इमारत को पलीता लगा रहा है। हम इतिहास के अभागों की तरह सूनी आंखों से ताक रहे हैं। सफेद घोड़े पर सवार होकर आने वाले पता नहीं किस देवदूत के आगमन की आस लगाए बैठे हैं? हम अपने समय की चेतावनी को समझना ही नहीं चाहते। हम जानबूझ कर अपनी आंखें फेरे बैठे हैं। एक जमाना था कि हमारे पुरखे नारे लगा कर भी लोकतंत्र बचा ले जाते थे। तब नारों में भी इतना दम था। अब हमारे नारों में वह दम नहीं है, और अगर है भी, तो हम नारे तक लगाने को तैयार नहीं हैं। जन-नारों को बुलंद करने के तमाम लाउडस्पीकर उनकी गोद में हैं, जो खुद नए राष्ट्रवाद के हंटरबाज़ों की गोद में पड़े हैं।
बावजूद इसके कि यह आवाज़ अशोक-वाटिका से बाहर जाना मुश्क़िल है, मैं यह अरण्य-रोदन जारी रखना चाहता हूं। इसलिए कि रास्ते सफ़र चालू रखने की आवाज़ देना कभी बंद नहीं करते। रास्तों की आवाज़ को जानबूझ कर अनसुना करने का काम सियासत भले कर ले, इंद्रसभाई-पत्रकारिता भले कर ले, आम-जन कभी नहीं कर सकते। ये आम-जन चप्पे-चप्पे से चिपके हैं। वे सियासत की नींव में हैं। वे पत्रकारिता के गर्भ-गृह में हैं। उन्हें देखने की दूरबीन आपके पास नहीं है तो कोई क्या करे? अंततः वे ही समय आने पर चेतना का ऐसा संसार रचते हैं, जो प्रलय से हमें बचाता है। ऐसा हर बार हुआ है। इसलिए ऐसा हर बार होगा।

दुनिया की सारी कालजयी गाथाएं पीड़ाओं ने लिखी हैं। मगर सियासत के शब्दकोष में पीड़ा, संवेदना, करुणा जैसे शब्द अब नहीं होते। इन शब्दों का मर्म समझने वाले राजनीति के अजायबघरों में भेज दिए गए हैं। इन शब्दों का अर्थ समझाने वाले खुद ही इनका अर्थ भूल गए हैं। कमज़र्फ़ी के इस युग में किसी और के भरोसे बैठे रहने वाले बैठे ही रह जाएंगे। तपिश सहते मुल्क़ को अगर आप भी अपने दामन की हवा नहीं देंगे तो कौन देगा? आसमान से उतर कर आने वाले किसी पैगंबर का इंतज़ार करने के दिन गए। जब सारे नम्र-निवेदन बेकार जाने लगें तो जितनी जल्दी हो समझ लेना चाहिए कि अब हठ-योग के दिन आ गए हैं। माहौल बनाया जा रहा है कि जो दिखाएंगे कि वे ज़िंदा हैं, वे मारे जाएंगे। कोई माने या न माने, लेकिन चिरंतन-सत्य यही है कि जो दिखाएंगे कि वे ज़िंदा हैं, अंततः वे ही ज़िंदा रहेंगे। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)

No comments: